गुरुवार, 20 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

उद्धवजी की व्रजयात्रा

 

श्रीशुक उवाच

वृष्णीनां प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयितः सखा

शिष्यो बृहस्पतेः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः

तमाह भगवान्प्रेष्ठं भक्तमेकान्तिनं क्वचित्

गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रपन्नार्तिहरो हरिः

गच्छोद्धव व्रजं सौम्य पित्रोर्नौ प्रीतिमावह

गोपीनां मद्वियोगाधिं मत्सन्देशैर्विमोचय

ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः

मामेव दयितं प्रेष्ठमात्मानं मनसा गताः

ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान्बिभर्म्यहम्

मयि ताः प्रेयसां प्रेष्ठे दूरस्थे गोकुलस्त्रियः

स्मरन्त्योऽङ्ग विमुह्यन्ति विरहौत्कण्ठ्यविह्वलाः

धारयन्त्यतिकृच्छ्रेण प्रायः प्राणान्कथञ्चन

प्रत्यागमनसन्देशैर्बल्लव्यो मे मदात्मिकाः

 

श्रीशुक उवाच

इत्युक्त उद्धवो राजन्सन्देशं भर्तुरादृतः

आदाय रथमारुह्य प्रययौ नन्दगोकुलम्

प्राप्तो नन्दव्रजं श्रीमान्निम्लोचति विभावसौ

छन्नयानः प्रविशतां पशूनां खुररेणुभिः

वासितार्थेऽभियुध्यद्भिर्नादितं शुष्मिभिर्वृषैः

धावन्तीभिश्च वास्राभिरूधोभारैः स्ववत्सकान्

इतस्ततो विलङ्घद्भिर्गोवत्सैर्मण्डितं सितैः

गोदोहशब्दाभिरवं वेणूनां निःस्वनेन च १०

गायन्तीभिश्च कर्माणि शुभानि बलकृष्णयोः

स्वलङ्कृताभिर्गोपीभिर्गोपैश्च सुविराजितम् ११

अग्न्यर्कातिथिगोविप्र पितृदेवार्चनान्वितैः

धूपदीपैश्च माल्यैश्च गोपावासैर्मनोरमम् १२

सर्वतः पुष्पितवनं द्विजालिकुलनादितम्

हंसकारण्डवाकीर्णैः पद्मषण्डैश्च मण्डितम् १३

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! उद्धवजी वृष्णिवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात् बृहस्पतिजी के शिष्य और परम बुद्धिमान् थे। उनकी महिमा के सम्बन्ध में इससे बढक़र और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्यारे सखा तथा मन्त्री भी थे ॥ १ ॥ एक दिन शरणागतोंके सारे दु:ख हर लेनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने प्रिय भक्त और एकान्तप्रेमी उद्धवजीका हाथ अपने हाथमें लेकर कहा॥ २ ॥ सौम्यस्वभाव उद्धव ! तुम व्रजमें जाओ। वहाँ मेरे पिता-माता नन्दबाबा और यशोदा मैया हैं, उन्हें आनन्दित करो; और गोपियाँ मेरे विरहकी व्याधिसे बहुत ही दुखी हो रही हैं, उन्हें मेरे सन्देश सुनाकर उस वेदनासे मुक्त करो ॥ ३ ॥ प्यारे उद्धव ! गोपियोंका मन नित्य-निरन्तर मुझमें ही लगा रहता है। उनके प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिये उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-सम्बन्धियोंको छोड़ दिया है। उन्होंने बुद्धिसे भी मुझीको अपना प्यारा, अपना प्रियतमनहीं, नहीं, अपना आत्मा मान रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिये लौकिक और पारलौकिक धर्मोंको छोड़ देते हैं, उनका भरण- पोषण मैं स्वयं करता हूँ ॥ ४ ॥ प्रिय उद्धव ! मैं उन गोपियोंका परम प्रियतम हूँ। मेरे यहाँ चले आनेसे वे मुझे दूरस्थ मानती हैं और मेरा स्मरण करके अत्यन्त मोहित हो रही हैं, बार-बार मूर्च्छित हो जाती हैं। वे मेरे विरहकी व्यथासे विह्वल हो रही हैं, प्रतिक्षण मेरे लिये उत्कण्ठित रहती हैं ॥ ५ ॥ मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्नसे अपने प्राणोंको किसी प्रकार रख रही हैं। मैंने उनसे कहा था कि मैं आऊँगा।वही उनके जीवनका आधार है। उद्धव ! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं॥ ६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने यह बात कही, तब उद्धवजी बड़े आदरसे अपने स्वामीका सन्देश लेकर रथपर सवार हुए और नन्दगाँवके लिये चल पड़े ॥ ७ ॥ परम सुन्दर उद्धवजी सूर्यास्तके समय नन्दबाबाके व्रजमें पहुँचे। उस समय जंगलसे गौएँ लौट रही थीं। उनके खुरोंके आघातसे इतनी धूल उड़ रही थी कि उनका रथ ढक गया था ॥ ८ ॥ व्रजभूमिमें ऋतुमती गौओंके लिये मतवाले साँड़ आपसमें लड़ रहे थे। उनकी गर्जनासे सारा व्रज गूँज रहा था। थोड़े दिनोंकी ब्यायी हुई गौएँ अपने थनोंके भारी भारसे दबी होनेपर भी अपने-अपने बछड़ोंकी ओर दौड़ रही थीं ॥ ९ ॥ सफेद रंगके बछड़े इधर-उधर उछल-कूद मचाते हुए बहुत ही भले मालूम होते थे। गाय दुहनेकी घर-घरध्वनिसे और बाँसुरियोंकी मधुर टेरसे अब भी व्रजकी अपूर्व शोभा हो रही थी ॥ १० ॥ गोपी और गोप सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा गहनोंसे सज-धजकर श्रीकृष्ण तथा बलरामजीके मङ्गलमय चरित्रोंका गान कर रहे थे और इस प्रकार व्रजकी शोभा और भी बढ़ गयी थी ॥ ११ ॥ गोपोंके घरोंमें अग्रि, सूर्य, अतिथि, गौ, ब्राह्मण और देवता-पितरोंकी पूजा की हुई थी। धूपकी सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी और दीपक जगमगा रहे थे। उन घरोंको पुष्पोंसे सजाया गया था। ऐसे मनोहर गृहोंसे सारा व्रज और भी मनोरम हो रहा था ॥ १२ ॥ चारों ओर वन-पंक्तियाँ फूलोंसे लद रही थीं। पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। वहाँ जल और स्थल दोनों ही कमलोंके वनसे शोभायमान थे, और हंस, बत्तख आदि पक्षी वनमें विहार कर रहे थे ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश

 

श्रीसमुद्र उवाच

न चाहार्षमहं देव दैत्यः पञ्चजनो महान्

अन्तर्जलचरः कृष्ण शङ्खरूपधरोऽसुरः ४०

आस्ते तेनाहृतो नूनं तच्छ्रुत्वा सत्वरं प्रभुः

जलमाविश्य तं हत्वा नापश्यदुदरेऽर्भकम् ४१

तदङ्गप्रभवं शङ्खमादाय रथमागमत्

ततः संयमनीं नाम यमस्य दयितां पुरीम् ४२

गत्वा जनार्दनः शङ्खं प्रदध्मौ सहलायुधः

शङ्खनिर्ह्रादमाकर्ण्य प्रजासंयमनो यमः ४३

तयोः सपर्यां महतीं चक्रे भक्त्युपबृंहिताम्

उवाचावनतः कृष्णं सर्वभूताशयालयम्

लीलामनुष्ययोर्विष्णो युवयोः करवाम किम् ४४

 

