शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

गोवर्धनधारण

 

श्रीशुक उवाच -

इन्द्रस्तदाऽऽत्मनः पूजां विज्ञाय विहतां नृप ।

गोपेभ्यः कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्यश्चुकोप ह ॥ १ ॥

गणं सांवर्तकं नाम मेघानां चान्तकारिणाम् ।

इन्द्रः प्रचोदयत् क्रुद्धो वाक्यं चाहेशमान्युत ॥ २ ॥

अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम् ।

कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम् ॥ ३ ॥

यथादृढैः कर्ममयैः क्रतुभिर्नामनौनिभैः ।

विद्यां आन्वीक्षिकीं हित्वा तितीर्षन्ति भवार्णवम् ॥ ४ ॥

वाचालं बालिशं स्तब्धं अज्ञं पण्डितमानिनम् ।

कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ॥ ५ ॥

एषां श्रियावलिप्तानां कृष्णेनाध्मापितात्मनाम् ।

धुनुत श्रीमदस्तम्भं पशून् नयत सङ्‌क्षयम् ॥ ६ ॥

अहं चैरावतं नागं आरुह्यानुव्रजे व्रजम् ।

मरुद्‍गणैर्महावेगैः नन्दगोष्ठजिघांसया ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब इन्द्र को पता लगा कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नन्दबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए। परंतु उनके क्रोध करनेसे होता क्या, उन गोपों के रक्षक तो स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण थे ॥ १ ॥ इन्द्रको अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूँ। उन्होंने क्रोधसे तिलमिलाकर प्रलय करनेवाले मेघों के सांवतर्क नामक गण को व्रजपर चढ़ाई करनेकी आज्ञा दी और कहा॥ २ ॥ ओह, इन जंगली ग्वालों को इतना घमण्ड ! सचमुच यह धनका ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बलपर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला ॥ ३ ॥ जैसे पृथ्वी पर बहुत-से मन्दबुद्धि पुरुष भवसागर से पार जाने के सच्चे साधन ब्रह्मविद्या को तो छोड़ देते हैं और नाममात्र की टूटी हुई नाव सेकर्ममय यज्ञोंसे इस घोर संसार-सागर को पार करना चाहते हैं ॥ ४ ॥ कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होनेपर भी अपनेको बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्युका ग्रास है। फिर भी उसीका सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है ॥ ५ ॥ एक तो ये यों ही धनके नशे में चूर हो रहे थे; दूसरे कृष्ण ने इनको और बढ़ावा दे दिया है। अब तुमलोग जाकर इनके इस धनके घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो ॥ ६ ॥ मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथीपर चढक़र नन्द के व्रज का नाश करने के लिये महापराक्रमी मरुद्गणों के साथ आता हूँ॥ ७ ॥

 

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गुरुवार, 9 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

