बुधवार, 11 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

श्रीब्रह्मोवाच -

अजातजन्मस्थितिसंयमाया
     गुणाय निर्वाणसुखार्णवाय ।
अणोरणिम्नेऽपरिगण्यधाम्ने
     महानुभावाय नमो नमस्ते ॥ ८ ॥
रूपं तवैतत् पुरुषर्षभेज्यं
     श्रेयोऽर्थिभिर्वैदिकतांत्रिकेण ।
योगेन धातः सह नस्त्रिलोकान्
     पश्याम्यमुष्मिन् नु ह विश्वमूर्तौ ॥ ९ ॥

ब्रह्माजीने कहाजो जन्म, स्थिति और प्रलयसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, जो प्राकृत गुणोंसे रहित एवं मोक्षस्वरूप परमानन्दके महान् समुद्र हैं, जो सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म हैं और जिनका स्वरूप अनन्त हैउन परम ऐश्वर्यशाली प्रभुको हमलोग बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ८ ॥ पुरुषोत्तम ! अपना कल्याण चाहनेवाले साधक वेदोक्त एवं पाञ्चरात्रोक्त विधिसे आपके इसी स्वरूपकी उपासना करते हैं। मुझे भी रचनेवाले प्रभो ! आपके इस विश्वमय स्वरूपमें मुझे समस्त देवगणोंके सहित तीनों लोक दिखायी दे रहे हैं ॥ ९ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

श्रीशुक उवाच
एवं स्तुतः सुरगणैः भवान् हरिरीश्वरः ।
तेषां आविरभूद् राजन् सहस्रार्कोदयद्युतिः ॥ १ ॥
तेनैव सहसा सर्वे देवाः प्रतिहतेक्षणाः ।
नापश्यन् खं दिशः क्षौणीं आत्मानं च कुतो विभुम् ॥ २ ॥
विरिञ्चो भगवान् दृष्ट्वा सह शर्वेण तां तनुम् ।
स्वच्छां मरकतश्यामां कञ्जगर्भारुणेक्षणाम् ॥ ३ ॥
तप्तहेमावदातेन लसत्कौशेयवाससा ।
प्रसन्नचारुसर्वांगीं सुमुखीं सुन्दरभ्रुवम् ॥ ४ ॥
महामणिकिरीटेन केयूराभ्यां च भूषिताम् ।
कर्णाभरणनिर्भात कपोलश्रीमुखाम्बुजाम् ॥ ५ ॥
काञ्चीकलापवलय हारनूपुरशोभिताम् ।
कौस्तुभाभरणां लक्ष्मीं बिभ्रतीं वनमालिनीम् ॥ ६ ॥
सुदर्शनादिभिः स्वास्त्रैः मूर्तिमद् भिरुपासिताम् ।
तुष्टाव देवप्रवरः सशर्वः पुरुषं परम्   
सर्वामरगणैः साकं सर्वांगैरवनिं गतैः ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब देवताओंने सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरिकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनके बीचमें ही प्रकट हो गये। उनके शरीरकी प्रभा ऐसी थी, मानो हजारों सूर्य एक साथ ही उग गये हों ॥ १ ॥ भगवान्‌की उस प्रभासे सभी देवताओंकी आँखें चौंधिया गयीं। वे भगवान्‌को तो क्याआकाश, दिशाएँ, पृथ्वी और अपने शरीरको भी न देख सके ॥ २ ॥ केवल भगवान्‌ शङ्कर और ब्रह्माजीने उस छबिका दर्शन किया। बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी। मरकतमणि (पन्ने)के समान स्वच्छ श्यामल शरीर, कमलके भीतरी भागके समान सुकुमार नेत्रोंमें लाल-लाल डोरियाँ और चमकते हुए सुनहले रंगका रेशमी पीताम्बर ! सर्वाङ्गसुन्दर शरीरके रोम- रोमसे प्रसन्नता फूटी पड़ती थी। धनुषके समान टेढ़ी भौंहें और बड़ा ही सुन्दर मुख। सिरपर महा- मणिमय किरीट और भुजाओंमें बाजूबंद। कानोंके झलकते हुए कुण्डलोंकी चमक पडऩेसे कपोल और भी सुन्दर हो उठते थे, जिससे मुखकमल खिल उठता था। कमरमें करधनीकी लडिय़ाँ, हाथोंमें कंगन, गलेमें हार और चरणोंमें नूपुर शोभायमान थे। वक्ष:स्थलपर लक्ष्मी और गलेमें कौस्तुभमणि तथा वनमाला सुशोभित थीं ॥ ३६ ॥ भगवान्‌ के निज अस्त्र सुदर्शन चक्र आदि मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रहे थे। सभी देवताओंने पृथ्वीपर गिरकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया फिर सारे देवताओंको साथ ले शङ्करजी तथा ब्रह्माजी परम पुरुष भगवान्‌की स्तुति करने लगे ॥ ७ ॥

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मंगलवार, 10 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

