बुधवार, 17 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

प्रपञ्चं निष्प्रपञ्चोऽपि विडम्बयसि भूतले ।
प्रपन्नजनतानन्द सन्दोहं प्रथितुं प्रभो ॥ ३७ ॥
जानन्त एव जानन्तु किं बहूक्त्या न मे प्रभो ।
मनसो वपुषो वाचो वैभवं तव गोचरः ॥ ३८ ॥
अनुजानीहि मां कृष्ण सर्वं त्वं वेत्सि सर्वदृक् ।
त्वमेव जगतां नाथो जगद् एतत् तवार्पितम् ॥ ३९ ॥
श्रीकृष्ण वृष्णिकुलपुष्करजोषदायिन्
क्ष्मानिर्जरद्विजपशूदधिवृद्धिकारिन् ।
उद्धर्मशार्वरहर क्षितिराक्षसध्रुग्
आकल्पमार्कमर्हन् भगवन् नमस्ते ॥ ४० ॥

प्रभो ! आप विश्वके बखेड़े से सर्वथा रहित हैं, फिर भी अपने शरणागत भक्तजनों को अनन्त आनन्द वितरण करनेके लिये पृथ्वीमें अवतार लेकर विश्वके समान ही लीलाविलासका विस्तार करते हैं ॥ ३७ ॥ मेरे स्वामी ! बहुत कहनेकी आवश्यकता नहींजो लोग आपकी महिमा जानते हैं, वे जानते रहें; मेरे मन, वाणी और शरीर तो आपकी महिमा जाननेमें सर्वथा असमर्थ हैं ॥ ३८ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप सबके साक्षी हैं। इसलिये आप सब कुछ जानते हैं। आप समस्त जगत्के स्वामी हैं। यह सम्पूर्ण प्रपञ्च आपमें ही स्थित है। आपसे मैं और क्या कहूँ ? अब आप मुझे स्वीकार कीजिये। मुझे अपने लोकमें जानेकी आज्ञा दीजिये ॥ ३९ ॥ सबके मन-प्राणको अपनी रूप-माधुरी से आकर्षित करनेवाले श्यामसुन्दर ! आप यदुवंशरूपी कमलको विकसित करनेवाले सूर्य हैं। प्रभो ! पृथ्वी, देवता, ब्राह्मण और पशुरूप समुद्रकी अभिवृद्धि करनेवाले चन्द्रमा भी आप ही हैं। आप पाखण्डियोंके धर्मरूप रात्रिका घोर अन्धकार नष्ट करनेके लिये सूर्य और चन्द्रमा दोनोंके ही समान हैं। पृथ्वीपर रहनेवाले राक्षसोंके नष्ट करनेवाले आप चन्द्रमा, सूर्य आदि समस्त देवताओंके भी परम पूजनीय हैं। भगवन् ! मैं अपने जीवनभर, महाकल्पपर्यन्त आपको नमस्कार ही करता रहूँ ॥ ४० ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

एषां घोषनिवासिनामुत भवान्
किं देव रातेति नः
चेतो विश्वफलात् फलं त्वदपरं
कुत्राप्ययन्मुह्यति ।
सद्वेषादिव पूतनापि सकुला
त्वामेव देवापिता
यद्धामार्थसुहृत् प्रियात्मतनय
प्राणाशयास्त्वत्कृते ॥ ३५ ॥
तावद् रागादयः स्तेनाः तावत् कारागृहं गृहम् ।
तावन्मोहोऽङ्‌घ्रिनिगडो यावत् कृष्ण न ते जनाः ॥ ३६ ॥

देवताओंके भी आराध्यदेव प्रभो ! इन व्रजवासियोंको इनकी सेवाके बदलेमें आप क्या फल देंगे ? सम्पूर्ण फलोंके फलस्वरूप ! आपसे बढक़र और कोई फल तो है ही नहीं, यह सोचकर मेरा चित्त मोहित हो रहा है। आप उन्हें अपना स्वरूप भी देकर उऋण नहीं हो सकते। क्योंकि आपके स्वरूपको तो उस पूतनाने भी अपने सम्बन्धियोंअघासुर, बकासुर आदिके साथ प्राप्त कर लिया, जिसका केवल वेष ही साध्वी स्त्रीका था, पर जो हृदयसे महान् क्रूर थी। फिर, जिन्होंने अपने घर, धन, स्वजन, प्रिय, शरीर, पुत्र, प्राण और मनसब कुछ आपके ही चरणोंमें समर्पित कर दिया है, जिनका सब कुछ आपके ही लिये है, उन व्रजवासियोंको भी वही फल देकर आप कैसे उऋण हो सकते हैं ॥ ३५ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्यामसुन्दर ! तभीतक राग-द्वेष आदि दोष चोरोंके समान सर्वस्व अपहरण करते रहते हैं, तभीतक घर और उसके सम्बन्धी कैदकी तरह सम्बन्धके बन्धनोंमें बाँध रखते हैं और तभीतक मोह पैरकी बेडिय़ों की तरह जकड़े रखता हैजबतक जीव आपका नहीं हो जाता ॥ ३६ ॥

