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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट११)
भगवान्
श्रीकृष्ण का प्राकट्य
श्रीशुक
उवाच ।
इत्युक्त्वासीत्
हरिः तूष्णीं भगवान् आत्ममायया ।
पित्रोः
संपश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः ॥ ४६ ॥
ततश्च
शौरिः भगवत्प्रचोदितः
सुतं
समादाय स सूतिकागृहात् ।
यदा
बहिर्गन्तुमियेष तर्ह्यजा
या
योगमायाजनि नन्दजायया ॥ ४७ ॥
तया
हृतप्रत्यय सर्ववृत्तिषु
द्वाःस्थेषु
पौरेष्वपि शायितेष्वथ ।
द्वारस्तु
सर्वाः पिहिता दुरत्यया
बृहत्
कपाटायस कीलश्रृंखलैः ॥ ४८ ॥
ताः
कृष्णवाहे वसुदेव आगते
स्वयं
व्यवर्यन्त यथा तमो रवेः ।
ववर्ष
पर्जन्य उपांशुगर्जितः
शेषोऽन्वगाद्
वारि निवारयन् फणैः ॥ ४९ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—भगवान् इतना कहकर चुप हो गये । अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता-माता के
देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया ॥ ४६ ॥ तब वसुदेवजीने
भगवान् की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिकागृह से बाहर निकलने की इच्छा की ।
उसी समय नन्दपत्नी यशोदाके गर्भसे उस योगमायाका जन्म हुआ, जो
भगवान्की शक्ति होनेके कारण उनके समान ही जन्म-रहित है ॥ ४७ ॥ उसी योगमायाने
द्वारपाल और पुरवासियोंकी समस्त इन्द्रिय वृत्तियोंकी चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गये । बंदीगृहके सभी दरवाजे बंद थे । उनमें
बड़े-बड़े किवाड़, लोहेकी जंजीरें और ताले जड़े हुए थे ।
उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परंतु वसुदेवजी भगवान्
श्रीकृष्णको गोदमें लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों
ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गये [*] । ठीक वैसे ही, जैसे
सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है । उस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जलकी
फुहारें छोड़ रहे थे । इसलिये शेषजी अपने फनों से जल को रोकते हुए भगवान् के
पीछे-पीछे चलने लगे [#] ॥ ४८-४९ ॥
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[*]
जिनके नाम-श्रवणमात्रसे असंख्य जन्मार्जित प्रारब्ध-बन्धन ध्वस्त हो जाते हैं, वे ही प्रभु जिसकी गोदमें आ गये, उसकी हथकड़ी-बेड़ी
खुल जाय, इसमें क्या आश्चर्य है ?
[#]
बलरामजीने विचार किया कि मैं बड़ा भाई बना तो क्या, सेवा ही
मेरा मुख्य धर्म है । इसलिये वे अपने शेषरूपसे श्रीकृष्णके छत्र बनकर जलका निवारण
करते हुए चले । उन्होंने सोचा कि यदि मेरे रहते मेरे स्वामीको वर्षासे कष्ट पहुँचा
तो मुझे धिक्कार है । इसलिये उन्होंने अपना सिर आगे कर दिया । अथवा उन्होंने यह
सोचा कि ये विष्णुपद (आकाश) वासी मेघ परोपकारके लिये अध:पतित होना स्वीकार कर लेते
हैं, इसलिये बलिके समान सिरसे वन्दनीय हैं ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से