शुक्रवार, 12 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

पश्येश मेऽनार्यमनन्त आद्ये
परात्मनि त्वय्यपि मायिमायिनि ।
मायां वितत्येक्षितुमात्मवैभवं
ह्यहं कियानैच्छमिवार्चिरग्नौ ॥ ९ ॥
अतः क्षमस्वाच्युत मे रजोभुवो
ह्यजानतस्त्वत् पृथगीशमानिनः ।
अजावलेपान्धतमोऽन्धचक्षुष
एषोऽनुकम्प्यो मयि नाथवानिति ॥ १० ॥
क्वाहं तमोमहदहंखचराग्निवार्भू ।
संवेष्टिताण्डघटसप्तवितस्तिकायः ।
क्वेदृग्विधाविगणिताण्डपराणुचर्या ।
वाताध्वरोमविवरस्य च ते महित्वम् ॥ ११ ॥
उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः
किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे ।
किमस्तिनास्तिव्यपदेशभूषितं
तवास्ति कुक्षेः कियदप्यनन्तः ॥ १२ ॥

प्रभो ! मेरी कुटिलता तो देखिये । आप अनन्त आदि पुरुष परमात्मा हैं और मेरे-जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी मायाके चक्रमें हैं । फिर भी मैंने आपपर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वर्य देखना चाहा ! प्रभो ! मैं आपके सामने हूँ ही क्या । क्या आगके सामने चिनगारीकी भी कुछ गिनती है ? ॥ ९ ॥ भगवन् ! मैं रजोगुणसे उत्पन्न हुआ हूँ । आपके स्वरूपको मैं ठीक-ठीक नहीं जानता । इसीसे अपनेको आपसे अलग संसारका स्वामी माने बैठा था । मैं अजन्मा जगत्कर्ता हूँइस मायाकृत मोह के घने अन्धकार से मैं अन्धा हो रहा था । इसलिये आप यह समझकर कि यह मेरे ही अधीन हैमेरा भृत्य है, इसपर कृपा करनी चाहिये’, मेरा अपराध क्षमा कीजिये ॥ १० ॥ मेरे स्वामी ! प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीरूप आवरणोंसे घिरा हुआ यह ब्रह्माण्ड ही मेरा शरीर है । और आपके एक-एक रोमके छिद्रमें ऐसे-ऐसे अगणित ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जैसे झरोखेकी जाली में से आनेवाली सूर्यकी किरणों में रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखायी पड़ते हैं । कहाँ अपने परिमाणसे साढ़े तीन हाथके शरीरवाला अत्यन्त क्षुद्र मैं, और कहाँ आपकी अनन्त महिमा ॥ ११ ॥
वृत्तियों की पकड़ में न आनेवाले परमात्मन् ! जब बच्चा माताके पेटमें रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परंतु क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है ? ‘हैऔर नहीं है’—इन शब्दोंसे कही जानेवाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी कोखके भीतर न हो ? ॥ १२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

तथापि भूमन् महिमागुणस्य ते
विबोद्धुमर्हत्यमलान्तरात्मभिः ।
अविक्रियात् स्वानुभवादरूपतो
ह्यनन्यबोध्यात्मतया न चान्यथा ॥ ६ ॥
गुणात्मनस्तेऽपि गुणान् विमातुं
हितावतीर्णस्य क ईशिरेऽस्य ।
कालेन यैर्वा विमिताः सुकल्पैः
भूपांशवः खे मिहिका द्युभासः ॥ ७ ॥
तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो
भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।
हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते
जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥ ८ ॥

