शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घा
रोमाणि सर्वौषधिवीरुधस्ते
छन्दांसि साक्षात्तव सप्त धातव-
स्त्रयीमयात्मन्हृदयं सर्वधर्मः ॥ २८
मुखानि पञ्चोपनिषदस्तवेश
यैस्त्रिंशदष्टोत्तरमन्त्रवर्गः
यत्तच्छिवाख्यं परमात्मतत्त्वं
देव स्वयंज्योतिरवस्थितिस्ते ॥ २९
छाया त्वधर्मोर्मिषु यैर्विसर्गो
नेत्रत्रयं सत्त्वरजस्तमांसि
साङ्ख्यात्मनः शास्त्रकृतस्तवेक्षा
छन्दोमयो देव ऋषिः पुराणः ॥ ३०

वेदस्वरूप भगवन् ! समुद्र आपकी कोख हैं। पर्वत हड्डियाँ हैं। सब प्रकारकी ओषधियाँ और घास आपके रोम हैं। गायत्री आदि छन्द आपकी सातों धातुएँ हैं और सभी प्रकारके धर्म आपके हृदय हैं ॥ २८ ॥ स्वामिन् ! सद्योजातादि पाँच उपनिषद् ही आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और ईशान नामक पाँच मुख हैं। उन्हींके पदच्छेदसे अड़तीस कलात्मक मन्त्र निकले हैं। आप जब समस्त प्रपञ्चसे उपरत होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्थितिका नाम होता है शिव। वास्तवमें वही स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है ॥ २९ ॥ अधर्मकी दम्भ-लोभ आदि तरङ्गोंमें आपकी छाया है जिनसे विविध प्रकारकी सृष्टि होती है, वे सत्त्व, रज और तमआपके तीन नेत्र हैं। प्रभो ! गायत्री आदि छन्दरूप सनातन वेद ही आपका विचार है। क्योंकि आप ही सांख्य आदि समस्त शास्त्रोंके रूपमें स्थित हैं और उनके कर्ता भी हैं ॥ ३० ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

अग्निर्मुखं तेऽखिलदेवतात्मा
क्षितिं विदुर्लोकभवाङ्घ्रिपङ्कजम्
कालं गतिं तेऽखिलदेवतात्मनो
दिशश्च कर्णौ रसनं जलेशम् ॥ २६ ॥
नाभिर्नभस्ते श्वसनं नभस्वान्- 
सूर्यश्च चक्षूंषि जलं स्म रेतः
परावरात्माश्रयणं तवात्मा
सोमो मनो द्यौर्भगवन्शिरस्ते ॥ २७ ॥

सर्वदेवस्वरूप अग्नि आपका मुख है। तीनों लोकोंके अभ्युदय करनेवाले शङ्कर ! यह पृथ्वी आपका चरणकमल है। आप अखिल देवस्वरूप हैं। यह काल आपकी गति है, दिशाएँ कान हैं और वरुण रसनेन्द्रिय है ॥ २६ ॥ आकाश नाभि है, वायु श्वास है, सूर्य नेत्र हैं और जल वीर्य है। आपका अहंकार नीचे-ऊँचे सभी जीवोंका आश्रय है। चन्द्रमा मन है और प्रभो ! स्वर्ग आपका सिर है ॥ २७ ॥

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गुरुवार, 19 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

त्वं ब्रह्म परमं गुह्यं सदसद्भावभावनम्
नानाशक्तिभिराभातस्त्वमात्मा जगदीश्वरः ॥ २४
त्वं शब्दयोनिर्जगदादिरात्मा
प्राणेन्द्रि यद्र व्यगुणः स्वभावः
कालः क्रतुः सत्यमृतं च धर्म-
स्त्वय्यक्षरं यत्त्रिवृदामनन्ति ॥ २५

