बुधवार, 26 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२३)


||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२३)

स्थूल शरीर का वर्णन 

मज्जास्थिमेदःपलरक्तचर्म-
त्वगाह्वयैर्धातुभिरेभिरन्वितम् ।
पादोरुक्षोभुजपृष्ठमस्तकै
रङ्गैरुपाङ्गैरुपयुक्तमेतत् ॥ ७४ ॥
अहंममेति प्रथितं शरीरं
मोहास्पदं स्थूलमितीर्यते बुधैः ।

( मज्जा,अस्थि,मेद,मांस,रक्त चर्म और त्वचा- इन सात धातुओं से बने हुए तथा चरण, जंघा, वक्ष:स्थल (छाती) भुजा, पीठ और मस्तक आदि अङ्गोपाङ्गों से युक्त “ मैं और मेरा “ रूप से प्रसिद्ध इस मोह के आश्रयरूप देह को विद्वान लोग स्थूल शरीर कहते हैं )

नभोनभस्वद्दहनाम्बुभूमयः
सूक्ष्माणि भूतानि भवन्ति तानि ॥ ७५ ॥
परस्परांशैर्मिलितानि भूत्वा
स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः ।
मात्रास्तदीया विषया भवन्ति
शब्दादयः पञ्च सुखाय भोक्तुः ॥ ७६ ॥

(आकाश,वायु, तेज,जल और पृथिवी—ये सूक्ष्म भूत हैं | इनके अंश परस्पर मिलने से स्थूल होकर स्थूलशरीर के हेतु होते हैं और इन्हीं की तन्मात्राएं भोक्ता जीव के भोगरूप सुख के लिए शब्दादि पांच विषय हो जाती हैं)

य एषु मूढा विषयेषु बद्धा 
रोगारुपाशेन सुदुर्दमेन ।
आयान्ति निर्यान्तध ऊर्ध्वमुच्चैः स्व-
कर्मदूतेन जवेन नीताः ॥ ७७ ॥

( जो मूढ़ इन विषयों में रागरूपी सुदृढ़ एवं विस्तृत बन्धन से बंध जाते हैं, वे अपने कर्मरूपी दूत के द्वारा वेग से प्रेरित होकर अनेक उत्तमाधम योनियों में आते जाते हैं)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२२)

|श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.२२)
प्रश्न विचार
यस्त्वयाद्य कृतः प्रश्नौ वरीयाञ्छास्त्रविन्मतः ।
सूत्रप्रायो निगूढार्थो ज्ञातव्यश्च मुमुक्षुभिः ॥ ६९ ॥
([गुरु कहते हैं कि] तूने आज जो प्रश्न किया है, शास्त्रज्ञ जन उसको बहुत श्रेष्ठ मानते हैं | वह परे: सूत्ररूप (संक्षिप्त) है, तो भी गंभीर अर्थयुक्त और मुमुक्षुओं के जानने योग्य है)
श्रृणुष्वावहितो विद्वन्यन्मया समुदीर्यते ।
तदेतच्छ्वणात्सद्यो भवबन्धाद्विमोक्ष्यसे ॥ ७० ॥
(हे विद्वन् ! जो मैं कहता हूँ,सावधान होकर सुन ;उसको सुनाने से तू शीघ्र ही भवबन्धन से छूट जाएगा)
मोक्षस्य हेतुः प्रथमो निगद्यते
वैराग्यमत्यन्तमनित्यवस्तुषु ।
ततः शमश्चापि दमस्तितिक्षा
न्यासः प्रसक्ताखिलकर्मणां भृशम् ॥ ७१ ॥
ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्त्व-
ध्यानं चिरं चित्यनिरन्तरं मुनेः ।
ततोऽविकल्पं परमेत्य विद्वा-
निहैव निर्वाणसुखं समृच्छति ॥ ७२ ॥
(मोक्ष का प्रथम हेतु अनित्य वस्तुओं में अत्यन्त वैराग्य होना कहा है, तदनंतर शम, दम,तितिक्षा और सम्पूर्ण आसक्तियुक्त कर्मों का सर्वथा त्याग है | तदुपरांत मुनि को श्रवण, मनन और चिरकाल तक नित्य निरन्तर आत्म-तत्त्व का अध्यान करना चाहिए | तब वह विद्वान परम निर्विकल्पावस्था को प्राप्त होकर निर्वाण सुख को पाता है)
यद्वोद्धव्यं तवेदानीमात्मानात्मविवेचनम् ।
तदुच्यते मया सम्यक् श्रुत्वात्मन्यवधारय ॥ ७३ ॥
(जो आत्मानात्मविवेक अब तुझे जानना चाहिए वह मैं समझाता हूँ, उसे तू भलीभाँति सुनकर अपने चित्त में स्थिर कर)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