हे अनन्त ! आपके सगुण-निर्गुण दोनों स्वरूपोंका ज्ञान कठिन होनेपर भी निर्गुण स्वरूपकी महिमा इन्द्रियोंका प्रत्याहार करके शुद्धान्त:करणसे जानी जा सकती है । (जाननेकी प्रक्रिया यह है कि) विशेष आकारके परित्यागपूर्वक आत्माकार अन्त:करणका साक्षात्कार किया जाय । यह आत्माकारता घट-पटादि रूपके समान ज्ञेय नहीं है, प्रत्युत आवरणका भङ्गमात्र है । यह साक्षात्कार यह ब्रह्म है’, ‘मैं ब्रह्मको जानता हूँइस प्रकार नहीं, किन्तु स्वयंप्रकाश रूपसे ही होता है ॥ ६ ॥ परंतु भगवन् ! जिन समर्थ पुरुषोंने अनेक जन्मोंतक परिश्रम करके पृथ्वीका एक-एक परमाणु, आकाशके हिमकण (ओसकी बूँदे) तथा उस में चमकने वाले नक्षत्र एवं तारों- तक को गिन डाला हैउनमें भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण स्वरूप के अनन्त गुणों को गिन सके ? प्रभो ! आप केवल संसार के कल्याण के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं । सो भगवन् ! आप की महिमा का ज्ञान तो बड़ा ही कठिन है ॥ ७ ॥ इसलिये जो पुरुष क्षण-क्षणपर बड़ी उत्सुकतासे आपकी कृपा का ही भलीभाँति अनुभव करता रहता है और प्रारब्धके अनुसार जो कुछ सुख या दु:ख प्राप्त होता है उसे निर्विकार मनसे भोग लेता है, एवं जो प्रेमपूर्ण हृदय, गद्गद वाणी और पुलकित शरीरसे अपनेको आपके चरणोंमें समर्पित करता रहता हैइस प्रकार जीवन व्यतीत करनेवाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पदका अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिताकी सम्पत्तिका पुत्र ! ॥ ८ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 11 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

पुरेह भूमन् बहवोऽपि योगिनः
त्वदर्पितेहा निजकर्मलब्धया ।
विबुध्य भक्त्यैव कथोपनीतया
प्रपेदिरेऽञ्जोऽच्युत ते गतिं पराम् ॥ ५ ॥

हे अच्युत ! हे अनन्त ! इस लोकमें पहले भी बहुत-से योगी हो गये हैं । जब उन्हें योगादिके द्वारा आपकी प्राप्ति न हुई, तब उन्होंने अपने लौकिक और वैदिक समस्त कर्म आपके चरणोंमें समर्पित कर दिये । उन समर्पित कर्मोंसे तथा आपकी लीला-कथासे उन्हें आपकी भक्ति प्राप्त हुई । उस भक्तिसे ही आपके स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने बड़ी सुगमतासे आपके परमपदकी प्राप्ति कर ली ॥ ५ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव ।
जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीयवार्ताम् ।
स्थाने स्थिताः श्रुतिगतां तनुवाङ्‌मनोभिः ।
ये प्रायशोऽजित जितोऽप्यसि तैस्त्रिलोक्याम् ॥ ३ ॥
श्रेयःसृतिं भक्तिमुदस्य ते विभो ।
क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये ।
तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते ।
नान्यद् यथा स्थूलतुषावघातिनाम् ॥ ४ ॥

प्रभो ! जो लोग ज्ञान के लिये प्रयत्न न करके अपने स्थान में ही स्थित रहकर केवल सत्सङ्ग करते हैं और आपके प्रेमी संत पुरुषों के द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथा का, जो उन लोगों के पास रहने से अपने-आप सुनने को मिलती है, शरीर, वाणी और मनसे विनयावनत होकर सेवन करते हैंयहाँतक कि उसे ही अपना जीवन बना लेते हैं, उसके बिना जी ही नहीं सकतेप्रभो यद्यपि आपपर त्रिलोकी में कोई कभी विजय नहीं प्राप्त कर सकता, फिर भी वे आपपर विजय प्राप्त कर लेते हैं, आप उनके प्रेमके अधीन हो जाते हैं ॥ ३ ॥ भगवन् ! आपकी भक्ति सब प्रकारके कल्याणका मूलस्रोतउद्गम है । जो लोग उसे छोडक़र केवल ज्ञानकी प्राप्तिके लिये श्रम उठाते और दु:ख भोगते हैं, उनको बस, क्लेश-ही-क्लेश हाथ लगता है, और कुछ नहींजैसे थोथी भूसी कूटनेवाले को केवल श्रम ही मिलता है, चावल नहीं ॥ ४ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



बुधवार, 10 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीब्रह्मोवाच ।

नौमीड्य तेऽभ्रवपुषे तडिदम्बराय
गुञ्जावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय ।
वन्यस्रजे कवलवेत्रविषाणवेणु
लक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपाङ्‌गजाय ॥ १ ॥
अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य
स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि ।
नेशे महि त्ववसितुं मनसाऽऽन्तरेण
साक्षात्तवैव किमुतात्मसुखानुभूतेः ॥ २ ॥