आप स्वयंप्रकाश हैं। इसका कारण यह है कि आप परम रहस्यमय ब्रह्मतत्त्व हैं। जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सत् अथवा असत् चराचर प्राणी हैंउनको जीवनदान देनेवाले आप ही हैं। आपके अतिरिक्त सृष्टि भी और कुछ नहीं है। क्योंकि आप आत्मा हैं। अनेक शक्तियोंके द्वारा आप ही जगत्  रूप में भी प्रतीत हो रहे हैं। क्योंकि आप ईश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं ॥ २४ ॥ समस्त वेद आपसे ही प्रकट हुए हैं। इसलिये आप समस्त ज्ञानोंके मूल स्रोत स्वत:सिद्ध ज्ञान हैं। आप ही जगत्के आदिकारण महत्तत्त्व और त्रिविध अहंकार हैं एवं आप ही प्राण, इन्द्रिय, पञ्चमहाभूत तथा शब्दादि विषयोंके भिन्न-भिन्न स्वभाव और उनके मूल कारण हैं। आप स्वयं ही प्राणियोंकी वृद्धि और ह्रास करनेवाले काल हैं, उनका कल्याण करनेवाले यज्ञ हैं एवं सत्य और मधुर वाणी हैं। धर्म भी आपका ही स्वरूप है। आप ही , , म् इन तीनों अक्षरोंसे युक्त प्रणव हैं अथवा त्रिगुणात्मिका प्रकृति हैंऐसा वेदवादी महात्मा कहते हैं ॥ २५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

श्रीप्रजापतय ऊचुः

देवदेव महादेव भूतात्मन्भूतभावन
त्राहि नः शरणापन्नांस्त्रैलोक्यदहनाद्विषात् ॥ २१ ॥
त्वमेकः सर्वजगत ईश्वरो बन्धमोक्षयोः
तं त्वामर्चन्ति कुशलाः प्रपन्नार्तिहरं गुरुम् ॥ २२ ॥
गुणमय्या स्वशक्त्यास्य सर्गस्थित्यप्ययान्विभो
धत्से यदा स्वदृग्भूमन्ब्रह्मविष्णुशिवाभिधाम् ॥ २३ ॥

प्रजापतियोंने भगवान्‌ शङ्करकी स्तुति कीदेवताओंके आराध्यदेव महादेव ! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हमलोग आपकी शरणमें आये हैं। त्रिलोकीको भस्म करनेवाले इस उग्र विषसे आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ २१ ॥ सारे जगत् को बाँधने और मुक्त करनेमें एकमात्र आप ही समर्थ हैं। इसलिये विवेकी पुरुष आपकी ही आराधना करते हैं। क्योंकि आप शरणागतकी पीड़ा नष्ट करनेवाले एवं जगद्गुरु हैं ॥ २२ ॥ प्रभो ! अपनी गुणमयी शक्तिसे इस जगत्की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करनेके लिये आप अनन्त, एकरस होनेपर भी ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि नाम धारण कर लेते हैं ॥ २३ ॥

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बुधवार, 18 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

निर्मथ्यमानादुदधेरभूद्विषं
महोल्बणं हालहलाह्वमग्रतः
सम्भ्रान्तमीनोन्मकराहिकच्छपात्-
तिमिद्विपग्राहतिमिङ्गिलाकुलात् ॥ १८ ॥
तदुग्रवेगं दिशि दिश्युपर्यधो
विसर्पदुत्सर्पदसह्यमप्रति
भीताः प्रजा दुद्रुवुरङ्ग सेश्वरा
अरक्ष्यमाणाः शरणं सदाशिवम् ॥ १९ ॥
विलोक्य तं देववरं त्रिलोक्या
भवाय देव्याभिमतं मुनीनाम्
आसीनमद्रा वपवर्गहेतो-
स्तपो जुषाणं स्तुतिभिः प्रणेमुः ॥ २० ॥

जब अजित भगवान्‌ ने इस प्रकार समुद्र-मन्थन किया, तब समुद्र में बड़ी खलबली मच गयी। मछली, मगर, साँप और कछुए भयभीत होकर ऊपर आ गये और इधर-उधर भागने लगे। तिमि-तिमिङ्गिल आदि मच्छ, समुद्री हाथी और ग्राह व्याकुल हो गये। उसी समय पहले-पहल हालाहल नामका अत्यन्त उग्र विष निकला ॥ १८ ॥ वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशामें, ऊपर-नीचे सर्वत्र उडऩे और फैलने लगा। इस असह्य विषसे बचनेका कोई उपाय भी तो न था। भयभीत होकर सम्पूर्ण प्रजा और प्रजापति किसीके द्वारा त्राण न मिलनेपर भगवान्‌ सदाशिवकी शरणमें गये ॥ १९ ॥ भगवान्‌ शङ्कर सतीजीके साथ कैलास पर्वतपर विराजमान थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनकी सेवा कर रहे थे। वे वहाँ तीनों लोकोंके अभ्युदय और मोक्षके लिये तपस्या कर रहे थे। प्रजापतियोंने उनका दर्शन करके उनकी स्तुति करते हुए उन्हें प्रणाम किया ॥ २० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