मंगलवार, 25 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.21)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.21)
अपरोक्षानुभव की आवश्यकता
न गच्छति विना पानं व्याधिरौषधशब्दत: |
विनापरोक्षानुभवं ब्रह्मशब्दैर्न मुच्यते ||६४||
(औषध को बिना पिए केवल औषध – शब्द के उच्चारणमात्र से रोग नहीं जाता, इसी प्रकार अपरोक्षानुभव बिना, केवल ”ब्रह्म, ब्रह्म” कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता)
अकृत्वा दृश्यविलयमज्ञात्वा तत्त्वमात्मन: |
बाह्यशब्दै: कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम् ||६५||
(बिना दृश्य-प्रपञ्च किये और आत्मतत्त्व को जाने,केवल बाह्य शब्दों से,जिनका फल केवल उच्चारणमात्र ही है, मनुष्यों की मुक्ति कैसे हो सकती है)
अकृत्वा शत्रुसंहारमगत्वाखिलभूश्रियम् |
राजाहमिति शब्दान्नो राजा भवतुमर्हति ||६६||
( बिना शत्रुओं का वध किये और बिना सम्पूर्ण पृथिवीमण्डल का ऐश्वर्य प्राप्त किये, “मैं राजा हूँ”-ऐसा कहने से ही कोई राजा नहीं हो जाता)
आप्तोक्तिं खननं तथोपरिशिलाद्युत्कर्षणं स्वीकृतिं
निक्षेप: समपेक्षते न हि बही: शब्दैस्तु निर्गच्छति |
तद्वद् ब्रह्मविदोपदेशमननध्यानादिभिर्लभ्यते
मायाकार्यतिरोहितं स्वममलं तत्त्वं न् दुर्युक्तिभि : ||६७||
( पृथ्वी में गडे हुए धन को प्राप्त करने के किये जैसे प्रथम किसी विश्वसनीय पुरुष के कथन की और फिर पृथ्वी को खोदने, कंकड-पत्थर आदि को हटाने तथा प्राप्त हुए धन को स्वीकार करने की आवश्यकता होती है- कोरी बातों से वह बाहर नहीं निकलता, उसी प्रकार समस्त मायिक प्रपंच से शून्य निर्मल आत्मतत्त्व भी ब्रह्मविद् गुरु के उपदेश तथा उसके मनन और निदिध्यासनादि से ही प्राप्त होता है, थोथी बातों से नहीं)
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भवबन्धविमुक्तये |
स्वैरेव यत्न: कर्तव्यो रोगादाविव पण्डितै : ||६८||
( इस लिए रोग आदि के समान भव-बन्ध की निवृत्ति के लिए विद्वान् को अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर स्वयं ही प्रयत्न करना चाहिए)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