श्रीशुक उवाच -

कालात्मना भगवता शक्रदर्पं जिघांसता ।

प्रोक्तं निशम्य नन्दाद्याः साध्वगृह्णन्त तद्वचः ॥ ३१ ॥

तथा च व्यदधुः सर्वं यथाऽऽह मधुसूदनः ।

वाचयित्वा स्वस्त्ययनं तद् द्रव्येण गिरिद्विजान् ॥ ३२ ॥

उपहृत्य बलीन् सम्यग् सर्वान् आदृता यवसं गवाम् ।

गोधनानि पुरस्कृत्य गिरिं चक्रुः प्रदक्षिणम् ॥ ३३ ॥

अनांस्यनडुद्युक्तानि ते चारुह्य स्वलङ्‌कृताः ।

गोप्यश्च कृष्णवीर्याणि गायन्त्यः सद्विजाशिषः ॥ ३४ ॥

कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भणं गतः ।

शैलोऽस्मीति ब्रुवन् भूरि बलिमादद् बृहद्वपुः ॥ ३५ ॥

तस्मै नमो व्रजजनैः सह चक्रेऽऽत्मनाऽऽत्मने ।

अहो पश्यत शैलोऽसौ रूपी नोऽनुग्रहं व्यधात् ॥ ३६ ॥

एषोऽवजानतो मर्त्यान् कामरूपी वनौकसः ।

हन्ति ह्यस्मै नमस्यामः शर्मणे आत्मनो गवाम् ॥ ३७ ॥

इत्यद्रिगोद्विजमखं वासुदेवप्रचोदिताः ।

यथा विधाय ते गोपा सहकृष्णा व्रजं ययुः ॥ ३८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कालात्मा भगवान्‌की इच्छा थी कि इन्द्रका घमण्ड चूर-चूर कर दें। नन्दबाबा आदि गोपों ने उनकी बात सुनकर बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर ली ॥ ३१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार का यज्ञ करने को कहा था, वैसा ही यज्ञ उन्होंने प्रारम्भ किया। पहले ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर उसी सामग्रीसे गिरिराज और ब्राह्मणोंको सादर भेंटें दीं, तथा गौओंको हरी-हरी घास खिलायी। इसके बाद नन्दबाबा आदि गोपोंने गौओंको आगे करके गिरिराजकी प्रदक्षिणा की ॥ ३२-३३ ॥ ब्राह्मणोंका आशीर्वाद प्राप्त करके वे और गोपियाँ भलीभाँति शृङ्गार करके और बैलोंसे जुती गाडिय़ोंपर सवार होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाओं- का गान करती हुई गिरिराजकी परिक्रमा करने लगीं ॥ ३४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण गोपोंको विश्वास दिलानेके लिये गिरिराजके ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर धारण करके प्रकट हो गये, तथा मैं गिरिराज हूँइस प्रकार कहते हुए सारी सामग्री आरोगने लगे ॥ ३५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने उस स्वरूपको दूसरे व्रज-वासियोंके साथ स्वयं भी प्रणाम किया और कहने लगे—‘देखो, कैसा आश्चर्य है ! गिरिराजने साक्षात् प्रकट होकर हमपर कृपा की है ॥ ३६ ॥ ये चाहे जैसा रूप धारण कर सकते हैं। जो वनवासी जीव इनका निरादर करते हैं, उन्हें ये नष्ट कर डालते हैं। आओ, अपना और गौओंका कल्याण करनेके लिये इन गिरिराज को हम नमस्कार करें॥ ३७ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रेरणासे नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपोंने गिरिराज, गौ और ब्राह्मणोंका विधिपूर्वक पूजन किया तथा फिर श्रीकृष्णके साथ सब व्रजमें लौट आये ॥ ३८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