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मंगलवार, 16 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

एषां तु भाग्यमहिमाच्युत तावदास्ताम् ।
एकादशैव हि वयं बत भूरिभागाः ।
एतद्‌धृषीकचषकैरसकृत् पिबामः
शर्वादयोऽङ्‌घ्र्युदजमध्वमृतासवं ते ॥ ३३ ॥
तद्‍भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां ।
यद्‍गोकुलेऽपि कतमाङ्‌घ्रिरजोऽभिषेकम् ।
यज्जीवितं तु निखिलं भगवान् मुकुन्दः
त्वद्यापि यत्पदरजः श्रुतिमृग्यमेव ॥ ३४ ॥

हे अच्युत ! इन व्रजवासियों के सौभाग्य की महिमा तो अलग रहीमन आदि ग्यारह इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवता के रूपमें रहनेवाले महादेव आदि हमलोग बड़े ही भाग्यवान् हैं। क्योंकि इन व्रजवासियों की मन आदि ग्यारह इन्द्रियोंको प्याले बनाकर हम आपके चरणकमलोंका अमृतसे भी मीठा, मदिरासे भी मादक मधुर मकरन्दरस पान करते रहते हैं। जब उसका एक-एक इन्द्रियसे पान करके हम धन्य-धन्य हो रहे हैं, तब समस्त इन्द्रियोंसे उसका सेवन करनेवाले व्रजवासियों की तो बात ही क्या है ॥ ३३ ॥ प्रभो ! इस व्रजभूमिके किसी वनमें और विशेष करके गोकुलमें किसी भी योनिमें जन्म हो जाय, यही हमारे लिये बड़े सौभाग्यकी बात होगी। क्योंकि यहाँ जन्म हो जानेपर आपके किसी-न-किसी प्रेमीके चरणोंकी धूलि अपने ऊपर पड़ ही जायगी। प्रभो ! आपके प्रेमी व्रजवासियोंका सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवनके एकमात्र सर्वस्व हैं। इसलिये उनके चरणोंकी धूलि मिलना आपके ही चरणोंकी धूलि मिलना है और आपके चरणोंकी धूलिको तो श्रुतियाँ भी अनादि कालसे अबतक ढूँढ़ ही रही हैं ॥ ३४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

अथापि ते देव पदाम्बुजद्वय
प्रसादलेशानुगृहीत एव हि ।
जानाति तत्त्वं भगवन् महिम्नो
न चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन् ॥ २९ ॥
तदस्तु मे नाथ स भूरिभागो
भवेऽत्र वान्यत्र तु वा तिरश्चाम् ।
येनाहमेकोऽपि भवज्जनानां
भूत्वा निषेवे तव पादपल्लवम् ॥ ३० ॥
अहोऽतिधन्या व्रजगोरमण्यः
स्तन्यामृतं पीतमतीव ते मुदा ।
यासां विभो वत्सतरात्मजात्मना
यत्तृप्तयेऽद्यापि न चालमध्वराः ॥ ३१ ॥
अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम् ।
यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम् ॥ ३२ ॥

