रविवार, 19 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

 

दृष्टो वः कच्चिदश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मनः ।

नन्दसूनुर्गतो हृत्वा प्रेमहासावलोकनैः ॥ ५ ॥

कच्चित्कुरबकाशोक नागपुन्नागचम्पकाः ।

रामानुजो मानिनीनामितो दर्पहरस्मितः ॥ ६ ॥

कच्चित्तुलसि कल्याणि गोविन्दचरणप्रिये ।

सह त्वालिकुलैर्बिभ्रद्दृष्टस्तेऽतिप्रियोऽच्युतः ॥ ७ ॥

मालत्यदर्शि वः कच्चिन्मल्लिके जातियूथिके ।

प्रीतिं वो जनयन् यातः करस्पर्शेन माधवः ॥ ८ ॥

चूतप्रियालपनसासनकोविदार-

जम्ब्वर्कबिल्वबकुलाम्रकदम्बनीपाः ।

येऽन्ये परार्थभवका यमुनोपकूलाः

शंसन्तु कृष्णपदवीं रहितात्मनां नः ॥ ९ ॥

किं ते कृतं क्षिति तपो बत केशवाङ्घ्रि-

स्पर्शोत्सवोत्पुलकिताङ्गनहैर्विभासि ।

अप्यङ्घ्रिसम्भव उरुक्रमविक्रमाद्- 

वा आहो वराहवपुषः परिरम्भणेन ॥ १० ॥

अप्येणपत्न्युपगतः प्रिययेह गात्रै-

स्तन्वन् दृशां सखि सुनिर्वृतिमच्युतो वः ।

कान्ताङ्गसङ्गकुचकुङ्कुमरञ्जितायाः

कुन्दस्रजः कुलपतेरिह वाति गन्धः ॥ ११ ॥

बाहुं प्रियांस उपधाय गृहीतपद्मो

रामानुजस्तुलसिकालिकुलैर्मदान्धैः ।

अन्वीयमान इह वस्तरवः प्रणामं

किं वाभिनन्दति चरन् प्रणयावलोकैः ॥ १२ ॥

पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्लिष्टा वनस्पतेः ।

नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो ॥ १३ ॥

 

