रविवार, 23 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

हिरण्यकशिपुरुवाच
प्रह्रादानूच्यतां तात स्वधीतं किञ्चिदुत्तमम्
कालेनैतावतायुष्मन्यदशिक्षद्गुरोर्भवान् ||२२||

श्रीप्रह्लाद उवाच
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||२३||
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ||२४||
निशम्यैतत्सुतवचो हिरण्यकशिपुस्तदा
गुरुपुत्रमुवाचेदं रुषा प्रस्फुरिताधरः ||२५||
ब्रह्मबन्धो किमेतत्ते विपक्षं श्रयतासता
असारं ग्राहितो बालो मामनादृत्य दुर्मते ||२६||
सन्ति ह्यसाधवो लोके दुर्मैत्राश्छद्मवेषिणः
तेषामुदेत्यघं काले रोगः पातकिनामिव ||२७||

हिरण्यकशिपुने कहाचिरञ्जीव बेटा प्रह्लाद ! इतने दिनों में तुमने गुरुजी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमेंसे कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ ॥ २२ ॥
प्रह्लादजी ने कहापिताजी ! विष्णुभगवान्‌ की भक्ति के नौ भेद हैंभगवान्‌ के गुण-लीला- नाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन । यदि भगवान्‌ के प्रति समर्पण के भावसे यह नौ प्रकारकी भक्ति की जाय, तो मैं उसीको उत्तम अध्ययन समझता हूँ ॥ २३-२४ ॥ प्रह्लादकी यह बात सुनते ही क्रोध के मारे हिरण्यकशिपु के ओठ फडक़ने लगे। उसने गुरुपुत्र से कहा॥ २५ ॥ रे नीच ब्राह्मण ! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि ! तूने मेरी कुछ भी परवाह न करके इस बच्चे को कैसी निस्सार शिक्षा दे दी ? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओं के आश्रित है ॥ २६ ॥ संसारमें ऐसे दुष्टों की कमी नहीं है, जो मित्र का बाना धारण कर छिपे-छिपे शत्रु का काम करते हैं। परंतु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करनेवालों का पाप समय पर रोग के रूप में प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है ॥ २७ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से






श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

तत एनं गुरुर्ज्ञात्वा ज्ञातज्ञेयचतुष्टयम्
दैत्येन्द्रं दर्शयामास मातृमृष्टमलङ्कृतम् ||१९||
पादयोः पतितं बालं प्रतिनन्द्याशिषासुरः
परिष्वज्य चिरं दोर्भ्यां परमामाप निर्वृतिम् ||२०||
आरोप्याङ्कमवघ्राय मूर्धन्यश्रुकलाम्बुभिः
आसिञ्चन्विकसद्वक्त्रमिदमाह युधिष्ठिर ||२१||

कुछ समय के बाद जब गुरुजी ने देखा कि प्रह्लाद ने साम, दान, भेद और दण्ड के सम्बन्ध की सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी मा के पास ले गये । माता ने बड़े लाड़-प्यार से उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने-कपड़ों से सजा दिया । इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपु के पास ले गये ॥ १९ ॥ प्रह्लाद अपने पिता के चरणों में लोट गये। हिरण्यकशिपु ने उन्हें आशीर्वाद दिया और दोनों हाथों से उठाकर बहुत देर तक गले से लगाये रखा। उस समय दैत्यराज का हृदय आनन्द से भर रहा था ॥ २० ॥ युधिष्ठिर ! हिरण्यकशिपु ने प्रसन्नमुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर उनका सिर सूँघा। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू गिर-गिरकर प्रह्लाद के शरीर को भिगोने लगे। उसने अपने पुत्र से पूछा ॥ २१ ॥

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शनिवार, 22 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

श्रीनारद उवाच
एतावद्ब्राह्मणायोक्त्वा विरराम महामतिः
तं सन्निभर्त्स्य कुपितः सुदीनो राजसेवकः ||१५||
आनीयतामरे वेत्रमस्माकमयशस्करः
कुलाङ्गारस्य दुर्बुद्धेश्चतुर्थोऽस्योदितो दमः ||१६||
दैतेयचन्दनवने जातोऽयं कण्टकद्रुमः
यन्मूलोन्मूलपरशोर्विष्णोर्नालायितोऽर्भकः ||१७||
इति तं विविधोपायैर्भीषयंस्तर्जनादिभिः
प्रह्लादं ग्राहयामास त्रिवर्गस्योपपादनम् ||१८||

