मंगलवार, 2 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०९)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

श्रीदैत्यपुत्रा ऊचुः

प्रह्लाद त्वं वयं चापि नर्तेऽन्यं विद्महे गुरुम् ।
एताभ्यां गुरुपुत्राभ्यां बालानामपि हीश्वरौ ॥ २९ ॥
बालस्यान्तःपुरस्थस्य महत्सङ्‌गो दुरन्वयः ।
छिन्धि नः संशयं सौम्य स्यात् चेत् विश्रम्भकारणम् ॥ ३० ॥

प्रह्लादजी के सहपाठियों ने पूछाप्रह्लादजी ! इन दोनों गुरुपुत्रों को छोडक़र और किसी गुरु को तो न तुम जानते हो और न हम । ये ही हम सब बालकों के शासक हैं ॥ २९ ॥ तुम एक तो अभी छोटी अवस्था के हो और दूसरे जन्म से ही महल में अपनी माँ के पास रहे हो । तुम्हारा महात्मा नारदजी से मिलना कुछ असङ्गत-सा जान पड़ता है । प्रियवर ! यदि इस विषय में  विश्वास दिलाने वाली कोई बात हो तो तुम उसे कहकर हमारी शङ्का मिटा दो ॥ ३० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते षष्ठोऽध्यायः॥६॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




सोमवार, 1 जुलाई 2019

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०५)


।। श्रीहरिः ।।

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०५)

कई भाई कह देते हैं, हम तो खाली राम-राम करते हैं । ऐसा मत समझो । यह राम-नाम खाली नहीं होता है ? जिस नाम को शंकर जपते हैं, सनकादिक जपते हैं, नारद जी जपते हैं, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, संत-महात्मा जपते हैं, वह नाम मेरे को मिल गया, यह तो मेरा भाग्य ही खुल गया है । ऐसे उसका आदर करो । जहाँ कथा मिल जाय, उसका आदर करो । भगवान्‌ के भक्त मिल जायँ उनका आदर करो । भगवान्‌ की लीला सुननेको मिल जाय, तो प्रसन्न हो जाओ कि यह तो भगवान्‌ ने बड़ी कृपा कर दी । भगवान् मानो हाथ पकड़कर मेरे को अपनी तरफ खींच रहे हैं । भगवान् मेरे सिरपर हाथ रखकर कहते हैं‒‘बेटा ! आ जा ।’ ऐसे मेरेको बुला रहे हैं । भगवान् बुला रहे हैं‒इसकी यही पहचान है कि मेरेको सुननेके लिये भगवान्‌की कथा मिल गयी । भगवान्‌की चर्चा मिल गयी । भगवान्‌ का पद मिल गया । भगवत्सम्बन्धी पुस्तक मिल गयी । भगवान्‌ का नाम देखनेमें आ गया ।

मालाके बिना अगर नाम-जप होता हो तो माला की जरूरत नहीं । परन्तु माला के बिना भूल बहुत ज्यादा होती हो तो माला जरूर रखनी चाहिये । माला से भगवान्‌ की याद में मदद मिलती है ।

“माला मनसे लड़ पड़ी, तूँ नहि विसरे मोय ।
बिना शस्त्रके सूरमा लड़ता देख्या न कोय ॥“

बिना शस्त्रके लड़ाई किससे करें ! यह माला शस्त्र है भगवान्‌ को याद करनेका ! भगवान्‌ की बार-बार याद आवे, इस वास्ते भगवान्‌ की याद के लिये माला की बड़ी जरूरत है ।
निरन्तर जप होता है तो माला की कोई जरूरत नहीं, फिर भी माला फेरनी चाहिये, माला फेरने की आवश्यकता है ।

दूसरी आवश्यकता है‒जितना नियम है उतना पूरा हो जाय, उसमें कमी न रह जाय उसके लिये माला है । माला लेने से एक दोष भी आता है । वह यह है कि आज इतना जप पूरा हो गया, बस अब रख दो माला । ऐसा नहीं करना चाहिये । भगवद्भजनमें कभी संतोष न करे । कभी पूरा न माने । धन कमाने में पूरा नहीं मानते । पाँच रुपये रोजाना पैदा होते हैं जिस दुकान में, उस दुकान में सुबह के समय में पचास रुपये पैदा हो गये तो भी दिनभर दुकान खुली रखेंगे । अब दस गुणी पैदा हो गयी तो भी दुकान बंद नहीं करेंगे । परन्तु भगवान्‌ का भजन, नियम पूरा हो जाय तो पुस्तक भी समेट कर रख देंगे, माला भी समेट कर रख देंगे; क्योंकि आज तो नित्य-नियम हो गया । यह बड़ी गलती होती है । माला से यह गलती न हो जाय कहीं कि इतनी माला हो गयी, अब बंद करो । इसमें तो लोभ लगना चाहिये कि माला छोडूँ ही नहीं, ज्यादा-से-ज्यादा करता रहूँ ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०८)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