ब्रह्माजीने स्तुति कीप्रभो ! एकमात्र आप ही स्तुति करनेयोग्य हैं । मैं आपके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ । आपका यह शरीर वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है, इसपर स्थिर बिजली के समान झिलमिल-झिलमिल करता हुआ पीताम्बर शोभा पाता है, आपके गलेमें घुँघची की माला, कानोंमें मकराकृति कुण्डल तथा सिरपर मोरपंखोंका मुकुट है, इन सबकी कान्ति से आपके मुखपर अनोखी छटा छिटक रही है । वक्ष:स्थलपर लटकती हुई वनमाला और नन्हीं-सी हथेली पर दही-भात का कौर । बगल में बेंत और सिंगी तथा कमर की फेंट में आपकी पहचान बताने वाली बाँसुरी शोभा पा रही है । आपके कमल-से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल-बालक का मधुर वेष । (मैं और कुछ नहीं जानता; बस, मैं तो इन्हीं चरणों पर निछावर हूँ) ॥ १ ॥ स्वयंप्रकाश परमात्मन् ! आपका यह श्रीविग्रह भक्तजनों की लालसा-अभिलाषा पूर्ण करनेवाला है । यह आपकी चिन्मयी इच्छा का मूर्तिमान् स्वरूप मुझपर आपका साक्षात् कृपा-प्रसाद है । मुझे अनुगृहीत करने के लिये ही आपने इसे प्रकट किया है । कौन कहता है कि यह पञ्चभूतों की रचना है ! प्रभो ! यह तो अप्राकृत शुद्ध सत्त्वमय है । मैं या और कोई समाधि लगाकर भी आपके इस सच्चिदानन्द-विग्रह की महिमा नहीं जान सकता । फिर आत्मानन्दानुभवस्वरूप साक्षात् आपकी ही महिमाको तो कोई एकाग्रमनसे भी कैसे जान सकता है ॥ २ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

ततोऽतिकुतुकोद्‌वृत्त स्तिमितैकादशेन्द्रियः ।
तद्धाम्नाभूदजस्तूष्णीं पूर्देव्यन्तीव पुत्रिका ॥ ५६ ॥
इतीरेशेऽतर्क्ये निजमहिमनि स्वप्रमितिके ।
परत्राजातोऽतन् निरसनमुखब्रह्मकमितौ ।
अनीशेऽपि द्रष्टुं किमिदमिति वा मुह्यति सति
चछादाजो ज्ञात्वा सपदि परमोऽजाजवनिकाम् ॥ ५७ ॥
ततोऽर्वाक्प्रतिलब्धाक्षः कः परेतवदुत्थितः ।
कृच्छ्राद् उन्मील्य वै दृष्टीः आचष्टेदं सहात्मना ॥ ५८ ॥
सपद्येवाभितः पश्यन् दिशोऽपश्यत् पुरःस्थितम् ।
वृन्दावनं जनाजीव्य द्रुमाकीर्णं समाप्रियम् ॥ ५९ ॥
यत्र नैसर्गदुर्वैराः सहासन् नृमृगादयः ।
मित्राणीवाजितावास द्रुतरुट्तर्षकादिकम् ॥ ६० ॥
तत्रोद्वहत्पशुपवंशशिशुत्वनाट्यं
ब्रह्माद्वयं परमनन्त-मगाधबोधम् ।
वत्सान् सखीनिव पुरा परितो विचिन्वद्
एकं सपाणिकवलं परमेष्ठ्यचष्ट ॥ ६१ ॥
दृष्ट्वा त्वरेण निजधोरणतोऽवतीर्य
पृथ्व्यां वपुः कनकदण्डमिवाभिपात्य ।
स्पृष्ट्वा चतुर्मुकुट कोटिभिरङ्‌घ्रियुग्मं
नत्वा मुदश्रुसुजलैः अकृताभिषेकम् ॥ ६२ ॥
उत्थायोत्थाय कृष्णस्य चिरस्य पादयोः पतन् ।
आस्ते महित्वं प्राग्दृष्टं स्मृत्वा स्मृत्वा पुनः पुनः ॥ ६३ ॥
शनैरथोत्थाय विमृज्य लोचने
मुकुन्दमुद्वीक्ष्य विनम्रकन्धरः ।
कृताञ्जलिः प्रश्रयवान्समाहितः
सवेपथुर्गद्‍गदयैलतेलया ॥ ६४ ॥