(गोपियोंने पहले बड़े-बड़े वृक्षोंसे जाकर पूछा) हे पीपल, पाकर और बरगद ! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेमभरी मुसकान और चितवनसे हमारा मन चुराकर चले गये हैं। क्या तुमलोगोंने उन्हें देखा है ? ॥ ५ ॥ कुरबक, अशोक, नागकेशर, पुन्नाग और चम्पा ! बलरामजीके छोटे भाई, जिनकी मुसकानमात्रसे बड़ी-बड़ी मानिनियोंका मानमर्दन हो जाता है, इधर आये थे क्या ?’ ॥ ६ ॥ (अब उन्होंने स्त्रीजातिके पौधोंसे कहा—) ‘बहिन तुलसी ! तुम्हारा हृदय तो बड़ा कोमल है, तुम तो सभी लोगोंका कल्याण चाहती हो। भगवान्‌के चरणोंमें तुम्हारा प्रेम तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते हैं। तभी तो भौंरोंके मँडराते रहनेपर भी वे तुम्हारी माला नहीं उतारते, सर्वदा पहने रहते हैं। क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दरको देखा है ? ॥ ७ ॥ प्यारी मालती ! मल्लिके ! जाती और जूही ! तुमलोगोंने कदाचित् हमारे प्यारे माधवको देखा होगा। क्या वे अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हें आनन्दित करते हुए इधरसे गये हैं ? ॥ ८ ॥ रसाल, प्रियाल, कटहल, पीतशाल, कचनार, जामुन, आक, बेल, मौलसिरी, आम, कदम्ब और नीम तथा अन्यान्य यमुनाके तटपर विराजमान सुखी तरुवरो ! तुम्हारा जन्म-जीवन केवल परोपकारके लिये है। श्रीकृष्णके बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है। हम बेहोश हो रही हैं। तुम हमें उन्हें पानेका मार्ग बता दो॥ ९ ॥ भगवान्‌ की प्रेयसी पृथ्वीदेवी ! तुमने ऐसी कौन-सी तपस्या की है कि श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्पर्श प्राप्त करके तुम आनन्दसे भर रही हो और तृण-लता आदिके रूपमें अपना रोमाञ्च प्रकट कर रही हो ? तुम्हारा यह उल्लास-विलास श्रीकृष्णके चरणस्पर्श के कारण है अथवा वामनावतार में विश्वरूप धारण करके उन्होंने तुम्हें जो नापा था, उसके कारण है ? कहीं उनसे भी पहले वराहभगवान्‌ के अङ्ग-सङ्ग के कारण तो तुम्हारी यह दशा नहीं हो रही है ?’ ॥ १० ॥ अरी सखी ! हरिनियो ! हमारे श्यामसुन्दर के अङ्ग-सङ्ग से सुषमा-सौन्दर्य की धारा बहती रहती है, वे कहीं अपनी प्राणप्रिया के साथ तुम्हारे नयनों को परमानन्दका दान करते हुए इधरसे ही तो नहीं गये हैं ? देखो, देखो; यहाँ कुलपति श्रीकृष्ण की कुन्दकली की मालाकी मनोहर गन्ध आ रही है, जो उनकी परम प्रेयसी के अङ्ग-सङ्ग से लगे हुए कुच-कुङ्कुम से अनुरञ्जित रहती है॥ ११ ॥ तरुवरो ! उनकी मालाकी तुलसीमें ऐसी सुगन्ध है कि उसकी गन्धके लोभी मतवाले भौंरे प्रत्येक क्षण उसपर मँडराते रहते हैं। उनके एक हाथमें लीलाकमल होगा और दूसरा हाथ अपनी प्रेयसीके कंधेपर रखे होंगे। हमारे प्यारे श्यामसुन्दर इधरसे विचरते हुए अवश्य गये होंगे। जान पड़ता है, तुमलोग उन्हें प्रणाम करनेके लिये ही झुके हो। परंतु उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवनसे भी तुम्हारी वन्दनाका अभिनन्दन किया है या नहीं ?’ ॥ १२ ॥ अरी सखी ! इन लताओंसे पूछो। ये अपने पति वृक्षोंको भुजपाशमें बाँधकर आलिङ्गन किये हुए हैं, इससे क्या हुआ ? इनके शरीरमें जो पुलक है, रोमाञ्च है, वह तो भगवान्‌ के नखों के स्पर्शसे ही है। अहो ! इनका कैसा सौभाग्य है ?’ ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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शनिवार, 18 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

 

श्रीशुक उवाच

अन्तर्हिते भगवति सहसैव व्रजाङ्गनाः ।

अतप्यंस्तमचक्षाणाः करिण्य इव यूथपम् ॥ १ ॥

गत्यानुरागस्मितविभ्रमेक्षितै-

र्मनोरमालापविहारविभ्रमैः ।

आक्षिप्तचित्ताः प्रमदा रमापते-

स्तास्ता विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिकाः ॥ २ ॥

गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषु

प्रियाः प्रियस्य प्रतिरूढमूर्तयः ।

असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिका

न्यवेदिषुः कृष्णविहारविभ्रमाः ॥ ३ ॥

गायन्त्य उच्चैरमुमेव संहता

विचिक्युरुन्मत्तकवद्वनाद्वनम् ।

पप्रच्छुराकाशवदन्तरं बहि-

र्भूतेषु सन्तं पुरुषं वनस्पतीन् ॥ ४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सहसा अन्तर्धान हो गये। उन्हें न देखकर व्रजयुवतियों की वैसी ही दशा हो गयी, जैसे यूथपति गजराज के बिना हथिनियों की होती है। उनका हृदय विरहकी ज्वाला से जलने लगा ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण की मदोन्मत्त गजराज की-सी चाल, प्रेमभरी मुसकान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाओं तथा शृङ्गार-रस की भाव-भङ्गियोंने उनके चित्तको चुरा लिया था। वे प्रेमकी मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्णकी विभिन्न चेष्टाओंका अनुकरण करने लगीं ॥ २ ॥ अपने प्रियतम श्रीकृष्णकी चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदिमें श्रीकृष्णकी प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं; उनके शरीरमें भी वही गति-मति, वही भाव-भङ्गी उतर आयी। वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्णस्वरूप हो गयीं और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई मैं श्रीकृष्ण ही हूँ’—इस प्रकार कहने लगीं ॥ ३ ॥ वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वरसे उन्हींके गुणोंका गान करने लगीं और मतवाली होकर एक वनसे दूसरे वनमें, एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में जा-जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगीं। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गये थे। वे तो समस्त जड-चेतन पदार्थोंमें तथा उनके बाहर भी आकाश के समान एकरस स्थित ही हैं। वे वहीं थे, उन्हीं में थे, परंतु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पतियों सेपेड़-पौधों से उनका पता पूछने लगीं ॥ ४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