धर्मार्थकाम इति योऽभिहितस्त्रिवर्ग
     ईक्षा त्रयी नयदमौ विविधा च वार्ता ।
मन्ये तदेतदखिलं निगमस्य सत्यं
     स्वात्मार्पणं स्वसुहृदः परमस्य पुंसः ॥ २६ ॥
ज्ञानं तदेतदमलं दुरवापमाह
     नारायणो नरसखः किल नारदाय ।
एकान्तिनां भगवतः तदकिञ्चनानां
     पादारविन्द रजसाऽऽप्लुतदेहिनां स्यात् ॥ २७ ॥
श्रुतं एतन्मया पूर्वं ज्ञानं विज्ञानसंयुतम् ।
धर्मं भागवतं शुद्धं नारदाद् देवदर्शनात् ॥ २८ ॥

यों शास्त्रों में धर्म,अर्थ और कामइन तीनों पुरुषार्थों का भी वर्णन है । आत्मविद्या,कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविका के विविध साधनये सभी वेदों के प्रतिपाद्य विषय हैं; परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान्‌ श्रीहरि को आत्मसमर्पण करने में सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ । अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं ॥ २६ ॥ यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगोंको बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है। इसे पहले नर- नारायण ने नारदजी को उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगों को प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने भगवान्‌ के अनन्यप्रेमी एवं अकिञ्चन भक्तों के चरणकमलों की धूलि से अपने शरीर को नहला लिया है ॥ २७ ॥ यह विज्ञानसहित ज्ञान विशुद्ध भागवतधर्म है। इसे मैंने भगवान्‌ का दर्शन कराने वाले देवर्षि नारदजी के मुँहसे ही पहले-पहल सुना था ॥ २८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०४)

।। श्रीहरिः ।।

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०४)

सन्तोंने भगवान्‌से भक्ति माँगी है । अच्छे-अच्छे महात्मा पुरुषोंने भगवान्‌के चरणोंका प्रेम माँगा है‒

“जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ॥“

भगवान् शंकर माँगते हैं‒

“बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥“

तो उनके कौन-सी कमी रह गयी ? पर यह माँगना सकाम नहीं है । तीर्थ, दान आदि के जितने पुण्य हैं, उन सब का एक फल माँगे कि भगवान्‌ के चरणों में प्रीति हो जाय । हे नाथ ! आपके चरणों में प्रेम हो जाय, आकर्षण हो जाय । भगवान् हमें प्यारे लगें, मीठे लगें । यह कामना करो । यह कामना सांसारिक नहीं है ।

भगवान्‌ का नाम लेते हुए आनन्द मनाओ, प्रसन्न हो जाओ कि मुख में भगवान्‌ का नाम आ गया, हम तो निहाल हो गये ! आज तो भगवान्‌ ने विशेष कृपा कर दी, जो नाम मुख में आ गया । नहीं तो मेरे-जैसे के लिये भगवान्‌ का नाम कहाँ ? जिनके याद करने मात्र से मंगल हो जाय ऐसे जिस नाम को भगवान् शंकर जपते हैं‒

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती ।
सादर जपहु अनंग आराती ॥

वह नाम मिल जाय हमारे को । कलियुगी तो हम जीव और राम-नाम मिल जाय तो बस मौज हो गयी, भगवान्‌ ने विशेष ही कृपा कर दी । ऐसी सम्मति मिल गयी, हमारे को भगवान्‌ की याद आ गयी । भगवान्‌ की बात सुनने को मिली है; भगवान्‌की चर्चा मिली है, भगवान्‌ का नाम मिला है,भगवान्‌ की तरफ वृत्ति हो गयी है‒ऐसे समझकर खूब आनन्द मनावें, खूब खुशी मनावें, प्रसन्नता मनावें ।