मथ्यमानात्ता सिन्धोर्देवासुरवरूथपैः
यदा सुधा न जायेत निर्ममन्थाजितः स्वयम् ॥ १६
मेघश्यामः कनकपरिधिः कर्णविद्योतविद्युन्
मूर्ध्नि भ्राजद्विलुलितकचः स्रग्धरो रक्तनेत्रः
जैत्रैर्दोर्भिर्जगदभयदैर्दन्दशूकं गृहीत्वा
मथ्नन्मथ्ना प्रतिगिरिरिवाशोभताथोद्धृताद्रिः ॥ १७

इस प्रकार देवता और असुरोंके समुद्र-मन्थन करनेपर भी जब अमृत न निकला, तब स्वयं अजित भगवान्‌ समुद्र-मन्थन करने लगे ॥ १६ ॥ मेघके समान साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर, कानों में बिजली के समान चमकते हुए कुण्डल, सिर पर लहराते हुए घुँघराले बाल, नेत्रों में लाल-लाल रेखाएँ और गलेमें वनमाला सुशोभित हो रही थी। सम्पूर्ण जगत्को अभयदान करनेवाले अपने विश्वविजयी भुजदण्डों से वासुकिनाग को पकडक़र तथा कूर्मरूप से पर्वत को धारणकर जब भगवान्‌ मन्दराचलकी मथानीसे समुद्रमन्थन करने लगे, उस समय वे दूसरे पर्वतराजके समान बड़े ही सुन्दर लग रहे थे ॥ १७ ॥

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मंगलवार, 17 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

उपर्यगेन्द्रं गिरिराडिवान्य
आक्रम्य हस्तेन सहस्रबाहुः
तस्थौ दिवि ब्रह्मभवेन्द्र मुख्यै-
रभिष्टुवद्भिः सुमनोऽभिवृष्टः ॥ १२
उपर्यधश्चात्मनि गोत्रनेत्रयोः
परेण ते प्राविशता समेधिताः
ममन्थुरब्धिं तरसा मदोत्कटा
महाद्रिणा क्षोभितनक्रचक्रम् ॥ १३
अहीन्द्र साहस्रकठोरदृङ्मुख-
श्वासाग्निधूमाहतवर्चसोऽसुराः
पौलोमकालेयबलील्वलादयो
दवाग्निदग्धाः सरला इवाभवन् ॥ १४
देवांश्च तच्छ्वासशिखाहतप्रभान्-
धूम्राम्बरस्रग्वरकञ्चुकाननान्
समभ्यवर्षन्भगवद्वशा घना
ववुः समुद्रोर्म्युपगूढवायवः ॥ १५

इधर पर्वतके ऊपर दूसरे पर्वतके समान बनकर सहस्रबाहु भगवान्‌ अपने हाथोंसे उसे दबाकर स्थित हो गये। उस समय आकाशमें ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि उनकी स्तुति और उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ १२ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ ने पर्वतके ऊपर उसको दबा रखनेवालेके रूपमें, नीचे उसके आधार कच्छपके रूपमें, देवता और असुरों के शरीर में उनकी शक्ति के रूपमें, पर्वत में दृढ़ताके रूपमें और नेती बने हुए वासुकिनाग में निद्रा के रूपमेंजिससे उसे कष्ट न होप्रवेश करके सब ओरसे सबको शक्तिसम्पन्न कर दिया। अब वे अपने बलके मदसे उन्मत्त होकर मन्दराचलके द्वारा बड़े वेगसे समुद्रमन्थन करने लगे। उस समय समुद्र और उसमें रहनेवाले मगर, मछली आदि जीव क्षुब्ध हो गये ॥ १३ ॥ नागराज वासुकिके हजारों कठोर नेत्र, मुख और श्वासोंसे विषकी आग निकलने लगी। उनके धूएँसे पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुर निस्तेज हो गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दावानलसे झुलसे हुए साखूके पेड़ खड़े हों ॥ १४ ॥ देवता भी उससे न बच सके। वासुकिके श्वासकी लपटोंसे उनका भी तेज फीका पड़ गया। वस्त्र, माला, कवच एवं मुख धूमिल हो गये। उनकी यह दशा देखकर भगवान्‌की प्रेरणासे बादल देवताओंके ऊपर वर्षा करने लगे एवं वायु समुद्रकी तरङ्गोंका स्पर्श करके शीतलता और सुगन्धिका सञ्चार करने लगी ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