श्रीभगवानुवाच

गुरुपुत्रमिहानीतं निजकर्मनिबन्धनम्

आनयस्व महाराज मच्छासनपुरस्कृतः ४५

तथेति तेनोपानीतं गुरुपुत्रं यदूत्तमौ

दत्त्वा स्वगुरवे भूयो वृणीष्वेति तमूचतुः ४६

 

श्रीगुरुरुवाच

सम्यक्सम्पादितो वत्स भवद्भ्यां गुरुनिष्क्रयः

को नु युष्मद्विधगुरोः कामानामवशिष्यते ४७

गच्छतं स्वगृहं वीरौ कीर्तिर्वामस्तु पावनी

छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च ४८

गुरुणैवमनुज्ञातौ रथेनानिलरंहसा

आयातौ स्वपुरं तात पर्जन्यनिनदेन वै ४९

समनन्दन्प्रजाः सर्वा दृष्ट्वा रामजनार्दनौ

अपश्यन्त्यो बह्वहानि नष्टलब्धधना इव ५०

 

मनुष्यवेषधारी समुद्र ने कहा—‘देवाधिदेव श्रीकृष्ण ! मैंने उस बालक को नहीं लिया है। मेरे जलमें पञ्चजन नामका एक बड़ा भारी दैत्य जातिका असुर शङ्ख के रूपमें रहता है। अवश्य ही उसीने वह बालक चुरा लिया होगा॥ ४० ॥ समुद्रकी बात सुनकर भगवान्‌ तुरंत ही जलमें जा घुसे और शङ्खासुर को मार डाला। परंतु वह बालक उसके पेट में नहीं मिला ॥ ४१ ॥ तब उसके शरीरका शङ्ख लेकर भगवान्‌ रथपर चले आये। वहाँसे बलरामजीके साथ श्रीकृष्णने यमराजकी प्रिय पुरी संयमनीमें जाकर अपना शङ्ख बजाया। शङ्खका शब्द सुनकर सारी प्रजाका शासन करनेवाले यमराजने उनका स्वागत किया और भक्तिभावसे भरकर विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की। उन्होंने नम्रतासे झुककर समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान सच्चिदानन्द-स्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा—‘लीलासे ही मनुष्य बने हुए सर्वव्यापक परमेश्वर ! मैं आप दोनोंकी क्या सेवा करूँ ?’ ॥ ४२४४ ॥

 

श्रीभगवान्‌ ने कहा—‘यमराज ! यहाँ अपने कर्मबन्धनके अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्मपर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ ॥ ४५ ॥ यमराजने जो आज्ञाकहकर भगवान्‌का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी उस बालकको लेकर उज्जैन लौट आये और उसे अपने गुरुदेवको सौंपकर कहा कि आप और जो कुछ चाहें, माँग लें॥ ४६ ॥

 

गुरुजीने कहा—‘बेटा ! तुम दोनोंने भलीभाँति गुरुदक्षिणा दी। अब और क्या चाहिये ? जो तुम्हारे-जैसे पुरुषोत्तमों का गुरु है, उसका कौन-सा मनोरथ अपूर्ण रह सकता है ? ॥ ४७ ॥ वीरो ! अब तुम दोनों अपने घर जाओ। तुम्हें लोकोंको पवित्र करनेवाली कीर्ति प्राप्त हो। तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या इस लोक और परलोकमें सदा नवीन बनी रहे, कभी विस्मृत न हो॥ ४८ ॥ बेटा परीक्षित्‌ ! फिर गुरुजीसे आज्ञा लेकर वायुके समान वेग और मेघके समान शब्दवाले रथपर सवार होकर दोनों भाई मथुरा लौट आये ॥ ४९ ॥ मथुराकी प्रजा बहुत दिनोंतक श्रीकृष्ण और बलरामको न देखनेसे अत्यन्त दुखी हो रही थी। अब उन्हें आया हुआ देख सब-के-सब परमानन्द में मग्न हो गये, मानो खोया हुआ धन मिल गया हो ॥ ५० ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गुरुपुत्रानयनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




