सोमवार, 8 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

एकदा चारयन् वत्सान् सरामो वनमाविशत् ।
पञ्चषासु त्रियामासु हायनापूरणीष्वजः ॥ २८ ॥
ततो विदूराच्चरतो गावो वत्सानुपव्रजम् ।
गोवर्धनाद्रिशिरसि चरन्त्यो ददृशुस्तृणम् ॥ २९ ॥
दृष्ट्वाथ तत्स्नेहवशोऽस्मृतात्मा
स गोव्रजोऽत्यात्मप दुर्गमार्गः ।
द्विपात्ककुद्‍ग्रीव उदास्यपुच्छो
अगाद्धुङ्‌कृतैरास्रुपया जवेन ॥ ३० ॥
समेत्य गावोऽधो वत्सान् वत्सवत्योऽप्यपाययन् ।
गिलन्त्य इव चाङ्‌गानि लिहन्त्यः स्वौधसं पयः ॥ ३१ ॥
गोपाः तद् रोधनायास मौघ्यलज्जोरुमन्युना ।
दुर्गाध्वकृच्छ्रतोऽभ्येत्य गोवत्सैर्ददृशुः सुतान् ॥ ३२ ॥
तदीक्षणोत्प्रेमरसाप्लुताशया
जातानुरागा गतमन्यवोऽर्भकान् ।
उदुह्य दोर्भिः परिरभ्य मूर्धनि
घ्राणैरवापुः परमां मुदं ते ॥ ३३ ॥
ततः प्रवयसो गोपाः तोकाश्लेषसुनिर्वृताः ।
कृच्छ्रात् शनैरपगताः तदनुस्मृत्युदश्रवः ॥ ३४ ॥

जब एक वर्ष पूरा होनेमें पाँच-छ: रातें शेष थीं, तब एक दिन भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ बछड़ोंको चराते हुए वनमें गये ॥ २८ ॥ उस समय गौएँ गोवर्धनकी चोटीपर घास चर रही थीं । वहाँसे उन्होंने व्रजके पास ही घास चरते हुए बहुत दूर अपने बछड़ोंको देखा ॥ २९ ॥ बछड़ोंको देखते ही गौओंका वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया । वे अपने-आपकी सुध-बुध खो बैठीं और ग्वालोंके रोकनेकी कुछ भी परवा न कर जिस मार्गसे वे न जा सकते थे, उस मार्गसे हुंकार करती हुई बड़े वेगसे दौड़ पड़ीं। उस समय उनके थनोंसे दूध बहता जाता था और उनकी गरदनें सिकुडक़र डीलसे मिल गयी थीं। वे पूँछ तथा सिर उठाकर इतने वेगसे दौड़ रही थीं कि मालूम होता था मानो उनके दो ही पैर हैं ॥ ३० ॥ जिन गौओंके और भी बछड़े हो चुके थे, वे भी गोवर्धनके नीचे अपने पहले बछड़ोंके पास दौड़ आयीं और उन्हें स्नेहवश अपने आप बहता हुआ दूध पिलाने लगीं। उस समय वे अपने बच्चोंका एक-एक अङ्ग ऐसे चावसे चाट रही थीं, मानो उन्हें अपने पेटमें रख लेंगी ॥ ३१ ॥ गोपोंने उन्हें रोकनेका बहुत कुछ प्रयत्न किया, परंतु उनका सारा प्रयत्न व्यर्थ रहा। उन्हें अपनी विफलतापर कुछ लज्जा और गायोंपर बड़ा क्रोध आया। जब वे बहुत कष्ट उठाकर उस कठिन मार्गसे उस स्थानपर पहुँचे, तब उन्होंने बछड़ोंके साथ अपने बालकोंको भी देखा ॥ ३२ ॥ अपने बच्चोंको देखते ही उनका हृदय प्रेमरससे सराबोर हो गया। बालकोंके प्रति अनुरागकी बाढ़ आ गयी, उनका क्रोध न जाने कहाँ हवा हो गया। उन्होंने अपने-अपने बालकोंको गोदमें उठाकर हृदयसे लगा लिया और उनका मस्तक सूँघकर अत्यन्त आनन्दित हुए ॥ ३३ ॥ बूढ़े गोपों को अपने बालकोंके आलिङ्गन से परम आनन्द प्राप्त हुआ। वे निहाल हो गये। फिर बड़े कष्टसे उन्हें छोडक़र धीरे-धीरे वहाँसे गये। जानेके बाद भी बालकों के और उनके आलिङ्गन के स्मरण से उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बहते रहे ॥ ३४ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