श्रीशुक उवाच -

इति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्वरेश्वरः ।

प्रहस्य सदयं गोपीः आत्मारामोऽप्यरीरमत् ॥ ४२ ॥

ताभिः समेताभिरुदारचेष्टितः

प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युतः ।

उदारहासद्विजकुन्ददीधतिः

व्यरोचतैणाङ्‌क इवोडुभिर्वृतः ॥ ४३ ॥

उपगीयमान उद्‍गायन् वनिताशतयूथपः ।

मालां बिभ्रद् वैजयन्तीं व्यचरन् मण्डयन् वनम् ॥ ४४ ॥

नद्याः पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम् ।

रेमे तत्तरलानन्द कुमुदामोदवायुना ॥ ४५ ॥

बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु

नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातैः ।

क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणां

उत्तम्भयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार ॥ ४६ ॥

एवं भगवतः कृष्णात् लब्धमाना महात्मनः ।

आत्मानं मेनिरे स्त्रीणां मानिन्योऽभ्यधिकं भुवि ॥ ४७ ॥

तासां तत् सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः ।

प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत ॥ ४८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शिवादि योगेश्वरोंके भी ईश्वर हैं । जब उन्होंने गोपियोंकी व्यथा और व्याकुलतासे भरी वाणी सुनी, तब उनका हृदय दयासे भर गया और यद्यपि वे आत्माराम हैंअपने-आपमें ही रमण करते रहते हैं, उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी भी बाह्य वस्तुकी अपेक्षा नहीं है, फिर भी उन्होंने हँसकर उनके साथ क्रीडा प्रारम्भ की ॥ ४२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपनी भाव-भङ्गी और चेष्टाएँ गोपियोंके अनुकूल कर दीं; फिर भी वे अपने स्वरूप में ज्यों-के-त्यों एकरस स्थित थे, अच्युत थे। जब वे खुलकर हँसते, तब उनके उज्ज्वल-उज्ज्वल दाँत कुन्दकली के समान जान पड़ते थे। उनकी प्रेमभरी चितवनसे और उनके दर्शनके आनन्दसे गोपियोंका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। वे उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं। उस समय श्रीकृष्णकी ऐसी शोभा हुई, मानो अपनी पत्नी तारिकाओंसे घिरे हुए चन्द्रमा ही हों ॥ ४३ ॥ गोपियों के शत-शत यूथोंके स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण वैजयन्ती माला पहने वृन्दावन को शोभायमान करते हुए विचरण करने लगे। कभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के गुण और लीलाओं का गान करतीं, तो कभी श्रीकृष्ण गोपियों के प्रेम और सौन्दर्य के गीत गाने लगते ॥ ४४ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ यमुनाजी के पावन पुलिन पर, जो कपूर के समान चमकीली बालू से जगमगा रहा था, पदार्पण किया। वह यमुनाजी की तरल तरङ्गों के स्पर्श से शीतल और कुमुदिनी की सहज सुगन्ध से सुवासित वायु के द्वारा सेवित हो रहा था। उस आनन्दप्रद पुलिनपर भगवान्‌ ने गोपियों के साथ क्रीडा की ॥ ४५ ॥ हाथ फैलाना, आलिङ्गन करना, गोपियों के हाथ दबाना, उनकी चोटी, जाँघ, नीवी और स्तन आदि का स्पर्श करना, विनोद करना, नखक्षत करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुसकानाइन क्रियाओं के द्वारा गोपियों के दिव्य कामरस को, परमोज्ज्वल प्रेमभाव को उत्तेजित करते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन्हें क्रीडा द्वारा आनन्दित करने लगे ॥ ४६ ॥ उदारशिरोमणि सर्वव्यापक भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार गोपियों का सम्मान किया, तब गोपियों के मनमें ऐसा भाव आया कि संसार की समस्त स्त्रियों में हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं है। वे कुछ मानवती हो गयीं ॥ ४७ ॥ जब भगवान्‌ ने देखा कि इन्हें तो अपने सुहाग का कुछ गर्व हो आया है और अब मान भी करने लगी हैं, तब वे उनका गर्व शान्त करने के लिये तथा उनका मान दूर कर प्रसन्न करने के लिये वहींउनके बीच में ही अन्तर्धान हो गये ॥ ४८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकोन्त्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