बुधवार, 19 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश

 

अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतुः

काश्यं सान्दीपनिं नाम ह्यवन्तिपुरवासिनम् ३१

यथोपसाद्य तौ दान्तौ गुरौ वृत्तिमनिन्दिताम्

ग्राहयन्तावुपेतौ स्म भक्त्या देवमिवादृतौ ३२

तयोर्द्विजवरस्तुष्टः शुद्धभावानुवृत्तिभिः

प्रोवाच वेदानखिलान् साङ्गोपनिषदो गुरुः ३३

सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान्न्यायपथांस्तथा

तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं च षड्विधाम् ३४

सर्वं नरवरश्रेष्ठौ सर्वविद्याप्रवर्तकौ

सकृन्निगदमात्रेण तौ सञ्जगृहतुर्नृप ३५

अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या संयत्तौ तावतीः कलाः

गुरुदक्षिणयाचार्यं छन्दयामासतुर्नृप ३६

द्विजस्तयोस्तं महिमानमद्भुतं

संलक्ष्य राजन्नतिमानुषीं मतिम्

सम्मन्त्र्य पत्न्या स महार्णवे मृतं

बालं प्रभासे वरयां बभूव ह ३७

तथेत्यथारुह्य महारथौ रथं

प्रभासमासाद्य दुरन्तविक्रमौ

वेलामुपव्रज्य निषीदतुः क्षणं

सिन्धुर्विदित्वार्हणमाहरत्तयोः ३८

तमाह भगवानाशु गुरुपुत्रः प्रदीयताम्

योऽसाविह त्वया ग्रस्तो बालको महतोर्मिणा ३९

 

अब वे दोनों गुरुकुलमें निवास करनेकी इच्छासे काश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनिके पास गये, जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे ॥ ३१ ॥ वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरुजीके पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुसंयत, अपनी चेष्टाओंको सर्वथा नियमित रखे हुए थे। गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरुकी उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिये, इसका आदर्श लोगोंके सामने रखते हुए बड़ी भक्तिसे इष्टदेवके समान उनकी सेवा करने लगे ॥ ३२ ॥ गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभावसे युक्त सेवासे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने दोनों भाइयोंको छहों अङ्ग और उपनिषदोंके सहित सम्पूर्ण वेदोंकी शिक्षा दी ॥ ३३ ॥ इनके सिवा मन्त्र और देवताओंके ज्ञानके साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि, वेदोंका तात्पर्य बतलानेवाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदिकी भी शिक्षा दी। साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध और आश्रयइन छ: भेदोंसे युक्त राजनीतिका भी अध्ययन कराया ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओंके प्रवर्तक हैं। इस समय केवल श्रेष्ठ मनुष्यका-सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने गुरुजीके केवल एक बार कहनेमात्रसे सारी विद्याएँ सीख लीं ॥ ३५ ॥ केवल चौसठ दिन-रातमें ही संयमीशिरोमणि दोनों भाइयोंने चौंसठों कलाओंका[*] ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार अध्ययन समाप्त होनेपर उन्होंने सान्दीपनि मुनिसे प्रार्थना की कि आपकी जो इच्छा हो, गुरु-दक्षिणा माँग लें॥ ३६ ॥ महाराज ! सान्दीपनि मुनिने उनकी अद्भुत महिमा और अलौकिक बुद्धिका अनुभव कर लिया था। इसलिये उन्होंने अपनी पत्नीसे सलाह करके यह गुरुदक्षिणा माँगी कि प्रभासक्षेत्रमें हमारा बालक समुद्रमें डूबकर मर गया था, उसे तुमलोग ला दो॥ ३७ ॥ बलरामजी और श्रीकृष्णका पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने बहुत अच्छाकहकर गुरुजीकी आज्ञा स्वीकार की और रथपर सवार होकर प्रभासक्षेत्रमें गये। वे समुद्रतटपर जाकर क्षणभर बैठे रहे। उस समय यह जानकर कि ये साक्षात् परमेश्वर हैं, अनेक प्रकारकी पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ ॥ ३८ ॥ भगवान्‌ ने समुद्रसे कहा—‘समुद्र! तुम यहाँ अपनी बड़ी-बड़ी तरङ्गोंसे हमारे जिस गुरुपुत्रको बहा ले गये थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो॥ ३९ ॥