अपने भक्तजनों के हृदयमें स्वयं स्फुरित होनेवाले भगवन् ! आपके ज्ञानका स्वरूप और महिमा ऐसी ही है, उससे अज्ञानकल्पित जगत् का नाश हो जाता है। फिर भी जो पुरुष आपके युगल चरणकमलोंका तनिक-सा भी कृपा-प्रसाद प्राप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता हैवही आपकी सच्चिदानन्दमयी महिमाका तत्त्व जान सकता है। दूसरा कोई भी ज्ञान-वैराग्यादि साधनरूप अपने प्रयत्नसे बहुत कालतक कितना भी अनुसन्धान करता रहे, वह आपकी महिमाका यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता ॥ २९ ॥ इसलिये भगवन् ! मुझे इस जन्ममें, दूसरे जन्ममें अथवा किसी पशु-पक्षी आदिके जन्ममें भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं आपके दासोंमेंसे कोई एक दास हो जाऊँ और फिर आपके चरणकमलोंकी सेवा करूँ ॥ ३० ॥ मेरे स्वामी ! जगत्के बड़े-बड़े यज्ञ सृष्टिके प्रारम्भसे लेकर अबतक आपको पूर्णत: तृप्त न कर सके। परंतु आपने व्रजकी गायों और ग्वालिनोंके बछड़े एवं बालक बनकर उनके स्तनोंका अमृत-सा दूध बड़े उमंगसे पिया है। वास्तवमें उन्हीं.का जीवन सफल है, वे ही अत्यन्त धन्य हैं ॥ ३१ ॥ अहो, नन्द आदि व्रजवासी गोपों के धन्य भाग्य हैं। वास्तव में उनका अहोभाग्य है। क्योंकि परमानन्दस्वरूप सनातन परिपूर्ण ब्रह्म आप उनके अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृद् हैं ॥ ३२ ॥

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सोमवार, 15 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

त्वामात्मानं परं मत्वा परमात्मानमेव च ।
आत्मा पुनर्बहिर्मृग्य अहोऽज्ञजनताज्ञता ॥ २७ ॥
अन्तर्भवेऽनन्त भवन्तमेव
ह्यतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः ।
असन्तमप्यन्त्यहिमन्तरेण
सन्तं गुणं तं किमु यन्ति सन्तः ॥ २८ ॥

भगवन् ! कितने आश्चर्यकी बात है कि आप हैं अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हैं । और शरीर आदि हैं पराये, किन्तु उनको आत्मा मान बैठते हैं और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूँढऩे लगते हैं । भला, अज्ञानी जीवोंका यह कितना बड़ा अज्ञान है ॥ २७ ॥ हे अनन्त ! आप तो सबके अन्त:करणमें ही विराजमान हैं। इसलिये संतलोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका परित्याग करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूँढ़ते हैं। क्योंकि यद्यपि रस्सी में साँप नहीं है, फिर भी उस प्रतीयमान साँपको मिथ्या निश्चय किये बिना भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सीको कैसे जान सकता है ? ॥ २८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

आत्मानमेवात्मतयाविजानतां
तेनैव जातं निखिलं प्रपञ्चितम् ।
ज्ञानेन भूयोऽपि च तत्प्रलीयते
रज्ज्वामहेर्भोगभवाभवौ यथा ॥ २५ ॥
अज्ञानसंज्ञौ भवबन्धमोक्षौ
द्वौ नाम नान्यौ स्त ऋतज्ञभावात् ।
अजस्रचित्यात्मनि केवले परे
विचार्यमाणे तरणाविवाहनी ॥ २६ ॥

जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूपमें नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञान के कारण ही इस नामरूपात्मक निखिल प्रपञ्चकी उत्पत्तिका भ्रम हो जाता है । किन्तु ज्ञान होते ही इसका आत्यन्तिक प्रलय हो जाता है । जैसे रस्सीमें भ्रमके कारण ही साँपकी प्रतीति होती है और भ्रमके निवृत्त होते ही उसकी निवृत्ति हो जाती है ॥ २५ ॥ संसार-सम्बन्धी बन्धन और उससे मोक्षये दोनों ही नाम अज्ञानसे कल्पित हैं । वास्तवमें ये अज्ञानके ही दो नाम हैं । ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मासे भिन्न अस्तित्व नहीं रखते । जैसे सूर्यमें दिन और रातका भेद नहीं है, वैसे ही विचार करनेपर अखण्ड चित्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्वमें न बन्धन है और न तो मोक्ष ॥ २६ ॥

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रविवार, 14 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

एकस्त्वमात्मा पुरुषः पुराणः
सत्यः स्वयंज्योतिरनन्त आद्यः ।
नित्योऽक्षरोऽजस्रसुखो निरञ्जनः
पूर्णाद्वयो मुक्त उपाधितोऽमृतः ॥ २३ ॥
एवंविधं त्वां सकलात्मनामपि
स्वात्मानमात्मात्मतया विचक्षते ।
गुर्वर्कलब्धोपनिषत् सुचक्षुषा
ये ते तरन्तीव भवानृताम्बुधिम् ॥ २४ ॥