सोमवार, 24 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.20)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.20)
आत्मज्ञान का महत्त्व
न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्यया |
ब्रह्मात्वैकबोधेन मोक्ष: सिद्धयति नान्यथा || ५८||
(मोक्ष न योग से सिद्ध होता है, न सांख्य से, न कर्म से न विद्या से | वह केवल ब्रह्मात्यैक्य-बोध [ ब्रह्म और आत्मा की एकता के ज्ञान] से ही होता है और किसी प्रकार से नहीं)
वीणाया रूपसौन्दर्यं तंत्रीवादनसौष्ठवम् |
प्रजारञ्जन्मात्रं तन्न साम्राज्याय कल्पते ||५९||
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम् |
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये ||६०||
(जिस प्रकार वीणा का रूप-लावण्य तथा तंत्री को सुन्दर बजाने का ढंग मनुष्यों के मनोरंजन का ही कारण होता है, उससे कुछ साम्राज्य की प्राप्ति नहीं हो जाती; उसी प्रकार विद्ववानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र-व्याख्यान की कुशलता और विद्वत्ता भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं)
अविज्ञाते परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला |
विज्ञातेऽपि परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला ||६१||
( परमतत्त्व को यदि न जाना तो शास्त्राध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्व को जान लिया तो भी शास्त्राध्ययन निष्फल [अनावश्यक] ही है)
शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम् |
अत: प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञातत्त्वमातन: ||६२||
(शब्दजाल तो चित्त को भटकाने वाला महान वन है, इस लिए किन्हीं तत्त्वज्ञानी महात्मा से प्रयत्नपूर्वक आत्मतत्त्व को जानना चाहिए)
अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रह्मज्ञानौषधं विना |
किमु वेदैश्चशास्त्रैश्च किमु मंत्री किमौषधैः ||६३||
( अज्ञानरूपी सर्प से डसे हुए को ब्रह्मज्ञानरूपी औषधी के बिना वेद से शास्त्र से, मन्त्र से और औषध से क्या लाभ ?)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


रविवार, 23 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१९)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.१९)

स्व-प्रयत्न की प्रधानता

ऋणमोचनकर्तार: पितु: सन्ति सुतादय: |
बन्धमोचनकर्ता तु स्वस्मादन्यो न कश्चन ||५३||

(पिता के ऋण को चुकाने वाले तो पुत्र आदि भी होते हैं, परन्तु भव-बन्धन से छुडाने वाला अपने से भिन्न और कोई नहीं है)

मस्तकन्यस्तभारादेर्दु:खमन्यैर्निवार्यते |
क्षुधादिकृतदु:खं तु विना स्वेन न केनचित् ||५४||

(जैसे सिरपर रखे हुए बोझ का दु:ख और भी दूर कर सकते हैं, परन्तु भूख-प्यास आदि का दु:ख अपने सिवा और कोई नहीं मिटा सकता )

पथ्यमौषधसेवा च क्रियते येन रोगिणा |
आरोग्यसिद्धिर्दृष्टास्य नान्यानुष्ठितकर्मणा ||५५||

(अथवा जैसे जो रोगी पथ्य और औषध का सेवन कर्ता है इसी को आरोग्य-सिद्धि होती ह्देखी जाती है, किसी और के द्वारा किये हुए कर्मों से कोई निरोग नहीं होता )

वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा
स्वेनैव वेद्यं ननु पण्डितेन |
चन्द्रस्वरूपं निजक्षुषैव
ज्ञातव्यमन्यैरवगम्यते किम् ||५६||

(वैसे ही विवेकी पुरुष को वस्तु का स्वरूप भी स्वयं अपने ज्ञाननेत्रों से ही जानना चाहिए [किसी अन्य के द्वारा नहीं] | चंद्रमा का स्वरूप अपने ही नेत्रों से देखा जाता है, दूसरों के द्वारा क्या जाना जा सकता है ? )

अविद्याकामकर्मादिपाशबन्धं विमोचितुम् |
क: शक्नुयाद्विनात्मानं कल्पकोटिशतैरपि ||५७||

(अविद्या, कामना और कर्मादि के जाल के बंधनों को सौ करोड कल्पों में भी अपने सिवा और कौन खोल सकता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१८)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.१८)

