॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान् शङ्कर का विषपान
श्रीशुक उवाच
ते नागराजमामन्त्र्य फलभागेन वासुकिम्
परिवीय गिरौ तस्मिन्नेत्रमब्धिं मुदान्विताः ॥ १ ॥
आरेभिरे सुसंयत्ता अमृतार्थं कुरूद्वह
हरिः पुरस्ताज्जगृहे पूर्वं देवास्ततोऽभवन् ॥ २ ॥
तन्नैच्छन्दैत्यपतयो महापुरुषचेष्टितम्
न गृह्णीमो वयं पुच्छमहेरङ्गममङ्गलम् ॥ ३ ॥
स्वाध्यायश्रुतसम्पन्नाः प्रख्याता जन्मकर्मभिः
इति तूष्णीं स्थितान्दैत्यान्विलोक्य पुरुषोत्तमः
स्मयमानो विसृज्याग्रं पुच्छं जग्राह सामरः ॥ ४ ॥
कृतस्थानविभागास्त एवं कश्यपनन्दनाः
ममन्थुः परमं यत्ता अमृतार्थं पयोनिधिम् ॥ ५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! देवता और असुरोंने नागराज वासुकिको यह वचन देकर कि समुद्रमन्थनसे
प्राप्त होनेवाले अमृत में तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगों ने वासुकि
नाग को नेती के समान मन्दराचल में लपेटकर भलीभाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्द से
अमृत के लिये समुद्रमन्थन प्रारम्भ किया। उस समय पहले-पहल अजित भगवान् वासुकि के
मुख की ओर लग गये,
इसलिये देवता भी उधर ही आ जुटे ॥ १-२ ॥ परंतु भगवान् की यह
चेष्टा दैत्यसेनापतियों को पसंद न आयी। उन्होंने कहा कि ‘पूँछ तो साँपका अशुभ अङ्ग है, हम उसे नहीं पकड़ेंगे ॥ ३ ॥ हमने वेद-शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है, ऊँचे वंश में हमारा जन्म हुआ है और वीरता के बड़े-बड़े काम
हमने किये हैं। हम देवताओं से किस बातमें कम हैं ?’ यह कहकर वे लोग चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनकी यह मनोवृत्ति देखकर भगवान् ने
मुसकराकर वासुकि का मुँह छोड़ दिया और देवताओं के साथ उन्होंने पूँछ पकड़ ली ॥ ४ ॥
इस प्रकार अपना-अपना स्थान निश्चित करके देवता और असुर अमृतप्राप्ति के लिये पूरी
तैयारी से समुद्रमन्थन करने लगे ॥ ५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से