रविवार, 14 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

संरम्भदुष्प्रेक्ष्यकराललोचनो
व्यात्ताननान्तं विलिहन्स्वजिह्वया
असृग्लवाक्तारुणकेशराननो
यथान्त्रमाली द्विपहत्यया हरिः ||३०||
नखाङ्कुरोत्पाटितहृत्सरोरुहं
विसृज्य तस्यानुचरानुदायुधान्
अहन्समस्तान्नखशस्त्रपाणिभिर्दो-
र्दण्डयूथोऽनुपथान्सहस्रशः ||३१||
सटावधूता जलदाः परापतन् 
ग्रहाश्च तद्दृष्टिविमुष्टरोचिषः
अम्भोधयः श्वासहता विचुक्षुभु-
र्निर्ह्रादभीता दिगिभा विचुक्रुशुः ||३२||
द्यौस्तत्सटोत्क्षिप्तविमानसङ्कुला
प्रोत्सर्पत क्ष्मा च पदाभिपीडिता
शैलाः समुत्पेतुरमुष्य रंहसा
तत्तेजसा खं ककुभो न रेजिरे ||३३||
ततः सभायामुपविष्टमुत्तमे
नृपासने सम्भृततेजसं विभुम्
अलक्षितद्वैरथमत्यमर्षणं
प्रचण्डवक्त्रं न बभाज कश्चन ||३४||

उस समय उनकी क्रोधसे भरी विकराल आँखोंकी ओर देखा नहीं जाता था। वे अपनी लपलपाती हुई जीभसे फैले हुए मुँहके दोनों कोने चाट रहे थे। खूनके छींटोंसे उनका मुँह और गरदनके बाल लाल हो रहे थे। हाथीको मारकर गलेमें आँतोंकी माला पहने हुए मृगराजके समान उनकी शोभा हो रही थी ॥ ३० ॥ उन्होंने अपने तीखे नखोंसे हिरण्यकशिपुका कलेजा फाडक़र उसे जमीनपर पटक दिया। उस समय हजारों दैत्य-दानव हाथोंमें शस्त्र लेकर भगवान्‌पर प्रहार करनेके लिये आये। पर भगवान्‌ने अपनी भुजारूपी सेनासे, लातोंसे और नखरूपी शस्त्रोंसे चारों ओर खदेड़-खदेडक़र उन्हें मार डाला ॥ ३१ ॥
युधिष्ठिर ! उस समय भगवान्‌ नृसिंहके गरदनके बालोंकी फटकारसे बादल तितर-बितर होने लगे। उनके नेत्रोंकी ज्वालासे सूर्य आदि ग्रहोंका तेज फीका पड़ गया। उनके श्वासके धक्के से समुद्र क्षुब्ध हो गये। उनके सिंहनादसे भयभीत होकर दिग्गज चिग्घाडऩे लगे ॥ ३२ ॥ उनके गरदन के बालोंसे टकराकर देवताओंके विमान अस्त-व्यस्त हो गये। स्वर्ग डगमगा गया। उनके पैरोंकी धमकसे भूकम्प आ गया, वेगसे पर्वत उडऩे लगे और उनके तेजकी चकाचौंधसे आकाश तथा दिशाओंका दीखना बंद हो गया ॥ ३३ ॥ इस समय नृसिंहभगवान्‌का सामना करनेवाला कोई दिखायी न पड़ता था। फिर भी उनका क्रोध अभी बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपुकी राज- सभामें ऊँचे सिंहासनपर जाकर विराज गये। उस समय उनके अत्यन्त तेजपूर्ण और क्रोधभरे भयङ्कर चेहरेको देखकर किसीका भी साहस न हुआ कि उनके पास जाकर उनकी सेवा करे ॥ ३४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





शनिवार, 13 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

असाध्वमन्यन्त हृतौकसोऽमरा
घनच्छदा भारत सर्वधिष्ण्यपाः
तं मन्यमानो निजवीर्यशङ्कितं
यद्धस्तमुक्तो नृहरिं महासुरः
पुनस्तमासज्जत खड्गचर्मणी
प्रगृह्य वेगेन गतश्रमो मृधे ||२७||
तं श्येनवेगं शतचन्द्र वर्त्मभि-
श्चरन्तमच्छिद्र मुपर्यधो हरिः
कृत्वाट्टहासं खरमुत्स्वनोल्बणं
निमीलिताक्षं जगृहे महाजवः ||२८||
विष्वक्स्फुरन्तं ग्रहणातुरं हरि-
र्व्यालो यथाखुं कुलिशाक्षतत्वचम्
द्वार्यूरुमापत्य ददार लीलया
नखैर्यथाहिं गरुडो महाविषम् ||२९||