प्रश्न-निरूपण

शिष्य उवाच

कृपया श्रूयतां स्वामिन्प्रश्नोऽयं क्रियते मया |
तदुत्तरमहं श्रुत्वा कृतार्थ: स्यां भवन्मुखात् ||५०||

(शिष्य- हे स्वामिन् ! कृपया सुनिए; मैं यह प्रश्न करता हूँ | उसका उत्तर आपके श्रीमुख से सुनकर मैं कृतार्थ हो जाऊंगा )

को नाम बन्ध: कथमेष आगत:
कथं प्रतिष्ठास्य कथं विमोक्ष: |
कोऽसावनात्मा परम: क आत्मा
तयोर्विवेक: कथमेतदुच्यताम् ||५१||

(बन्ध क्या है ? यह कैसे हुआ? इसकी स्थिति कैसे है ? और इससे मोक्ष कैसे मिल सकता है ? अनात्मा क्या है ? और उनका विवेक (पार्थक्य-ज्ञान)कैसे होता है? कृपया यह सब कहिये)

शिष्य - प्रशंसा

श्रीगुरुरुवाच

धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि पावित्र ते कुलं त्वया |
यद्विद्याबन्धमुक्त्या ब्रह्मीभवितुमिच्छसि ||५२||

(गुरु – तू धन्य है, कृतकृत्य है, तेरा कुल तुझ से पवित्र हो गया,क्योंकि तू अविद्यारूपी बन्धनसे छूटकर ब्रह्मभाव को प्राप्त होना चाहता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१७)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.१७)
उपदेश विधि
वेदान्तार्थविचारेण जायते ज्ञानमुत्तमम् |
तेनात्यंतिकसंसारदु:खनाशो भवत्याणु ||४७||
वेदान्त-वाक्यों के अर्थ का विचार करने से उत्तम ज्ञान होता है, जिससे फिर संसार-दु:ख का आत्यन्तिक नाश हो जाता है)
श्रद्धाभक्तिध्यानयोगान्मुमुक्षो-
र्मुक्तेर्हेतून्वक्ति साक्षाच्छ्रुतेर्गी: |
यो वा एतेष्वेव तिष्ठत्यमुष्य
मोक्षोऽविद्याकल्पिताद्देहबन्धात् ||४८||
(श्रद्धा,भक्ति,ध्यान और योग इनको भगवती श्रुति मुमुक्षु की मुक्ति के साक्षात् हेतु बतलाती है | जो इन्हीं में स्थित हो जाता है उसका अविद्या-कल्पित देह-बन्धन से मोक्ष हो जाता है)
अज्ञानयोगात्परमात्मनस्तव
ह्यनात्मबंधस्तत एव संसृति: |
तयोर्विवेकोदितबोधवह्नि-
रज्ञानकार्यं प्रदहेत्समूलम् ||४९||
(तुझ परमात्मा का अनात्म-बन्धन अज्ञान के कारण ही है और उसी से तुझको [जन्म-मरणरूप] संसार प्राप्त हुआ है | अत: उन ( आत्मा और अनात्मा) के विवेक से उत्पन्न हुआ बोधरूप अग्नि अज्ञान के कार्यरूप संसार को मूल सहित भस्म कर देगा)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१६)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.१६)
उपदेश विधि
तथा वदन्तं शरणागतं स्वं
संसारदावानलतापतप्तम् |
निरीक्ष्य कारुण्यरसार्द्रदृष्ट्या
दद्यादभीतिं सहसा महात्मा ||४३||
(इस प्रकार कहते हुए अपनी शरण में आये संसारानल-सन्तप्त शिष्य को महात्मा गुरु करुणामयी दृष्टि से देखकर सहसा अभय प्रदान करे)
विद्वान्स तस्मा उपसत्तिमीयुषे
मुमुक्षवे साधु यथोक्तकारिणे |
प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय
तत्त्वोपदेशं कृपयैव कुर्यात् ||४४||
(शरणागति की इच्छा वाले उस मुमुक्षु, आज्ञाकारी, शान्तचित्त,शमादिसंयुक्त साधु शिष्य को गुरु कृपया [इस प्रकार] तत्वोपदेश करे)
श्री गुरुरुवाच
मा भैष्ट विद्वन्स्तव नास्त्यपाय:
संसारसिन्धोस्तरणेऽस्त्युपाय: |
येनैव याता यतयोऽस्य पारं
तमेव मार्गं तव निर्दिशामि ||४५||
(गुरु—हे विद्वन् ! तू डर मत तेरा नाश नहीं होगा | संसार सागर से तरने का उपाय है | जिस मार्ग से यतिजन इसके पार गए हैं, वही मार्ग में तुझे दिखाता हूँ)
अस्त्युपायो महान्कश्चित्संसारभयनाशन: |
एन तीर्त्वा भवाम्भोधिं परमानन्दमाप्स्यसि ||४६||
(संसाररूपी भय का नाश करने वाला कोई एक महान् उपाय है जिसके द्वारा तू संसार-सागर को पार करके परमानन्द प्राप्त करेगा)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