एक बात और विलक्षण है ! उस पर आप ध्यान दें । बहुत ही लाभकी बात है, (६) जब कभी भगवान् अचानक याद आ जाये भगवान्‌ का नाम अचानक याद आ जाय,भगवान्‌ की लीला अचानक याद आ जाय, उस समय यह समझे कि भगवान् मेरे को याद करते हैं । भगवान्‌ ने अभी मेरे को याद किया है । नहीं तो मैंने उद्योग ही नहीं किया, फिर अचानक ही भगवान् कैसे याद आये ? ऐसा समझकर प्रसन्न हो जाओ कि मैं तो निहाल हो गया । मेरे को भगवान्‌ ने याद कर लिया । अब और काम पीछे करेंगे । अब तो भगवान्‌ में ही लग जाना है; क्योंकि भगवान् याद करते हैं,ऐसा मौका कहाँ पड़ा है ? ऐसे लग जाओ तो बहुत ज्यादा भक्ति है । जब अंगद रवाना हुए और उनको पहुँचाने हनुमान्‌ जी गये तो अंगद ने कहा‒‘बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि’ याद कराते रहना रामजी को । तात्पर्य जिस समय अचानक भगवान् याद आते हैं, उस समय को खूब मूल्यवान् समझकर तत्परता से लग जाओ । इस प्रकार छः बातें हो गयीं ।

“गुप्त अकाम निरन्तर, ध्यान-सहित सानन्द ।
आदर जुत जप से तुरत, पावत परमानन्द ॥“

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

केवलानुभवानन्द स्वरूपः परमेश्वरः ।
माययान्तर्हितैश्वर्य ईयते गुणसर्गया ॥ २३ ॥
तस्मात्सर्वेषु भूतेषु दयां कुरुत सौहृदम् ।
आसुरं भावमुन्मुच्य यया तुष्यत्यधोक्षजः ॥ २४ ॥
तुष्टे च तत्र किमलभ्यमनन्त आद्ये
     किं तैर्गुणव्यतिकरादिह ये स्वसिद्धाः ।
धर्मादयः किमगुणेन च काङ्‌क्षितेन
     सारंजुषां चरणयोरुपगायतां नः ॥ २५ ॥

वे (भगवान) केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करनेवाली माया के द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं ॥ २३ ॥ इसलिये तुमलोग अपने दैत्यपने का, आसुरी सम्पत्ति का त्याग करके समस्त प्राणियों पर दया करो। प्रेमसे उनकी भलाई करो। इसी से भगवान्‌ प्रसन्न होते हैं ॥ २४ ॥ आदिनारायण अनन्त भगवान्‌ के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है,जो नहीं मिल जाती ? लोक और परलोक के लिये जिन धर्म, अर्थ आदि की आवश्यकता बतलायी जाती हैवे तो गुणों के परिणाम से बिना प्रयास के स्वयं ही मिलनेवाले हैं । जब हम श्रीभगवान्‌ के चरणामृत का सेवन करने और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने में लगे हैं, तब हमें मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है ॥ २५ ॥

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रविवार, 30 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

न ह्यच्युतं प्रीणयतो बह्वायासोऽसुरात्मजाः ।
आत्मत्वात् सर्वभूतानां सिद्धत्वादिह सर्वतः ॥ १९ ॥
परावरेषु भूतेषु ब्रह्मान्तस्थावरादिषु ।
भौतिकेषु विकारेषु भूतेष्वथ महत्सु च ॥ २० ॥
गुणेषु गुणसाम्ये च गुणव्यतिकरे तथा ।
एक एव परो ह्यात्मा भगवान् ईश्वरोऽव्ययः ॥ २१ ॥
प्रत्यगात्मस्वरूपेण दृश्यरूपेण च स्वयम् ।
व्याप्यव्यापकनिर्देश्यो हि, अनिर्देश्योऽविकल्पितः ॥ २२ ॥

मित्रो ! भगवान्‌ को प्रसन्न करने के लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता। क्योंकि वे समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और सर्वत्र सब की सत्ता के रूप में स्वयंसिद्ध वस्तु हैं ॥ १९ ॥ ब्रह्मा से लेकर तिनके तक छोटे-बड़े समस्त प्राणियोंमें, पञ्चभूतों से बनी हुई वस्तुओं में,पञ्चभूतों में, सूक्ष्म तन्मात्राओं में, महत्तत्त्व में, तीनों गुणों में और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति में एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यों की खान हैं ॥ २०-२१ ॥ वे ही अन्तर्यामी द्रष्टा के रूप में हैं और वे ही दृश्य जगत् के रूपमें भी हैं । सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होने पर भी द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापक के रूप में उनका निर्वचन किया जाता है। वस्तुत: उनमें एक भी विकल्प नहीं है ॥ २२ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से