देहानुच्चावचाञ्जन्तुः प्राप्योत् सृजति कर्मणा ।

शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः ॥ १७ ॥

तस्मात् संपूजयेत्कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत् ।

अन्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम् ॥ १८ ॥

आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति ।

न तस्माद् विन्दते क्षेमं जारान्नार्यसती यथा ॥ १९ ॥

वर्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः ।

वैश्यस्तु वार्तया जीवेत् शूद्रस्तु द्विजसेवया ॥ २० ॥

कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तूर्यमुच्यते ।

वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम् ॥ २१ ॥

सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।

रजसोत्पद्यते विश्वं अन्योन्यं विविधं जगत् ॥ २२ ॥

रजसा चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बूनि सर्वतः ।

प्रजास्तैरेव सिध्यन्ति महेन्द्रः किं करिष्यति ॥ २३ ॥

न नः पुरोजनपदा न ग्रामा न गृहा वयम् ।

नित्यं वनौकसस्तात वनशैलनिवासिनः ॥ ॥

तस्माद्‍गवां ब्राह्मणानां अद्रेश्चारभ्यतां मखः ।

य इंद्रयागसंभाराः तैरयं साध्यतां मखः ॥ २५ ॥

पच्यन्तां विविधाः पाकाः सूपान्ताः पायसादयः ।

संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्यताम् ॥ २६ ॥

हूयन्तामग्नयः सम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः ।

अन्नं बहुगुणं तेभ्यो देयं वो धेनुदक्षिणाः ॥ २७ ॥

अन्येभ्यश्चाश्वचाण्डाल पतितेभ्यो यथार्हतः ।

यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलिः ॥ २८ ॥

स्वलङ्‌कृता भुक्तवन्तः स्वनुलिप्ताः सुवाससः ।

प्रदक्षिणां च कुरुत गोविप्रानलपर्वतान् ॥ २९ ॥

एतन्मम मतं तात क्रियतां यदि रोचते ।

अयं गोब्राह्मणाद्रीणां मह्यं च दयितो मखः ॥ ३० ॥

 

जीव अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम शरीरों को ग्रहण करता और छोड़ता रहता है। अपने कर्मोंके अनुसार ही यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है’—ऐसा व्यवहार करता है। कहाँतक कहूँ, कर्म ही गुरु है और कर्म ही ईश्वर ॥ १७ ॥ इसलिये पिताजी ! मनुष्यको चाहिये कि पूर्व संस्कारोंके अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुकूल धर्मोंका पालन करता हुआ कर्मका ही आदर करे। जिसके द्वारा मनुष्यकी जीविका सुगमतासे चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है ॥ १८ ॥ जैसे अपने विवाहित पतिको छोडक़र जार पतिका सेवन करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्री कभी शान्तिलाभ नहीं करती, वैसे ही जो मनुष्य अपनी आजीविका चलानेवाले एक देवताको छोडक़र किसी दूसरेकी उपासना करते हैं, उससे उन्हें कभी सुख नहीं मिलता ॥ १९ ॥ ब्राह्मण वेदोंके अध्ययन-अध्यापनसे, क्षत्रिय पृथ्वी- पालनसे, वैश्य वार्ता वृत्तिसे और शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी सेवासे अपनी जीविकाका निर्वाह करें ॥ २० ॥ वैश्योंकी वार्तावृत्ति चार प्रकारकी हैकृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और ब्याज लेना। हमलोग उन चारोंमेंसे एक केवल गोपालन ही सदासे करते आये हैं ॥ २१ ॥ पिताजी ! इस संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और अन्तके कारण क्रमश: सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। यह विविध प्रकारका सम्पूर्ण जगत् स्त्री-पुरुषके संयोगसे रजोगुणके द्वारा उत्पन्न होता है ॥ २२ ॥ उसी रजोगुणकी प्रेरणासे मेघगण सब कहीं जल बरसाते हैं। उसीसे अन्न और अन्नसे ही सब जीवोंकी जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्रका क्या लेना-देना है ? वह भला, क्या कर सकता है ? ॥ २३ ॥

 

पिताजी ! न तो हमारे पास किसी देशका राज्य है और न तो बड़े-बड़े नगर ही हमारे अधीन हैं। हमारे पास गाँव या घर भी नहीं हैं। हम तो सदाके वनवासी हैं, वन और पहाड़ ही हमारे घर हैं ॥ २४ ॥ इसलिये हमलोग गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराजका यजन करनेकी तैयारी करें। इन्द्र- यज्ञके लिये जो सामग्रियाँ इकट्ठी की गयी हैं, उन्हींसे इस यज्ञका अनुष्ठान होने दें ॥ २५ ॥ अनेकों प्रकारके पकवानखीर, हलवा, पूआ, पूरी आदिसे लेकर मूँगकी दालतक बनाये जायँ। व्रजका सारा दूध एकत्र कर लिया जाय ॥ २६ ॥ वेदवादी ब्राह्मणोंके द्वारा भलीभाँति हवन करवाया जाय तथा उन्हें अनेकों प्रकारके अन्न, गौएँ और दक्षिणाएँ दी जायँ ॥ २७ ॥ और भी, चाण्डाल, पतित तथा कुत्तों तक को यथायोग्य वस्तुएँ देकर गायों को चारा दिया जाय और फिर गिरिराज को भोग लगाया जाय ॥ २८ ॥ इसके बाद खूब प्रसाद खा-पीकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर गहनोंसे सज-सजा लिया जाय और चन्दन लगाकर गौ, ब्राह्मण, अग्रि तथा गिरिराज गोवर्धनकी प्रदक्षिणा की जाय ॥ २९ ॥ पिताजी ! मेरी तो ऐसी ही सम्मति है। यदि आपलोगोंको रुचे, तो ऐसा ही कीजिये। ऐसा यज्ञ गौ, ब्राह्मण और गिरिराजको तो प्रिय होगा ही; मुझे भी बहुत प्रिय है ॥ ३० ॥