यह अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रह्माजी तो चकित रह गये । उनकी ग्यारहों इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन) क्षुब्ध एवं स्तब्ध रह गयीं । वे भगवान्‌ के तेज से निस्तेज होकर मौन हो गये । उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गये, मानो व्रज के अधिष्ठातृ- देवता के पास एक पुतली खड़ी हो ॥ ५६ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ का स्वरूप तर्क से परे है । उसकी महिमा असाधारण है । वह स्वयंप्रकाश, आनन्दस्वरूप और माया से अतीत है । वेदान्त भी साक्षात्  रूप से उसका वर्णन करने में असमर्थ है, इसलिये उससे भिन्न का निषेध करके आनन्दस्वरूप ब्रह्म का किसी प्रकार कुछ संकेत करता है । यद्यपि ब्रह्माजी समस्त विद्याओं के अधिपति हैं, तथापि भगवान्‌ के दिव्यस्वरूप को वे तनिक भी न समझ सके कि यह क्या है । यहाँतक कि वे भगवान्‌ के उन महिमामय रूपों को देखनेमें भी असमर्थ हो गये । उनकी आँखें मुँद गयीं । भगवान्‌ श्रीकृष्णने ब्रह्माके इस मोह और असमर्थताको जानकर बिना किसी प्रयासके तुरंत अपनी मायाका परदा हटा दिया ॥ ५७ ॥ इससे ब्रह्माजीको बाह्यज्ञान हुआ । वे मानो मरकर फिर जी उठे । सचेत होकर उन्होंने ज्यों-त्यों करके बड़े कष्टसे अपने नेत्र खोले । तब कहीं उन्हें अपना शरीर और यह जगत् दिखायी पड़ा ॥ ५८ ॥ फिर ब्रह्माजी जब चारों ओर देखने लगे, तब पहले दिशाएँ और उसके बाद तुरंत ही उनके सामने वृन्दावन दिखायी पड़ा । वृन्दावन सबके लिये एक-सा प्यारा है । जिधर देखिये, उधर ही जीवोंको जीवन देनेवाले फल और फूलोंसे लदे हुए, हरे-हरे पत्तोंसे लहलहाते हुए वृक्षोंकी पाँतें शोभा पा रही हैं ॥ ५९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण की लीलाभूमि होनेके कारण वृन्दावन- धाममें क्रोध, तृष्णा आदि दोष प्रवेश नहीं कर सकते और वहाँ स्वभावसे ही परस्पर दुस्त्यज वैर रखनेवाले मनुष्य और पशु-पक्षी भी प्रेमी मित्रोंके समान हिल-मिलकर एक साथ रहते हैं ॥ ६० ॥ ब्रह्माजीने वृन्दावनका दर्शन करनेके बाद देखा कि अद्वितीय परब्रह्म गोपवंशके बालकका-सा नाट्य कर रहा है । एक होनेपर भी उसके सखा हैं, अनन्त होनेपर भी वह इधर-उधर घूम रहा है और उसका ज्ञान अगाध होनेपर भी वह अपने ग्वालबाल और बछड़ोंको ढूँढ़ रहा है । ब्रह्माजीने देखा कि जैसे भगवान्‌ श्रीकृष्ण पहले अपने हाथमें दही-भातका कौर लिये उन्हें ढूँढ़ रहे थे, वैसे ही अब भी अकेले ही उनकी खोजमें लगे हैं ॥ ६१ ॥ भगवान्‌ को देखते ही ब्रह्माजी अपने वाहन हंसपरसे कूद पड़े और सोनेके समान चमकते हुए अपने शरीरसे पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिर पड़े । उन्होंने अपने चारों मुकुटोंके अग्रभागसे भगवान्‌ के चरण-कमलोंका स्पर्श करके नमस्कार किया और आनन्दके आँसुओंकी धारासे उन्हें नहला दिया ॥ ६२ ॥ वे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पहले देखी हुई महिमाका बार-बार स्मरण करते, उनके चरणोंपर गिरते और उठ-उठकर फिर-फिर गिर पड़ते । इसी प्रकार बहुत देरतक वे भगवान्‌के चरणोंमें ही पड़े रहे ॥ ६३ ॥ फिर धीरे-धीरे उठे और अपने नेत्रोंके आँसू पोंछे । प्रेम और मुक्तिके एकमात्र उद्गम भगवान्‌ को देखकर उनका सिर झुक गया । वे काँपने लगे । अञ्जलि बाँधकर बड़ी नम्रता और एकाग्रताके साथ गद्गद वाणीसे वे भगवान्‌की स्तुति करने लगे ॥ ६४ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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मंगलवार, 9 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