युधिष्ठिर ! उस समय सब-के-सब लोकपाल बादलोंमें छिपकर इस युद्धको देख रहे थे। उनका स्वर्ग तो हिरण्यकशिपुने पहले ही छीन लिया था। जब उन्होंने देखा कि वह भगवान्‌के हाथसे छूट गया, तब वे और भी डर गये। हिरण्यकशिपुने भी यही समझा कि नृसिंहने मेरे बलवीर्यसे डरकर ही मुझे अपने हाथसे छोड़ दिया है। इस विचारसे उसकी थकान जाती रही और वह युद्धके लिये ढाल-तलवार लेकर फिर उनकी ओर दौड़ पड़ा ॥ २७ ॥ उस समय वह बाजकी तरह बड़े वेगसे ऊपर-नीचे उछल-कूदकर इस प्रकार ढाल-तलवारके पैंतरे बदलने लगा कि जिससे उसपर आक्रमण करनेका अवसर ही न मिले। तब भगवान्‌ने बड़े ऊँचे स्वरसे प्रचण्ड और भयङ्कर अट्टहास किया, जिससे हिरण्यकशिपुकी आँखें बंद हो गयीं। फिर बड़े वेगसे झपटकर भगवान्‌ ने उसे वैसे ही पकड़ लिया, जैसे साँप चूहे को पकड़ लेता है। जिस हिरण्यकशिपु के चमड़े पर वज्र की चोट से भी खरोंच नहीं आयी थी, वही अब उनके पंजेसे निकलनेके लिये जोरसे छटपटा रहा था। भगवान्‌ ने सभा के दरवाजे पर ले जाकर उसे अपनी जाँघों पर गिरा लिया और खेल-खेल में अपने नखों से उसे उसी प्रकार फाड़ डाला, जैसे गरुड़ महाविषधर साँपको चीर डालते हैं ॥ २८-२९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

न तद्विचित्रं खलु सत्त्वधामनि
स्वतेजसा यो नु पुरापिबत्तमः
ततोऽभिपद्याभ्यहनन्महासुरो
रुषा नृसिंहं गदयोरुवेगया ||२५||
तं विक्रमन्तं सगदं गदाधरो
महोरगं तार्क्ष्यसुतो यथाग्रहीत्
स तस्य हस्तोत्कलितस्तदासुरो
विक्रीडतो यद्वदहिर्गरुत्मतः ||२६||

समस्त शक्ति और तेजके आश्रय भगवान्‌ के सम्बन्ध में ऐसी घटना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। क्योंकि सृष्टिके प्रारम्भमें उन्होंने अपने तेजसे प्रलयके निमित्तभूत तमोगुणरूपी घोर अन्धकारको भी पी लिया था। तदनन्तर वह दैत्य बड़े क्रोधसे लपका और अपनी गदा को बड़े जोर से घुमाकर उसने नृसिंहभगवान्‌ पर प्रहार किया ॥ २५ ॥ प्रहार करते समय हीजैसे गरुड़ साँप को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान्‌ ने गदासहित उस दैत्यको पकड़ लिया। वे जब उसके साथ खिलवाड़ करने लगे, तब वह दैत्य उनके हाथसे वैसे ही निकल गया, जैसे क्रीडा करते हुए गरुडके चंगुलसे साँप छूट जाय ॥ २६ ॥

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शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

करालदंष्ट्रं करवालचञ्चल-
क्षुरान्तजिह्वं भ्रुकुटीमुखोल्बणम्
स्तब्धोर्ध्वकर्णं गिरिकन्दराद्भुत-
व्यात्तास्यनासं हनुभेदभीषणम् ||२१||
दिविस्पृशत्कायमदीर्घपीवर
ग्रीवोरुवक्षःस्थलमल्पमध्यमम्
चन्द्रांशुगौरैश्छुरितं तनूरुहै-
र्विष्वग्भुजानीकशतं नखायुधम् ||२२||
दुरासदं सर्वनिजेतरायुध-
प्रवेकविद्रावितदैत्यदानवम्
प्रायेण मेऽयं हरिणोरुमायिना
वधः स्मृतोऽनेन समुद्यतेन किम् ||२३||
एवं ब्रुवंस्त्वभ्यपतद्गदायुधो
नदन्नृसिंहं प्रति दैत्यकुञ्जरः
अलक्षितोऽग्नौ पतितः पतङ्गमो
यथा नृसिंहौजसि सोऽसुरस्तदा ||२४||

