॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)
समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान् शङ्कर का विषपान
कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घा
रोमाणि सर्वौषधिवीरुधस्ते
छन्दांसि साक्षात्तव सप्त धातव-
स्त्रयीमयात्मन्हृदयं सर्वधर्मः ॥ २८ ॥
मुखानि पञ्चोपनिषदस्तवेश
यैस्त्रिंशदष्टोत्तरमन्त्रवर्गः
यत्तच्छिवाख्यं परमात्मतत्त्वं
देव स्वयंज्योतिरवस्थितिस्ते ॥ २९ ॥
छाया त्वधर्मोर्मिषु यैर्विसर्गो
नेत्रत्रयं सत्त्वरजस्तमांसि
साङ्ख्यात्मनः शास्त्रकृतस्तवेक्षा
छन्दोमयो देव ऋषिः पुराणः ॥ ३० ॥
वेदस्वरूप भगवन् ! समुद्र आपकी कोख हैं। पर्वत हड्डियाँ
हैं। सब प्रकारकी ओषधियाँ और घास आपके रोम हैं। गायत्री आदि छन्द आपकी सातों
धातुएँ हैं और सभी प्रकारके धर्म आपके हृदय हैं ॥ २८ ॥ स्वामिन् ! सद्योजातादि
पाँच उपनिषद् ही आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और
ईशान नामक पाँच मुख हैं। उन्हींके पदच्छेदसे अड़तीस कलात्मक मन्त्र निकले हैं। आप
जब समस्त प्रपञ्चसे उपरत होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्थितिका नाम होता है ‘शिव’। वास्तवमें वही स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है ॥ २९ ॥
अधर्मकी दम्भ-लोभ आदि तरङ्गोंमें आपकी छाया है जिनसे विविध प्रकारकी सृष्टि होती
है,
वे सत्त्व, रज और तम—आपके तीन नेत्र हैं। प्रभो ! गायत्री आदि छन्दरूप सनातन वेद
ही आपका विचार है। क्योंकि आप ही सांख्य आदि समस्त शास्त्रोंके रूपमें स्थित हैं
और उनके कर्ता भी हैं ॥ ३० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से