॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)
महर्षि च्यवन और सुकन्या का
चरित्र, राजा शर्याति का वंश
यक्ष्यमाणोऽथ शर्यातिः च्यवनस्याश्रमं गतः ।
ददर्श दुहितुः पार्श्वे पुरुषं सूर्यवर्चसम् ॥ १८ ॥
राजा दुहितरं प्राह कृतपादाभिवन्दनाम् ।
आशिषश्चाप्रयुञ्जानो नातिप्रीतिमना इव ॥ १९ ॥
चिकीर्षितं ते किमिदं पतिस्त्वया
प्रलम्भितो लोकनमस्कृतो मुनिः ।
यत्त्वं जराग्रस्तमसत्यसम्मतं
विहाय जारं भजसेऽमुमध्वगम् ॥ २० ॥
कथं मतिस्तेऽवगतान्यथा सतां
कुलप्रसूते कुलदूषणं त्विदम् ।
बिभर्षि जारं यदपत्रपा कुलं
पितुश्च भर्तुश्च नयस्यधस्तमः ॥ २१ ॥
एवं ब्रुवाणं पितरं स्मयमाना शुचिस्मिता ।
उवाच तात जामाता तवैष भृगुनन्दनः ॥ २२ ॥
शशंस पित्रे तत् सर्वं वयोरूपाभिलम्भनम् ।
विस्मितः परमप्रीतः तनयां परिषस्वजे ॥ २३ ॥
कुछ समयके बाद यज्ञ करने की इच्छासे राजा शर्याति च्यवन मुनि के
आश्रमपर आये। वहाँ उन्होंने देखा कि उनकी कन्या सुकन्याके पास एक सूर्य के समान
तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ है ॥ १८ ॥ सुकन्याने उनके चरणोंकी वन्दना की। शर्याति ने
उसे आशीर्वाद नहीं दिया और कुछ अप्रसन्न-से होकर बोले ॥ १९ ॥ ‘दुष्टे ! यह तूने क्या किया ? क्या तूने सबके
वन्दनीय च्यवन मुनिको धोखा दे दिया ! अवश्य ही तूने उनको बूढ़ा और अपने कामका न
समझकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुषकी सेवा कर रही है ॥ २० ॥ तेरा
जन्म तो बड़े ऊँचे कुलमें हुआ था। यह उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई ? तेरा यह व्यवहार तो कुलमें कलङ्क लगानेवाला है। अरे राम-राम ! तू निर्लज्ज
होकर जार पुरुषकी सेवा कर रही है और इस प्रकार अपने पिता और पति दोनोंके वंशको घोर
नरकमें ले जा रही है’ ॥ २१ ॥ राजा शर्यातिके इस प्रकार
कहनेपर पवित्र मुसकानवाली सुकन्याने मुसकराकर कहा—‘पिताजी !
ये आपके जामाता स्वयं भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं’ ॥ २२ ॥
इसके बाद उसने अपने पितासे महर्षि च्यवनके यौवन और सौन्दर्यकी प्राप्तिका सारा
वृत्तान्त कह सुनाया। वह सब सुनकर राजा शर्याति अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने
बड़े प्रेमसे अपनी पुत्रीको गलेसे लगा लिया ॥ २३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से