॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – बारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
ब्रह्मचर्य
और वानप्रस्थ-आश्रमोंके नियम
वानप्रस्थस्य
वक्ष्यामि नियमान् मुनिसम्मतान् ।
यानास्थाय
मुनिर्गच्छेद् ऋषिलोकमुहाञ्जसा ॥ १७ ॥
न
कृष्टपच्यमश्नीयाद् अकृष्टं चाप्यकालतः ।
अग्निपक्वमथामं
वा अर्कपक्वमुताहरेत् ॥ १८ ॥
वन्यैश्चरुपुरोडाशान्
निर्वपेत्कालचोदितान् ।
लब्धे
नवे नवेऽन्नाद्ये पुराणं च परित्यजेत् ॥ १९ ॥
अग्न्यर्थमेव
शरणं उटजं वाद्रिकन्दरम् ।
श्रयेत
हिमवाय्वग्नि वर्षार्कातपषाट् स्वयम् ॥ २० ॥
केशरोमनखश्मश्रु
मलानि जटिलो दधत् ।
कमण्डल्वजिने
दण्ड वल्कलाग्निपरिच्छदान् ॥ २१ ॥
चरेद्
वने द्वादशाब्दान् अष्टौ वा चतुरो मुनिः ।
द्वावेकं
वा यथा बुद्धिः न विपद्येत कृच्छ्रतः ॥ २२ ॥
(नारदजी
कह रहे हैं) अब मैं ऋषियों के मतानुसार वानप्रस्थ-आश्रम के नियम बतलाता हूँ। इनका
आचरण करनेसे वानप्रस्थ-आश्रमीको अनायास ही ऋषियोंके लोक महर्लोककी प्राप्ति हो
जाती है ॥ १७ ॥ वानप्रस्थ-आश्रमीको जोती हुई भूमिमें उत्पन्न होनेवाले चावल, गेहूँ आदि अन्न नहीं खाने चाहिये। बिना जोते पैदा हुआ अन्न भी यदि असमयमें
पका हो, तो उसे भी न खाना चाहिये। आगसे पकाया हुआ या कच्चा
अन्न भी न खाय। केवल सूर्यके तापसे पके हुए कन्द, मूल,
फल आदिका ही सेवन करे ॥ १८ ॥ जंगलोंमें अपने-आप पैदा हुए धान्योंसे
नित्य-नैमित्तिक चरु और पुरोडाशका हवन करे। जब नये-नये अन्न, फल, फूल आदि मिलने लगें, तब
पहलेके इकट्ठेकिये हुए अन्नका परित्याग कर दे ॥ १९ ॥ अग्निहोत्र के अग्नि की
रक्षाके लिये ही घर, पर्णकुटी अथवा पहाडक़ी गुफाका आश्रय ले।
स्वयं शीत, वायु, अग्नि, वर्षा और घामका सहन करे ॥ २० ॥ सिरपर जटा धारण करे और केश, रोम, नख एवं दाढ़ी-मूँछ न कटवाये तथा मैलको भी
शरीरसे अलग न करे। कमण्डलु, मृगचर्म, दण्ड,
वल्कल-वस्त्र और अग्रिहोत्रकी सामग्रियोंको अपने पास रखे ॥ २१ ॥
विचारवान् पुरुषको चाहिये कि बारह, आठ, चार, दो या एक वर्षतक वानप्रस्थ-आश्रमके नियमोंका
पालन करे। ध्यान रहे कि कहीं अधिक तपस्याका क्लेश सहन करनेसे बुद्धि बिगड़ न जाय ॥
२२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से