बुधवार, 19 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१५)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.१५)
साधन चतुष्टय
ब्रह्मानन्दरसानुभूतिकलितै: पूतैःसुशीतै:सितै-
र्युष्मदवाक्कलशोज्झितैः श्रुतिसुखैर्वाक्यामृतै: सेचय |
संतप्तं भवतापदावदहनज्ज्वालाभिरेनं प्रभो
धन्यास्ते भवदीक्षणक्षणगाते: पात्रीकृता:स्वीकृता: ||४१||
(हे प्रभो ! प्रचण्ड संसार-दावानल की ज्वाला से तपे हुए इस दीन- शरणापन्न को आप अपने ब्रह्मानन्दरसानुभव से युक्त परमपुनीत , सुशीतल,निर्मल औरर वाक्-रूपी स्वर्णकलश से निकले हुए श्रवणसुखद वचनामृतों से सींचिये [अर्थात् इसके ताप को शान्त कीजिये] | वे धन्य हैं जो आपके एक क्षण के करुणामय दृष्टिपथ के पात्र होकर अपना लिए गए हैं)
कथं तरेयं भवसिन्धुमेतं
का वा गतिर्मे कतमोऽस्त्युपाय: |
जाने न किञ्चित्कृपयाव मां भो
संसारदु:खक्षतिमातनुष्व ||४२||
( ‘मैं इस संसार-समुद्र को कैसे तरूंगा? मेरी क्या गति होगी ? उसका क्या उपाय है ?’ - यह मैं कुछ नहीं जानता | प्रभो ! कृपया मेरी रक्षा कीजिये और मेरे संसार-दु:ख के सही का आयोजन कीजिये)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


मंगलवार, 18 सितंबर 2018

|श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१४)

|श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.१४)
साधन चतुष्टय
शान्ता महान्तो निवसन्ति संतो
वसन्तवल्लोकहितं चरन्त: |
तीर्णा: स्वयं भीमभवार्णवं जना-
नहेतुनान्यानपि तारयन्त: || ३९||
(भयंकर संसार-सागर से स्वयं उत्तीर्ण हुए और अन्य जनों को भी बिना कारण ही तारते तथा लोकहित का आचरण करते अति शांत महापुरुष ऋतुराज वसंत के समान निवास करते हैं)
अयं स्वभाव: स्वत एव यत्पर-
श्रमापनोदप्रवणं महात्मनाम् |
सुधांशुरेष स्वयमर्ककर्कश –
प्रभाभितप्तामवति क्षितिं किल ||४०||
(महात्माओं का यह स्वभाव ही है कि वे स्वत: ही दूसरों का श्रम दूर करने में प्रवृत्त होते हैं | सूर्य के प्रचण्ड तेज से सन्तप्त पृथ्वीतल को चन्द्रदेव स्वयं ही शान्त कर देते हैं)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...