रविवार, 7 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

तन्मातरो वेणुरवत्वरोत्थिता
उत्थाप्य दोर्भिः परिरभ्य निर्भरम् ।
स्नेहस्नुतस्तन्यपयःसुधासवं
मत्वा परं ब्रह्म सुतानपाययन् ॥ २२ ॥
ततो नृपोन्मर्दनमज्जलेपन
अलङ्‌कार रक्षा तिलकाशनादिभिः ।
संलालितः स्वाचरितैः प्रहर्षयन्
सायं गतो यामयमेन माधवः ॥ २३ ॥
गावस्ततो गोष्ठमुपेत्य सत्वरं
हुङ्‌कारघोषैः परिहूतसङ्‌गतान् ।
स्वकान् स्वकान् वत्सतरानपाययन्
मुहुर्लिहन्त्यः स्रवदौधसं पयः ॥ २४ ॥
गोगोपीनां मातृतास्मिन् सर्वा स्नेहर्धिकां विना ।
पुरोवदास्वपि हरेः तोकता मायया विना ॥ २५ ॥
व्रजौकसां स्वतोकेषु स्नेहवल्ल्याब्दमन्वहम् ।
शनैर्निःसीम ववृधे यथा कृष्णे त्वपूर्ववत् ॥ २६ ॥
इत्थं आत्माऽऽत्मनाऽऽत्मानं वत्सपालमिषेण सः ।
पालयन् वत्सपो वर्षं चिक्रीडे वनगोष्ठयोः ॥ २७ ॥

ग्वालबालों की माताएँ बाँसुरी की तान सुनते ही जल्दी से दौड़ आयीं । ग्वालबाल बने हुए परब्रह्म श्रीकृष्णको अपने बच्चे समझकर हाथोंसे उठाकर उन्होंने जोरसे हृदयसे लगा लिया । वे अपने स्तनोंसे वात्सल्य-स्नेहकी अधिकताके कारण सुधासे भी मधुर और आसव से भी मादक चुचुआता हुआ दूध उन्हें पिलाने लगीं ॥ २२ ॥ परीक्षित्‌ ! इसी प्रकार प्रतिदिन सन्ध्यासमय भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन ग्वालबालोंके रूपमें वनसे लौट आते और अपनी बालसुलभ लीलाओंसे माताओंको आनन्दित करते । वे माताएँ उन्हें उबटन लगातीं, नहलातीं चन्दनका लेप करतीं और अच्छे-अच्छे वस्त्रों तथा गहनोंसे सजातीं । दोनों भौंहोंके बीचमें डीठ से बचानेके लिये काजल का डिठौना लगा देतीं तथा भोजन करातीं और तरह-तरहसे बड़े लाड़-प्यारसे उनका लालन-पालन करतीं ॥ २३ ॥ ग्वालिनोंके समान गौएँ भी जब जंगलोंमेंसे चरकर जल्दी-जल्दी लौटतीं और उनकी हुंकार सुनकर उनके प्यारे बछड़े दौडक़र उनके पास आ जाते, तब वे बार-बार उन्हें अपनी जीभसे चाटतीं और अपना दूध पिलातीं । उस समय स्नेहकी अधिकताके कारण उनके थनोंसे स्वयं ही दूधकी धारा बहने लगती ॥ २४ ॥ इन गायों और ग्वालिनोंका मातृभाव पहले जैसा ही ऐश्वर्यज्ञानरहित और विशुद्ध था । हाँ, अपने असली पुत्रोंकी अपेक्षा इस समय उनका स्नेह अवश्य अधिक था । इसी प्रकार भगवान्‌ भी उनके पहले पुत्रोंके समान ही पुत्रभाव दिखला रहे थे, परंतु भगवान्‌ में उन बालकोंके जैसा मोहका भाव नहीं था कि मैं इनका पुत्र हूँ ॥ २५ ॥ अपने-अपने बालकोंके प्रति व्रजवासियोंकी स्नेह-लता दिन-प्रतिदिन एक वर्षतक धीरे-धीरे बढ़ती ही गयी । यहाँतक कि पहले श्रीकृष्णमें उनका जैसा असीम और अपूर्व प्रेम था, वैसा ही अपने इन बालकोंके प्रति भी हो गया ॥ २६ ॥ इस प्रकार सर्वात्मा श्रीकृष्ण बछड़े और ग्वालबालोंके बहाने गोपाल बनकर अपने बालकरूपसे वत्सरूपका पालन करते हुए एक वर्षतक वन और गोष्ठमें क्रीड़ा करते रहे ॥ २७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