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[*] चौंसठ कलाएँ ये हैं

१ गानविद्या, २ वाद्यभाँति-भाँतिके बाजे बजाना, ३ नृत्य, ४ नाट्य, ५ चित्रकारी, ६ बेल-बूटे बनाना, ७ चावल और पुष्पादिसे पूजाके उपहारकी रचना करना, ८ फूलोंकी सेज बनाना, ९ दाँत, वस्त्र और अङ्गोंको रँगना, १० मणियोंकी फर्श बनाना, ११ शय्या-रचना, १२ जलको बाँध देना, १३ विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना, १४ हार-माला आदि बनाना, १५ कान और चोटीके फूलोंके गहने बनाना, १६ कपड़े और गहने बनाना, १७ फूलोंके आभूषणोंसे शृङ्गार करना, १८ कानोंके पत्तोंकी रचना करना, १९ सुगन्धित वस्तुएँइत्र, तैल आदि बनाना, २० इन्द्रजालजादूगरी, २१ चाहे जैसा वेष धारण कर लेना, २२ हाथकी फुर्तीके काम, २३ तरह-तरहकी खानेकी वस्तुएँ बनाना, २४ तरह-तरहके पीनेके पदार्थ बनाना, २५ सूईका काम, २६ कठपुतली बनाना, नचाना, २७ पहेली, २८ प्रतिमा आदि बनाना, २९ कूटनीति, ३० ग्रन्थोंके पढ़ानेकी चातुरी, ३१ नाटक, आख्यायिका आदिकी रचना करना, ३२ समस्यापूर्ति करना, ३३ पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना, ३४ गलीचे, दरी आदि बनाना, ३५ बढ़ईकी कारीगरी, ३६ गृह आदि बनानेकी कारीगरी, ३७ सोने, चाँदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नोंकी परीक्षा, ३८ सोना-चाँदी आदि बना लेना, ३९ मणियोंके रंगको पहचानना, ४० खानोंकी पहचान, ४१ वृक्षोंकी चिकित्सा, ४२ भेड़ा मुर्गा, बटेर आदिको लड़ानेकी रीति, ४३ तोता-मैना आदिकी बोलियाँ बोलना, ४४ उच्चाटनकी विधि, ४५ केशोंकी सफाईका कौशल, ४६ मु_ीकी चीज या मनकी बात बता देना, ४७ म्लेच्छ-काव्योंका समझ लेना, ४८ विभिन्न देशोंकी भाषाका ज्ञान, ४९ शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्रोंके उत्तरमें शुभाशुभ बतलाना, ५० नाना प्रकारके मातृकायन्त्र बनाना, ५१ रत्नोंको नाना प्रकारके आकारोंमें काटना, ५२ सांकेतिक भाषा बनाना, ५३ मनमें कटकरचना करना, ५४ नयी-नयी बातें निकालना, ५५ छलसे काम निकालना, ५६ समस्त कोशोंका ज्ञान, ५७ समस्त छन्दोंका ज्ञान, ५८ वस्त्रोंको छिपाने या बदलनेकी विद्या, ५९ द्यूत क्रीड़ा, ६० दूरके मनुष्य या वस्तुओंका आकर्षण कर लेना, ६१ बालकोंके खेल, ६२ मन्त्रविद्या, ६३ विजय प्राप्त करानेवाली विद्या, ६४ वेताल आदिको वशमें रखनेकी विद्या।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश

 

