सोमवार, 6 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

यज्ञपत्नियों पर कृपा

 

श्रीगोप ऊचुः -

राम राम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिबर्हण ।

एषा वै बाधते क्षुत् नः तच्छान्तिं कर्तुमर्हथः ॥ १ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इति विज्ञापितो गोपैः भगवान् देवकीसुतः ।

भक्ताया विप्रभार्यायाः प्रसीदन् इदमब्रवीत् ॥ २ ॥

प्रयात देवयजनं ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः ।

सत्रं आङ्‌गिरसं नाम ह्यासते स्वर्गकाम्यया ॥ ३ ॥

तत्र गत्वौदनं गोपा याचतास्मद् विसर्जिताः ।

कीर्तयन्तो भगवत आर्यस्य मम चाभिधाम् ॥ ४ ॥

इत्यादिष्टा भगवता गत्वा याचन्त ते तथा ।

कृताञ्जलिपुटा विप्रान् दण्डवत् पतिता भुवि ॥ ५ ॥

हे भूमिदेवाः श्रृणुत कृष्णस्यादेशकारिणः ।

प्राप्ताञ्जानीत भद्रं वो गोपान् नो रामचोदितान् ॥ ६ ॥

गाश्चारयतौ अविदूर ओदनं

रामाच्युतौ वो लषतो बुभुक्षितौ ।

तयोर्द्विजा ओदनमर्थिनोर्यदि

श्रद्धा च वो यच्छत धर्मवित्तमाः ॥ ७ ॥

दीक्षायाः पशुसंस्थायाः सौत्रामण्याश्च सत्तमाः ।

अन्यत्र दीक्षितस्यापि नान्नमश्नन् हि दुष्यति ॥ ८ ॥

इति ते भगवद् याच्ञां शृण्वन्तोऽपि न शुश्रुवुः ।

क्षुद्राशा भूरिकर्माणो बालिशा वृद्धमानिनः ॥ ९ ॥

देशः कालः पृथग् द्रव्यं मंत्रतंत्रर्त्विजोऽग्नयः ।

देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः ॥ १० ॥

तं ब्रह्म परमं साक्षाद् भगवन्तं अधोक्षजम् ।

मनुष्यदृष्ट्या दुष्प्रज्ञा मर्त्यात्मानो न मेनिरे ॥ ११ ॥

न ते यदोमिति प्रोचुः न नेति च परन्तप ।

गोपा निराशाः प्रत्येत्य तथोचुः कृष्णरामयोः ॥ १२ ॥

तदुपाकर्ण्य भगवान् प्रहस्य जगदीश्वरः ।

व्याजहार पुनर्गोपान् दर्शयँलौकिकीं गतिम् ॥ १३ ॥

मां ज्ञापयत पत्‍नीभ्यः ससङ्‌कर्षणमागतम् ।

दास्यन्ति काममन्नं वः स्निग्धा मय्युषिता धिया ॥ १४ ॥

 

ग्वालबालों ने कहानयनाभिराम बलराम ! तुम बड़े पराक्रमी हो। हमारे चित्तचोर श्याम- सुन्दर ! तुमने बड़े-बड़े दुष्टों का संहार किया है। उन्हीं दुष्टों के समान यह भूख भी हमें सता रही है। अत: तुम दोनों इसे भी बुझानेका कोई उपाय करो ॥ १ ॥

 

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! जब ग्वालबालोंने देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने मथुराकी अपनी भक्त ब्राह्मणपत्नियोंपर अनुग्रह करनेके लिये यह बात कही॥ २ ॥ मेरे प्यारे मित्रो ! यहाँसे थोड़ी ही दूरपर वेदवादी ब्राह्मण स्वर्गकी कामनासे आङ्गिरस नामका यज्ञ कर रहे हैं। तुम उनकी यज्ञशालामें जाओ ॥ ३ ॥ ग्वालबालो ! मेरे भेजनेसे वहाँ जाकर तुमलोग मेरे बड़े भाई भगवान्‌ श्रीबलरामजीका और मेरा नाम लेकर कुछ थोड़ा-सा भातभोजनकी सामग्री माँग लाओ॥ ४ ॥ जब भगवान्‌ने ऐसी आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन ब्राह्मणोंकी यज्ञशालामें गये और उनसे भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार ही अन्न माँगा। पहले उन्होंने पृथ्वीपर गिरकर दण्डवत्-प्रणाम किया और फिर हाथ जोडक़र कहा॥ ५ ॥ पृथ्वीके मूर्तिमान् देवता ब्राह्मणो ! आपका कल्याण हो! आपसे निवेदन है कि हम व्रजके ग्वाले हैं। भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामकी आज्ञासे हम आपके पास आये हैं। आप हमारी बात सुनें ॥ ६ ॥ भगवान्‌ बलराम और श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए यहाँसे थोड़े ही दूरपर आये हुए हैं। उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आपलोग उन्हें थोड़ा-सा भात दे दें। ब्राह्मणो ! आप धर्मका मर्म जानते हैं। यदि आपकी श्रद्धा हो, तो उन भोजनार्थियोंके लिये कुछ भात दे दीजिये ॥ ७ ॥ सज्जनो! जिस यज्ञदीक्षामें पशुबलि होती है, उसमें और सौत्रामणी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका अन्न नहीं खाना चाहिये। इनके अतिरिक्त और किसी भी समय किसी भी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका भी अन्न खानेमें कोई दोष नहीं है ॥ ८ ॥ परीक्षित्‌! इस प्रकार भगवान्‌के अन्न माँगनेकी बात सुनकर भी उन ब्राह्मणोंने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिये बड़े-बड़े कर्मोंमें उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राह्मण ज्ञानकी दृष्टिसे थे बालक ही, परंतु अपनेको बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌! देश, काल अनेक प्रकारकी सामग्रियाँ, भिन्न-भिन्न कर्मोंमें विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्-ब्रह्मा आदि यज्ञ करानेवाले, अग्रि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्मइन सब रूपोंमें एकमात्र भगवान्‌ ही प्रकट हो रहे हैं ॥ १० ॥ वे ही इन्द्रियातीत परब्रह्म भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं ग्वालबालोंके द्वारा भात माँग रहे हैं। परंतु इन मूर्खोंने, जो अपनेको शरीर ही माने बैठे हैं, भगवान्‌को भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌! जब उन ब्राह्मणोंने हाँया ना’—कुछ नहीं कहा, तब ग्वालबालोंकी आशा टूट गयी; वे लौट आये और वहाँकी सब बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलरामसे कह दी ॥ १२ ॥ उनकी बात सुनकर सारे जगत्के स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने ग्वालबालोंको समझाया कि संसारमें असफलता तो बार-बार होती ही है, उससे निराश नहीं होना चाहिये; बार-बार प्रयत्न करते रहनेसे सफलता मिल ही जाती है।फिर उनसे कहा॥ १३ ॥ मेरे प्यारे ग्वालबालो ! इस बार तुमलोग उनकी पत्नियों के पास जाओ और उनसे कहो कि राम और श्याम यहाँ आये हैं। तुम जितना चाहोगे उतना भोजन वे तुम्हें देंगी। वे मुझसे बड़ा प्रेम करती हैं। उनका मन सदा-सर्वदा मुझमें लगा रहता है॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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रविवार, 5 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