तमुत्थितं वीक्ष्य कुलाचलं पुनः
समुद्यता निर्मथितुं सुरासुराः
दधार पृष्ठेन स लक्षयोजन-
प्रस्तारिणा द्वीप इवापरो महान् ॥ ९ ॥
सुरासुरेन्द्रैर्भुजवीर्यवेपितं
परिभ्रमन्तं गिरिमङ्ग पृष्ठतः
बिभ्रत्तदावर्तनमादिकच्छपो
मेनेऽङ्गकण्डूयनमप्रमेयः ॥ १० ॥
तथासुरानाविशदासुरेण
रूपेण तेषां बलवीर्यमीरयन्
उद्दीपयन्देवगणांश्च विष्णु-
र्दैवेन नागेन्द्रमबोधरूपः ॥ ११ ॥

देवता और असुरोंने देखा कि मन्दराचल तो ऊपर उठ आया है, तब वे फिरसे समुद्र- मन्थनके लिये उठ खड़े हुए। उस समय भगवान्‌ ने जम्बूद्वीपके समान एक लाख योजन फैली हुई अपनी पीठपर मन्दराचल को धारण कर रखा था ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌ ! जब बड़े-बड़े देवता और असुरों ने अपने बाहुबल से मन्दराचल को प्रेरित किया, तब वह भगवान्‌ की पीठपर घूमने लगा। अनन्त शक्तिशाली आदिकच्छप भगवान्‌ को उस पर्वत का चक्कर लगाना ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो ॥ १० ॥ साथ ही समुद्र-मन्थन सम्पन्न करने के लिये भगवान्‌ ने असुरों में उनकी शक्ति और बलको बढ़ाते हुए असुररूप से प्रवेश किया। वैसे ही उन्होंने देवताओंको उत्साहित करते हुए उनमें देवरूपसे प्रवेश किया और वासुकिनागमें निद्राके रूपसे ॥ ११ ॥

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सोमवार, 16 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

मथ्यमानेऽर्णवे सोऽद्रि रनाधारो ह्यपोऽविशत्
ध्रियमाणोऽपि बलिभिर्गौरवात्पाण्डुनन्दन ॥ ६ ॥
ते सुनिर्विण्णमनसः परिम्लानमुखश्रियः
आसन्स्वपौरुषे नष्टे दैवेनातिबलीयसा ॥ ७ ॥
विलोक्य विघ्नेशविधिं तदेश्वरो
दुरन्तवीर्योऽवितथाभिसन्धिः
कृत्वा वपुः कच्छपमद्भुतं महत्
प्रविश्य तोयं गिरिमुज्जहार ॥ ८ ॥

परीक्षित्‌ ! जब समुद्रमन्थन होने लगा, तब बड़े-बड़े बलवान् देवता और असुरोंके पकड़े रहनेपर भी अपने भारकी अधिकता और नीचे कोई आधार न होनेके कारण मन्दराचल समुद्रमें डूबने लगा ॥ ६ ॥ इस प्रकार अत्यन्त बलवान् दैवके द्वारा अपना सब किया-कराया मिट्टीमें मिलते देख उनका मन टूट गया। सबके मुँहपर उदासी छा गयी ॥ ७ ॥ उस समय भगवान्‌ ने देखा कि यह तो विघ्रराजकी करतूत है। इसलिये उन्होंने उसके निवारणका उपाय सोचकर अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छपका रूप धारण किया और समुद्रके जलमें प्रवेश करके मन्दराचलको ऊपर उठा दिया। भगवान्‌की शक्ति अनन्त है। वे सत्यसङ्कल्प हैं। उनके लिये यह कौन-सी बड़ी बात थी ॥ ८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...