नावमः कर्मकल्पोऽपि विफलायेश्वरार्पितः ।
कल्पते पुरुषस्यैव स ह्यात्मा दयितो हितः ॥ ४८ ॥
यथा हि स्कन्धशाखानां तरोर्मूलावसेचनम् ।
एवं आराधनं विष्णोः सर्वेषां आत्मनश्च हि ॥ ४९ ॥
नमस्तुभ्यं अनन्ताय दुर्वितर्क्यात्मकर्मणे ।
निर्गुणाय गुणेशाय सत्त्वस्थाय च साम्प्रतम् ॥ ५० ॥

भगवान्‌ को समर्पित किया हुआ छोटे-से-छोटा कर्माभास भी कभी विफल नहीं होता। क्योंकि भगवान्‌ जीव के परम हितैषी, परम प्रियतम और आत्मा ही हैं ॥ ४८ ॥ जैसे वृक्षकी जडक़ो पानीसे सींचना उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं और छोटी-छोटी डालियों को भी सींचना है, वैसे ही सर्वात्मा भगवान्‌ की आराधना सम्पूर्ण प्राणियों की और अपनी भी आराधना है ॥ ४९ ॥ जो तीनों काल और उससे परे भी एकरस स्थित हैं, जिनकी लीलाओंका रहस्य तर्क-वितर्कके परे है, जो स्वयं गुणोंसे परे रहकर भी सब गुणोंके स्वामी हैं तथा इस समय सत्त्वगुणमें स्थित हैंऐसे आपको हम बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे अमृतमथने पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

स त्वं नो दर्शयात्मानं अस्मत् करणगोचरम् ।
प्रपन्नानां दिदृक्षूणां सस्मितं ते मुखाम्बुजम् ॥ ४५ ॥
तैस्तैः स्वेच्छाधृतै रूपैः काले काले स्वयं विभो ।
कर्म दुर्विषहं यन्नो भगवान् तत्करोति हि ॥ ४६ ॥
क्लेशभूर्यल्पसाराणि कर्माणि विफलानि वा ।
देहिनां विषयार्तानां न तथैवार्पितं त्वयि ॥ ४७ ॥


प्रभो ! हम आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त आपका मुखकमल अपने इन्हीं नेत्रोंसे देखें। आप कृपा करके हमें उसका दर्शन कराइये ॥ ४५ ॥
प्रभो ! आप समय-समयपर स्वयं ही अपनी इच्छासे अनेकों रूप धारण करते हैं और जो काम हमारे लिये अत्यन्त कठिन होता है, उसे आप सहजमें ही कर देते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं, आपके लिये इसमें कौन-सी कठिनाई है ॥ ४६ ॥ विषयोंके लोभमें पडक़र जो देहाभिमानी दु:ख भोग रहे हैं, उन्हें कर्म करनेमें परिश्रम और क्लेश तो बहुत अधिक होता है; परंतु फल बहुत कम निकलता है। अधिकांशमें तो उनके विफलता ही हाथ लगती है। परंतु जो कर्म आपको समर्पित किये जाते हैं, उनके करनेके समय ही परम सुख मिलता है। वे स्वयं फलरूप ही हैं ॥ ४७ ॥

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सोमवार, 9 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

लोभोऽधरात् प्रीतिरुपर्यभूद् द्युतिः
     नस्तः पशव्यः स्पर्शेन कामः ।
भ्रुवोर्यमः पक्ष्मभवस्तु कालः
     प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४२ ॥
द्रव्यं वयः कर्म गुणान्विशेषं
     यद्योगमायाविहितान्वदन्ति ।
यद्दुर्विभाव्यं प्रबुधापबाधं
     प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४३ ॥
नमोऽस्तु तस्मा उपशान्तशक्तये
     स्वाराज्यलाभप्रतिपूरितात्मने ।
गुणेषु मायारचितेषु वृत्तिभिः
     न सज्जमानाय नभस्वदूतये ॥ ४४ ॥

जिनके अधरसे लोभ और ओष्ठसे प्रीति, नासिकासे कान्ति, स्पर्शसे पशुओंका प्रिय काम, भौंहोंसे यम और नेत्रके रोमोंसे कालकी उत्पत्ति हुई हैवे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों ॥ ४२ ॥ पञ्चभूत, काल, कर्म, सत्त्वादि गुण और जो कुछ विवेकी पुरुषोंके द्वारा बाधित किये जाने योग्य निर्वचनीय या अनिर्वचनीय विशेष पदार्थ हैं, वे सब-के-सब भगवान्‌की योगमायासे ही बने हैंऐसा शास्त्र कहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ हम पर प्रसन्न हों ॥ ४३ ॥ जो मायानिर्मित गुणोंमें दर्शनादि वृत्तियोंके द्वारा आसक्त नहीं होते, जो वायु के समान सदा-सर्वदा असङ्ग रहते हैं, जिनमें समस्त शक्तियाँ शान्त हो गयी हैंउन अपने आत्मानन्द के लाभ से परिपूर्ण आत्मस्वरूप भगवान्‌ को हमारे नमस्कार हैं ॥ ४४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट११)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