(भगवान् की) दाढ़ें बड़ी विकराल थीं। तलवार की तरह लपलपाती हुई छूरे की धार के समान तीखी जीभ थी। टेढ़ी भौंहों से उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊपर की ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुँह पहाड क़ी गुफा के समान अद्भुत जान पड़ता था। फटे हुए जबड़ोंसे उसकी भयङ्करता बहुत बढ़ गयी थी ॥ २१ ॥ विशाल शरीर स्वर्गका स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी। छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चन्द्रमाकी किरणोंके समान सफेद रोएँ सारे शरीरपर चमक रहे थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुधका काम देते थे ॥ २२ ॥ उनके पास फटकने
तक का साहस किसी को न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रोंके द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवोंको भगा दिया। हिरण्यकशिपु सोचने लगाहो-न-हो महामायावी विष्णुने ही मुझे मार डालनेके लिये यह ढंग रचा है; परंतु इसकी इन चालोंसे हो ही क्या सकता है ॥ २३ ॥ इस प्रकार कहता और सिंहनाद करता हुआ दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथमें गदा लेकर नृसिंह- भगवान्‌पर टूट पड़ा। परंतु जैसे पतंगा  आग में गिरकर अदृश्य हो जाता है, वैसे ही वह दैत्य भगवान्‌के तेजके भीतर जाकर लापता हो गया ॥ २४ ॥


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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं
व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः
अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन्  
स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम् ||१८||
स सत्त्वमेनं परितो विपश्यन्
स्तम्भस्य मध्यादनुनिर्जिहानम्
नायं मृगो नापि नरो विचित्र-
महो किमेतन्नृमृगेन्द्र रूपम् ||१९||
मीमांसमानस्य समुत्थितोऽग्रतो
नृसिंहरूपस्तदलं भयानकम्
प्रतप्तचामीकरचण्डलोचनं
स्फुरत्सटाकेशरजृम्भिताननम् ||२०||

इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्माकी वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थोंमें अपनी व्यापकता दिखानेके लिये सभाके भीतर उसी खंभेमें बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान्‌ प्रकट हुए । वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंह का ही था और न मनुष्यका ही ॥ १८ ॥ जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करने वाले की इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभे के भीतर से निकलते हुए उस अद्भुत प्राणी को उसने देखा । वह सोचने लगाअहो, यह न तो मनुष्य है और न पशु; फिर यह नृसिंह के रूप में कौन-सा अलौकिक जीव है ! ॥ १९ ॥  जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुन में लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंहभगवान्‌ खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था। तपाये हुए सोने के समान पीली-पीली भयानक आँखें थीं। जँभाई लेनेसे गरदन के बाल इधर-उधर लहरा रहे थे ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




गुरुवार, 11 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीहिरण्यकशिपुरुवाच

व्यक्तं त्वं मर्तुकामोऽसि योऽतिमात्रं विकत्थसे
मुमूर्षूणां हि मन्दात्मन्ननु स्युर्विक्लवा गिरः ||१२||
यस्त्वया मन्दभाग्योक्तो मदन्यो जगदीश्वरः
क्वासौ यदि स सर्वत्र कस्मात्स्तम्भे न दृश्यते ||१३||
सोऽहं विकत्थमानस्य शिरः कायाद्धरामि ते
गोपायेत हरिस्त्वाद्य यस्ते शरणमीप्सितम् ||१४||
एवं दुरुक्तैर्मुहुरर्दयन्रुषा
सुतं महाभागवतं महासुरः
खड्गं प्रगृह्योत्पतितो वरासनात्  
स्तम्भं तताडातिबलः स्वमुष्टिना ||१५||
तदैव तस्मिन्निनदोऽतिभीषणो
बभूव येनाण्डकटाहमस्फुटत्
यं वै स्वधिष्ण्योपगतं त्वजादयः
श्रुत्वा स्वधामात्ययमङ्ग मेनिरे ||१६||
स विक्रमन्पुत्रवधेप्सुरोजसा
निशम्य निर्ह्रादमपूर्वमद्भुतम्
अन्तःसभायां न ददर्श तत्पदं
वितत्रसुर्येन सुरारियूथपाः ||१७||