 

चीरहरण

 

श्रीशुक उवाच ।

इत्यादिष्टा भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः ।

ध्यायन्त्यस्तत् पदाम्भोजं कृच्छ्रात् निर्विविशुर्व्रजम् ॥ २८ ॥

अथ गोपैः परिवृतो भगवान् देवकीसुतः ।

वृन्दावनाद् गतो दूरं चारयन् गाः सहाग्रजः ॥ २९ ॥

निदघार्कातपे तिग्मे छायाभिः स्वाभिरात्मनः ।

आतपत्रायितान् वीक्ष्य द्रुमानाह व्रजौकसः ॥ ३० ॥

हे स्तोककृष्ण हे अंशो श्रीदामन् सुबलार्जुन ।

विशालर्षभ तेजस्विन् देवप्रस्थ वरूथप ॥ ३१ ॥

पश्यतैतान् महाभागान् परार्थैकान्तजीवितान् ।

वातवर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति नः ॥ ३२ ॥

अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।

सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥ ३३ ॥

पत्रपुष्पफलच्छाया मूलवल्कलदारुभिः ।

गन्धनिर्यासभस्मास्थि तोक्मैः कामान् वितन्वते ॥ ३४ ॥

एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।

प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत् सदा ॥ ३५ ॥

इति प्रवालस्तबक फलपुष्पदलोत्करैः ।

तरूणां नम्रशाखानां मध्यतो यमुनां गतः ॥ ३६ ॥

तत्र गाः पाययित्वापः सुमृष्टाः शीतलाः शिवाः ।

ततो नृप स्वयं गोपाः कामं स्वादु पपुर्जलम् ॥ ३७ ॥

तस्या उपवने कामं चारयन्तः पशून् नृप ।

कृष्णरामौ उवुपागम्य क्षुधार्ता इदमब्रवन् ॥ ३८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌! भगवान्‌ की यह आज्ञा पाकर वे कुमारियाँ भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंका ध्यान करती हुई जानेकी इच्छा न होनेपर भी बड़े कष्टसे व्रजमें गयीं। अब उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं ॥ २८ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! एक दिन भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावनसे बहुत दूर निकल गये ॥ २९ ॥ ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्यकी किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परंतु घने-घने वृक्ष भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऊपर छत्तेका काम कर रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने वृक्षोंको छाया करते देख स्तोककृष्ण, अंशु, श्रीदामा, सुबल, अर्जुन, विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरूथप आदि ग्वालबालोंको सम्बोधन करके कहा॥ ३०-३१ ॥ मेरे प्यारे मित्रो ! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान् हैं ! इनका सारा जीवन केवल दूसरोंकी भलाई करनेके लिये ही है। ये स्वयं तो हवाके झोंके, वर्षा, धूप और पालासब कुछ सहते हैं, परंतु हमलोगोंकी उनसे रक्षा करते हैं ॥ ३२ ॥ मैं कहता हूँ कि इन्हींका जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियोंको सहारा मिलता है, उनका जीवन-निर्वाह होता है। जैसे किसी सज्जन पुरुषके घरसे कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षोंसे भी सभीको कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है ॥ ३३ ॥ ये अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अङ्कुर और कोंपलोंसे भी लोगोंकी कामना पूर्ण करते हैं ॥ ३४ ॥ मेरे प्यारे मित्रो ! संसारमें प्राणी तो बहुत हैं; परंतु उनके जीवनकी सफलता इतनेमें ही है कि जहाँतक हो सके अपने धनसे, विवेक- विचारसे, वाणीसे और प्राणोंसे भी ऐसे ही कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरोंकी भलाई हो ॥ ३५ ॥ परीक्षित्‌ ! दोनों ओरके वृक्ष नयी-नयी कोंपलों, गुच्छों, फल-फूलों और पत्तोंसे लद रहे थे। उनकी डालियाँ पृथ्वीतक झुकी हुई थीं। इस प्रकार भाषण करते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन्हींके बीचसे यमुना-तटपर निकल आये ॥ ३६ ॥ राजन् ! यमुनाजीका जल बड़ा ही मधुर, शीतल और स्वच्छ था। उन लोगोंने पहले गौओंको पिलाया और इसके बाद स्वयं भी जी भरकर स्वादु जलका पान किया ॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! जिस समय वे यमुनाजीके तटपर हरे-भरे उपवनमें बड़ी स्वतन्त्रतासे अपनी गौएँ चरा रहे थे, उसी समय कुछ भूखे ग्वालोंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके पास आकर यह बात कही॥ ३८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

