॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)
नाभाग और अम्बरीष की कथा
तं आनर्चातिथिं भूपः प्रत्युत्थान् आसनार्हणैः ।
ययाचेऽभ्यवहाराय
पादमूलमुपागतः ॥ ३६ ॥
प्रतिनन्द्य स तां
याच्ञां कर्तुमावश्यकं गतः ।
निममज्ज बृहद्
ध्यायन् कालिन्दीसलिले शुभे ॥ ३७ ॥
मुहूर्तार्धावशिष्टायां द्वादश्यां पारणं प्रति
।
चिन्तयामास
धर्मज्ञो द्विजैः तद् धर्मसंकटे ॥ ३८ ॥
ब्राह्मणातिक्रमे
दोषो द्वादश्यां यदपारणे ।
यत्कृत्वा साधु मे
भूयाद् अधर्मो वा न मां स्पृशेत् ॥ ३९ ॥
अम्भसा केवलेनाथ
करिष्ये व्रतपारणम् ।
आहुरब्भक्षणं
विप्रा हि अशितं नाशितं च तत् ॥ ४० ॥
इत्यपः प्राश्य
राजर्षिः चिन्तयन् मनसाच्युतम् ।
प्रत्यचष्ट
कुरुश्रेष्ठ द्विज आगमनमेव सः ॥ ४१ ॥
राजा अम्बरीष उन्हें (दुर्वासा जी को) देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियों से अतिथि के रूपमें आये हुए दुर्वासाजी की पूजा की। उनके चरणों में प्रणाम करके अम्बरीष ने भोजनके लिये प्रार्थना की ॥ ३६ ॥ दुर्वासाजी ने अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मों से निवृत्त होनेके लिये वे नदीतटपर चले गये। वे ब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुनाके पवित्र जलमें स्नान करने लगे ॥ ३७ ॥ इधर द्वादशी केवल घड़ीभर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीषने धर्म-संकटमें पडक़र ब्राह्मणोंके साथ परामर्श किया ॥ ३८ ॥ उन्होंने कहा— ‘ब्राह्मणदेवताओ ! ब्राह्मणको बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना—दोनों ही दोष हैं। इसलिये इस समय जैसा करनेसे मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये ॥ ३९ ॥ तब ब्राह्मणोंके साथ विचार करके उन्होंने कहा—‘ब्राह्मणो ! श्रुतियोंमें ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना है। इसलिये इस समय केवल जलसे पारण किये लेता हूँ ॥ ४० ॥ ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान् का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीषने जल पी लिया और परीक्षित् ! वे केवल दुर्वासाजीके आनेकी बाट देखने लगे ॥ ४१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से