ततो वत्सान् अदृष्ट्वैत्य पुलिनेऽपि च वत्सपान् ।
उभौ अपि वने कृष्णो विचिकाय समन्ततः ॥ १६ ॥
क्वाप्यदृष्ट्वान्तर्विपिने वत्सान् पालांश्च विश्ववित् ।
सर्वं विधिकृतं कृष्णः सहसावजगाम ह ॥ १७ ॥
ततः कृष्णो मुदं कर्तुं तन्मातॄणां च कस्य च ।
उभयायितमात्मानं चक्रे विश्वकृदीश्वरः ॥ १८ ॥
यावद् वत्सपवत्सकाल्पकवपुः
र्यावत् कराङ्‌घ्र्यादिकं ।
यावद् यष्टिविषाणवेणुदलशिग्
यावद् विभूषाम्बरम् ।
यावत् शीलगुणाभिधाकृतिवयो
यावद् विहारादिकं ।
सर्वं विष्णुमयं गिरोऽङ्‌गवदजः
सर्वस्वरूपो बभौ ॥ १९ ॥
स्वयमात्मात्मगोवत्सान प्रतिवार्यात्मवत्सपैः ।
क्रीडन् आत्मविहारैश्च सर्वात्मा प्राविशद् व्रजम् ॥ २० ॥
तत्तद् वत्सान् पृथङ्‌नीत्वा तत्तद्‍गोष्ठे निवेश्य सः ।
तत्तद् आत्माभवद् राजन् तत्तत्सद्म प्रविष्टवान् ॥ २१ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बछड़े न मिलनेपर यमुनाजीके पुलिन पर लौट आये, परंतु यहाँ क्या देखते हैं कि ग्वालबाल भी नहीं हैं । तब उन्होंने वनमें घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूँढ़ा ॥ १६ ॥ परंतु जब ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरंत जान गये कि यह सब ब्रह्माकी करतूत है । वे तो सारे विश्वके एकमात्र ज्ञाता हैं ॥ १७ ॥ अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने बछड़ों और ग्वालबालों की माताओं को तथा ब्रह्माजी को भी आनन्दित करने के लिये अपने-आप को ही बछड़ों और ग्वालबालोंदोनों के रूपमें बना लिया[*] । क्योंकि वे ही तो सम्पूर्ण विश्व के कर्ता सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं ॥ १८ ॥ परीक्षित्‌ ! वे बालक और बछड़े संख्या में जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे-जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छडिय़ाँ, सिंगी, बाँसुरी, पत्ते और छीके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके शील, स्वभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं, जिस प्रकार वे खाते-पीते और चलते थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपोंमें सर्वस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रकट हो गये । उस समय यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुरूप है’—यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी ॥ १९ ॥ सर्वात्मा भगवान्‌ स्वयं ही बछड़े बन गये और स्वयं ही ग्वालबाल । अपने आत्मस्वरूप बछड़ों को अपने आत्मस्वरूप ग्वालबालों के द्वारा घेरकर अपने ही साथ अनेकों प्रकार के खेल खेलते हुए उन्होंने व्रज में प्रवेश किया ॥ २० ॥ परीक्षित्‌ ! जिस ग्वालबाल के जो बछड़े थे, उन्हें उसी ग्वालबाल के रूप से अलग-अलग ले जाकर उसकी बाखल में घुसा दिया और विभिन्न बालकों के रूपमें उनके भिन्न-भिन्न घरों में चले गये ॥ २१ ॥
................................................
[*] भगवान्‌ सर्वसमर्थ हैं । वे ब्रह्माजी के चुराये हुए ग्वालबाल और बछड़ों को ला सकते थे । किन्तु इससे ब्रह्मा जी का मोह दूर न होता और वे भगवान्‌ की उस दिव्य मायाका ऐश्वर्य न देख सकते, जिसने उनके विश्वकर्ता होने के अभिमान को नष्ट किया । इसीलिये भगवान्‌ उन्हीं ग्वालबाल और बछड़ों को न लाकर स्वयं ही वैसे ही एवं उतने ही ग्वालबाल और बछड़े बन गये ।