 

चीरहरण

 

श्रीकृष्ण आठ-नौ वर्षके थे, उनमें कामोत्तेजना नहीं हो सकती और नग्रस्नानकी कुप्रथाको नष्ट करनेके लिये उन्होंने चीरहरण कियायह उत्तर सम्भव होनेपर भी मूलमें आये हुए कामऔर रमणशब्दोंसे कई लोग भडक़ उठते हैं। यह केवल शब्दकी पकड़ है, जिसपर महात्मालोग ध्यान नहीं देते। श्रुतियोंमें और गीतामें भी अनेकों बार काम’ ‘रमणऔर रतिआदि शब्दोंका प्रयोग हुआ है; परंतु वहाँ उनका अश्लील अर्थ नहीं होता। गीतामें तो धर्माविरुद्ध कामको परमात्माका स्वरूप बतलाया गया है। महापुरुषोंका आत्मरमण, आत्ममिथुन और आत्मरति प्रसिद्ध ही है। ऐसी स्थितिमें केवल कुछ शब्दोंको देखकर भडक़ना विचारशील पुरुषोंका काम नहीं है। जो श्रीकृष्णको केवल मनुष्य समझते हैं उन्हें रमण और रति शब्दका अर्थ केवल क्रीडा अथवा खिलवाड़ समझना चाहिये, जैसा कि व्याकरणके अनुसार ठीक है—‘रमु क्रीडायाम्

 

दृष्टिभेदसे श्रीकृष्णकी लीला भिन्न-भिन्न रूपमें दीख पड़ती है। अध्यात्मवादी श्रीकृष्णको आत्माके रूपमें देखते हैं और गोपियोंको वृत्तियोंके रूपमें। वृत्तियोंका आवरण नष्ट हो जाना ही चीरहरण-लीलाहै और उनका आत्मामें रम जाना ही रासहै। इस दृष्टिसे भी समस्त लीलाओंकी संगति बैठ जाती है। भक्तोंकी दृष्टिसे गोलोकाधिपति पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णका यह सब नित्यलीला-विलास है और अनादिकालसे अनन्तकालतक यह नित्य चलता रहता है। कभी- कभी भक्तोंपर कृपा करके वे अपने नित्य धाम और नित्य सखा-सहचरियोंके साथ लीला-धाममें प्रकट होकर लीला करते हैं और भक्तोंके स्मरण-चिन्तन तथा आनन्दमङ्गलकी सामग्री प्रकट करके पुन: अन्तर्धान हो जाते हैं। साधकोंके लिये किस प्रकार कृपा करके भगवान्‌ अन्तर्मलको और अनादिकालसे सञ्चित संस्कारपटको विशुद्ध कर देते हैं, यह बात भी इस चीरहरण-लीलासे प्रकट होती है। भगवान्‌की लीला रहस्यमयी है, उसका तत्त्व केवल भगवान्‌ ही जानते हैं और उनकी कृपासे उनकी लीलामें प्रविष्ट भाग्यवान् भक्त कुछ-कुछ जानते हैं। यहाँ तो शास्त्रों और संतोंकी वाणीके आधारपर ही कुछ लिखनेकी धृष्टता की गयी है।

 

-----हनुमानप्रसाद पोद्दार

 

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शनिवार, 4 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

 

चीरहरण

 

हृदय और बुद्धिके सर्वथा विपरीत होनेपर भी यदि थोड़ी देरके लिये मान लें कि श्रीकृष्ण भगवान्‌ नहीं थे या उनकी यह लीला मानवी थी तो भी तर्क और युक्तिके सामने ऐसी कोई बात नहीं टिक पाती, जो श्रीकृष्णके चरित्रमें लाञ्छन हो। श्रीमद्भागवतका पारायण करनेवाले जानते हैं कि व्रजमें श्रीकृष्णने केवल ग्यारह वर्षकी अवस्थातक ही निवास किया था। यदि रासलीलाका समय दसवाँ वर्ष मानें, तो नवें वर्षमें ही चीरहरण लीला हुई थी। इस बातकी कल्पना भी नहीं हो सकती कि आठ-नौ वर्षके बालकमें कामोत्तेजना हो सकती है। गाँवकी गँवारिन ग्वालिनें, जहाँ वर्तमानकालकी नागरिक मनोवृत्ति नहीं पहुँच पायी है, एक आठ-नौ वर्षके बालकसे अवैध सम्बन्ध करना चाहें और उसके लिये साधना करेंयह कदापि सम्भव नहीं दीखता। उन कुमारी गोपियोंके मनमें कलुषित वृत्ति थी, यह वर्तमान कलुषित मनोवृत्तिकी उट्टङ्कना है। आजकल जैसे गाँवकी छोटी-छोटी लड़कियाँ राम’-सा वर और लक्ष्मण’-सा देवर पानेके लिये देवी- देवताओंकी पूजा करती हैं, वैसे ही उन कुमारियोंने भी परम सुन्दर परम मधुर श्रीकृष्णको पानेके लिये देवी-पूजन और व्रत किये थे। इसमें दोषकी कौन-सी बात है ?