हिरण्यकशिपुने कहारे मन्दबुद्धि ! तेरे बहकनेकी भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी बेसिर-पैर की बातें बका करते हैं ॥ १२ ॥ अभागे ! तूने मेरे सिवा जो और किसीको जगत् का स्वामी बतलाया है, सो देखूँ तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है। अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है ? तो इस खंभेमें क्यों नहीं दीखता ? ॥ १३ ॥ अच्छा, तुझे इस खंभेमें भी दिखायी देता है ! अरे, तू क्यों इतनी डींग हाँक रहा है ? मैं अभी-अभी तेरा सिर धड़से अलग किये देता हूँ। देखता हूँ तेरा वह सर्वस्व हरि, जिसपर तुझे इतना भरोसा है, तेरी कैसे रक्षा करता है ॥ १४ ॥ इस प्रकार वह अत्यन्त बलवान् महादैत्य भगवान्‌के परम प्रेमी प्रह्लादको बार-बार झिड़कियाँ देता और सताता रहा। जब क्रोधके मारे वह अपनेको रोक न सका, तब हाथमें खड्ग लेकर सिंहासनसे कूद पड़ा और बड़े जोरसे उस खंभेको एक घूँसा मारा ॥ १५ ॥ उसी समय उस खंभेमें एक बड़ा भयङ्कर शब्द हुआ। ऐसा जान पड़ा मानो यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकपालों के लोक में पहुँची, तब उसे सुनकर ब्रह्मादि को ऐसा जान पड़ा, मानो उनके लोकों का प्रलय हो रहा हो ॥ १६ ॥ हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े जोर से झपटा था; परंतु दैत्यसेनापतियों को भी भय से कँपा देनेवाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्द को सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह शब्द करनेवाला कौन है। परंतु उसे सभाके भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा ॥ १७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीप्रह्लाद उवाच
न केवलं मे भवतश्च राजन्
स वै बलं बलिनां चापरेषाम्
परेऽवरेऽमी स्थिरजङ्गमा ये
ब्रह्मादयो येन वशं प्रणीताः ||८||
स ईश्वरः काल उरुक्रमोऽसा-
वोजः सहः सत्त्वबलेन्द्रि यात्मा
स एव विश्वं परमः स्वशक्तिभिः
सृजत्यवत्यत्ति गुणत्रयेशः ||९||
जह्यासुरं भावमिमं त्वमात्मनः
समं मनो धत्स्व न सन्ति विद्विषः
ऋतेऽजितादात्मन उत्पथे स्थिता-
त्तद्धि ह्यनन्तस्य महत्समर्हणम् ||१०||
दस्यून्पुरा षण्ण विजित्य लुम्पतो
मन्यन्त एके स्वजिता दिशो दश
जितात्मनो ज्ञस्य समस्य देहिनां
साधोः स्वमोहप्रभवाः कुतः परे ||११||

प्रह्लादजी ने कहादैत्यराज ! ब्रह्मा से लेकर तिनकेतक सब छोटे-बड़े, चर-अचर जीवों को भगवान्‌ ने ही अपने वशमें कर रखा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसार के समस्त बलवानों के बल भी केवल वही हैं ॥ ८ ॥ वे ही महापराक्रमी सर्वशक्तिमान् प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियों के इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वही हैं। वही परमेश्वर अपनी शक्तियोंके द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणों के स्वामी हैं ॥ ९ ॥ आप अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये। अपने मनको सबके प्रति समान बनाइये। इस संसारमें अपने वशमें न रहनेवाले कुमार्गगामी मनके अतिरिक्त और कोई शत्रु नहीं है। मनमें सबके प्रति समताका भाव लाना ही भगवान्‌की सबसे बड़ी पूजा है ॥ १० ॥ जो लोग अपना सर्वस्व लूटनेवाले इन छ: इन्द्रियरूपी डाकुओंपर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और ऐसा मानने लगते हैं कि हमने दसों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख हैं। हाँ जिस ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय महात्माने समस्त प्राणियोंके प्रति समताका भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञानसे पैदा होनेवाले काम-क्रोधादि शत्रु भी मर-मिट जाते हैं; फिर बाहरके शत्रु तो रहें ही कैसे ॥ ११ ॥