नारदजी कहते हैंपरमज्ञानी प्रह्लाद अपने गुरु जी से इतना कहकर चुप हो गये। पुरोहित बेचारे राजा के सेवक एवं पराधीन थे। वे डर गये। उन्होंने क्रोध से प्रह्लाद को झिडक़ दिया और कहा॥ १५ ॥ अरे, कोई मेरा बेंत तो लाओ । यह हमारी कीर्ति में कलङ्क लगा रहा है। इस दुर्बुद्धि कुलाङ्गार को ठीक करने के लिये चौथा उपाय दण्ड ही उपयुक्त होगा ॥ १६ ॥ दैत्यवंश के चन्दनवन में यह काँटेदार बबूल कहाँ से पैदा हुआ ? जो विष्णु इस वन की जड़ काटने में कुल्हाड़े का काम करते हैं, यह नादान बालक उन्हीं की बेंट बन रहा है; सहायक हो रहा है ॥ १७ ॥ इस प्रकार गुरुजी ने तरह-तरहसे डाँट-डपटकर प्रह्लाद को धमकाया और अर्थ, धर्म एवं कामसम्बन्धी शिक्षा दी ॥१८॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

स यदानुव्रतः पुंसां पशुबुद्धिर्विभिद्यते
अन्य एष तथान्योऽहमिति भेदगतासती ||१२||
स एष आत्मा स्वपरेत्यबुद्धिभि-
र्दुरत्ययानुक्रमणो निरूप्यते
मुह्यन्ति यद्वर्त्मनि वेदवादिनो
ब्रह्मादयो ह्येष भिनत्ति मे मतिम् ||१३||
यथा भ्राम्यत्ययो ब्रह्मन्स्वयमाकर्षसन्निधौ
तथा मे भिद्यते चेतश्चक्रपाणेर्यदृच्छया ||१४||

(प्रह्लादजी कह रहे हैं) वे भगवान्‌ ही जब कृपा करते हैं, तब मनुष्यों की पाशविक बुद्धि नष्ट होती है। इस पशुबुद्धि के कारण ही तो यह मैं हूँ और यह मुझसे भिन्न हैइस प्रकार का झूठा भेदभाव पैदा होता है ॥ १२ ॥ वही परमात्मा यह आत्मा है। अज्ञानी लोग अपने और पराये का भेद करके उसी का वर्णन किया करते हैं। उनका न जानना भी ठीक ही है; क्योंकि उसके तत्त्व को जानना बहुत कठिन है और ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े वेदज्ञ भी उसके विषय में मोहित हो जाते हैं। वही परमात्मा आपलोगों के शब्दों में मेरी बुद्धि बिगाड़रहा है ॥ १३ ॥ गुरुजी ! जैसे चुम्बक के पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे ही चक्रपाणि भगवान्‌ की स्वच्छन्द इच्छा शक्ति से मेरा चित्त भी संसार से अलग होकर उनकी ओर बरबस खिंच जाता है ॥ १४ ॥

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शुक्रवार, 21 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

श्रीप्रह्लाद उवाच

परः स्वश्चेत्यसद्ग्राहः पुंसां यन्मायया कृतः
विमोहितधियां दृष्टस्तस्मै भगवते नमः ||११||

प्रह्लादजी ने कहाजिन मनुष्यों की बुद्धि मोह से ग्रस्त हो रही है, उन्हीं को भगवान्‌ की माया से यह झूठा दुराग्रह होता देखा गया है कि यह अपनाहै और यह पराया। उन मायापति भगवान्‌ को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ११ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

एकदासुरराट्पुत्रमङ्कमारोप्य पाण्डव
पप्रच्छ कथ्यतां वत्स मन्यते साधु यद्भवान् ||||

श्रीप्रह्लाद उवाच
तत्साधु मन्येऽसुरवर्य देहिनां
सदा समुद्विग्नधियामसद्ग्रहात्
हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं
वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत ||||

श्रीनारद उवाच
श्रुत्वा पुत्रगिरो दैत्यः परपक्षसमाहिताः
जहास बुद्धिर्बालानां भिद्यते परबुद्धिभिः ||||
सम्यग्विधार्यतां बालो गुरुगेहे द्विजातिभिः
विष्णुपक्षैः प्रतिच्छन्नैर्न भिद्येतास्य धीर्यथा ||||
गृहमानीतमाहूय प्रह्रादं दैत्ययाजकाः
प्रशस्य श्लक्ष्णया वाचा समपृच्छन्त सामभिः ||||
वत्स प्रह्लाद भद्रं ते सत्यं कथय मा मृषा
बालानति कुतस्तुभ्यमेष बुद्धिविपर्ययः ||||
बुद्धिभेदः परकृत उताहो ते स्वतोऽभवत्
भण्यतां श्रोतुकामानां गुरूणां कुलनन्दन ||१०||