 

आजकी बात निराली है। भोगप्रधान देशोंमें तो नग्नसम्प्रदाय और नग्न स्नान के क्लब भी बने हुए हैं ! उनकी दृष्टि इन्द्रिय-तृप्तितक ही सीमित है। भारतीय मनोवृत्ति इस उत्तेजक एवं मलिन व्यापारके विरुद्ध है। नग्रस्नान एक दोष है, जो कि पशुत्वको बढ़ानेवाला है। शास्त्रोंमें इसका निषेध है, ‘न नग्न: स्नायात्’—यह शास्त्रकी आज्ञा है। श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि गोपियाँ शास्त्रके विरुद्ध आचरण करें। केवल लौकिक अनर्थ ही नहींभारतीय ऋषियोंका वह सिद्धान्त, जो प्रत्येक वस्तुमें पृथक्-पृथक् देवताओंका अस्तित्व मानता है, इस नग्नस्नान को देवताओंके विपरीत बतलाता है। श्रीकृष्ण जानते थे कि इससे वरुण देवताका अपमान होता है। गोपियाँ अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये जो तपस्या कर रही थीं, उसमें उनका नग्रस्नान अनिष्ट फल देनेवाला था और इस प्रथाके प्रभातमें ही यदि इसका विरोध न कर दिया जाय तो आगे चलकर इसका विस्तार हो सकता है; इसलिये श्रीकृष्णने अलौकिक ढंगसे निषेध कर दिया।

 

गाँवोंकी ग्वालिनोंको इस प्रथाकी बुराई किस प्रकार समझायी जाय, इसके लिये भी श्रीकृष्णने एक मौलिक उपाय सोचा। यदि वे गोपियोंके पास जाकर उन्हें देवतावादकी फिलासफी समझाते, तो वे सरलतासे नहीं समझ सकती थीं। उन्हें तो इस प्रथाके कारण होनेवाली विपत्तिका प्रत्यक्ष अनुभव करा देना था। और विपत्तिका अनुभव करानेके पश्चात् उन्होंने देवताओंके अपमानकी बात भी बता दी तथा अञ्जलि बाँधकर क्षमा-प्रार्थनारूप प्रायश्चित्त भी करवाया। महापुरुषोंमें उनकी बाल्यावस्थामें भी ऐसी प्रतिभा देखी जाती है।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

 

चीरहरण

 

जब प्रेमी भक्त आत्मविस्मृत हो जाता है, तब उसका दायित्व प्रियतम भगवान्‌ पर होता है। अब मर्यादारक्षा के लिये गोपियोंको तो वस्त्र की आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि उन्हें जिस वस्तु की आवश्यकता थी, वह मिल चुकी थी। परंतु श्रीकृष्ण अपने प्रेमीको मर्यादाच्युत नहीं होने देते। वे स्वयं वस्त्र देते हैं और अपनी अमृतमयी वाणीके द्वारा उन्हें विस्मृतिसे जगाकर फिर जगत् में लाते हैं। श्रीकृष्णने कहा—‘गोपियो ! तुम सती साध्वी हो। तुम्हारा प्रेम और तुम्हारी साधना मुझसे छिपी नहीं है। तुम्हारा संकल्प सत्य होगा। तुम्हारा यह संकल्पतुम्हारी यह कामना तुम्हें उस पदपर स्थित करती है, जो निस्सङ्कल्पता और निष्कामताका है। तुम्हारा उद्देश्य पूर्ण, तुम्हारा समर्पण पूर्ण और आगे आनेवाली शारदीय रात्रियोंमें हमारा रमण पूर्ण होगा। भगवान्‌ ने साधना सफल होनेकी अवधि निर्धारित कर दी। इससे भी स्पष्ट है कि भगवान्‌ श्रीकृष्णमें किसी भी कामविकार की कल्पना नहीं थी। कामी पुरुषका चित्त वस्त्रहीन स्त्रियोंको देखकर एक क्षणके लिये भी कब वशमें रह सकता है।

 

एक बात बड़ीविलक्षण है। भगवान्‌ के सम्मुख जानेके पहले जो वस्त्र समर्पणकी पूर्णतामें बाधक हो रहे थे विक्षेपका काम कर रहे थेवही भगवान्‌ की कृपा, प्रेम, सान्निद्ध्य  और वरदान प्राप्त होनेके पश्चात् प्रसाद’-स्वरूप हो गये। इसका कारण क्या है ? इसका कारण है भगवान्‌ का सम्बन्ध। भगवान्‌ ने अपने हाथसे उन वस्त्रोंको उठाया था और फिर उन्हें अपने उत्तम अङ्ग कंधेपर रख लिया था। नीचेके शरीरमें पहननेकी साडिय़ाँ भगवान्‌ के कंधेपर चढक़रउनका संस्पर्श पाकर कितनी अप्राकृत रसात्मक हो गयीं, कितनी पवित्रकृष्णमय हो गयीं, इसका अनुमान कौन लगा सकता है। असलमें यह संसार तभीतक बाधक और विक्षेपजनक है, जबतक यह भगवान्‌ से सम्बन्ध और भगवान्‌ का प्रसाद नहीं हो जाता। उनके द्वारा प्राप्त होनेपर तो यह बन्धन ही मुक्तिस्वरूप हो जाता है। उनके सम्पर्कमें जाकर माया शुद्ध विद्या बन जाती है। संसार और उसके समस्त कर्म अमृतमय आनन्दरससे परिपूर्ण हो जाते हैं। तब बन्धनका भय नहीं रहता। कोई भी आवरण भगवान्‌के दर्शनसे वञ्चति नहीं रख सकता। नरक नरक नहीं रहता, भगवान्‌ का दर्शन होते रहनेके कारण वह वैकुण्ठ बन जाता है। इसी स्थितिमें पहुँचकर बड़े-बड़े साधक प्राकृत पुरुषके समान आचरण करते हुए-से दीखते हैं। भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अपनी होकर गोपियाँ पुन: वे ही वस्त्र धारण करती हैं अथवा श्रीकृष्ण वे ही वस्त्र धारण कराते हैं; परंतु गोपियोंकी दृष्टिमें अब ये वस्त्र वे वस्त्र नहीं हैं; वस्तुत: वे हैं भी नहींअब तो ये दूसरी वस्तु हो गये हैं। अब तो ये भगवान्‌के पावन प्रसाद हैं, पल-पलपर भगवान्‌का स्मरण करानेवाले भगवान्‌के परम सुन्दर प्रतीक हैं। इसीसे उन्होंने स्वीकार भी किया। उनकी प्रेममयी स्थिति मर्यादाके ऊपर थी, फिर भी उन्होंने भगवान्‌ की इच्छासे मर्यादा स्वीकार की । इस दृष्टिसे विचार करनेपर ऐसा जान पड़ता है कि भगवान्‌ की यह चीरहरण-लीला भी अन्य लीलाओंकी भाँति उच्चतम मर्यादासे परिपूर्ण है।