प्रभो ! आप ही एकमात्र सत्य हैं । क्योंकि आप सबके आत्मा जो हैं । आप पुराणपुरुष होनेके कारण समस्त जन्मादि विकारोंसे रहित हैं । आप स्वयंप्रकाश हैं; इसलिये देश, काल और वस्तुजो परप्रकाश हैंकिसी प्रकार आपको सीमित नहीं कर सकते । आप उनके भी आदि प्रकाशक हैं । आप अविनाशी होनेके कारण नित्य हैं । आपका आनन्द अखण्डित है । आपमें न तो किसी प्रकारका मल है और न अभाव । आप पूर्ण, एक हैं । समस्त उपाधियोंसे मुक्त होनेके कारण आप अमृतस्वरूप हैं ॥ २३ ॥ आपका यह ऐसा स्वरूप समस्त जीवोंका ही अपना स्वरूप है । जो गुरुरूप सूर्यसे तत्त्वज्ञानरूप दिव्य दृष्टि प्राप्त करके उससे आपको अपने स्वरूपके रूपमें साक्षात्कार कर लेते हैं, वे इस झूठे संसार-सागरको मानो पार कर जाते हैं । (संसार-सागरके झूठा होनेके कारण इससे पार जाना भी अविचार-दशाकी दृष्टिसे ही है) ॥ २४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

अजानतां त्वत्पदवीमनात्मन्
यात्माऽऽत्मना भासि वितत्य मायाम् ।
सृष्टाविवाहं जगतो विधान
इव त्वमेषोऽन्त इव त्रिनेत्रः ॥ १९ ॥
सुरेष्वृषिष्वीश तथैव नृष्वपि
तिर्यक्षु यादःस्वपि तेऽजनस्य ।
जन्मासतां दुर्मदनिग्रहाय
प्रभो विधातः सदनुग्रहाय च ॥ २० ॥
को वेत्ति भूमन् भगवन् परात्मन्
योगेश्वरोतीर्भवत-स्त्रिलोक्याम् ।
क्व वा कथं वा कति वा कदेति
विस्तारयन् क्रीडसि योगमायाम् ॥ २१ ॥
तस्मादिदं जगदशेषमसत्स्वरूपं
स्वप्नाभमस्तधिषणं पुरुदुःखदुःखम् ।
त्वय्येव नित्यसुखबोधतनावनन्ते
मायात उद्यदपि यत् सदिवावभाति ॥ २२ ॥

जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरूपको नहीं जानते, उन्हींको आप प्रकृतिमें स्थित जीवके रूपसे प्रतीत होते हैं और उनपर अपनी मायाका परदा डालकर सृष्टिके समय मेरे (ब्रह्मा) रूपसे, पालनके समय अपने (विष्णु) रूपसे और संहारके समय रुद्रके रूपमें प्रतीत होते हैं ॥ १९ ॥ प्रभो ! आप सारे जगत् के स्वामी और विधाता हैं । अजन्मा होनेपर भी आप देवता, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और जलचर आदि योनियों में अवतार ग्रहण करते हैंइसलिये कि इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरुषोंका घमंड तोड़ दें और सत्पुरुषोंपर अनुग्रह करें ॥ २० ॥ भगवन् ! आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर हैं । जिस समय आप अपनी योगमायाका विस्तार करके लीला करने लगते हैं, उस समय त्रिलोकी में ऐसा कौन है, जो यह जान सके कि आपकी लीला कहाँ, किसलिये, कब और कितनी होती है ॥ २१ ॥ इसलिये यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्नके समान असत्य, अज्ञानरूप और दु:ख-पर-दु:ख देनेवाला है । आप परमानन्द, परम ज्ञानस्वरूप एवं अनन्त हैं । यह माया से उत्पन्न एवं विलीन होनेपर भी आप में आपकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होता है ॥ २२ ॥

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शनिवार, 13 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