श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

कुटुम्बपोषाय वियन् निजायुः
     न बुध्यतेऽर्थं विहतं प्रमत्तः ।
सर्वत्र तापत्रयदुःखितात्मा
     निर्विद्यते न स्वकुटुम्बरामः ॥ १४ ॥
वित्तेषु नित्याभिनिविष्टचेता
     विद्वांश्च दोषं परवित्तहर्तुः ।
प्रेत्येह चाथाप्यजितेन्द्रियस्तद्
     अशान्तकामो हरते कुटुम्बी ॥ १५ ॥
विद्वानपीत्थं दनुजाः कुटुम्बं
     पुष्णन् स्वलोकाय न कल्पते वै ।
यः स्वीयपारक्यविभिन्नभावः
     तमः प्रपद्येत यथा विमूढः ॥ १६ ॥
यतो न कश्चित् क्व च कुत्रचिद् वा
     दीनः स्वमात्मानमलं समर्थः ।
विमोचितुं कामदृशां विहार
     क्रीडामृगो यन्निगडो विसर्गः ॥ १७ ॥
ततो विदूरात् परिहृत्य दैत्या
     दैत्येषु सङ्‌गं विषयात्मकेषु ।
उपेत नारायणमादिदेवं
     स मुक्तसङ्‌गैः इषितोऽपवर्गः ॥ १८ ॥

यह मेरा कुटुम्ब है, इस भाव से उस में वह इतना रम जाता है कि उसी के पालन-पोषण के लिये अपनी अमूल्य आयु को गवाँ देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा है। भला, इस प्रमाद की भी कोई सीमा है। यदि इन कामों में कुछ सुख मिले तो भी एक बात है; परंतु यहाँ तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं-वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदय को जलाते ही रहते हैं। फिर भी वैराग्य का उदय नहीं होता। कितनी विडम्बना है ! कुटुम्ब की ममता के फेर में पडक़र वह इतना असावधान हो जाता है, उसका मन धनके चिन्तन में सदा इतना लवलीन रहता है कि वह दूसरे का धन चुराने के लौकिक-पारलौकिक दोषों को जानता हुआ भी कामनाओं को वश में न कर सकने के कारण इन्द्रियों के भोग की लालसा से चोरी कर ही बैठता है ॥ १४-१५ ॥ भाइयो ! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बियों के पेट पालने में ही लगा रहता हैकभी भगवद्भजन नहीं करतावह विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि अपने पराये का भेद-भाव रहने के कारण उसे भी अज्ञानियों के समान ही तम:प्रधान गति प्राप्त होती है ॥ १६ ॥ जो कामिनियों के मनोरञ्जनका सामानउनका क्रीडामृग बन रहा है और जिसने अपने पैरों में सन्तान की बेड़ी जकड़ ली है, वह बेचारा गरीबचाहे कोई भी हो, कहीं भी होकिसी भी प्रकारसे अपना उद्धार नहीं कर सकता ॥ १७ ॥ इसलिये, भाइयो ! तुमलोग विषयासक्त दैत्यों का सङ्ग दूर से ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान्‌ नारायण की शरण ग्रहण करो ! क्योंकि जिन्होंने संसार की आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओं के वे ही परम प्रियतम और परम गति हैं ॥ १८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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शनिवार, 29 जून 2019

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०३)



।। श्रीहरिः ।।

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०३)

(१) भगवान्‌के होकर भजन करें, (२) भगवान्‌का ध्यान करते हुए भजन करें, (३) गुप्तरीतिसे करें, (४) निरन्तर करें, क्योंकि बीचमें छूटनेसे भजन इतना बढ़िया नहीं होता । निरन्तर करनेसे एक शक्ति पैदा होती है । जैसे, बहनें-माताएँ रसोई बनाती हैं ? तो रसोई बनावें तो दस-पंद्रह मिनट बनाकर छोड़ दें, फिर घंटाभर बादमें शुरू करें । फिर थोड़ी देर बनावें, फिर घंटाभर ठहरकर करने लगें । इस प्रकार करनेसे क्या रसोई बन जायगी ? दिन बीत जायगा, पर रसोई नहीं बनेगी । लगातार किया जाय तो चट बन जायगी । ऐसे ही भगवान्‌का भजन लगातार हो, निरन्तर हो, छूटे नहीं, रात-दिन, सुबह-शाम कभी भी छूटे नहीं ।
नारदजी महाराज भक्ति-सूत्रमें लिखते हैं

तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति

सब कुछ भगवान्‌ के अर्पण कर दे, भगवान्‌ को भूलते ही परम व्याकुल हो जाय । जैसे मछली को जल से बाहर कर दिया जाय तो वह तड़फड़ाने लगती है । इस तरह से भगवान्‌ की विस्मृति में हृदय में व्याकुलता हो जाय । भगवान्‌ को भूल गये,गजब हो गया ! उसकी विस्मृति न हो । लगातार उसकी स्मृति रहे और प्रार्थना करे‒‘हे भगवान् ! मैं भूलूँ नहीं, हे ! नाथ ! मैं भूलूँ नहीं ।ऐसा कहता रहे और निरन्तर नाम-जप करता रहे ।

(५) इसमें एक बात और खास है‒-कामना न करे अर्थात् मैं माला फेरता हूँ, मेरी छोरी का ब्याह हो जाय । मैं नाम जपता हूँ तो धन हो जाय, मेरे व्यापार में नफा हो जाय । ऐसी कोई-सी भी कामना न करे । यह जो संसार की चीजों की कामना करना है यह तो भगवान्‌के नामकी बिक्री करना है । इससे भगवान्‌ का नाम पुष्ट नहीं होता, उसमें शक्ति नहीं आती । आप खर्च करते रहते हो, मानो हीरों को पत्थरों से तौलते हो ! भगवान्‌ का नाम कहेंगे तो धन-संग्रह हो जायगा । नहीं होगा तो क्या हो जायगा ? मेरे पोता हो जाय । अब पोता हो जाय । अब पोता हो गया तो क्या ? नहीं हो गया तो क्या ? एक विष्ठा पैदा करने की मशीन पैदा हो गयी, तो क्या हो गया ? नहीं हो जाय तो कौन-सी कमी रह गयी ? वह भी मरेगा, तुम भी मरोगे ! और क्या होगा ? पर इनके लिये भगवान्‌ के नाम की बिक्री कर देना बहुत बड़ी भूल है । इस वास्ते ऐसी तुच्छ चीजों के लिये, जिसकी असीम, अपार कीमत है, उस भगवन्नाम की बिक्री न करें, सौदा न करें और कामना न करें । नाम महाराज से तो भगवान्‌ की भक्ति मिले,भगवान्‌ के चरणों में प्रेम हो जाय, भगवान्‌ की तरफ खिंच जायँ यह माँगो । यह कामना नहीं है; क्योंकि कामना तो लेने की होती है और इसमें तो अपने-आपको भगवान्‌ को देना है । आपका प्रेम मिले, आपकी भक्ति मिले, मैं भूलूँ ही नहीं‒-ऐसी कामना खूब करो ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की भगवन्नामपुस्तकसे




श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

पुत्रान् स्मरंस्ता दुहितॄर्हृदय्या
     भ्रातॄन् स्वसॄर्वा पितरौ च दीनौ ।
गृहान् मनोज्ञोः उपरिच्छदांश्च
     वृत्तीश्च कुल्याः पशुभृत्यवर्गान् ॥ १२ ॥
त्यजेत कोशस्कृदिवेहमानः
     कर्माणि लोभादवितृप्तकामः ।
औपस्थ्यजैह्वं बहुमन्यमानः
     कथं विरज्येत दुरन्तमोहः ॥ १३ ॥

जो अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्था को प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियों से सजे हुए घरों, कुलपरम्परागत जीविका के साधनों तथा पशुओं और सेवकों के निरन्तर स्मरण में रम गया है, वह भला उन्हें कैसे छोड़ सकता है ॥ १२ ॥ जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय के सुखों को ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी तृप्त नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशम के कीड़े की तरह अपने को और भी कड़े बन्धन में जकड़ता जा रहा है और जिसके मो की कोई सीमा नहीं हैवह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे उनका त्याग कर सकता है ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



भगवान्‌ की आवश्यकता का अनुभव करना (पोस्ट ३)



: श्रीहरि :

भगवान्‌ की आवश्यकता का अनुभव करना
(पोस्ट ३)

हमारी आवश्यकता परमात्मतत्त्वकी है । इस आवश्यकताको हम कभी भूलें नहीं, इसको हरदम जाग्रत् रखें । नींद आ जाय तो आने दें, पर अपनी तरफसे आवश्यकताकी भूली मत होने दें । भगवान्‌की प्राप्ति हो जाय, उनमें प्रेम हो जायइस प्रकार आठ पहर इसको जाग्रत् रखें तो काम पूरा हो जायगा ! बीचमें दूसरी इच्छाएँ होती रहेंगी तो ज्यादा समय लग जायगा । दूसरी इच्छा पैदा हो तो जबान हिला दें कि नहीं-नहीं, मेरी कोई इच्छा नहीं! अगर दूसरी इच्छा न रहे तो आठ पहर भी नहीं लगेंगे

गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित लक्ष्य अब दूर नहीं !पुस्तक से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...