यर्ह्यम्बुजाक्ष तव पादतलं रमाया

दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य ।

अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति नान्यसमक्षमङ्ग

स्थातुं त्वयाभिरमिता बत पारयामः ॥ ३६ ॥

श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्या

लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम् ।

यस्याः स्ववीक्षण कृतेऽन्यसुरप्रयासः

तद्वद् वयं च तव पादरजः प्रपन्नाः ॥ ३७ ॥

तन्नः प्रसीद वृजिनार्दन तेऽन्घ्रिमूलं

प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशाः ।

त्वत्सुन्दरस्मित निरीक्षणतीव्रकाम

तप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम् ॥ ३८ ॥

वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्री

गण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम् ।

दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य

वक्षः श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः ॥ ३९ ॥

का स्त्र्यङ्‌ग ते कलपदायतमूर्च्छितेन

सम्मोहितार्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम् ।

त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं

यद् गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन् ॥ ४० ॥

व्यक्तं भवान् व्रजभयार्तिहरोऽभिजातो

देवो यथाऽऽदिपुरुषः सुरलोकगोप्ता ।

तन्नो निधेहि करपङ्‌कजमार्तबन्धो

तप्तस्तनेषु च शिरःसु च किङ्‌करीणाम् ॥ ४१ ॥

 

प्यारे कमलनयन ! तुम वनवासियों के प्यारे हो और वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं। इससे प्राय: तुम उन्हींके पास रहते हो। यहाँतक कि तुम्हारे जिन चरणकमलोंकी सेवाका अवसर स्वयं लक्ष्मीजीको भी कभी-कभी ही मिलता है, उन्हीं चरणोंका स्पर्श हमें प्राप्त हुआ। जिस दिन यह सौभाग्य हमें मिला और तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित किया, उसी दिनसे हम और किसीके सामने एक क्षणके लिये भी ठहरनेमें असमर्थ हो गयी हैंपति-पुत्रादिकोंकी सेवा तो दूर रही ॥ ३६ ॥ हमारे स्वामी ! जिन लक्ष्मीजीका कृपाकटाक्ष प्राप्त करनेके लिये बड़े-बड़े देवता तपस्या करते रहते हैं, वही लक्ष्मीजी तुम्हारे वक्ष:स्थलमें बिना किसीकी प्रतिद्वन्ङ्क्षद्वताके स्थान प्राप्त कर लेनेपर भी अपनी सौत तुलसी के साथ तुम्हारे चरणों की रज पानेकी अभिलाषा किया करती हैं। अबतक के सभी भक्तों ने उस चरणरज का सेवन किया है। उन्हींके समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरज की शरणमें आयी हैं ॥ ३७ ॥ भगवन् ! अबतक जिसने भी तुम्हारे चरणों की शरण ली, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिये। अब तुम हमपर कृपा करो। हमें भी अपने प्रसाद का भाजन बनाओ। हम तुम्हारी सेवा करनेकी आशा-अभिलाषासे घर, गाँव, कुटुम्बसब कुछ छोडक़र तुम्हारे युगल चरणोंकी शरणमें आयी हैं। प्रियतम ! वहाँ तो तुम्हारी आराधना के लिये अवकाश ही नहीं है। पुरुषभूषण ! पुरुषोत्तम ! तुम्हारी मधुर मुसकान और चारु चितवन ने हमारे हृदयमें प्रेमकीमिलनकी आकाङ्क्षाकी आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उससे जल रहा है। तुम हमें अपनी दासीके रूपमें स्वीकार कर लो। हमें अपनी सेवाका अवसर दो ॥ ३८ ॥ प्रियतम ! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल जिसपर घुँघराली अलकें झलक रही हैं; तुम्हारे ये कमनीय कपोल, जिनपर सुन्दर- सुन्दर कुण्डल अपना अनन्त सौन्दर्य बिखेर रहे हैं; तुम्हारे ये मधुर अधर, जिनकी सुधा सुधाको भी लजानेवाली है; तुम्हारी यह नयनमनोहारी चितवन, जो मन्द-मन्द मुसकानसे उल्लसित हो रही है; तुम्हारी ये दोनों भुजाएँ, जो शरणागतोंको अभयदान देनेमें अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह वक्ष:स्थल, जो लक्ष्मीजीकासौन्दर्यकी एकमात्र देवीका नित्य क्रीडास्थल है, देखकर हम सब तुम्हारी दासी हो गयी हैं ॥ ३९ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! तीनों लोकोंमें भी और ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो मधुर-मधुर पद और आरोह-अवरोह-क्रमसे विविध प्रकारकी मूच्र्छनाओंसे युक्त तुम्हारी वंशीकी तान सुनकर तथा इस त्रिलोकसुन्दर मोहिनी मूर्तिकोजो अपने एक बूँद सौन्दर्यसे त्रिलोकीको सौन्दर्यका दान करती है एवं जिसे देखकर गौ, पक्षी, वृक्ष और हरिन भी रोमाञ्चित, पुलकित हो जाते हैंअपने नेत्रोंसे निहार- कर आर्य-मर्यादासे विचलित न हो जाय, कुल-कान और लोक-लज्जाको त्यागकर तुममें अनुरक्त न हो जाय ॥ ४० ॥ हमसे यह बात छिपी नहीं है कि जैसे भगवान्‌ नारायण देवताओंकी रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम व्रजमण्डलका भय और दु:ख मिटानेके लिये ही प्रकट हुए हो ! और यह भी स्पष्ट ही है कि दीन-दुखियोंपर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी कृपा है । प्रियतम ! हम भी बड़ी दु:खिनी हैं । तुम्हारे मिलन की आकाङ्क्षा की आगसे हमारा वक्ष:स्थल जल रहा है। तुम अपनी इन दासियोंके वक्ष:स्थल और सिरपर अपने कोमल करकमल रखकर इन्हें अपना लो; हमें जीवनदान दो ॥४१॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