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शनिवार, 6 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

भारतैवं वत्सपेषु भुञ्जानेष्वच्युतात्मसु ।
वत्सास्त्वन्तर्वने दूरं विविशुस्तृणलोभिताः ॥ १२ ॥
तान् दृष्ट्वा भयसंत्रस्न् ऊचे कृष्णोऽस्य भीभयम् ।
मित्राण्याशान्मा विरमत् इहानेष्ये वत्सकानहम् ॥ ॥
इत्युक्त्वाद्रिदरीकुञ्ज गह्वरेष्वात्मवत्सकान् ।
विचिन्वन् भगवान् कृष्णः सपाणिकवलो ययौ ॥ १४ ॥
अम्भोजन्मजनिस्तदन्तरगतो मायार्भकस्येशितुः ।
द्रष्टुं मञ्जु महित्वमन्यदपि तद्वत्सानितो वत्सपान् ।
नीत्वान्यत्र कुरूद्वहान्तरदधात् खेऽवस्थितो यः पुरा ।
दृष्ट्वाघासुरमोक्षणं प्रभवतः प्राप्तः परं विस्मयम् ॥ १५ ॥

भरतवंशशिरोमणे ! इस प्रकार भोजन करते-करते ग्वालबाल भगवान्‌ की इस रसमयी लीलामें तन्मय हो गये । उसी समय उनके बछड़े हरी-हरी घासके लालचसे घोर जंगलमें बड़ी दूर निकल गये ॥ १२ ॥ जब ग्वालबालों का ध्यान उस ओर गया, तब तो वे भयभीत हो गये । उस समय अपने भक्तों के भय को भगा देनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘मेरे प्यारे मित्रो ! तुमलोग भोजन करना बंद मत करो । मैं अभी बछड़ों को लिये आता हूँ॥ १३ ॥ ग्वालबालों से इस प्रकार कहकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण हाथमें दही-भात का कौर लिये ही पहाड़ों, गुफाओं, कुञ्जों एवं अन्यान्य भयङ्कर स्थानोंमें अपने तथा साथियोंके बछड़ोंको ढूँढऩे चल दिये ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! ब्रह्माजी पहलेसे ही आकाशमें उपस्थित थे । प्रभुके प्रभाव से अघासुरका मोक्ष देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने सोचा कि लीलासे मनुष्य-बालक बने हुए भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कोई और मनोहर महिमामयी लीला देखनी चाहिये । ऐसा सोचकर उन्होंने पहले तो बछड़ोंको और भगवान्‌ श्रीकृष्णके चले जानेपर ग्वालबालोंको भी, अन्यत्र ले जाकर रख दिया और स्वयं अन्तर्धान हो गये । अन्तत: वे जड़ कमलकी ही तो सन्तान हैं ॥ १५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

तथेति पाययित्वार्भा वत्सानारुध्य शाद्वले ।
मुक्त्वा शिक्यानि बुभुजुः समं भगवता मुदा ॥ ७ ॥
कृष्णस्य विष्वक् पुरुराजिमण्डलैः
अभ्याननाः फुल्लदृशो व्रजार्भकाः ।
सहोपविष्टा विपिने विरेजुः
छदा यथाम्भोरुहकर्णिकायाः ॥ ८ ॥
केचित् पुष्पैर्दलैः केचित् पल्लवैः अङ्‌कुरैः फलैः ।
शिग्भिः त्वग्भिः दृषद्‌भिश्च बुभुजुः कृतभाजनाः ॥ ९ ॥
सर्वे मिथो दर्शयन्तः स्वस्वभोज्यरुचिं पृथक् ।
हसन्तो हासयन्तश्च अभ्यवजह्रुः सहेश्वराः ॥ १० ॥
बिभ्रद् वेणुं जठरपटयोः श्रृङ्‌गवेत्रे च कक्षे ।
वामे पाणौ मसृणकवलं तत्फलान्यङ्‌गुलीषु ।
तिष्ठन् मध्ये स्वपरिसुहृदो हासयन् नर्मभिः स्वैः
स्वर्गे लोके मिषति बुभुजे यज्ञभुग् बालकेलिः ॥ ११ ॥