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाओंके सम्बन्धमें केवल वे ही प्राचीन आर्षग्रन्थ प्रमाण हैं, जिनमें उनकी लीलाका वर्णन हुआ है। उनमेंसे एक भी ऐसा ग्रन्थ नहीं है, जिसमें श्रीकृष्णकी भगवत्ताका वर्णन न हो। श्रीकृष्ण स्वयं भगवान्‌ हैंयही बात सर्वत्र मिलती है। जो श्रीकृष्णको भगवान्‌ नहीं मानते, यह स्पष्ट है कि वे उन ग्रन्थोंको भी नहीं मानते। और जो उन ग्रन्थोंको ही प्रमाण नहीं मानते, वे उनमें वर्णित लीलाओंके आधारपर श्रीकृष्ण-चरित्रकी समीक्षा करनेका अधिकार भी नहीं रखते। भगवान्‌की लीलाओंको मानवीय चरित्रके समकक्ष रखना शास्त्र-दृष्टिसे एक महान् अपराध है और उसके अनुकरणका तो सर्वथा ही निषेध है। मानवबुद्धिजो स्थूलताओंसे ही परिवेष्टित हैकेवल जडके सम्बन्धमें ही सोच सकती है, भगवान्‌की दिव्य चिन्मयी लीलाके सम्बन्धमें कोई कल्पना ही नहीं कर सकती। वह बुद्धि स्वयं ही अपना उपहास करती है, जो समस्त बुद्धियोंके प्रेरक और बुद्धियोंसे अत्यन्त परे रहनेवाले परमात्माकी दिव्य लीलाको अपनी कसौटीपर कसती है।

 

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शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

चीरहरण

 

श्रीकृष्ण गोपियोंके वस्त्रोंके रूपमें उनके समस्त संस्कारोंके आवरण अपने हाथमें लेकर पास ही कदम्बके वृक्षपर चढक़र बैठ गये। गोपियाँ जलमें थीं, वे जलमें सर्वव्यापक सर्वदर्शी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे मानो अपनेको गुप्त समझ रही थींवे मानो इस तत्त्वको भूल गयी थीं कि श्रीकृष्ण जलमें ही नहीं हैं, स्वयं जलस्वरूप भी वही हैं। उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्णके सम्मुख जानेमें बाधक हो रहे थे; वे श्रीकृष्णके लिये सब कुछ भूल गयी थीं परंतु अबतक अपनेको नहीं भूली थीं। वे चाहतीं थीं केवल श्रीकृष्णको, परंतु उनके संस्कार बीचमें एक परदा रखना चाहते थे। प्रेम प्रेमी और प्रियतमके बीचमें एक पुष्पका भी परदा नहीं रखना चाहता। प्रेमकी प्रकृति है सर्वथा व्यवधानरहित, अबाध और अनन्त मिलन । जहाँतक अपना सर्वस्वविस्तार चाहे जितना हो, इसकाप्रेमकी ज्वालामें भस्म नहीं कर दिया जाता, वहाँतक प्रेम और समर्पण दोनों ही अपूर्ण रहते हैं। इसी अपूर्णताको दूर करते हुए, ‘शुद्ध भावसे प्रसन्न हुए’ (शुद्धभावप्रसादित:) श्रीकृष्णने कहा कि मुझसे अनन्य प्रेम करनेवाली गोपियो ! एक बार, केवल एक बार अपने सर्वस्वको और अपनेको भी भूलकर मेरे पास आओ तो सही। तुम्हारे हृदयमें जो अव्यक्त त्याग है, उसे एक क्षणके लिये व्यक्त तो करो। क्या तुम मेरे लिये इतना भी नहीं कर सकती हो ?’ गोपियोंने मानो कहा—‘श्रीकृष्ण ! हम अपनेको कैसे भूलें ? हमारी जन्म-जन्मकी धारणाएँ भूलने दें, तब न। हम संसारके अगाध जलमें आकण्ठमग्र हैं। जाड़ेका कष्ट भी है। हम आना चाहनेपर भी नहीं आ पाती हैं। श्यामसुन्दर ! प्राणोंके प्राण ! हमारा हृदय तुम्हारे सामने उन्मुक्त है। हम तुम्हारी दासी हैं। तुम्हारी आज्ञाओंका पालन करेंगी। परंतु हमें निरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ।साधककी यह दशाभगवान्‌को चाहना और साथ ही संसारको भी न छोडऩा, संस्कारोंमें ही उलझे रहनामायाके परदेको बनाये रखना, बड़ी द्विविधाकी दशा है। भगवान्‌ यही सिखाते हैं कि संस्कारशून्य होकर, निरावरण होकर, मायाका परदा हटाकर आओ; मेरे पास आओ। अरे, तुम्हारा यह मोहका परदा तो मैंने ही छीन लिया है; तुम अब इस परदेके मोहमें क्यों पड़ी हो ? यह परदा ही तो परमात्मा और जीवके बीचमें बड़ा व्यवधान है; यह हट गया, बड़ा कल्याण हुआ। अब तुम मेरे पास आओ, तभी तुम्हारी चिरसंचित आकाङ्क्षाएँ पूरी हो सकेंगी।परमात्मा श्रीकृष्णका यह आह्वान, आत्माके आत्मा परम प्रियतमके मिलनका यह मधुर आमन्त्रण भगवत्कृपासे जिसके अन्तर्देशमें प्रकट हो जाता है, वह प्रेममें निमग्र होकर सब कुछ छोडक़र, छोडऩा भी भूलकर प्रियतम श्रीकृष्णके चरणोंमें दौड़ आता है । फिर न उसे अपने वस्त्रोंकी सुधि रहती है और न लोगोंका ध्यान ! न वह जगत्को देखता है न अपनेको। यह भगवत्प्रेमका रहस्य है। विशुद्ध और अनन्य भगवत्प्रेममें ऐसा होता ही है।