तावत्सर्वे वत्सपालाः पश्यतोऽजस्य तत्क्षणात् ।
व्यदृश्यन्त घनश्यामाः पीतकौशेयवाससः ॥ ४६ ॥
चतुर्भुजाः शङ्‌खचक्र गदाराजीवपाणयः ।
किरीटिनः कुण्डलिनो हारिणो वनमालिनः ॥ ४७ ॥
श्रीवत्साङ्‌गददोरत्‍न कम्बुकङ्‌कणपाणयः ।
नूपुरैः कटकैर्भाताः कटिसूत्राङ्‌गुलीयकैः ॥ ४८ ॥
आङ्‌घ्रिमस्तकमापूर्णाः तुलसीनवदामभिः ।
कोमलैः सर्वगात्रेषु भूरिपुण्यवदर्पितैः ॥ ४९ ॥
चन्द्रिकाविशदस्मेरैः सारुणापाङ्‌गवीक्षितैः ।
स्वकार्थानामिव रजः सत्त्वाभ्यां स्रष्टृपालकाः ॥ ५० ॥
आत्मादिस्तम्बपर्यन्तैः मूर्तिमद्‌भिः चराचरैः ।
नृत्यगीताद्यनेकार्हैः पृथक् पृथक् उपासिताः ॥ ५१ ॥
अणिमाद्यैर्महिमभिः अजाद्याभिर्विभूतिभिः ।
चतुर्विंशतिभिस्तत्त्वैः परीता महदादिभिः ॥ ५२ ॥
कालस्वभावसंस्कार कामकर्मगुणादिभिः ।
स्वमहिध्वस्तमहिभिः मूर्तिमद्‌भिः उपासिताः ॥ ५३ ॥
सत्यज्ञानानन्तानन्द मात्रैकरसमूर्तयः ।
अस्पृष्टभूरिमाहात्म्या अपि ह्युपनिषद्‌दृशाम् ॥ ५४ ॥
एवं सकृद् ददर्शाजः परब्रह्मात्मनोऽखिलान् ।
यस्य भासा सर्वमिदं विभाति सचराचरम् ॥ ५५ ॥

ब्रह्माजी विचार कर ही रहे थे कि उनके देखते-देखते उसी क्षण सभी ग्वालबाल और बछड़े श्रीकृष्णके रूपमें दिखायी पडऩे लगे । सब-के-सब सजल जलधरके समान श्यामवर्ण, पीताम्बर- धारी, शङ्ख, चक्र, गदा और पद्मसे युक्तचतुर्भुज । सबके सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल और कण्ठोंमें मनोहर हार तथा वनमालाएँ शोभायमान हो रही थीं ॥ ४६-४७ ॥ उनके वक्ष:स्थलपर सुवर्णकी सुनहली रेखाश्रीवत्स, बाहुओंमें बाजूबंद, कलाइयोंमें शङ्खाकार रत्नोंसे जड़े कंगन, चरणों में नूपुर और कड़े, कमर में करधनी तथा अँगुलियोंमें अँगूठियाँ जगमगा रही थीं ॥ ४८ ॥ वे नखसे शिखतक समस्त अङ्गों में कोमल और नूतन तुलसीकी मालाएँ, जो उन्हें बड़े भाग्यशाली भक्तोंने पहनायी थीं, धारण किये हुए थे ॥ ४९ ॥ उनकी मुसकान चाँदनीके समान उज्ज्वल थी और रतनारे नेत्रों की कटाक्षपूर्ण चितवन बड़ी ही मधुर थी । ऐसा जान पड़ता था मानो वे इन दोनों के द्वारा सत्त्वगुण और रजोगुण को स्वीकार करके भक्तजनों के हृदयमें शुद्ध लालसाएँ जगाकर उनको पूर्ण कर रहे हैं ॥ ५० ॥ ब्रह्माजी ने यह भी देखा कि उन्हींके-जैसे दूसरे ब्रह्मा से लेकर तृण तक सभी चराचर जीव मूर्तिमान् होकर नाचते-गाते अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री से अलग-अलग भगवान्‌ के उन सब रूपों की उपासना कर रहे हैं ॥ ५१ ॥ उन्हें अलग-अलग अणिमा-महिमा आदि सिद्धियाँ, माया-विद्या आदि विभूतियाँ और महत्तत्त्व आदि चौबीसों तत्त्व चारों ओर से घेरे हुए हैं ॥ ५२ ॥ प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला काल, उसके परिणाम का कारण स्वभाव, वासनाओं को जगाने वाला संस्कार, कामनाएँ, कर्म, विषय और फलसभी मूर्तिमान् होकर भगवान्‌ के प्रत्येक रूपकी उपासना कर रहे हैं । भगवान्‌ की सत्ता और महत्ताके सामने उन सभी की सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठी थी ॥ ५३ ॥ ब्रह्माजीने यह भी देखा कि वे सभी भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल के द्वारा सीमित नहीं हैं, त्रिकालाबाधित सत्य हैं। वे सब-के-सब स्वयंप्रकाश और केवल अनन्त आनन्दस्वरूप हैं। उनमें जड़ता अथवा चेतनताका भेदभाव नहीं है। वे सब-के-सब एकरस हैं । यहाँतक कि उपनिषद्दर्शी तत्त्वज्ञानियों की दृष्टि भी उनकी अनन्त महिमा का स्पर्श नहीं कर सकती ॥ ५४ ॥ इस प्रकार ब्रह्माजी ने एक साथ ही देखा कि वे सब-के-सब उन परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णके ही स्वरूप हैं, जिनके प्रकाशसे यह सारा चराचर जगत् प्रकाशित हो रहा है ॥ ५५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