युधिष्ठिर ! एक दिन हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को बड़े प्रेमसे गोदमें लेकर पूछा—‘बेटा ! बताओ तो सही, तुम्हें कौन-सी बात अच्छी लगती है ?’ ॥ ४ ॥
प्रह्लादजी ने कहापिताजी ! संसारके प्राणी मैंऔर मेरेके झूठे आग्रहमें पडक़र सदा ही अत्यन्त उद्विग्न रहते हैं। ऐसे प्राणियोंके लिये मैं यही ठीक समझता हूँ कि वे अपने अध:पतन के मूल कारण, घास से ढके हुए अँधेरे कूएँ के समान इस घर को छोडक़र वनमें चले जायँ और भगवान्‌ श्रीहरि की शरण ग्रहण करें ॥ ५ ॥
नारदजी कहते हैंप्रह्लादजी के मुँह से शत्रुपक्ष की प्रशंसा से भरी बात सुनकर हिरण्यकशिपु ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा—‘दूसरोंके बहकाने से बच्चों की बुद्धि यों ही बिगड़ जाया करती है ॥ ६ ॥ जान पड़ता है गुरुजी के घर पर विष्णु के पक्षपाती कुछ ब्राह्मण वेष बदलकर रहते हैं। बालक की भलीभाँति देख-रेख की जाय, जिससे अब इसकी बुद्धि बहकने न पाये ॥ ७ ॥
जब दैत्योंने प्रह्लादको गुरुजीके घर पहुँचा दिया, तब पुरोहितोंने उनको बहुत पुचकारकर और फुसलाकर बड़ी मधुर वाणीसे पूछा ॥ ८ ॥ बेटा प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। ठीक-ठीक बतलाना। देखो, झूठ न बोलना। यह तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी ? और किसी बालककी बुद्धि तो ऐसी नहीं हुई ॥ ९ ॥ कुलनन्दन प्रह्लाद ! बताओ तो बेटा ! हम तुम्हारे गुरुजन यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारी बुद्धि स्वयं ऐसी हो गयी या किसी ने सचमुच तुम को बहका दिया है ? ॥ १० ॥

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गुरुवार, 20 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

श्रीनारद उवाच

पौरोहित्याय भगवान्वृतः काव्यः किलासुरैः
षण्डामर्कौ सुतौ तस्य दैत्यराजगृहान्तिके ||||
तौ राज्ञा प्रापितं बालं प्रह्लादं नयकोविदम्
पाठयामासतुः पाठ्यानन्यांश्चासुरबालकान् ||||
यत्तत्र गुरुणा प्रोक्तं शुश्रुवेऽनुपपाठ च
न साधु मनसा मेने स्वपरासद्ग्रहाश्रयम् ||||

नारदजी कहते हैंयुधिष्ठिर! दैत्यों ने भगवान्‌ श्रीशुक्राचार्य जी को अपना पुरोहित बनाया था । उनके दो पुत्र थेशण्ड और अमर्क । वे दोनों राजमहल के पास ही रहकर हिरण्यकशिपु के द्वारा भेजे हुए नीतिनिपुण बालक प्रह्लाद को और दूसरे पढ़ानेयोग्य दैत्य-बालकोंको राजनीति, अर्थनीति आदि पढ़ाया करते थे ॥ १-२ ॥ प्रह्लाद गुरुजी का पढ़ाया हुआ पाठ सुन लेते थे और उसे ज्यों-का- त्यों उन्हें सुना भी दिया करते थे। किन्तु वे उसे मन से अच्छा नहीं समझते थे । क्योंकि उस पाठ का मूल आधार था अपने और पराये का झूठा आग्रह ॥ ३ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०९)

हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन

युधिष्ठिर उवाच -

देवर्ष एतदिच्छामो वेदितुं तव सुव्रत ।
यदात्मजाय शुद्धाय पितादात्साधवे ह्यघम् ॥ ४४ ॥
पुत्रान् विप्रतिकूलान् स्वान् पितरः पुत्रवत्सलाः ।
उपालभन्ते शिक्षार्थं नैवाघमपरो यथा ॥ ४५ ॥
किमुतानुवशान् साधून् तादृशान् गुरुदेवतान् ।
एतत्कौतूहलं ब्रह्मन् अस्माकं विधम प्रभो ।
पितुः पुत्राय यद्द्वेषो मरणाय प्रयोजितः ॥ ४६ ॥

युधिष्ठिरने पूछानारदजी ! आपका व्रत अखण्ड है। अब हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि हिरण्यकशिपु ने पिता होकर भी ऐसे शुद्धहृदय महात्मा पुत्र से द्रोह क्यों किया ॥४४॥ पिता तो स्वभाव से ही अपने पुत्रों से प्रेम करते हैं। यदि पुत्र कोई उलटा काम करता है, तो वे उसे शिक्षा देने के लिये ही डाँटते हैं, शत्रु की तरह वैर-विरोध तो नहीं करते ॥४५॥ फिर प्रह्लाद–जी जैसे अनुकूल, शुद्धहृदय एवं गुरुजनों में भगवद्भाव करने वाले पुत्रों से भला, कोई द्वेष कर ही कैसे सकता है । नारदजी ! आप सब कुछ जानते हैं। हमें यह जानकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि पिता ने द्वेष के कारण पुत्र को मार डालना चाहा । आप कृपा करके मेरा यह कुतूहल शान्त कीजिये॥४६॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लाददचरिते चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०) धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका  ...