 

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बुधवार, 8 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

श्रीनन्द उवाच -

पर्जन्यो भगवान् इन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः ।

तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पयः ॥ ८ ॥

तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम् ।

द्रव्यैस्तद् रेतसा सिद्धैः यजन्ते क्रतुभिर्नराः ॥ ९ ॥

तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे ।

पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः ॥ १० ॥

य एनं विसृजेत् धर्मं परम्पर्यागतं नरः ।

कामाल्लोभात् भयाद् द्वेषात् स वै नाप्नोति शोभनम् ॥ ११ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

वचो निशम्य नन्दस्य तथान्येषां व्रजौकसाम् ।

इन्द्राय मन्युं जनयन् पितरं प्राह केशवः ॥ १२ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते ।

सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ॥ १३ ॥

अस्ति चेदीश्वरः कश्चित् फलरूप्यन्यकर्मणाम् ।

कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः ॥ १४ ॥

किमिन्द्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम् ।

अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम् ॥ १५ ॥

स्वभावतन्त्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते ।

स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ १६ ॥

 

नन्दबाबाने कहाबेटा ! भगवान्‌ इन्द्र वर्षा करनेवाले मेघोंके स्वामी हैं। ये मेघ उन्हींके अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियोंको तृप्त करनेवाला एवं जीवनदान करनेवाला जल बरसाते हैं ॥ ८ ॥ मेरे प्यारे पुत्र ! हम और दूसरे लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान्‌ इन्द्रकी यज्ञोंके द्वारा पूजा किया करते हैं। जिन सामग्रियोंसे यज्ञ होता है, वे भी उनके बरसाये हुए शक्तिशाली जलसे ही उत्पन्न होती हैं ॥ ९ ॥ उनका यज्ञ करनेके बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अन्नसे हम सब मनुष्य अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्गकी सिद्धिके लिये अपना जीवन निर्वाह करते हैं। मनुष्योंके खेती आदि प्रयत्नोंके फल देनेवाले इन्द्र ही हैं ॥ १० ॥ यह धर्म हमारी कुलपरम्परासे चला आया है। जो मनुष्य काम, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ऐसे परम्परागत धर्मको छोड़ देता है, उसका कभी मङ्गल नहीं होता ॥ ११ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! ब्रह्मा, शङ्कर आदिके भी शासन करनेवाले केशव भगवान्‌ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियोंकी बात सुनकर इन्द्रको क्रोध दिलानेके लिये अपने पिता नन्दबाबासे कहा ॥ १२ ॥

 

श्रीभगवान्‌ ने कहापिताजी ! प्राणी अपने कर्मके अनुसार ही पैदा होता और कर्मसे ही मर जाता है। उसे उसके कर्मके अनुसार ही सुख-दु:ख, भय और मङ्गल के निमित्तों की प्राप्ति होती है ॥ १३ ॥ यदि कर्मोंको ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न जीवोंके कर्मका फल देनेवाला ईश्वर माना भी जाय, तो वह कर्म करनेवालोंको ही उनके कर्मके अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करनेवालोंपर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती ॥ १४ ॥ जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मोंका ही फल भोग रहे हैं तब हमें इन्द्रकी क्या आवश्यकता है ? पिताजी ! जब वे पूर्वसंस्कारके अनुसार प्राप्त होनेवाले मनुष्योंके कर्म-फलको बदल ही नहीं सकतेतब उनसे प्रयोजन ? ॥ १५ ॥ मनुष्य अपने स्वभाव (पूर्व-संस्कारों) के अधीन है। वह उसीका अनुसरण करता है। यहाँतक कि देवता, असुर, मनुष्य आदिको लिये हुए यह सारा जगत् स्वभावमें ही स्थित है ॥ १६ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

श्रीशुक उवाच -

भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः ।

अपश्यत् निवसन् गोपान् इन्द्रयागकृतोद्यमान् ॥ १ ॥

तदभिज्ञोऽपि भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः ।

प्रश्रयावनतोऽपृच्छत् वृद्धान् नन्दपुरोगमान् ॥ २ ॥

कथ्यतां मे पितः कोऽयं सम्भ्रमो व उपागतः ।

किं फलं कस्य चोद्देशः केन वा साध्यते मखः ॥ ३ ॥

एतद्‍ब्रूहि महान् कामो मह्यं शुश्रूषवे पितः ।

न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह ॥ ४ ॥

अस्त्यस्व-परदृष्टीनां अमित्रोदास्तविद्विषाम् ।

उदासीनोऽरिवद् वर्ज्य आत्मवत् सुहृदुच्यते ॥ ५ ॥

ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति ।

विदुषः कर्मसिद्धिः स्यात् तथा नाविदुषो भवेत् ॥ ६ ॥

तत्र तावत् क्रियायोगो भवतां किं विचारितः ।

अथ वा लौकिकस्तन्मे पृच्छतः साधु भण्यताम् ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकारकी लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँके सब गोप इन्द्र-यज्ञ करनेकी तैयारी कर रहे हैं ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। फिर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपोंसे पूछा॥ २ ॥ पिताजी ! आपलोगोंके सामने यह कौन-सा बड़ा भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है ? इसका फल क्या है ? किस उद्देश्यसे, कौन लोग, किन साधनोंके द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं ? पिताजी ! आप मुझे यह अवश्य बतलाइये ॥ ३ ॥ आप मेरे पिता हैं और मैं आपका पुत्र। ये बातें सुनने के लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा भी है। पिताजी ! जो संत पुरुष सबको अपनी आत्मा मानते हैं, जिनकी दृष्टि में अपने और पराये का भेद नहीं है, जिनका न कोई मित्र है, न शत्रु और न उदासीनउनके पास छिपाने की तो कोई बात होती ही नहीं। परंतु यदि ऐसी स्थिति न हो, तो रहस्यकी बात शत्रुकी भाँति उदासीनसे भी नहीं कहनी चाहिये। मित्र तो अपने समान ही कहा गया है, इसलिये उससे कोई बात छिपायी नहीं जाती ॥ ४-५ ॥ यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकारके कर्मोंका अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बूझकर करनेवाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं ॥ ६ ॥ अत: इस समय आपलोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं, वह सुहृदों के साथ विचारितशास्त्रसम्मत है अथवा लौकिक ही हैमैं यह सब जानना चाहता हूँ; आप कृपा करके स्पष्टरूप से बतलाइये॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



मंगलवार, 7 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

यज्ञपत्नियों पर कृपा

 

अथानुस्मृत्य विप्रास्ते अन्वतप्यन् कृतागसः ।

यद् विश्वेश्वरयोर्याच्ञां अहन्म नृविडम्बयोः ॥ ३७ ॥

दृष्ट्वा स्त्रीणां भगवति कृष्णे भक्तिमलौकिकीम् ।

आत्मानं च तया हीनं अनुतप्ता व्यगर्हयन् ॥ ३८ ॥

धिग्जन्म नः त्रिवृत् विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम् ।

धिक्कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे ॥ ३९ ॥

नूनं भगवतो माया योगिनामपि मोहिनी ।

यस् वयं गुरवो नृणां स्वार्थे मुह्यामहे द्विजाः ॥ ४० ॥

अहो पश्यत नारीणां अपि कृष्णे जगद्‍गुरौ ।

दुरन्तभावं योऽविध्यन् मृत्युपाशान् गृहाभिधान् ॥ ४१ ॥

नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि ।

न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः ॥ ४२ ॥

तथापि ह्युत्तमःश्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे ।

भक्तिर्दृढा न चास्माकं संस्कारादिमतामपि ॥ ४३ ॥

ननु स्वार्थविमूढानां प्रमत्तानां गृहेहया ।

अहो नः स्मारयामास गोपवाक्यैः सतां गतिः ॥ ४४ ॥

अन्यथा पूर्णकामस्य कैवल्याद्यशिषां पतेः ।

ईशितव्यैः किमस्माभिः ईशस्यैतद् विडम्बनम् ॥ ४५ ॥

हित्वान्यान् भजते यं श्रीः पादस्पर्शाशया सकृत् ।

स्वात्मदोषापवर्गेण तद्याच्ञा जनमोहिनी ॥ ४६ ॥

देशः कालः पृथग्द्रव्यं मंत्रतंत्रर्त्विजोऽग्नयः ।

देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः ॥ ४७ ॥

स एष भगवान् साक्षाद् विष्णुर्योगेश्वरेश्वरः ।

जातो यदुष्वित्याश्रृण्म ह्यपि मूढा न विद्महे ॥ ४८ ॥

अहो वयं धन्यतमा येषां नस्तादृशीः स्त्रियः ।

भक्त्या यासां मतिर्जाता अस्माकं निश्चला हरौ ॥ ४९ ॥

नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।

यन्मायामोहितधियो भ्रमामः कर्मवर्त्मसु ॥ ५० ॥

स वै न आद्यः पुरुषः स्वमायामोहितात्मनाम् ।

अविज्ञतानुभावानां क्षन्तुमर्हत्यतिक्रमम् ॥ ५१ ॥

इति स्वाघमनुस्मृत्य कृष्णे ते कृतहेलनाः ।

दिदृक्षवोऽप्यच्युतयोः कंसाद्‍भीता न चाचलन् ॥ ५२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इधर जब ब्राह्मणोंको यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान्‌ हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा का उल्लङ्घन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। वे तो मनुष्यकी-सी लीला करते हुए भी परमेश्वर ही हैं ॥ ३७ ॥ जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियोंके हृदयमें तो भगवान्‌ का अलौकिक प्रेम है और हमलोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे ॥ ३८ ॥ वे कहने लगेहाय ! हम भगवान्‌ श्रीकृष्ण से विमुख हैं। बड़े ऊँचे कुलमें हमारा जन्म हुआ, गायत्री ग्रहण करके हम द्विजाति हुए, वेदाध्ययन करके हमने बड़े-बड़े यज्ञ किये; परंतु वह सब किस कामका ? धिक्कार है ! धिक्कार है !! हमारी विद्या व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए। हमारी इस बहुज्ञता को धिक्कार है ! ऊँचे वंशमें जन्म लेना, कर्मकाण्ड में निपुण होना किसी काम न आया। इन्हें बार-बार धिक्कार है ॥ ३९ ॥ निश्चय ही, भगवान्‌ की माया बड़े-बड़े योगियोंको भी मोहित कर लेती है। तभी तो हम कहलाते हैं मनुष्योंके गुरु और ब्राह्मण, परंतु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थके विषयमें बिलकुल भूले हुए हैं ॥ ४० ॥ कितने आश्चर्यकी बात है ! देखो तो सहीयद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्णमें इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है ! उसीसे इन्होंने गृहस्थीकी वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मृत्युके साथ भी नहीं कटती ॥ ४१ ॥ इनके न तो द्विजाति के योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होंने गुरुकुल में ही निवास किया है। न इन्होंने तपस्या की है और न तो आत्मा के सम्बन्धमें ही कुछ विवेक-विचार किया है। उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही ॥ ४२ ॥ फिर भी समस्त योगेश्वरोंके ईश्वर पुण्यकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें इनका दृढ़ प्रेम है। और हमने अपने संस्कार किये हैं, गुरुकुलमें निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसन्धान किया है, पवित्रताका निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवान्‌ के चरणों में हमारा प्रेम नहीं है ॥ ४३ ॥ सच्ची बात यह है कि हमलोग गृहस्थी के काम-धंधों में मतवाले हो गये थे, अपनी भलाई और बुराई को बिलकुल भूल गये थे। अहो, भगवान्‌ की कितनी कृपा है ! भक्तवत्सल प्रभुने ग्वालबालों को भेजकर उनके वचनों से हमें चेतावनी दी, अपनी याद दिलायी ॥ ४४ ॥ भगवान्‌ स्वयं पूर्णकाम हैं और कैवल्यमोक्षपर्यन्त जितनी भी कामनाएँ होती हैं, उनको पूर्ण करनेवाले हैं। यदि हमें सचेत नहीं करना होता तो उनका हम-सरीखे क्षुद्र जीवोंसे प्रयोजन ही क्या हो सकता था ? अवश्य ही उन्होंने इसी उद्देश्यसे माँगनेका बहाना बनाया। अन्यथा उन्हें माँगनेकी भला क्या आवश्यकता थी ? ॥ ४५ ॥ स्वयं लक्ष्मी अन्य सब देवताओंको छोडक़र और अपनी चञ्चलता, गर्व आदि दोषोंका परित्याग कर केवल एक बार उनके चरणकमलोंका स्पर्श पानेके लिये सेवा करती रहती हैं। वे ही प्रभु किसीसे भोजनकी याचना करें, यह लोगोंको मोहित करनेके लिये नहीं तो और क्या है ? ॥ ४६ ॥ देश, काल, पृथक्-पृथक् सामग्रियाँ, उन-उन कर्मों में विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्, अग्रि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्मसब भगवान्‌के ही स्वरूप हैं ॥ ४७ ॥ वे ही योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान्‌ विष्णु स्वयं श्रीकृष्णके रूपमें यदुवंशियोंमें अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी; परंतु हम इतने मूढ़ हैं कि उन्हें पहचान न सके ॥ ४८ ॥ यह सब होनेपर भी हम धन्यातिधन्य हैं, हमारे अहोभाग्य हैं। तभी तो हमें वैसी पत्नियाँ प्राप्त हुई हैं। उनकी भक्तिसे हमारी बुद्धि भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण के अविचल प्रेमसे युक्त हो गयी है ॥ ४९ ॥ प्रभो ! आप अचिन्त्य और अनन्त ऐश्वर्योंके स्वामी हैं ! श्रीकृष्ण ! आपका ज्ञान अबाध है। आपकी ही मायासे हमारी बुद्धि मोहित हो रही है और हम कर्मोंके पचड़े में भटक रहे हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ५० ॥ वे आदि पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण हमारे इस अपराधको क्षमा करें। क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी मायासे मोहित हो रही है और हम उनके प्रभावको न जाननेवाले अज्ञानी हैं ॥५१ ॥

 

परीक्षित्‌ ! उन ब्राह्मणोंने श्रीकृष्णका तिरस्कार किया था। अत: उन्हें अपने अपराधकी स्मृतिसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उनके हृदयमें श्रीकृष्ण-बलरामके दर्शनकी बड़ी इच्छा भी हुई; परंतु कंसके डरके मारे वे उनका दर्शन करने न जा सके ॥ ५२ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

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