तावदेत्यात्मभूरात्म-मानेन त्रुट्यनेहसा ।
पुरोवदाब्दं क्रीडन्तं ददृशे सकलं हरिम् ॥ ४० ॥
यावन्तो गोकुले बालाः सवत्साः सर्व एव हि ।
मायाशये शयाना मे नाद्यापि पुनरुत्थिताः ॥ ४१ ॥
इत एतेऽत्र कुत्रत्या मन्माया मोहितेतरे ।
तावन्त एव तत्राब्दं क्रीडन्तो विष्णुना समम् ॥ ४२ ॥
एवमेतेषु भेदेषु चिरं ध्यात्वा स आत्मभूः ।
सत्याः के कतरे नेति ज्ञातुं नेष्टे कथञ्चन ॥ ४३ ॥
एवं सम्मोहयन् विष्णुं विमोहं विश्वमोहनम् ।
स्वयैव माययाजोऽपि स्वयमेव विमोहितः ॥ ४४ ॥
तम्यां तमोवन्नैहारं खद्योतार्चिरिवाहनि ।
महतीतरमायैश्यं निहन्त्यात्मनि युञ्जतः ॥ ४५ ॥

परीक्षित्‌ ! तबतक ब्रह्माजी ब्रह्मलोक से व्रजमें लौट आये। उनके कालमान से अबतक केवल एक त्रुटि (जितनी देरमें तीखी सूई से कमल की पँखुड़ी छिदे) समय व्यतीत हुआ था। उन्होंने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण ग्वालबाल और बछड़ों के साथ एक सालसे पहलेकी भाँति ही क्रीडा कर रहे हैं ॥ ४० ॥ वे सोचने लगे—‘गोकुल में जितने भी ग्वालबाल और बछड़े थे, वे तो मेरी मायामयी शय्यापर सो रहे हैंउनको तो मैंने अपनी मायासे अचेत कर दिया था; वे तबसे अबतक सचेत नहीं हुए ॥ ४१ ॥ तब मेरी मायासे मोहित ग्वालबाल और बछड़ोंके अतिरिक्त ये उतने ही दूसरे बालक तथा बछड़े कहाँसे आ गये, जो एक सालसे भगवान्‌के साथ खेल रहे हैं ? ॥ ४२ ॥ ब्रह्माजी ने दोनों स्थानों पर दोनों को देखा और बहुत देरतक ध्यान करके अपनी ज्ञानदृष्टि से उनका रहस्य खोलना चाहा; परंतु इन दोनों में कौन-से पहलेके ग्वालबाल हैं और कौन-से पीछे बना लिये गये हैं, इनमेंसे कौन सच्चे हैं और कौन बनावटीयह बात वे किसी प्रकार न समझ सके ॥ ४३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण की माया में तो सभी मुग्ध हो रहे हैं, परंतु कोई भी माया-मोह भगवान्‌का स्पर्श नहीं कर सकता। ब्रह्माजी उन्हीं भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपनी मायासे मोहित करने चले थे। किन्तु उनको मोहित करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होनेपर भी अपनी ही मायासे अपने-आप मोहित हो गये ॥ ४४ ॥ जिस प्रकार रातके घोर अन्धकारमें कुहरेके अन्धकारका और दिनके प्रकाशमें जुगनूके प्रकाशका पता नहीं चलता, वैसे ही जब क्षुद्र पुरुष महापुरुषोंपर अपनी मायाका प्रयोग करते हैं, तब वह उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, अपना ही प्रभाव खो बैठती है ॥ ४५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