अथ नन्दं समसाद्य भगवान्देवकीसुतः

सङ्कर्षणश्च राजेन्द्र परिष्वज्येदमूचतुः २०

पितर्युवाभ्यां स्निग्धाभ्यां पोषितौ लालितौ भृशम्

पित्रोरभ्यधिका प्रीतिरात्मजेष्वात्मनोऽपि हि २१

स पिता सा च जननी यौ पुष्णीतां स्वपुत्रवत्

शिशून्बन्धुभिरुत्सृष्टानकल्पैः पोषरक्षणे २२

यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्

ज्ञातीन्वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम् २३

एवं सान्त्वय्य भगवान्नन्दं सव्रजमच्युतः

वासोऽलङ्कारकुप्याद्यैरर्हयामास सादरम् २४

इत्युक्तस्तौ परिष्वज्य नन्दः प्रणयविह्वलः

पूरयन्नश्रुभिर्नेत्रे सह गोपैर्व्रजं ययौ २५

अथ शूरसुतो राजन्पुत्रयोः समकारयत्

पुरोधसा ब्राह्मणैश्च यथावद्द्विजसंस्कृतिम् २६

तेभ्योऽदाद्दक्षिणा गावो रुक्ममालाः स्वलङ्कृताः

स्वलङ्कृतेभ्यः सम्पूज्य सवत्साः क्षौममालिनीः २७

याः कृष्णरामजन्मर्क्षे मनोदत्ता महामतिः

ताश्चाददादनुस्मृत्य कंसेनाधर्मतो हृताः २८

ततश्च लब्धसंस्कारौ द्विजत्वं प्राप्य सुव्रतौ

गर्गाद्यदुकुलाचार्याद्गायत्रं व्रतमास्थितौ २९

प्रभवौ सर्वविद्यानां सर्वज्ञौ जगदीश्वरौ

नान्यसिद्धामलं ज्ञानं गूहमानौ नरेहितैः ३०

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! अब देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबाके पास आये और गले लगनेके बाद उनसे कहने लगे॥ २० ॥ पिताजी ! आपने और माँ यशोदाने बड़े स्नेह और दुलार से हमारा लालन-पालन किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि माता-पिता सन्तानपर अपने शरीर से भी अधिक स्नेह करते हैं ॥ २१ ॥ जिन्हें पालन-पोषण न कर सकनेके कारण स्वजन-सम्बन्धियों ने त्याग दिया है, उन बालकोंको जो लोग अपने पुत्रके समान लाड़-प्यारसे पालते हैं, वे ही वास्तवमें उनके माँ-बाप हैं ॥ २२ ॥ पिताजी ! अब आपलोग व्रजमें जाइये। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य-स्नेहके कारण आपलोगोंको बहुत दु:ख होगा। यहाँके सुहृद्- सम्बन्धियोंको सुखी करके हम आपलोगोंसे मिलनेके लिये आयेंगे॥ २३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियोंको इस प्रकार समझा-बुझाकर बड़े आदरके साथ वस्त्र, आभूषण और अनेक धातुओंके बने बरतन आदि देकर उनका सत्कार किया ॥ २४ ॥ भगवान्‌की बात सुनकर नन्दबाबाने प्रेमसे अधीर होकर दोनों भाइयोंको गले लगा लिया और फिर नेत्रोंमें आँसू भरकर गोपोंके साथ व्रजके लिये प्रस्थान किया ॥ २५ ॥

 