 

गोपियाँ आयीं, श्रीकृष्णके चरणोंके पास मूकभावसे खड़ी हो गयीं। उनका मुख लज्जावनत था। यत्किञ्चित् संस्कारशेष श्रीकृष्णके पूर्ण आभिमुख्यमें प्रतिबन्ध हो रहा था। श्रीकृष्ण मुसकराये। उन्होंने इशारेसे कहा—‘इतने बड़े त्यागमें यह संकोच कलङ्क है। तुम तो सदा निष्कलङ्का हो; तुम्हें इसका भी त्याग, त्यागके भावका भी त्यागत्यागकी स्मृतिका भी त्याग करना होगा।गोपियोंकी दृष्टि श्रीकृष्णके मुखकमलपर पड़ी। दोनों हाथ अपने-आप जुड़ गये और सूर्यमण्डलमें विराजमान अपने प्रियतम श्रीकृष्णसे ही उन्होंने प्रेमकी भिक्षा माँगी। गोपियोंके इसी सर्वस्व त्यागने, इसी पूर्ण समर्पणने, इसी उच्चतम आत्मविस्मृतिने उन्हें भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रेमसे भर दिया। वे दिव्य रसके अलौकिक अप्राकृत मधुके अनन्त समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं। वे सब कुछ भूल गयीं, भूलनेवालेको भी भूल गयीं, उनकी दृष्टि में अब श्यामसुन्दर थे। बस, केवल श्यामसुन्दर थे।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

चीरहरण

 

गोपियों की इस दिव्य लीला का जीवन उच्च श्रेणी के साधक के लिये आदर्श जीवन है। श्रीकृष्ण जीव के एकमात्र प्राप्तव्य साक्षात् परमात्मा हैं। हमारी बुद्धि, हमारी दृष्टि देहतक ही सीमित है। इसलिये हम श्रीकृष्ण और गोपियोंके प्रेमको भी केवल दैहिक तथा कामनाकलुषित समझ बैठते हैं। उस अपार्थिव और अप्राकृत लीलाको इस प्रकृतिके राज्यमें घसीट लाना हमारी स्थूल वासनाओंका हानिकर परिणाम है। जीवका मन भोगाभिमुख वासनाओंसे और तमोगुणी प्रवृत्तियोंसे अभिभूत रहता है । वह विषयोंमें ही इधरसे-उधर भटकता रहता है और अनेकों प्रकारके रोग-शोकसे आक्रान्त रहता है। जब कभी पुण्यकर्मोंके फल उदय होनेपर भगवान्‌की अचिन्त्य अहैतुकी कृपासे विचारका उदय होता है, तब जीव दु:खज्वालासे त्राण पानेके लिये और अपने प्राणोंको शान्तिमय धाममें पहुँचानेके लिये उत्सुक हो उठता है। वह भगवान्‌के लीलाधामोंकी यात्रा करता है, सत्सङ्ग प्राप्त करता है और उसके हृदयकी छटपटी उस आकाङ्क्षाको लेकर, जो अबतक सुप्त थी, जगकर बड़े वेगसे परमात्माकी ओर चल पड़ती है। चिरकालसे विषयोंका ही अभ्यास होनेके कारण बीच-बीचमें विषयोंके संस्कार उसे सताते हैं और बार-बार विक्षेपोंका सामना करना पड़ता है। परंतु भगवान्‌की प्रार्थना, कीर्तन-स्मरण, चिन्तन करते-करते चित्त सरस होने लगता है और धीरे-धीरे उसे भगवान्‌की सन्निधिका अनुभव भी होने लगता है। थोड़ा-सा रसका अनुभव होते ही चित्त बड़े वेगसे अन्तर्देशमें प्रवेश कर जाता है और भगवान्‌ मार्गदर्शकके रूपमें संसार-सागरसे पार ले जानेवाली नावपर केवटके रूपमें अथवा यों कहें कि साक्षात् चित्स्वरूप गुरुदेवके रूपमें प्रकट हो जाते हैं। ठीक उसी क्षण अभाव, अपूर्णता और सीमाका बन्धन नष्ट हो जाता है, विशुद्ध आनन्दविशुद्ध ज्ञानकी अनुभूति होने लगती है।

 

गोपियाँ, जो अभी-अभी साधनसिद्ध होकर भगवान्‌की अन्तरङ्ग लीलामें प्रविष्ट होनेवाली हैं, चिरकालसे श्रीकृष्णके प्राणोंमें अपने प्राण मिला देनेके लिये उत्कण्ठित हैं, सिद्धिलाभके समीप पहुँच चुकी हैं। अथवा जो नित्यसिद्धा होनेपर भी भगवान्‌की इच्छाके अनुसार उनकी दिव्य लीलामें सहयोग प्रदान कर रही हैं, उनके हृदयके समस्त भावोंके एकान्त ज्ञाता श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाकर उन्हें आकृष्ट करते हैं और जो कुछ उनके हृदयमें बचे-खुचे पुराने संस्कार हैं, मानो उन्हें धो डालनेके लिये साधनामें लगाते हैं। उनकी कितनी दया है, वे अपने प्रेमियोंसे कितना प्रेम करते हैंयह सोचकर चित्त मुग्ध हो जाता है, गद्गद हो जाता है।

 

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गुरुवार, 2 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