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बुधवार, 10 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीनारद उवाच
अथ दैत्यसुताः सर्वे श्रुत्वा तदनुवर्णितम्
जगृहुर्निरवद्यत्वान्नैव गुर्वनुशिक्षितम् ||१||
अथाचार्यसुतस्तेषां बुद्धिमेकान्तसंस्थिताम्
आलक्ष्य भीतस्त्वरितो राज्ञ आवेदयद्यथा ||२||
श्रुत्वा तदप्रियं दैत्यो दुःसहं तनयानयम्
कोपावेशचलद्गात्रः पुत्रं हन्तुं मनो दधे ||३||
क्षिप्त्वा परुषया वाचा प्रह्रादमतदर्हणम्
आहेक्षमाणः पापेन तिरश्चीनेन चक्षुषा ||४||
प्रश्रयावनतं दान्तं बद्धाञ्जलिमवस्थितम्
सर्पः पदाहत इव श्वसन्प्रकृतिदारुणः ||५||
हे दुर्विनीत मन्दात्मन्कुलभेदकराधम
स्तब्धं मच्छासनोद्वृत्तं नेष्ये त्वाद्य यमक्षयम् ||६||
क्रुद्धस्य यस्य कम्पन्ते त्रयो लोकाः सहेश्वराः
तस्य मेऽभीतवन्मूढ शासनं किं बलोऽत्यगाः ||७||

नारदजी कहते हैंप्रह्लादजीका प्रवचन सुनकर दैत्यबालकोंने उसी समयसे निर्दोष होनेके कारण, उनकी बात पकड़ ली। गुरुजीकी दूषित शिक्षाकी ओर उन्होंने ध्यान ही न दिया ॥ १ ॥ जब गुरुजीने देखा कि उन सभी विद्यार्थियोंकी बुद्धि एकमात्र भगवान्‌में स्थिर हो रही है, तब वे बहुत घबराये और तुरंत हिरण्यकशिपु के पास जाकर निवेदन किया ॥ २ ॥ अपने पुत्र प्रह्लाद की इस असह्य और अप्रिय अनीति को सुनकर क्रोध के मारे उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। अन्तमें उसने यही निश्चय किया कि प्रह्लाद को अब अपने ही हाथसे मार डालना चाहिये ॥ ३ ॥
मन और इन्द्रियों को वश में रखनेवाले प्रह्लादजी बड़ी नम्रतासे हाथ जोडक़र चुपचाप हिरण्यकशिपु के सामने खड़े थे और तिरस्कारके सर्वथा अयोग्य थे। परंतु हिरण्यकशिपु स्वभावसे ही क्रूर था। वह पैरकी चोट खाये हुए साँपकी तरह फुफकारने लगा। उसने उनकी ओर पापभरी टेढ़ी नजरसे देखा और कठोर वाणीसे डाँटते हुए कहा॥ ४-५ ॥ मूर्ख ! तू बड़ा उद्दण्ड हो गया है। स्वयं तो नीच है ही, अब हमारे कुलके और बालकोंको भी फोडऩा चाहता है ! तूने बड़ी ढिठाईसे मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन किया है। आज ही तुझे यमराजके घर भेजकर इसका फल चखाता हूँ ॥ ६ ॥ मैं तनिक-सा क्रोध करता हूँ, तो तीनों लोक और उनके लोकपाल काँप उठते हैं। फिर मूर्ख! तूने किसके बल-बूते पर निडर की तरह मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया है?’ ॥७॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

दैतेया यक्षरक्षांसि स्त्रियः शूद्रा व्रजौकसः
खगा मृगाः पापजीवाः सन्ति ह्यच्युततां गताः ||५४||
एतावानेव लोकेऽस्मिन्पुंसः स्वार्थः परः स्मृतः
एकान्तभक्तिर्गोविन्दे यत्सर्वत्र तदीक्षणम् ||५५||

भगवान्‌ की भक्तिके प्रभावसे दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ, शूद्र, गोपालक अहीर, पक्षी, मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भावको प्राप्त हो गये हैं ॥ ५४ ॥ इस संसारमें या मनुष्य-शरीरमें जीवका सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनन्य भक्ति प्राप्त करे। उस भक्तिका स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र सब वस्तुओंमें भगवान्‌का दर्शन ॥ ५५ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते दैत्यपुत्रानुशासनं नाम सप्तमोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...