श्रीशुक उवाच -

इति विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविन्दभाषितम् ।

विषण्णा भग्नसङ्‌कल्पाः चिन्तामापुर्दुरत्ययाम् ॥ २८ ॥

कृत्वा मुखान्यव शुचः श्वसनेन शुष्यद्

बिम्बाधराणि चरणेन भुवः लिखन्त्यः ।

अस्रैरुपात्तमषिभिः कुचकुङ्‌कुमानि

तस्थुर्मृजन्त्य उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम् ॥ ॥

प्रेष्ठं प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं

कृष्णं तदर्थविनिवर्तितसर्वकामाः ।

नेत्रे विमृज्य रुदितोपहते स्म किञ्चित्

संरम्भगद्‍गदगिरोऽब्रुवतानुरक्ताः ॥ ३० ॥

 

श्रीगोप्य ऊचुः ।

मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं

सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ।

भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्

देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून् ॥ ३१ ॥

यत्पत्यपत्यसुहृदां अनुवृत्तिरङ्‌ग

स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम् ।

अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे

प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा ॥ ३२ ॥

कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन्

नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदैः किम् ।

तन्नः प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिन्द्या

आशां धृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र ॥ ३३ ॥

चित्तं सुखेन भवतापहृतं गृहेषु

यन्निर्विशत्युत करावपि गृह्यकृत्ये ।

पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद्

यामः कथं व्रजमथो करवाम किं वा ॥ ३४ ॥

सिञ्चाङ्‌ग नस्त्वदधरामृतपूरकेण

हासावलोककलगीतजहृच्छयाग्निम् ।

नो चेद् वयं विरहजाग्नि उपयुक्तदेहा

ध्यानेन याम पदयोः पदवीं सखे ते ॥ ३५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णका यह अप्रिय भाषण सुनकर गोपियाँ उदास, खिन्न हो गयीं। उनकी आशा टूट गयी। वे चिन्ताके अथाह एवं अपार समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं ॥ २८ ॥ उनके बिम्बाफल (पके हुए कुँदरू) के समान लाल-लाल अधर शोकके कारण चलनेवाली लंबी और गरम साँससे सूख गये। उन्होंने अपने मुँह नीचेकी ओर लटका लिये, वे पैरके नखोंसे धरती कुरेदने लगीं। नेत्रोंसे दु:खके आँसू बह-बहकर काजलके साथ वक्ष:स्थलपर पहुँचने और वहाँ लगी हुई केसरको धोने लगे। उनका हृदय दु:खसे इतना भर गया कि वे कुछ बोल न सकीं, चुपचाप खड़ी रह गयीं ॥ २९ ॥ गोपियोंने अपने प्यारे श्यामसुन्दरके लिये सारी कामनाएँ, सारे भोग छोड़ दिये थे। श्रीकृष्णमें उनका अनन्य अनुराग, परम प्रेम था। जब उन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्णकी यह निष्ठुरतासे भरी बात सुनी, जो बड़ी ही अप्रिय-सी मालूम हो रही थी, तब उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। आँखें रोते-रोते लाल हो गयीं, आँसुओं के मारे रुँध गयीं। उन्होंने धीरज धारण करके अपनी आँखोंके आँसू पोंछे और फिर प्रणयकोपके कारण वे गद्गद वाणीसे कहने लगीं ॥ ३० ॥

 

गोपियोंने कहाप्यारे श्रीकृष्ण ! तुम घट-घट व्यापी हो। हमारे हृदयकी बात जानते हो। तुम्हें इस प्रकार निष्ठुरता भरे वचन नहीं कहने चाहिये। हम सब कुछ छोडक़र केवल तुम्हारे चरणोंमें ही प्रेम करती हैं। इसमें सन्देह नहीं कि तुम स्वतन्त्र और हठीले हो। तुमपर हमारा कोई वश नहीं है। फिर भी तुम अपनी ओरसे, जैसे आदिपुरुष भगवान्‌ नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तोंसे प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो। हमारा त्याग मत करो ॥ ३१ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम सब धर्मोंका रहस्य जानते हो। तुम्हारा यह कहना कि अपने पति, पुत्र और भाई-बन्धुओंकी सेवा करना ही स्त्रियोंका स्वधर्म है’—अक्षरश: ठीक है। परंतु इस उपदेशके अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि तुम्हीं सब उपदेशोंके पद (चरम लक्ष्य) हो; साक्षात् भगवान्‌ हो। तुम्हीं समस्त शरीरधारियों के सुहृद् हो, आत्मा हो और परम प्रियतम हो ॥ ३२ ॥ आत्मज्ञानमें निपुण महापुरुष तुमसे ही प्रेम करते हैं; क्योंकि तुम नित्य प्रिय एवं अपने ही आत्मा हो। अनित्य एवं दु:खद पति-पुत्रादिसे क्या प्रयोजन है ? परमेश्वर ! इसलिये हमपर प्रसन्न होओ। कृपा करो। कमलनयन ! चिरकालसे तुम्हारे प्रति पाली-पोसी आशा-अभिलाषाकी लहलहाती लताका छेदन मत करो ॥ ३३ ॥ मनमोहन ! अबतक हमारा चित्त घरके काम-धंधोंमें लगता था। इसीसे हमारे हाथ भी उनमें रमे हुए थे। परंतु तुमने हमारे देखते-देखते हमारा वह चित्त लूट लिया। इसमें तुम्हें कोई कठिनाई भी नहीं उठानी पड़ी, तुम तो सुखस्वरूप हो न ! परंतु अब तो हमारी गति-मति निराली ही हो गयी है। हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलोंको छोडक़र एक पग भी हटनेके लिये तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे हैं। फिर हम व्रजमें कैसे जायँ ? और यदि वहाँ जायँ भी तो करें क्या ? ॥ ३४ ॥ प्राणवल्लभ ! हमारे प्यारे सखा ! तुम्हारी मन्द-मन्द मधुर मुसकान, प्रेमभरी चितवन और मनोहर संगीतने हमारे हृदयमें तुम्हारे प्रेम और मिलनकी आग धधका दी है। उसे तुम अपने अधरोंकी रसधारासे बुझा दो। नहीं तो प्रियतम ! हम सच कहती हैं, तुम्हारी विरह-व्यथाकी आग से हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यानके द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी ॥ ३५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 16 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

