गुरुवार, 29 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय |
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ||१७||
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय |
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ||१८||

जैसे कोई दयालु पुरुष फंदेमें पड़े हुए पशुका बन्धन काट दे, वैसे ही आप मेरे-जैसे शरणागतोंकी फाँसी काट देते हैं। आप नित्यमुक्त हैं, परम करुणामय हैं और भक्तोंका कल्याण करनेमें आप कभी आलस्य नहीं करते। आपके चरणोंमें मेरा नमस्कार है। समस्त प्राणियोंके हृदयमें अपने अंशके द्वारा अन्तरात्माके रूपमें आप उपलब्ध होते रहते हैं। आप सर्वैश्वर्यपूर्ण एवं अनन्त हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥ जो लोग शरीर, पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पत्ति और स्वजनोंमें आसक्त हैंउन्हें आपकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। क्योंकि आप स्वयं गुणोंकी आसक्तिसे रहित हैं। जीवन्मुक्त पुरुष अपने हृदयमें आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। उन सर्वैश्वर्यपूर्ण ज्ञानस्वरूप भगवान्‌को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

नमो नमस्तेऽखिलकारणाय
निष्कारणायाद्भुतकारणाय |
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय
नमोऽपवर्गाय परायणाय ||१५||
गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय |
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ||१६||

आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है। तथा कारण होनेपर भी आपमें विकार या परिणाम नहीं होता, इसलिये आप अनोखे कारण हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार ! जैसे समस्त नदी-झरने आदिका परम आश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रोंके परम तात्पर्य हैं। आप मोक्षस्वरूप हैं और समस्त संत आप की ही शरण ग्रहण करते हैं; अत: आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १५ ॥ जैसे यज्ञके काष्ठ अरणिमें अग्नि गुप्त रहती है, वैसे ही आपने अपने ज्ञानको गुणोंकी मायासे ढक रखा है। गुणोंमें क्षोभ होनेपर उनके द्वारा विविध प्रकारकी सृष्टि- रचना का आप संकल्प करते हैं। जो लोग कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पणके द्वारा आत्मतत्त्वकी भावना करके वेद-शास्त्रोंसे ऊपर उठ जाते हैं, उनके आत्माके रूपमें आप स्वयं ही प्रकाशित हो जाते हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १६ ॥

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बुधवार, 28 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ||१३||
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ||१४||

आप सबके स्वामी, समस्त क्षेत्रोंके एकमात्र ज्ञाता एवं सर्वसाक्षी हैं, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप स्वयं ही अपने कारण हैं। पुरुष और मूल प्रकृतिके रूपमें भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार ॥ १३ ॥ आप समस्त इन्द्रिय और उनके विषयोंके द्रष्टा हैं, समस्त प्रतीतियोंके आधार हैं। अहंकार आदि छायारूप असत् वस्तुओंके द्वारा आपका ही अस्तित्व प्रकट होता है। समस्त वस्तुओंकी सत्ताके रूपमें भी केवल आप ही भास रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ||११||
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ||१२||

विवेकी पुरुष कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा अपना अन्त:करण शुद्ध करके जिन्हें प्राप्त करते हैं तथा जो स्वयं तो नित्यमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञानस्वरूप हैं ही, दूसरोंको कैवल्य-मुक्ति देनेकी  सामर्थ्य भी केवल उन्हीं में हैउन प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ११ ॥ जो सत्त्व, रज, तमइन तीन गुणोंका धर्म स्वीकार करके क्रमश: शान्त, घोर और मूढ़ अवस्था भी धारण करते हैं, उन भेदरहित समभावसे स्थित एवं ज्ञानघन प्रभुको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १२ ॥

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मंगलवार, 27 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं
विमुक्तसङ्गा मुनयः सुसाधवः |
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः ||||
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म
वा न नामरूपे गुणदोष एव वा |
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ||||
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे ||||
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ||१०||