हे राजन् ! इसके बाद वसुदेवजीने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणोंसे दोनों पुत्रोंका विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोपवीत संस्कार करवाया ॥ २६ ॥ उन्होंने विविध प्रकारके वस्त्र और आभूषणोंसे ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हें बहुत-सी दक्षिणा तथा बछड़ोंवाली गौएँ दीं। सभी गौएँ गलेमें सोनेकी माला पहने हुए थीं तथा और भी बहुत-से आभूषणों एवं रेशमी वस्त्रोंकी मालाओंसे विभूषित थीं ॥ २७ ॥ महामति वसुदेवजीने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके जन्म- नक्षत्रमें जितनी गौएँ मन-ही-मन संकल्प करके दी थीं, उन्हें पहले कंसने अन्यायसे छीन लिया था। अब उनका स्मरण करके उन्होंने ब्राह्मणोंको वे फिरसे दीं ॥ २८ ॥ इस प्रकार यदुवंशके आचार्य गर्गजीसे संस्कार कराकर बलरामजी और भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्विजत्वको प्राप्त हुए। उनका ब्रह्मचर्यव्रत अखण्ड तो था ही, अब उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करनेके लिये उसे नियमत: स्वीकार किया ॥ २९ ॥ श्रीकृष्ण और बलराम जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। सर्वज्ञ हैं। सभी विद्याएँ उन्हींसे निकली हैं। उनका निर्मल ज्ञान स्वत:सिद्ध है। फिर भी उन्होंने मनुष्यकी-सी लीला करके उसे छिपा रखा था ॥ ३० ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




मंगलवार, 18 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश

 

श्रीशुक उवाच

इति मायामनुष्यस्य हरेर्विश्वात्मनो गिरा

मोहितावङ्कमारोप्य परिष्वज्यापतुर्मुदम् १०

सिञ्चन्तावश्रुधाराभिः स्नेहपाशेन चावृतौ

न किञ्चिदूचतू राजन्बाष्पकण्ठौ विमोहितौ ११

एवमाश्वास्य पितरौ भगवान्देवकीसुतः

मातामहं तूग्रसेनं यदूनामकरोन्नृपम् १२

आह चास्मान्महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि

ययातिशापाद्यदुभिर्नासितव्यं नृपासने १३

मयि भृत्य उपासीने भवतो विबुधादयः

बलिं हरन्त्यवनताः किमुतान्ये नराधिपाः १४

सर्वान्स्वान्ज्ञातिसम्बन्धान्दिग्भ्यः कंसभयाकुलान्

यदुवृष्ण्यन्धकमधु दाशार्हकुकुरादिकान् १५

सभाजितान्समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान्

न्यवासयत्स्वगेहेषु वित्तैः सन्तर्प्य विश्वकृत् १६

कृष्णसङ्कर्षणभुजैर्गुप्ता लब्धमनोरथाः

गृहेषु रेमिरे सिद्धाः कृष्णरामगतज्वराः १७

वीक्षन्तोऽहरहः प्रीता मुकुन्दवदनाम्बुजम्

नित्यं प्रमुदितं श्रीमत्सदयस्मितवीक्षणम् १८

तत्र प्रवयसोऽप्यासन्युवानोऽतिबलौजसः

पिबन्तोऽक्षैर्मुकुन्दस्य मुखाम्बुजसुधां मुहुः १९

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अपनी लीलासे मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्रीहरिकी इस वाणीसे मोहित हो देवकी-वसुदेवने उन्हें गोदमें उठा लिया और हृदयसे चिपकाकर परमानन्द प्राप्त किया ॥ १० ॥ राजन् ! वे स्नेह-पाशसे बँधकर पूर्णत: मोहित हो गये और आँसुओंकी धारासे उनका अभिषेक करने लगे। यहाँतक कि आँसुओंके कारण गला रुँध जानेसे वे कुछ बोल भी न सके ॥ ११ ॥

देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार अपने माता-पिताको सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेनको यदुवंशियोंका राजा बना दिया ॥ १२ ॥ और उनसे कहा—‘महाराज ! हम आपकी प्रजा हैं। आप हमलोगोंपर शासन कीजिये। राजा ययातिका शाप होनेके कारण यदुवंशी राजसिंहासनपर नहीं बैठ सकते; (परंतु मेरी ऐसी ही इच्छा है, इसलिये आपको कोई दोष न होगा।) ॥ १३ ॥ जब मैं सेवक बनकर आपकी सेवा करता रहूँगा, तब बड़े-बड़े देवता भी सिर झुकाकर आपको भेंट देंगे।दूसरे नरपतियोंके बारेमें तो कहना ही क्या है ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही सारे विश्वके विधाता हैं। उन्होंने, जो कंसके भयसे व्याकुल होकर इधर-उधर भाग गये थे, उन यदु, वृष्णि, अन्धक, मधु, दाशाहर् और कुकुर आदि वंशोंमें उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ़-ढूँढक़र बुलवाया। उन्हें घरसे बाहर रहनेमें बड़ा क्लेश उठाना पड़ा था। भगवान्‌ ने उनका सत्कार किया, सान्त्वना दी और उन्हें खूब धन-सम्पत्ति देकर तृप्त किया तथा अपने-अपने घरोंमें बसा दिया ॥ १५-१६ ॥ अब सारे-के-सारे यदुवंशी भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीके बाहुबलसे सुरक्षित थे। उनकी कृपासे उन्हें किसी प्रकारकी व्यथा नहीं थी, दु:ख नहीं था। उनके सारे मनोरथ सफल हो गये थे। वे कृतार्थ हो गये थे। अब वे अपने-अपने घरोंमें आनन्दसे विहार करने लगे ॥ १७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णका वदन आनन्दका सदन है। वह नित्य प्रफुल्लित, कभी न कुम्हलानेवाला कमल है। उसका सौन्दर्य अपार है। सदय हास और चितवन उसपर सदा नाचती रहती है। यदुवंशी दिन-प्रतिदिन उसका दर्शन करके आनन्दमग्र रहते ॥ १८ ॥ मथुराके वृद्ध पुरुष भी युवकोंके समान अत्यन्त बलवान् और उत्साही हो गये थे; क्योंकि वे अपने नेत्रोंके दोनोंसे बारंबार भगवान्‌ के मुखारविन्दका अमृतमय मकरन्द-रस पान करते रहते थे ॥ १९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश

 

श्रीशुक उवाच

पितरावुपलब्धार्थौ विदित्वा पुरुषोत्तमः

मा भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम् ॥१॥

उवाच पितरावेत्य साग्रजः सात्वर्षभः

प्रश्रयावनतः प्रीणन्नम्ब तातेति सादरम्

नास्मत्तो युवयोस्तात नित्योत्कण्ठितयोरपि

बाल्यपौगण्डकैशोराः पुत्राभ्यामभवन्क्वचित्

न लब्धो दैवहतयोर्वासो नौ भवदन्तिके

यां बालाः पितृगेहस्था विन्दन्ते लालिता मुदम्

सर्वार्थसम्भवो देहो जनितः पोषितो यतः

न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्त्यः शतायुषा

यस्तयोरात्मजः कल्प आत्मना च धनेन च

वृत्तिं न दद्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयन्ति हि

मातरं पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्

गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽबिभ्रच्छ्वसन्मृतः

तन्नावकल्पयोः कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसोः

मोघमेते व्यतिक्रान्ता दिवसा वामनर्चतोः

तत्क्षन्तुमर्हथस्तात मातर्नौ परतन्त्रयोः

अकुर्वतोर्वां शुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम्

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि माता-पिताको मेरे ऐश्वर्यका, मेरे भगवद्भाव का ज्ञान हो गया है, परंतु इन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, (इससे तो ये पुत्र-स्नेहका सुख नहीं पा सकेंगे—) ऐसा सोचकर उन्होंने उनपर अपनी वह योगमाया फैला दी, जो उनके स्वजनोंको मुग्ध रखकर उनकी लीलामें सहायक होती है ॥ १ ॥ यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ अपने माँ-बापके पास जाकर आदरपूर्वक और विनयसे झुककर मेरी अम्मा ! मेरे पिताजी !इन शब्दोंसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे॥ २ ॥ पिताजी ! माताजी ! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिये सर्वदा उत्कण्ठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौगण्