शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

पुंसां श्लाघ्यतमं मन्ये दण्डमर्हत्तमार्पितम् ।
यं न माता पिता भ्राता सुहृदश्चादिशन्ति हि ॥ ४ ॥
त्वं नूनमसुराणां नः परोक्षः परमो गुरुः ।
यो नोऽनेकमदान्धानां विभ्रंशं चक्षुरादिशत् ॥ ५ ॥
यस्मिन् वैरानुबन्धेन व्यूढेन विबुधेतराः ।
बहवो लेभिरे सिद्धिं यामु हैकान्तयोगिनः ॥ ६ ॥
तेनाहं निगृहीतोऽस्मि भवता भूरिकर्मणा ।
बद्धश्च वारुणैः पाशैः नातिव्रीडे न च व्यथे ॥ ७ ॥

अपने पूजनीय गुरुजनों के द्वारा दिया हुआ दण्ड तो जीवमात्र के लिये अत्यन्त वाञ्छनीय है। क्योंकि वैसा दण्ड माता, पिता, भाई और सुहृद् भी मोहवश नहीं दे पाते ॥ ४ ॥ आप छिपे रूप से अवश्य ही हम असुरों को श्रेष्ठ शिक्षा दिया करते हैं, अत: आप हमारे परम गुरु हैं। जब हमलोग धन, कुलीनता, बल आदि के मद से अंधे हो जाते हैं, तब आप उन वस्तुओं को हम से छीनकर हमें नेत्रदान करते हैं ॥ ५ ॥ आप से हमलोगों का जो उपकार होता है, उसे मैं क्या बताऊँ ? अनन्यभाव से योग करनेवाले योगीगण जो सिद्धि प्राप्त करते हैं, वही सिद्धि बहुत-से असुरोंको आपके साथ दृढ़ वैरभाव करनेसे ही प्राप्त हो गयी है ॥ ६ ॥ जिनकी ऐसी महिमा, ऐसी अनन्त लीलाएँ हैं, वही आप मुझे दण्ड दे रहे हैं और वरुणपाशसे बाँध रहे हैं। इसकी न तो मुझे कोई लज्जा है और न किसी प्रकारकी व्यथा ही ॥ ७ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीशुक उवाच -
एवं विप्रकृतो राजन् बलिर्भगवतासुरः ।
भिद्यमानोऽप्यभिन्नात्मा प्रत्याहाविक्लवं वचः ॥ १ ॥

श्रीबलिरुवाच -
यद्युत्तमश्लोक भवान्ममेरितं
     वचो व्यलीकं सुरवर्य मन्यते ।
करोम्यृतं तन्न भवेत्प्रलम्भनं
     पदं तृतीयं कुरु शीर्ष्णि मे निजम् ॥ २ ॥
बिभेमि नाहं निरयात् पदच्युतो
     न पाशबन्धाद्व्यसनाद् दुरत्ययात् ।
नैवार्थकृच्छ्राद्‍भवतो विनिग्रहाद्
     असाधुवादाद्‍भृशमुद्विजे यथा ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार भगवान्‌ ने असुरराज बलिका बड़ा तिरस्कार किया और उन्हें धैर्यसे विचलित करना चाहा। परंतु वे तनिक भी विचलित न हुए, बड़े धैर्यसे बोले ॥ १ ॥
दैत्यराज बलिने कहादेवताओंके आराध्यदेव ! आपकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। क्या आप मेरी बातको असत्य समझते हैं ? ऐसा नहीं है। मैं उसे सत्य कर दिखाता हूँ। आप धोखेमें नहीं पड़ेंगे। आप कृपा करके अपना तीसरा पग मेरे सिरपर रख दीजिये ॥ २ ॥ मुझे नरकमें जानेका अथवा राज्यसे च्युत होनेका भय नहीं है। मैं पाशमें बँधने अथवा अपार दु:खमें पडऩेसे भी नहीं डरता। मेरे पास फूटी कौड़ी भी न रहे अथवा आप मुझे घोर दण्ड देंयह भी मेरे भयका कारण नहीं है। मैं डरता हूँ तो केवल अपनी अपकीर्तिसे ! ॥ ३ ॥

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गुरुवार, 7 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

बलि का बाँधा जाना

श्रीशुक उवाच
पत्युर्निगदितं श्रुत्वा दैत्यदानवयूथपाः
रसां निर्विविशू राजन्विष्णुपार्षद ताडिताः ॥ २५ ॥
अथ तार्क्ष्यसुतो ज्ञात्वा विराट्प्रभुचिकीर्षितम्
बबन्ध वारुणैः पाशैर्बलिं सूत्येऽहनि क्रतौ ॥ २६ ॥
हाहाकारो महानासीद्रोदस्योः सर्वतो दिशम्
निगृह्यमाणेऽसुरपतौ विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ २७
तं बद्धं वारुणैः पाशैर्भगवानाह वामनः
नष्टश्रियं स्थिरप्रज्ञमुदारयशसं नृप ॥ २८ ॥
पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्मह्यं त्वयासुर
द्वाभ्यां क्रान्ता मही सर्वा तृतीयमुपकल्पय ॥ २९ ॥
यावत्तपत्यसौ गोभिर्यावदिन्दुः सहोडुभिः
यावद्वर्षति पर्जन्यस्तावती भूरियं तव ॥ ३० ॥
पदैकेन मयाक्रान्तो भूर्लोकः खं दिशस्तनोः
स्वर्लोकस्ते द्वितीयेन पश्यतस्ते स्वमात्मना ॥ ३१ ॥
प्रतिश्रुतमदातुस्ते निरये वास इष्यते
विश त्वं निरयं तस्माद्गुरुणा चानुमोदितः ॥ ३२ ॥
वृथा मनोरथस्तस्य दूरः स्वर्गः पतत्यधः
प्रतिश्रुतस्यादानेन योऽर्थिनं विप्रलम्भते ॥ ३३ ॥
विप्रलब्धो ददामीति त्वयाहं चाढ्यमानिना
तद्व्यलीकफलं भुङ्क्ष्व निरयं कतिचित्समाः ॥ ३४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अपने स्वामी बलिकी बात सुनकर भगवान्‌ के पार्षदों से हारे हुए दानव और दैत्यसेनापति रसातल में चले गये ॥ २५ ॥ उनके जानेके बाद भगवान्‌के हृदयकी बात जानकर पक्षिराज गरुडऩे वरुणके पाशों से बलिको बाँध दिया। उस दिन उनके अश्वमेध यज्ञमें सोमपान होनेवाला था ॥ २६ ॥ जब सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ विष्णु ने बलिको इस प्रकार बँधवा दिया, तब पृथ्वी, आकाश और समस्त दिशाओंमें लोग हाय-हाय !करने लगे ॥ २७ ॥ यद्यपि बलि वरुणके पाशोंसे बँधे हुए थे, उनकी सम्पत्ति भी उनके हाथोंसे निकल गयी थीफिर भी उनकी बुद्धि निश्चयात्मक थी और सब लोग उनके उदार यशका गान कर रहे थे। परीक्षित्‌ ! उस समय भगवान्‌ने बलिसे कहा ॥ २८ ॥ असुर ! तुमने मुझे पृथ्वीके तीन पग दिये थे; दो पगमें तो मैंने सारी त्रिलोकी नाप ली, अब तीसरा पग पूरा करो ॥ २९ ॥ जहाँतक सूर्यकी गरमी पहुँचती है, जहाँतक नक्षत्रों और चन्द्रमाकी किरणें पहुँचती हैं और जहाँतक बादल जाकर बरसते हैंवहाँ- तककी सारी पृथ्वी तुम्हारे अधिकारमें थी ॥ ३० ॥ तुम्हारे देखते-ही-देखते मैंने अपने एक पैरसे भूर्लोक, शरीरसे आकाश और दिशाएँ एवं दूसरे पैरसे स्वर्लोक नाप लिया है। इस प्रकार तुम्हारा सब कुछ मेरा हो चुका है ॥ ३१ ॥ फिर भी तुमने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे पूरा न कर सकनेके कारण अब तुम्हें नरकमें रहना पड़ेगा। तुम्हारे गुरुकी तो इस विषयमें सम्मति है ही; अब जाओ, तुम नरकमें प्रवेश करो ॥ ३२ ॥ जो याचकको देनेकी प्रतिज्ञा करके मुकर जाता है और इस प्रकार उसे धोखा देता है, उसके सारे मनोरथ व्यर्थ होते हैं। स्वर्गकी बात तो दूर रही, उसे नरकमें गिरना पड़ता है ॥ ३३ ॥ तुम्हें इस बातका बड़ा घमंड था कि मैं बड़ा धनी हूँ। तुमने मुझसे दूँगा’— ऐसी प्रतिज्ञा करके फिर धोखा दे दिया। अब तुम कुछ वर्षोंतक इस झूठका फल नरक भोगो॥ ३४ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
वामनप्रादुर्भावे बलिनिग्रहो नामैकविंशोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

बलि का बाँधा जाना

ते सर्वे वामनं हन्तुं शूलपट्टिशपाणयः
अनिच्छन्तो बले राजन्प्राद्रवन्जातमन्यवः ॥ १४ ॥
तानभिद्रवतो दृष्ट्वा दितिजानीकपान्नृप
प्रहस्यानुचरा विष्णोः प्रत्यषेधन्नुदायुधाः ॥ १५ ॥
नन्दः सुनन्दोऽथ जयो विजयः प्रबलो बलः
कुमुदः कुमुदाक्षश्च विष्वक्सेनः पतत्त्रिराट् ॥ १६ ॥
जयन्तः श्रुतदेवश्च पुष्पदन्तोऽथ सात्वतः
सर्वे नागायुतप्राणाश्चमूं ते जघ्नुरासुरीम् ॥ १७ ॥
हन्यमानान्स्वकान्दृष्ट्वा पुरुषानुचरैर्बलिः
वारयामास संरब्धान्काव्यशापमनुस्मरन् ॥ १८ ॥
हे विप्रचित्ते हे राहो हे नेमे श्रूयतां वचः
मा युध्यत निवर्तध्वं न नः कालोऽयमर्थकृत् ॥ १९ ॥
यः प्रभुः सर्वभूतानां सुखदुःखोपपत्तये
तं नातिवर्तितुं दैत्याः पौरुषैरीश्वरः पुमान् ॥ २० ॥
यो नो भवाय प्रागासीदभवाय दिवौकसाम्
स एव भगवानद्य वर्तते तद्विपर्ययम् ॥ २१ ॥
बलेन सचिवैर्बुद्ध्या दुर्गैर्मन्त्रौषधादिभिः
सामादिभिरुपायैश्च कालं नात्येति वै जनः ॥ २२ ॥
भवद्भिर्निर्जिता ह्येते बहुशोऽनुचरा हरेः
दैवेनर्द्धैस्त एवाद्य युधि जित्वा नदन्ति नः ॥ २३ ॥
एतान्वयं विजेष्यामो यदि दैवं प्रसीदति
तस्मात्कालं प्रतीक्षध्वं यो नोऽर्थत्वाय कल्पते ॥ २४ ॥

परीक्षित्‌ ! राजा बलिकी इच्छा न होनेपर भी वे सब बड़े क्रोध से शूल, पट्टिश आदि ले-लेकर वामन भगवान्‌ को मारने के लिये टूट पड़े ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! जब विष्णु- भगवान्‌ के पार्षदों ने देखा कि दैत्यों के सेनापति आक्रमण करनेके लिये दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने हँसकर अपने-अपने शस्त्र उठा लिये और उन्हें रोक दिया ॥ १५ ॥ नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन, गरुड, जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त और सात्वतये सभी भगवान्‌के पार्षद दस-दस हजार हाथियोंका बल रखते हैं। वे असुरोंकी सेनाका संहार करने लगे ॥ १६-१७ ॥ जब राजा बलिने देखा कि भगवान्‌के पार्षद मेरे सैनिकोंको मार रहे हैं और वे भी क्रोधमें भरकर उनसे लडऩेके लिये तैयार हो रहे हैं, तो उन्होंने शुक्राचार्यके शापका स्मरण करके उन्हें युद्ध करनेसे रोक दिया ॥ १८ ॥ उन्होंने विप्रचित्ति, राहु, नेमि आदि दैत्योंको सम्बोधित करके कहा—‘भाइयो ! मेरी बात सुनो। लड़ो मत, वापस लौट आओ। यह समय हमारे कार्यके अनुकूल नहीं है ॥ १९ ॥ दैत्यो ! जो काल समस्त प्राणियोंको सुख और दु:ख देनेकी सामथ्र्य रखता हैउसे यदि कोई पुरुष चाहे कि मैं अपने प्रयत्नोंसे दबा दूँ, तो यह उसकी शक्तिसे बाहर है ॥ २० ॥ जो पहले हमारी उन्नति और देवताओंकी अवनतिके कारण हुए थे, वही कालभगवान्‌ अब उनकी उन्नति और हमारी अवनतिके कारण हो रहे हैं ॥ २१ ॥ बल, मन्त्री, बुद्धि, दुर्ग, मन्त्र, ओषधि और सामादि उपायइनमेंसे किसी भी साधनके द्वारा अथवा सबके द्वारा मनुष्य कालपर विजय नहीं प्राप्त कर सकता ॥ २२ ॥ जब दैव तुमलोगोंके अनुकूल था, तब तुमलोगोंने भगवान्‌के इन पार्षदोंको कई बार जीत लिया था। पर देखो, आज वे ही युद्धमें हमपर विजय प्राप्त करके सिंहनाद कर रहे हैं ॥ २३ ॥ यदि दैव हमारे अनुकूल हो जायगा, तो हम भी इन्हें जीत लेंगे। इसलिये उस समयकी प्रतीक्षा करो, जो हमारी कार्यसिद्धिके लिये अनुकूल हो॥ २४ ॥

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बुधवार, 6 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

बलि का बाँधा जाना

महीं सर्वां हृतां दृष्ट्वा त्रिपदव्याजयाञ्चया
ऊचुः स्वभर्तुरसुरा दीक्षितस्यात्यमर्षिताः ॥ ९ ॥
न वायं ब्रह्मबन्धुर्विष्णुर्मायाविनां वरः
द्विजरूपप्रतिच्छन्नो देवकार्यं चिकीर्षति ॥ १० ॥
अनेन याचमानेन शत्रुणा वटुरूपिणा
सर्वस्वं नो हृतं भर्तुर्न्यस्तदण्डस्य बर्हिषि ॥ ११ ॥
सत्यव्रतस्य सततं दीक्षितस्य विशेषतः
नानृतं भाषितुं शक्यं ब्रह्मण्यस्य दयावतः ॥ १२ ॥
तस्मादस्य वधो धर्मो भर्तुः शुश्रूषणं च नः
इत्यायुधानि जगृहुर्बलेरनुचरासुराः ॥ १३ ॥

दैत्यों ने देखा कि वामनजी ने तीन पग पृथ्वी माँगने के बहाने सारी पृथ्वी ही छीन ली। तब वे सोचने लगे कि हमारे स्वामी बलि इस समय यज्ञ में दीक्षित हैं, वे तो कुछ कहेंगे नहीं। इसलिये बहुत चिढक़र वे आपसमें कहने लगे ॥ ९ ॥ अरे, यह ब्राह्मण नहीं है। यह सबसे बड़ा मायावी विष्णु है। ब्राह्मणके रूपमें छिपकर यह देवताओं का काम बनाना चाहता है ॥ १० ॥ जब हमारे स्वामी यज्ञमें दीक्षित होकर किसी को किसी प्रकार का दण्ड देनेके लिये उपरत हो गये हैं, तब इस शत्रु ने ब्रह्मचारी का वेष बनाकर पहले तो याचना की और पीछे हमारा सर्वस्व हरण कर लिया ॥ ११ ॥ यों तो हमारे स्वामी सदा ही सत्यनिष्ठ हैं, परंतु यज्ञमें दीक्षित होनेपर वे इस बातका विशेष ध्यान रखते हैं। वे ब्राह्मणोंके बड़े भक्त हैं तथा उनके हृदयमें दया भी बहुत है। इसलिये वे कभी झूठ नहीं बोल सकते ॥ १२ ॥ ऐसी अवस्थामें हमलोगोंका यही धर्म है कि इस शत्रुको मार डालें। इससे हमारे स्वामी बलिकी सेवा भी होती है।यों सोचकर राजा बलिके अनुचर असुरोंने अपने-अपने हथियार उठा लिये ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

बलि का बाँधा जाना

धातुः कमण्डलुजलं तदुरुक्रमस्य
पादावनेजनपवित्रतया नरेन्द्र
स्वर्धुन्यभून्नभसि सा पतती निमार्ष्टि
लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्तिः ॥ ४ ॥
ब्रह्मादयो लोकनाथाः स्वनाथाय समादृताः
सानुगा बलिमाजह्रुः सङ्क्षिप्तात्मविभूतये ॥ ५ ॥
तोयैः समर्हणैः स्रग्भिर्दिव्यगन्धानुलेपनैः
धूपैर्दीपैः सुरभिभिर्लाजाक्षतफलाङ्कुरैः ॥ ६ ॥
स्तवनैर्जयशब्दैश्च तद्वीर्यमहिमाङ्कितैः
नृत्यवादित्रगीतैश्च शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनैः ॥ ७ ॥
जाम्बवानृक्षराजस्तु भेरीशब्दैर्मनोजवः
विजयं दिक्षु सर्वासु महोत्सवमघोषयत् ॥ ८ ॥

परीक्षित्‌ ! ब्रह्मा के कमण्डलु का वही जल विश्वरूप भगवान्‌ के पाँव पखारने से पवित्र होने के कारण उन गङ्गाजी के रूप में परिणत हो गया, जो आकाश-मार्ग से पृथ्वी पर गिरकर तीनों लोकों को पवित्र करती हैं। ये गङ्गाजी क्या हैं, भगवान्‌की मूर्तिमान् उज्जवल कीर्ति ॥ ४ ॥ जब भगवान्‌ने अपने स्वरूपको कुछ छोटा कर लिया, अपनी विभूतियोंको कुछ समेट लिया, तब ब्रह्मा आदि लोकपालोंने अपने अनुचरोंके साथ बड़े आदरभावसे अपने स्वामी भगवान्‌को अनेकों प्रकारकी भेंटें समर्पित कीं ॥ ५ ॥ उन लोगोंने जल-उपहार, माला, दिव्य गन्धोंसे भरे अङ्गराग, सुगन्धित धूप, दीप, खील, अक्षत, फल, अङ्कुर, भगवान्‌ की महिमा और प्रभावसे युक्त स्तोत्र, जयघोष, नृत्य, बाजे-गाजे, गान एवं शङ्ख और दुन्दुभिके शब्दोंसे भगवान्‌ की आराधना की ॥ ६-७ ॥ उस समय ऋक्षराज जाम्बवान् मनके समान वेगसे दौडक़र सब दिशाओंमें भेरी बजा-बजाकर भगवान्‌की मङ्गलमय विजयकी घोषणा कर आये ॥ ८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...