ग्वालबालों ने एक स्वरसे कहा—‘ठीक है, ठीक है !उन्होंने बछड़ों को पानी पिलाकर हरी-हरी घास में छोड़ दिया और अपने-अपने छीके खोल-खोलकर भगवान्‌के साथ बड़े आनन्दसे भोजन करने लगे ॥ ७ ॥ सबके बीच में भगवान्‌ श्रीकृष्ण बैठ गये । उनके चारों ओर ग्वालबालों ने बहुत-सी मण्डलाकार पंक्तियाँ बना लीं और एक-से-एक सटकर बैठ गये । सबके मुँह श्रीकृष्ण की ओर थे और सबकी आँखें आनन्दसे खिल रही थीं । वन-भोजनके समय श्रीकृष्ण के साथ बैठे हुए ग्वालबाल ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो कमलकी कर्णिका के चारों ओर उसकी छोटी-बड़ी पँखुडिय़ाँ सुशोभित हो रही हों ॥ ८ ॥ कोई पुष्प तो कोई पत्ते और कोई-कोई पल्लव, अंकुर, फल, छीके, छाल एवं पत्थरोंके पात्र बनाकर भोजन करने लगे ॥ ९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण और ग्वालबाल सभी परस्पर अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न रुचिका प्रदर्शन करते । कोई किसीको हँसा देता, तो कोई स्वयं ही हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता । इस प्रकार वे सब भोजन करने लगे ॥ १० ॥ (उस समय श्रीकृष्णकी छटा सबसे निराली थी ।) उन्होंने मुरलीको तो कमरकी फेंटमें आगेकी ओर खोंस लिया था । सिंगी और बेंत बगलमें दबा लिये थे । बायें हाथमें बड़ा ही मधुर घृतमिश्रित दही- भातका ग्रास था और अँगुलियोंमें अदरक, नीबू आदिके अचार-मुरब्बे दबा रखे थे । ग्वालबाल उनको चारों ओरसे घेरकर बैठे हुए थे और वे स्वयं सबके बीचमें बैठकर अपनी विनोदभरी बातोंसे अपने साथी ग्वालबालोंको हँसाते जा रहे थे । जो समस्त यज्ञोंके एकमात्र भोक्ता हैं, वे ही भगवान्‌ ग्वालबालोंके साथ बैठकर इस प्रकार बाल-लीला करते हुए भोजन कर रहे थे और स्वर्गके देवता आश्चर्यचकित होकर यह अद्भुत लीला देख रहे थे ॥ ११ ॥

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शुक्रवार, 5 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

श्रीशुक उवाच ।
साधु पृष्टं महाभाग त्वया भागवतोत्तम ।
यन्नूतनयसीशस्य श्रृण्वन्नपि कथां मुहुः ॥ १ ॥
सतामयं सारभृतां निसर्गो
यदर्थवाणी श्रुतिचेतसामपि ।
प्रतिक्षणं नव्यवदच्युतस्य यत्
स्त्रिया विटानामिव साधु वार्ता ॥ २ ॥
श्रृणुष्वावहितो राजन् अपि गुह्यं वदामि ते ।
ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ॥ ३ ॥
तथा अघवदनान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सपालकान् ।
सरित्पुलिनमानीय भगवान् इदमब्रवीत् ॥ ४ ॥
अहोऽतिरम्यं पुलिनं वयस्याः
स्वकेलिसम्पन् मृदुलाच्छबालुकम् ।
स्फुटत्सरोगन्ध हृतालिपत्रिक
ध्वनिप्रतिध्वानलसद् द्रुमाकुलम् ॥ ५ ॥
अत्र भोक्तव्यमस्माभिः दिवारूढं क्षुधार्दिताः ।
वत्साः समीपेऽपः पीत्वा चरन्तु शनकैस्तृणम् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! तुम बड़े भाग्यवान् हो । भगवान्‌ के प्रेमी भक्तों में तुम्हारा स्थान श्रेष्ठ है । तभी तो तुमने इतना सुन्दर प्रश्न किया है । यों तो तुम्हें बार-बार भगवान् की लीला-कथाएँ सुनने को मिलती हैं, फिर भी तुम उनके सम्बन्ध में प्रश्न करके उन्हें और भी सरसऔर भी नूतन बना देते हो ॥ १ ॥ रसिक संतोंकी वाणी, कान और हृदय भगवान्‌ की लीलाके गान, श्रवण और चिन्तन के लिये ही होते हैंउनका यह स्वभाव ही होता है कि वे क्षण- प्रतिक्षण भगवान्‌ की लीलाओं को अपूर्व रसमयी और नित्य-नूतन अनुभव करते रहेंठीक वैसे ही, जैसे लम्पट पुरुषों को स्त्रियों की चर्चामें नया-नया रस जान पड़ता है ॥ २ ॥ परीक्षित्‌ ! तुम एकाग्र चित्त से श्रवण करो । यद्यपि भगवान्‌ की यह लीला अत्यन्त रहस्यमयी है, फिर भी मैं तुम्हें सुनाता हूँ । क्योंकि दयालु आचार्यगण अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त रहस्य भी बतला दिया करते हैं ॥ ३ ॥ यह तो मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों को मृत्युरूप अघासुर के मुँह से बचा लिया । इसके बाद वे उन्हें यमुनाके पुलिनपर ले आये और उनसे कहने लगे ॥ ४ ॥ मेरे प्यारे मित्रो ! यमुनाजी का यह पुलिन अत्यन्त रमणीय है । देखो तो सही, यहाँ की बालू कितनी कोमल और स्वच्छ है । हमलोगोंके लिये खेलनेकी तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है । देखो, एक ओर रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं और उनकी सुगन्ध से खिंच कर भौंरे गुंजार कर रहे हैं; तो दूसरी ओर सुन्दर-सुन्दर पक्षी बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं, जिसकी प्रतिध्वनि से सुशोभित वृक्ष इस स्थान की शोभा बढ़ा रहे हैं ॥ ५ ॥ अब हम लोगों को यहाँ भोजन कर लेना चाहिये । क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हमलोग भूख से पीडि़त हो रहे हैं । बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