चीरहरण

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण यों तो लीलापुरुषोत्तम हैं; फिर भी जब अपनी लीला प्रकट करते हैं, तब मर्यादा का उल्लङ्घन नहीं करते, स्थापना ही करते हैं। विधिका अतिक्रमण करके कोई साधनाके मार्गमें अग्रसर नहीं हो सकता। परंतु हृदय की निष्कपटता, सचाई और सच्चा प्रेम विधि के अतिक्रमण को भी शिथिल कर देता है। गोपियाँ श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये जो साधना कर रही थीं, उसमें एक त्रुटि थी। वे शास्त्र-मर्यादा और परम्परागत सनातन मर्यादाका उल्लङ्घन करके नग्न- स्नान करती थीं। यद्यपि उनकी यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी, तथापि भगवान्‌के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था। भगवान्‌ने गोपियोंसे इसका प्रायश्चित्त भी करवाया। जो लोग भगवान्‌के प्रेमके नामपर विधिका उल्लङ्घन करते हैं, उन्हें यह प्रसङ्ग ध्यानसे पढऩा चाहिये और भगवान्‌ शास्त्रविधिका कितना आदर करते हैं, यह देखना चाहिये।

 

वैधी भक्तिका पर्यवसान रागात्मिका भक्तिमें है और रागात्मिका भक्ति पूर्ण समर्पणके रूपमें परिणत हो जाती है। गोपियोंने वैधी भक्तिका अनुष्ठान किया, उनका हृदय तो रागात्मिका भक्तिसे भरा हुआ था ही । अब पूर्ण समर्पण होना चाहिये। चीर-हरणके द्वारा वही कार्य सम्पन्न होता है।

 

गोपियोंने जिनके लिये लोक-परलोक, स्वार्थ-परमार्थ, जाति-कुल, पुरजन-परिजन और गुरुजनोंकी परवा नहीं की, जिनकी प्राप्तिके लिये ही उनका यह महान् अनुष्ठान है, जिनके चरणोंमें उन्होंने अपना सर्वस्व निछावर कर रखा है, जिनसे निरावरण मिलनकी ही एकमात्र अभिलाषा है, उन्हीं निरावरण रसमय भगवान्‌ श्रीकृष्णके सामने वे निरावरण भावसे न जा सकेंक्या यह उनकी साधनाकी अपूर्णता नहीं है ? है, अवश्य है और यह समझकर ही गोपियाँ निरावरणरूपसे उनके सामने गयीं।

 

श्रीकृष्ण चराचर प्रकृतिके एकमात्र अधीश्वर हैं; समस्त क्रियाओंके कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी वही हैं। ऐसा एक भी व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ नहीं है, जो बिना किसी परदेके उनके सामने न हो। वही सर्वव्यापक, अन्तर्यामी हैं। गोपियोंके, गोपोंके और निखिल विश्वके वही आत्मा हैं। उन्हें स्वामी, गुरु, पिता, माता, सखा, पति आदिके रूपमें मानकर लोग उन्हींकी उपासना करते हैं। गोपियाँ उन्हीं भगवान्‌को जान-बूझकर कि यही भगवान्‌ हैंयही योगेश्वरेश्वर, क्षराक्षरातीत पुरुषोत्तम हैंपतिके रूपमें प्राप्त करना चाहती थीं। श्रीमद्भागवतके दशम स्कन्धका श्रद्धाभावसे पाठ कर जानेपर यह बात बहुत ही स्पष्ट हो जाती है कि गोपियाँ श्रीकृष्णके वास्तविक स्वरूपको जानती थीं, पहचानती थीं। वेणुगीत, गोपीगीत, युगलगीत और श्रीकृष्णके अन्तर्धान हो जानेपर गोपियोंके अन्वेषणमें यह बात कोई भी देख-सुन-समझ सकता है। जो लोग भगवान्‌को भगवान्‌ मानते हैं, उनसे सम्बन्ध रखते हैं, स्वामी-सुहृद् आदिके रूपमें उन्हें मानते हैं, उनके हृदयमें गोपियोंके इस लोकोत्तर माधुर्यसम्बन्ध और उसकी साधनाके प्रति शङ्का ही कैसे हो सकती है।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

चीरहरण

 

तासां विज्ञाय भगवान् स्वपादस्पर्शकाम्यया ।

धृतव्रतानां सङ्‌कल्पं आह दामोदरोऽबलाः ॥ २४ ॥

सङ्‌कल्पो विदितः साध्व्यो भवतीनां मदर्चनम् ।

मयानुमोदितः सोऽसौ सत्यो भवितुमर्हति ॥ २५ ॥

न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते ।

भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेशते ॥ २६ ॥

याताबला व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथा क्षपाः ।

यदुद्दिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः ॥ २७ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि उन कुमारियों ने उनके चरणकमलों के स्पर्श की कामना से ही व्रत धारण किया है और उनके जीवनका यही एकमात्र संकल्प है। तब गोपियोंके प्रेमके अधीन होकर ऊखलतकमें बँध जानेवाले भगवान्‌ ने उनसे कहा॥ २४ ॥ मेरी परम प्रेयसी कुमारियो ! मैं तुम्हारा यह संकल्प जानता हूँ कि तुम मेरी पूजा करना चाहती हो। मैं तुम्हारी इस अभिलाषाका अनुमोदन करता हूँ, तुम्हारा यह संकल्प सत्य होगा। तुम मेरी पूजा कर सकोगी ॥ २५ ॥ जिन्होंने अपना मन और प्राण मुझे समर्पित कर रखा है, उनकी कामनाएँ उन्हें सांसारिक भोगों की ओर ले जाने में समर्थ नहीं होतीं; ठीक वैसे ही, जैसे भुने या उबाले हुए बीज फिर अङ्कुर के रूप में उगनेके योग्य नहीं रह जाते ॥ २६ ॥ इसलिये कुमारियो ! अब तुम अपने-अपने घर लौट जाओ। तुम्हारी साधना सिद्ध हो गयी है। तुम आनेवाली शरद् ऋतु की रात्रियों में मेरे साथ विहार करोगी। सतियो ! इसी उद्देश्यसे तो तुमलोगों ने यह व्रत और कात्यायनी देवी की पूजा की थी’ [*] ॥ २७ ॥