जिनके परम मङ्गलमय स्वरूप का दर्शन करने के लिये महात्मागण संसार की समस्त आसक्तियों का परित्याग कर देते हैं और वनमें जाकर अखण्डभावसे ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतोंका पालन करते हैं तथा अपने आत्माको सबके हृदयमें विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सबकी भलाई करते हैंवे ही मुनियोंके सर्वस्व भगवान्‌ मेरे सहायक हैं; वे ही मेरी गति हैं ॥ ७ ॥ न उनके जन्म-कर्म हैं और न नाम-रूप; फिर उनके सम्बन्धमें गुण और दोषकी तो कल्पना ही कैसे की जा सकती है ? फिर भी विश्वकी सृष्टि और संहार करनेके लिये समय-समयपर वे उन्हें अपनी मायासे स्वीकार करते हैं ॥ ८ ॥ उन्हीं अनन्त शक्तिमान् सर्वैश्वर्यमय परब्रह्म परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ। वे अरूप होनेपर भी बहुरूप हैं। उनके कर्म अत्यन्त आश्चर्यमय हैं। मैं उनके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ॥ ९ ॥ स्वयंप्रकाश, सबके साक्षी परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ। जो मन, वाणी और चित्तसे अत्यन्त दूर हैंउन परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु |
तमस्तदासीद्गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः ||||
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-
र्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम् |
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ||||

प्रलयके समय लोक, लोकपाल और इन सबके कारण सम्पूर्ण- रूपसे नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल अत्यन्त घना और गहरा अन्धकार-ही-अन्धकार रहता है। परंतु अनन्त परमात्मा उससे सर्वथा परे विराजमान रहते हैं। वे ही प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ ५ ॥ उनकी लीलाओंका रहस्य जानना बहुत ही कठिन है। वे नट की भाँति अनेकों वेष धारण करते हैं। उनके वास्तविक स्वरूपको न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही; फिर दूसरा ऐसा कौन प्राणी है, जो वहाँतक जा सके और उसका वर्णन कर सके ? वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ ६ ॥

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सोमवार, 26 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

श्रीबादरायणिरुवाच
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥ १ ॥

श्रीगजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥ २ ॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्
योऽस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम् ॥ ३ ॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्
अविद्धदृक्साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अपनी बुद्धि से ऐसा निश्चय करके गजेन्द्र ने अपने मन को हृदय में एकाग्र किया और फिर पूर्वजन्म में सीखे हुए श्रेष्ठ स्तोत्र के जप द्वारा भगवान्‌ की स्तुति करने लगा ॥ १ ॥
गजेन्द्र ने कहाजो जगत् के  मूल कारण हैं और सबके हृदय में पुरुष के रूपमें विराजमान हैं एवं समस्त जगत् के  एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसारमें चेतनता का विस्तार होता हैउन भगवान्‌ को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेमसे उनका ध्यान करता हूँ ॥ २ ॥ यह संसार उन्हींमें स्थित है, उन्हीं की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह सब होनेपर भी वे इस संसार और इसके कारणप्रकृति से सर्वथा परे हैं। उन स्वयं- प्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान्‌ की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ३ ॥ यह विश्व-प्रपञ्च उन्हींकी मायासे उनमें अध्यस्त है। यह कभी प्रतीत होता है, तो कभी नहीं। परंतु उनकी दृष्टि ज्यों-की- त्योंएक-सी रहती है। वे इसके साक्षी हैं और उन दोनोंको ही देखते रहते हैं। वे सबके मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं। कोई दूसरा उनका कारण नहीं है। वे ही समस्त कार्य और कारणोंसे अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ ४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकड़ा जाना

ततो गजेन्द्रस्य मनोबलौजसां
     कालेन दीर्घेण महानभूद् व्ययः ।
विकृष्यमाणस्य जलेऽवसीदतो
     विपर्ययोऽभूत् सकलं जलौकसः ॥ ३० ॥
इत्थं गजेन्द्रः स यदाप संकटं
     प्राणस्य देही विवशो यदृच्छया ।
अपारयन्नात्मविमोक्षणे चिरं
     दध्याविमां बुद्धिमथाभ्यपद्यत ॥ ३१ ॥
न मामिमे ज्ञातय आतुरं गजाः
     कुतः करिण्यः प्रभवन्ति मोचितुम् ।
ग्राहेण पाशेन विधातुरावृतोऽपि
     अहं च तं यामि परं परायणम् ॥ ३२ ॥
यः कश्चनेशो बलिनोऽन्तकोरगात्
     प्रचण्डवेगादभिधावतो भृशम् ।
भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्‍भयात्
     मृत्युः प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥ ३३ ॥