तच्चेज्जलस्थं तव सज्जगद्वपुः
किं मे न दृष्टं भगवंस्तदैव ।
किं वा सुदृष्टं हृदि मे तदैव
किं नो सपद्येव पुनर्व्यदर्शि ॥ १५ ॥
अत्रैव मायाधमनावतारे
ह्यस्य प्रपञ्चस्य बहिः स्फुटस्य ।
कृत्स्नस्य चान्तर्जठरे जनन्या
मायात्वमेव प्रकटीकृतं ते ॥ १६ ॥
यस्य कुक्षाविदं सर्वं सात्मं भाति यथा तथा ।
तत्त्वय्यपीह तत् सर्वं किमिदं मायया विना ॥ १७ ॥
अद्यैव त्वदृतेऽस्य किं मम न ते
मायात्वमादर्शितम् ।
एकोऽसि प्रथमं ततो व्रजसुहृद्
वत्साः समस्ता अपि ।
तावन्तोऽसि चतुर्भुजास्तदखिलैः
साकं मयोपासिताः ।
तावन्त्येव जगन्त्यभूस्तदमितं
ब्रह्माद्वयं शिष्यते ॥ १८ ॥

भगवन् ! यदि आपका वह विराट् स्वरूप सचमुच उस समय जलमें ही था तो मैंने उसी समय उसे क्यों नहीं देखा, जब कि मैं कमलनालके मार्गसे उसे सौ वर्षतक जलमें ढूँढ़ता रहा ? फिर मैंने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे हृदयमें उसका दर्शन कैसे हो गया ? और फिर कुछ ही क्षणोंमें वह पुन: क्यों नहीं दीखा, अन्तर्धान क्यों हो गया ? ॥ १५ ॥ मायाका नाश करनेवाले प्रभो ! दूरकी बात कौन करेअभी इसी अवतारमें आपने इस बाहर दीखनेवाले जगत् को अपने पेटमें ही दिखला दिया, जिसे देखकर माता यशोदा चकित हो गयी थीं । इससे यही तो सिद्ध होता है कि यह सम्पूर्ण विश्व केवल आपकी माया-ही-माया है ॥ १६ ॥ जब आपके सहित यह सम्पूर्ण विश्व जैसा बाहर दीखता है वैसा ही आपके उदरमें भी दीखा, तब क्या यह सब आपकी मायाके बिना ही आपमें प्रतीत हुआ ? अवश्य ही आपकी लीला है ॥ १७ ॥ उस दिनकी बात जाने दीजिये, आजकी ही लीजिये । क्या आज आपने मेरे सामने अपने अतिरिक्त सम्पूर्ण विश्वको अपनी मायाका खेल नहीं दिखलाया है ? पहले आप अकेले थे । फिर सम्पूर्ण ग्वालबाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये । उसके बाद मैंने देखा कि आपके वे सब रूप चतुर्भुज हैं और मेरेसहित सब-के-सब तत्त्व उनकी सेवा कर रहे हैं । आपने अलग-अलग उतने ही ब्रह्माण्डोंका रूप भी धारण कर लिया था, परंतु अब आप केवल अपरिमित अद्वितीय ब्रह्मरूपसे ही शेष रह गये हैं ॥ १८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

जगत्त्रयान्तोदधिसम्प्लवोदे
नारायणस्योदरनाभिनालात् ।
विनिर्गतोऽजस्त्विति वाङ्‌ न वै मृषा
किं त्वीश्वर त्वन्न विनिर्गतोऽस्मि ॥ १३ ॥
नारायणस्त्वं न हि सर्वदेहिनां
आत्मास्यधीशाखिललोकसाक्षी ।
नारायणोऽङ्‌गं नरभूजलायनात्
तच्चापि सत्यं न तवैव माया ॥ १४ ॥

श्रुतियाँ कहती हैं कि जिस समय तीनों लोक प्रलयकालीन जल में लीन थे, उस समय उस जल में स्थित श्रीनारायणके नाभिकमल से ब्रह्माका जन्म हुआ । उनका यह कहना किसी प्रकार असत्य नहीं हो सकता । तब आप ही बतलाइये, प्रभो ! क्या मैं आपका पुत्र नहीं हूँ ? ॥ १३ ॥ प्रभो ! आप समस्त जीवोंके आत्मा हैं । इसलिये आप नारायण (नारजीव और अयनआश्रय) हैं । आप समस्त जगत् के  और जीवों के अधीश्वर हैं, इसलिये आप नारायण (नारजीव और अयनप्रवर्तक) हैं । आप समस्त लोकोंके साक्षी हैं, इसलिये भी नारायण (नारजीव और अयनजाननेवाला) हैं । नर से उत्पन्न होनेवाले जलमें निवास करनेके कारण जिन्हें नारायण (नारजल और अयननिवासस्थान) कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हैं । वह अंशरूपसे दीखना भी सत्य नहीं है, आपकी माया ही है ॥ १४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...