अघासुर का उद्धार

श्रीसूत उवाच ।
इत्थं द्विजा यादवदेवदत्तः
श्रुत्वा स्वरातुश्चरितं विचित्रम् ।
पप्रच्छ भूयोऽपि तदेव पुण्यं
वैयासकिं यन्निगृहीतचेताः ॥ ४० ॥

श्रीराजोवाच ।
ब्रह्मन् कालान्तरकृतं तत्कालीनं कथं भवेत् ।
यत्कौमारे हरिकृतं जगुः पौगण्डकेऽर्भकाः ॥ ४१ ॥
तद् ब्रूहि मे महायोगिन् परं कौतूहलं गुरो ।
नूनमेतद्धरेरेव माया भवति नान्यथा ॥ ४२ ॥
वयं धन्यतमा लोके गुरोऽपि क्षत्रबन्धवः ।
यत् पिबामो मुहुस्त्वत्तः पुण्यं कृष्णकथामृतम् ॥ ४३ ॥

श्रीसूत उवाच ।
इत्थं स्म पृष्टः स तु बादरायणिः
तत्स्मारितानन्तहृताखिलेन्द्रियः ।
कृच्छ्रात् पुनर्लब्धबहिर्दृशिः शनैः
प्रत्याह तं भागवतोत्तमोत्तम ॥ ४४ ॥

सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने ही राजा परीक्षित्‌ को जीवन-दान दिया था । उन्होंने जब अपने रक्षक एवं जीवनसर्वस्वका यह विचित्र चरित्र सुना, तब उन्होंने फिर श्रीशुकदेवजी महाराजसे उन्हींकी पवित्र लीलाके सम्बन्धमें प्रश्न किया । इसका कारण यह था कि भगवान्‌की अमृतमयी लीलाने परीक्षित्‌के चित्तको अपने वशमें कर रखा था ॥ ४० ॥
राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! आपने कहा था कि ग्वालबालों ने भगवान्‌ की की हुई पाँचवें वर्षकी लीला व्रजमें छठे वर्ष में जाकर कही । अब इस विषय में आप कृपा करके यह बतलाइये कि एक समयकी लीला दूसरे समय में वर्तमानकालीन कैसे हो सकती है ? ॥ ४१ ॥ महायोगी गुरुदेव ! मुझे इस आश्चर्यपूर्ण रहस्य को जानने के लिये बड़ा कौतूहल हो रहा है । आप कृपा करके बतलाइये । अवश्य ही इसमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी विचित्र घटनाओं को घटित करनेवाली माया का कुछ-न-कुछ काम होगा । क्योंकि और किसी प्रकार ऐसा नहीं हो सकता ॥ ४२ ॥ गुरुदेव ! यद्यपि क्षत्रियोचित धर्म ब्राह्मण-सेवासे विमुख होनेके कारण मैं अपराधी नाममात्रका क्षत्रिय हूँ, तथापि हमारा अहोभाग्य है कि हम आपके मुखारविन्दसे निरन्तर झरते हुए परम पवित्र मधुमय श्रीकृष्णलीलामृत का बार-बार पान कर रहे हैं ॥ ४३ ॥
सूतजी कहते हैंभगवान्‌ के परम प्रेमी भक्तों में श्रेष्ठ शौनकजी ! जब राजा परीक्षित्‌ ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब श्रीशुकदेव जी को भगवान्‌ की वह लीला स्मरण हो आयी और उनकी समस्त इन्द्रियाँ तथा अन्त:करण विवश होकर भगवान्‌ की नित्यलीला में खिंच गये । कुछ समय के बाद धीरे-धीरे श्रम और कष्ट से उन्हें बाह्यज्ञान हुआ । तब वे परीक्षित्‌ से भगवान्‌ की लीला का वर्णन करने लगे     ॥४४ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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गुरुवार, 4 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

अघासुर का उद्धार

तच्छ्रुत्वा भगवान् कृष्णस्तु अव्ययः सार्भवत्सकम् ।
चूर्णीचिकीर्षोरात्मानं तरसा ववृधे गले ॥ ३० ॥
ततोऽतिकायस्य निरुद्धमार्गिणो
ह्युद्‍गीर्णदृष्टेः भ्रमतस्त्वितस्ततः ।
पूर्णोऽन्तरंगे पवनो निरुद्धो
मूर्धन् विनिष्पाट्य विनिर्गतो बहिः ॥ ३१ ॥
तेनैव सर्वेषु बहिर्गतेषु
प्राणेषु वत्सान् सुहृदः परेतान् ।
दृष्ट्या स्वयोत्थाप्य तदन्वितः पुनः
वक्त्रान् मुकुन्दो भगवान् विनिर्ययौ ॥ ३२ ॥
पीनाहिभोगोत्थितमद्‍भुतं महत्
ज्योतिः स्वधाम्ना ज्वलयद् दिशो दश ।
प्रतीक्ष्य खेऽवस्थितमीशनिर्गमं
विवेश तस्मिन् मिषतां दिवौकसाम् ॥ ३३ ॥
ततोऽतिहृष्टाः स्वकृतोऽकृतार्हणं
पुष्पैः सुगा अप्सरसश्च नर्तनैः ।
गीतैः सुरा वाद्यधराश्च वाद्यकैः
स्तवैश्च विप्रा जयनिःस्वनैर्गणाः ॥ ३४ ॥
तदद्‍भुतस्तोत्रसुवाद्यगीतिका
जयादिनैकोत्सव मङ्‌गलस्वनान् ।
श्रुत्वा स्वधाम्नोऽन्त्यज आगतोऽचिराद्
दृष्ट्वा महीशस्य जगाम विस्मयम् ॥ ३५ ॥
राजन् आजगरं चर्म शुष्कं वृन्दावनेऽद्‍भुतम् ।
व्रजौकसां बहुतिथं बभूवाक्रीडगह्वरम् ॥ ३६ ॥
एतत्कौमारजं कर्म हरेरात्माहिमोक्षणम् ।
मृत्योः पौगण्डके बाला दृष्ट्वोचुर्विस्मिता व्रजे ॥ ३७ ॥
नैतद् विचित्रं मनुजार्भमायिनः
परावराणां परमस्य वेधसः ।
अघोऽपि यत्स्पर्शनधौतपातकः
प्रापात्मसाम्यं त्वसतां सुदुर्लभम् ॥ ३८ ॥
सकृद्यदङ्‌गप्रतिमान्तराहिता
मनोमयी भागवतीं ददौ गतिम् ।
स एव नित्यात्मसुखानुभूत्यभि
व्युदस्तमायोऽन्तर्गतो हि किं पुनः ॥ ३९ ॥

अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान्‌ श्रीकृष्ण को अपनी डाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था । परंतु उसी समय अविनाशी श्रीकृष्णने देवताओंकी हाय-हायसुनकर उसके गलेमें अपने शरीरको बड़ी फुर्तीसे बढ़ा लिया ॥ ३० ॥ इसके बाद भगवान्‌ ने अपने शरीरको इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला ही रुँध गया । आँखें उलट गयीं । वह व्याकुल होकर बहुत ही छटपटाने लगा । साँस रुककर सारे शरीरमें भर गयी और अन्तमें उसके प्राण ब्रह्मरन्ध्र फोडक़र निकल गये ॥ ३१ ॥ उसी मार्गसे प्राणोंके साथ उसकी सारी इन्द्रियाँ भी शरीरसे बाहर हो गयीं । उसी समय भगवान्‌ मुकुन्दने अपनी अमृतमयी दृष्टिसे मरे हुए बछड़ों और ग्वालबालोंको जिला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुरके मुँहसे बाहर निकल आये ॥ ३२ ॥ उस अजगरके स्थूल शरीरसे एक अत्यन्त अद्भुत और महान् ज्योति निकली, उस समय उस ज्योतिके प्रकाशसे दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं । वह थोड़ी देरतक तो आकाशमें स्थित होकर भगवान्‌ के निकलनेकी प्रतीक्षा करती रही । जब वे बाहर निकल आये तब वह सब देवताओंके देखते-देखते उन्हींमें समा गयी ॥ ३३ ॥ उस समय देवताओंने फूल बरसाकर, अप्सराओंने नाचकर, गन्धर्वोंने गाकर, विद्याधरोंने बाजे बजाकर, ब्राह्मणोंने स्तुति-पाठकर और पार्षदोंने जय-जयकारके नारे लगाकर बड़े आनन्दसे भगवान्‌ श्रीकृष्णका अभिनन्दन किया । क्योंकि भगवान्‌ श्रीकृष्णने अघासुरको मारकर उन सबका बहुत बड़ा काम किया था ॥ ३४ ॥ उन अद्भुत स्तुतियों, सुन्दर बाजों, मङ्गलमय गीतों, जय-जयकार और आनन्दोत्सवोंकी मङ्गलध्वनि ब्रह्मलोकके पास पहुँच गयी । जब ब्रह्माजीने वह ध्वनि सुनी, तब वे बहुत ही शीघ्र अपने वाहनपर चढक़र वहाँ आये और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यह महिमा देखकर आश्चर्य चकित हो गये ॥ ३५ ॥ परीक्षित्‌ ! जब वृन्दावनमें अजगरका वह चाम सूख गया, तब वह व्रजवासियोंके लिये बहुत दिनोंतक खेलनेकी एक अद्भुत गुफा-सी बना रहा ॥ ३६ ॥ यह जो भगवान्‌ने अपने ग्वालबालोंको मृत्युके मुखसे बचाया था और अघासुरको मोक्ष-दान किया था, वह लीला भगवान्‌ने अपनी कुमार अवस्थामें अर्थात् पाँचवें वर्षमें ही की थी । ग्वालबालोंने उसे उसी समय देखा भी था, परंतु पौगण्ड अवस्था अर्थात् छठे वर्षमें अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर व्रजमें उसका वर्णन किया ॥ ३७ ॥ अघासुर मूर्तिमान् अघ (पाप) ही था । भगवान्‌के स्पर्शमात्रसे उसके सारे पाप धुल गये और उसे उस सारूप्य-मुक्तिकी प्राप्ति हुई, जो पापियोंको कभी मिल नहीं सकती । परंतु यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । क्योंकि मनुष्य- बालककी-सी लीला रचनेवाले ये वे ही परमपुरुष परमात्मा हैं, जो व्यक्त-अव्यक्त और कार्य- कारणरूप समस्त जगत्के एकमात्र विधाता हैं ॥ ३८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके किसी एक अङ्गकी भावनिर्मित प्रतिमा यदि ध्यानके द्वारा एक बार भी हृदयमें बैठा ली जाय, तो वह सालोक्य, सामीप्य आदि गतिका दान करती है, जो भगवान्‌ के बड़े-बड़े भक्तों को मिलती है । भगवान्‌ आत्मानन्द के नित्य साक्षात्कारस्वरूप हैं । माया उनके पास तक नहीं फटक पाती । वे ही स्वयं अघासुर के शरीर में प्रवेश कर गये । क्या अब भी उसकी सद्गति के विषय में कोई सन्देह है ? ॥ ३९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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