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[*] चीर-हरणके प्रसंगको लेकर कई तरहकी शङ्काएँ की जाती हैं, अतएव इस सम्बन्धमें कुछ विचार करना आवश्यक है। वास्तवमें बात यह है कि सच्चिदानन्दघन भगवान्‌की दिव्य मधुर रसमयी लीलाओंका रहस्य जाननेका सौभाग्य बहुत थोड़े लोगोंको होता है। जिस प्रकार भगवान्‌ चिन्मय हैं, उसी प्रकार उनकी लीला भी चिन्मयी ही होती है। सच्चिदानन्द रसमय-साम्राज्यके जिस परमोन्नत स्तरमें यह लीला हुआ करती है। उसकी ऐसी विलक्षणता है कि कई बार तो ज्ञान-विज्ञानस्वरूप विशुद्ध चेतन परम ब्रह्ममें भी उसका प्राकट्य नहीं होता और इसीलिये ब्रह्म-साक्षात्कार को प्राप्त महात्मा लोग भी इस लीला-रसका समास्वादन नहीं कर पाते। भगवान्‌की इस परमोज्ज्वल दिव्य-रस-लीलाका यथार्थ प्रकाश तो भगवान्‌की स्वरूपभूता ह्लादिनी शक्ति नित्यनिकुञ्जेश्वरी श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी और तदङ्गभूता प्रेममयी गोपियोंके ही हृदयमें होता है और वे ही निरावरण होकर भगवान्‌ की इस परम अन्तरङ्ग रसमयी लीलाका समास्वादन करती हैं।

 

यों तो भगवान्‌ के जन्म-कर्मकी सभी लीलाएँ दिव्य होती हैं, परंतु व्रजकी लीला, व्रजमें निकुञ्जलीला और निकुञ्जमें भी केवल रसमयी गोपियोंके साथ होनेवाली मधुर लीला तो दिव्यातिदिव्य और सर्वगुह्यतम है। यह लीला सर्वसाधारणके सम्मुख प्रकट नहीं है, अन्तरङ्ग लीला है और इसमें प्रवेशका अधिकार केवल श्रीगोपीजनोंको ही है अस्तु,

दशम स्कन्धके इक्कीसवें अध्यायमें ऐसा वर्णन आया है कि भगवान्‌ की रूप-माधुरी, वंशीध्वनि और प्रेममयी लीलाएँ देख-सुनकर गोपियाँ मुग्ध हो गयीं। बाईसवें अध्यायमें उसी प्रेमकी पूर्णता प्राप्त करनेके लिये वे साधनमें लग गयी हैं। इसी अध्यायमें भगवान्‌ ने आकर उनकी साधना पूर्ण की है। यही चीर-हरणका प्रसङ्ग है।

 

गोपियाँ क्या चाहती थीं, यह बात उनकी साधनासे स्पष्ट है। वे चाहती थींश्रीकृष्णके प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण, श्रीकृष्णके साथ इस प्रकार घुल-मिल जाना कि उनका रोम-रोम, मन-प्राण, सम्पूर्ण आत्मा केवल श्रीकृष्णमय हो जाय। शरत्-कालमें उन्होंने श्रीकृष्णकी वंशीध्वनिकी चर्चा आपसमें की थी, हेमन्तके पहले ही महीनेमें अर्थात् भगवान्‌के विभूतिस्वरूप मार्गशीर्षमें उनकी साधना प्रारम्भ हो गयी। विलम्ब उनके लिये असह्य था। जाड़ेके दिनमें वे प्रात:काल ही यमुना-स्नानके लिये जातीं, उन्हें शरीरकी परवा नहीं थी। बहुत-सी कुमारी ग्वालिनें एक साथ ही जातीं, उनमें ईष्र्या-द्वेष नहीं था। वे ऊँचे स्वरसे श्रीकृष्णका नामकीर्तन करती हुई जातीं, उन्हें गाँव और जातिवालोंका भय नहीं था। वे घरमें भी हविष्यान्नका ही भोजन करतीं, वे श्रीकृष्णके लिये इतनी व्याकुल हो गयी थीं कि उन्हें माता-पिता तक का संकोच नहीं था। वे विधिपूर्वक देवीकी बालुकामयी मूर्ति बनाकर पूजा और मन्त्र-जप करती थीं। अपने इस कार्यको सर्वथा उचित और प्रशस्त मानती थीं। एक वाक्यमेंउन्होंने अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच और व्यक्तित्व भगवान्‌के चरणोंमें सर्वथा समर्पण कर दिया था। वे यही जपती रहती थीं कि एकमात्र नन्दनन्दन ही हमारे प्राणोंके स्वामी हों। श्रीकृष्ण तो वस्तुत: उनके स्वामी थे ही। परंतु लीलाकी दृष्टिसे उनके समर्पणमें थोड़ी कमी थी। वे निरावरणरूपसे श्रीकृष्णके सामने नहीं जा रही थीं, उनमें थोड़ी झिझक थी; उनकी यही झिझक दूर करनेके लियेउनकी साधना, उनका समर्पण पूर्ण करनेके लिये उनका आवरण भङ्ग कर देनेकी आवश्यकता थी, उनका यह आवरणरूप चीर हर लेना जरूरी था और यही काम भगवान्‌ श्रीकृष्णने किया। इसीके लिये वे योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान्‌ अपने मित्र ग्वालबालोंके साथ यमुनातटपर पधारे थे।

 

साधक अपनी शक्ति से, अपने बल और संकल्प से केवल अपने निश्चय से पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। समर्पण भी एक क्रिया है और उसका करनेवाला असमर्पित ही रह जाता है। ऐसी स्थिति में अन्तरात्मा का पूर्ण समर्पण तब होता है, जब भगवान्‌ स्वयं आकर वह संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प करनेवाले को भी स्वीकार करते हैं। यहीं जाकर समर्पण पूर्ण होता है। साधक का कर्तव्य हैपूर्ण समर्पण की तैयारी। उसे पूर्ण तो भगवान्‌ ही करते हैं।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...