श्रीभगवानुवाच -

स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः ।

व्रजस्यानामयं कच्चिद् ब्रूतागमनकारणम् ॥ १८ ॥

रजन्येषा घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता ।

प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः ॥ १९ ॥

मातरः पितरः पुत्रा भ्रातरः पतयश्च वः ।

विचिन्वन्ति ह्यपश्यन्तो मा कृढ्वं बन्धुसाध्वसम् ॥ २० ॥

दृष्टं वनं कुसुमितं राकेश कररञ्जितम् ।

यमुना अनिललीलैजत् तरुपल्लवशोभितम् ॥ २१ ॥

तद् यात मा चिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सतीः ।

क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान् पाययत दुह्यत ॥ २२ ॥

अथवा मदभिस्नेहाद् भवत्यो यन्त्रिताशयाः ।

आगता ह्युपपन्नं वः प्रीयन्ते मयि जन्तवः ॥ २३ ॥

भर्तुः शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया ।

तद्‍बन्धूनां च कल्याणः प्रजानां चानुपोषणम् ॥ २४ ॥

दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा ।

पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी ॥ २५ ॥

अस्वर्ग्यमयशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम् ।

जुगुप्सितं च सर्वत्र ह्यौपपत्यं कुलस्त्रियः ॥ २६ ॥

श्रवणाद् दर्शनाद् ध्यानाद् मयि भावोऽनुकीर्तनात् ।

न तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान् ॥ २७ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहामहाभाग्यवती गोपियो ! तुम्हारा स्वागत है। बतलाओ, तुम्हें प्रसन्न करनेके लिये मैं कौन-सा काम करूँ ? व्रजमें तो सब कुशल-मङ्गल है न ? कहो, इस समय यहाँ आनेकी क्या आवश्यकता पड़ गयी ? ॥ १८ ॥ सुन्दरी गोपियो ! रातका समय है, यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता है और इसमें बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु इधर-उधर घूमते रहते हैै.। अत: तुम सब तुरंत व्रजमें लौट जाओ। रातके समय घोर जंगलमें स्त्रियोंको नहीं रुकना चाहिये ॥ १९ ॥ तुम्हें न देखकर तुम्हारे माँ-बाप, पति-पुत्र और भाई-बन्धु ढूँढ़ रहे होंगे। उन्हें भयमें न डालो ॥ २० ॥ तुमलोगोंने रंग-बिरंगे पुष्पोंसे लदे हुए इस वनकी शोभाको देखा। पूर्ण चन्द्रमाकी कोमल रश्मियोंसे यह रँगा हुआ है, मानो उन्होंने अपने हाथों चित्रकारी की हो; और यमुनाजीके जलका स्पर्श करके बहनेवाले शीतल समीरकी मन्द-मन्द गतिसे हिलते हुए ये वृक्षोंके पत्ते तो इस वनकी शोभाको और भी बढ़ा रहे हैं। परंतु अब तो तुमलोगोंने यह सब कुछ देख लिया ॥ २१ ॥ हे सतियो ! अब देर मत करो, शीघ्र-से-शीघ्र व्रजमें लौट जाओ। अपने पतियोंकी सेवा-शुश्रूषा करो। देखो, तुम्हारे घरके नन्हें-नन्हें बच्चे और गौओंके बछड़े रो-रँभा रहे हैं; उन्हें दूध पिलाओ, गौएँ दुहो ॥ २२ ॥ अथवा यदि मेरे प्रेमसे परवश होकर तुमलोग यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह तो तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि जगत्के पशु-पक्षीतक मुझसे प्रेम करते हैं, मुझे देखकर प्रसन्न होते हैं ॥ २३ ॥ कल्याणी गोपियो ! स्त्रियोंका परम धर्म यही है कि वे पति और उसके भाई बन्धुओंकी निष्कपटभावसे सेवा करें और सन्तानका पालन-पोषण करें ॥ २४ ॥ जिन स्त्रियोंको उत्तम लोक प्राप्त करनेकी अभिलाषा हो, वे पातकीको छोडक़र और किसी भी प्रकारके पतिका परित्याग न करें। भले ही वह बुरे स्वभाववाला, भाग्यहीन, वृद्ध, मूर्ख, रोगी या निर्धन ही क्यों न हो ॥ २५ ॥ कुलीन स्त्रियोंके लिये जार पुरुषकी सेवा सब तरहसे निन्दनीय ही है। इससे उनका परलोक बिगड़ता है, स्वर्ग नहीं मिलता, इस लोकमें अपयश होता है। यह कुकर्म स्वयं तो अत्यन्त तुच्छ क्षणिक है ही; इसमें प्रत्यक्षवर्तमानमें भी कष्ट-ही-कष्ट है। मोक्ष आदिकी तो बात ही कौन करे, यह साक्षात् परम भयनरक आदिका हेतु है ॥ २६ ॥ गोपियो ! मेरी लीला और गुणोंके श्रवणसे, रूपके दर्शनसे, उन सबके कीर्तन और ध्यानसे मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेमकी प्राप्ति होती है, वैसे प्रेमकी प्राप्ति पास रहनेसे नहीं होती। इसलिये तुमलोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ ॥ २७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने ।