अन्त में बहुत दिनों तक बार-बार जल में खींचे जाने से गजेन्द्र का शरीर शिथिल पड़ गया। न तो उसके शरीरमें बल रह गया और न मनमें उत्साह। शक्ति भी क्षीण हो गयी। इधर ग्राह तो जलचर ही ठहरा। इसलिये उसकी शक्ति क्षीण होनेके स्थानपर बढ़ गयी, वह बड़े उत्साहसे और भी बल लगाकर गजेन्द्रको खींचने लगा ॥ ३० ॥ इस प्रकार देहाभिमानी गजेन्द्र अकस्मात् प्राणसङ्कट में पड़ गया और अपनेको छुड़ानेमें सर्वथा असमर्थ हो गया। बहुत देरतक उसने अपने छुटकारेके उपायपर विचार किया, अन्तमें वह इस निश्चयपर पहुँचा ॥ ३१ ॥ यह ग्राह विधाताकी फाँसी ही है। इसमें फँसकर मैं आतुर हो रहा हूँ। जब मुझे मेरे बराबरके हाथी भी इस विपत्तिसे न उबार सके, तब ये बेचारी हथिनियाँ तो छुड़ा ही कैसे सकती हैं। इसलिये अब मैं सम्पूर्ण विश्वके एकमात्र आश्रय भगवान्‌की ही शरण लेता हूँ ॥ ३२ ॥ काल बड़ा बली है। यह साँपके समान बड़े प्रचण्ड वेगसे सबको निगल जानेके लिये दौड़ता ही रहता है। इससे अत्यन्त भयभीत होकर जो कोई भगवान्‌की शरणमें चला जाता है, उसे वे प्रभु अवश्य-अवश्य बचा लेते हैं। उनके भयसे भीत होकर मृत्यु भी अपना काम ठीक-ठीक पूरा करता है। वही प्रभु सब के आश्रय हैं। मैं उन्हीं की शरण ग्रहण करता हूँ॥ ३३ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे मन्वन्तरानुवर्णने गजेन्द्रोपाख्याने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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रविवार, 25 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना

तं तत्र कश्चिन्नृप दैवचोदितो
     ग्राहो बलीयांश्चरणे रुषाग्रहीत् ।
यदृच्छयैवं व्यसनं गतो गजो
     यथाबलं सोऽतिबलो विचक्रमे ॥ २७ ॥
तथाऽऽतुरं यूथपतिं करेणवो
     विकृष्यमाणं तरसा बलीयसा ।
विचुक्रुशुर्दीनधियोऽपरे गजाः
     पार्ष्णिग्रहास्तारयितुं न चाशकन् ॥ २८ ॥
नियुध्यतोरेवमिभेन्द्रनक्रयोः
     विकर्षतोरन्तरतो बहिर्मिथः ।
समाः सहस्रं व्यगमन् महीपते
     सप्राणयोश्चित्रममंसतामराः ॥ २९ ॥

परीक्षित्‌ ! गजेन्द्र जिस समय इतना उन्मत्त हो रहा था, उसी समय प्रारब्धकी प्रेरणासे एक बलवान् ग्राहने क्रोधमें भरकर उसका पैर पकड़ लिया। इस प्रकार अकस्मात् विपत्तिमें पडक़र उस बलवान् गजेन्द्रने अपनी शक्तिके अनुसार अपनेको छुड़ानेकी बड़ी चेष्टा की, परंतु छुड़ा न सका ॥ २७ ॥ दूसरे हाथी, हथिनियों और उनके बच्चोंने देखा कि उनके स्वामीको बलवान् ग्राह बड़े वेगसे खींच रहा है और वे बहुत घबरा रहे हैं। उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। वे बड़ी विकलतासे चिग्घाडऩे लगे। बहुतोंने उसे सहायता पहुँचाकर जलसे बाहर निकाल लेना चाहा, परंतु इसमें भी वे असमर्थ ही रहे ॥ २८ ॥ गजेन्द्र और ग्राह अपनी-अपनी पूरी शक्ति लगाकर भिड़े हुए थे। कभी गजेन्द्र ग्राहको बाहर खींच लाता, तो कभी ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींच ले जाता। परीक्षित्‌ ! इस प्रकार उनको लड़ते-लड़ते एक हजार वर्ष बीत गये और दोनों ही जीते रहे। यह घटना देखकर देवता भी आश्चर्यचकित हो गये ॥ २९ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०) धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका  ...