सोमवार, 8 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

व्रजस्य रामः प्रेमर्धेः वीक्ष्यौत्कण्ठ्यमनुक्षणम् ।
मुक्तस्तनेष्वपत्येषु अहेतुविद् अचिन्तयत् ॥ ३५ ॥
किमेतद् अद्‍भुतमिव वासुदेवेऽखिलात्मनि ।
व्रजस्य सात्मनस्तोकेषु अपूर्वं प्रेम वर्धते ॥ ३६ ॥
केयं वा कुत आयाता दैवी वा नार्युतासुरी ।
प्रायो मायास्तु मे भर्तुः नान्या मेऽपि विमोहिनी ॥ ३७ ॥
इति सञ्चिन्त्य दाशार्हो वत्सान् सवयसानपि ।
सर्वानाचष्ट वैकुण्ठं चक्षुषा वयुनेन सः ॥ ३८ ॥
नैते सुरेशा ऋषयो न चैते
त्वमेव भासीश भिदाश्रयेऽपि ।
सर्वं पृथक्त्वं निगमात् कथं वदे-
त्युक्तेन वृत्तं प्रभुणा बलोऽवैत् ॥ ३९ ॥

बलरामजीने देखा कि व्रजवासी गोप, गौएँ और ग्वालिनोंकी उन सन्तानोंपर भी, जिन्होंने अपनी माका दूध पीना छोड़ दिया है, क्षण-प्रतिक्षण प्रेम-सम्पत्ति और उसके अनुरूप उत्कण्ठा बढ़ती ही जा रही है। तब वे विचारमें पड़ गये, क्योंकि उन्हें इसका कारण मालूम न था ॥ ३५ ॥ यह कैसी विचित्र बात है ! सर्वात्मा श्रीकृष्णमें व्रजवासियोंका और मेरा जैसा अपूर्व स्नेह है, वैसा ही इन बालकों और बछड़ोंपर भी बढ़ता जा रहा है ॥ ३६ ॥ यह कौन-सी माया है ? कहाँसे आयी है ? यह किसी देवता की है, मनुष्य की है अथवा असुरों की ? परंतु क्या ऐसा भी सम्भव है ? नहीं- नहीं, यह तो मेरे प्रभुकी ही माया है। और किसीकी मायामें ऐसी सामथ्र्य नहीं, जो मुझे भी मोहित कर ले॥ ३७ ॥ बलरामजीने ऐसा विचार करके ज्ञानदृष्टिसे देखा, तो उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि इन सब बछड़ों और ग्वालबालोंके रूपमें केवल श्रीकृष्ण-ही-श्रीकृष्ण हैं ॥ ३८ ॥ तब उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा—‘भगवन् ! ये ग्वालबाल और बछड़े न देवता हैं और न तो कोई ऋषि ही। इन भिन्न-भिन्न रूपोंका आश्रय लेनेपर भी आप अकेले ही इन रूपोंमें प्रकाशित हो रहे हैं। कृपया स्पष्ट करके थोड़ेमें ही यह बतला दीजिये कि आप इस प्रकार बछड़े बालक, सिंगी, रस्सी आदिके रूपमें अलग-अलग क्यों प्रकाशित हो रहे हैं ?’ तब भगवान्‌ ने ब्रह्माकी सारी करतूत सुनायी और बलरामजीने सब बातें जान लीं ॥ ३९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...