गुणप्रवाहोपरमः तासां गुणधियां कथम् ॥ १२ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

उक्तं पुरस्ताद् एतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः ।

द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः ॥ १३ ॥

नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप ।

अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः ॥ १४ ॥

कामं क्रोधं भयं स्नेहं ऐक्यं सौहृदमेव च ।

नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते ॥ १५ ॥

न चैवं विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे ।

योगेश्वरेश्वरे कृष्णे यत एतद् विमुच्यते ॥ १६ ॥

ता दृष्ट्वान्तिकमायाता भगवान् व्रजयोषितः ।

अवदद् वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्विमोहयन् ॥ १७ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! गोपियाँ तो भगवान्‌ श्रीकृष्ण को केवल अपना परम प्रियतम ही मानती थीं। उनका उनमें ब्रह्मभाव नहीं था। इस प्रकार उनकी दृष्टि प्राकृत गुणोंमें ही आसक्त दीखती है। ऐसी स्थितिमें उनके लिये गुणोंके प्रवाहरूप इस संसारकी निवृत्ति कैसे सम्भव हुई ? ॥ १२ ॥

 

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान्‌ के प्रति द्वेष-भाव रखनेपर भी अपने प्राकृत शरीरको छोडक़र अप्राकृत शरीरसे उनका पार्षद हो गया। ऐसी स्थितिमें जो समस्त प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्यारी हैं और उनसे अनन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियाँ उन्हें प्राप्त हो जायँइसमें कौन-सी आश्चर्यकी बात है ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! वास्तव में भगवान्‌ प्रकृतिसम्बन्धी वृद्धि-विनाश, प्रमाण-प्रमेय और गुणगुणीभावसे रहित हैं। वे अचिन्त्य अनन्त अप्राकृत परम कल्याणस्वरूप गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने यह जो अपनेको तथा अपनी लीलाको प्रकट किया है, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि जीव उसके सहारे अपना परम कल्याण सम्पादन करे ॥ १४ ॥ इसलिये भगवान्‌ से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिये। वह सम्बन्ध चाहे जैसा होकामका हो, क्रोधका हो या भयका हो; स्नेह, नातेदारी या सौहार्दका हो। चाहे जिस भावसे भगवान्‌ में नित्य-निरन्तर अपनी वृत्तियाँ जोड़ दी जायँ, वे भगवान्‌ से ही जुड़ती हैं। इसलिये वृत्तियाँ भगवन्मय हो जाती हैं, और उस जीव को भगवान्‌ की ही प्राप्ति होती है ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! तुम्हारे-जैसे परम भागवत भगवान्‌ का रहस्य जाननेवाले भक्तको श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिये। योगेश्वरोंके भी ईश्वर अजन्मा भगवान्‌ के लिये भी यह कोई आश्चर्य की बात है ? अरे ! उनके संकल्पमात्रसेभौंहें के इशारे से सारे जगत् का परम कल्याण हो सकता है ॥ १६ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि व्रज की अनुपम विभूतियाँ गोपियाँ मेरे बिलकुल पास आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी विनोदभरी वाक्चातुरी से उन्हें मोहित करते हुए कहाक्यों न होभूत, भविष्य और वर्तमानकालके जितने वक्ता हैं, उनमें वे ही तो सर्वश्रेष्ठ हैं ॥ १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...