बलान्महेन्द्रस्त्रिदशाः प्रसादान्
     मन्योर्गिरीशो धिषणाद्विरिञ्चः ।
खेभ्यस्तु छन्दांस्यृषयो मेढ्रतः कः
     प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३९ ॥
श्रीर्वक्षसः पितरश्छाययाऽऽसन्
     धर्मः स्तनादितरः पृष्ठतोऽभूत् ।
द्यौर्यस्य शीर्ष्णोऽप्सरसो विहारात्
     प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४० ॥
विप्रो मुखं ब्रह्म च यस्य गुह्यं
     राजन्य आसीद् भुजयोर्बलं च ।
ऊर्वोर्विडोजोङ्‌घ्रिरवेदशूद्रौ
     प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४१ ॥

जिनके बलसे इन्द्र, प्रसन्नतासे समस्त देवगण, क्रोधसे शङ्कर, बुद्धिसे ब्रह्मा, इन्द्रियोंसे वेद और ऋषि तथा लिङ्गसे प्रजापति उत्पन्न हुए हैंवे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों ॥ ३९ ॥ जिनके वक्ष:स्थलसे लक्ष्मी, छायासे पितृगण, स्तनसे धर्म, पीठसे अधर्म, सिरसे आकाश और विहारसे अप्सराएँ प्रकट हुई हैं, वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों ॥ ४० ॥ जिनके मुखसे ब्राह्मण और अत्यन्त रहस्यमय वेद, भुजाओंसे क्षत्रिय और बल, जङ्घाओंसे वैश्य और उनकी वृत्तिव्यापारकुशलता तथा चरणोंसे वेदबाह्य शूद्र और उनकी सेवा आदि वृत्ति प्रकट हुई हैवे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों ॥ ४१ ॥

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रविवार, 8 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

यच्चक्षुरासीत्तरणिर्देवयानं
     त्रयीमयो ब्रह्मण एष धिष्ण्यम् ।
द्वारं च मुक्तेरमृतं च मृत्युः
     प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३६ ॥
प्राणादभूद् यस्य चराचराणां
     प्राणः सहो बलमोजश्च वायुः ।
अन्वास्म सम्राजमिवानुगा वयं
     प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३७ ॥
श्रोत्राद् दिशो यस्य हृदश्च खानि
     प्रजज्ञिरे खं पुरुषस्य नाभ्याः ।
प्राणेन्द्रियात्मासुशरीरकेतः
     प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३८ ॥

जिनके द्वारा जीव देवयानमार्गसे ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है, जो वेदोंकी साक्षात् मूर्ति और भगवान्‌के ध्यान करनेयोग्य धाम हैं, जो पुण्यलोकस्वरूप होनेके कारण मुक्तिके द्वार एवं अमृतमय हैं और कालरूप होनेके कारण मृत्यु भी हैंऐसे सूर्य जिनके नेत्र हैं, वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों ॥ ३६ ॥ प्रभुके प्राणसे ही चराचरका प्राण तथा उन्हें मानसिक, शारीरिक और इन्द्रिय सम्बन्धी बल देनेवाला वायु प्रकट हुआ है। वह चक्रवर्ती सम्राट् है, तो इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ-देवता हम सब उसके अनुचर। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों ॥ ३७ ॥ जिनके कानोंसे दिशाएँ, हृदयसे इन्द्रियगोलक और नाभिसे वह आकाश उत्पन्न हुआ है, जो पाँचों प्राण (प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान), दसों इन्द्रिय, मन, पाँचों असु (नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय) एवं शरीरका आश्रय हैवे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों ॥ ३८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

सोमं मनो यस्य समामनन्ति
     दिवौकसां यो बलमन्ध आयुः ।
ईशो नगानां प्रजनः प्रजानां
     प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३४ ॥
अग्निर्मुखं यस्य तु जातवेदा
     जातः क्रियाकाण्डनिमित्तजन्मा ।
अन्तःसमुद्रेऽनुपचन्स्वधातून्
     प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३५ ॥

श्रुतियाँ कहती हैं कि चन्द्रमा उस प्रभुका मन है। यह चन्द्रमा समस्त देवताओंका अन्न, बल एवं आयु है। वही वृक्षोंका सम्राट् एवं प्रजाकी वृद्धि करनेवाला है। ऐसे मनको स्वीकार करनेवाले परम ऐश्वर्यशाली प्रभु हमपर प्रसन्न हों ॥ ३४ ॥ अग्नि प्रभुका मुख है। इसकी उत्पत्ति ही इसलिये हुई है कि वेदके यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड पूर्णरूपसे सम्पन्न हो सकें। यह अग्नि ही शरीरके भीतर जठराग्निरूप से और समुद्र के भीतर बड़वानलके रूपसे रहकर उनमें रहनेवाले अन्न, जल आदि धातुओंका पाचन करता रहता है और समस्त द्रव्योंकी उत्पत्ति भी उसीसे हुई है। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों ॥ ३५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...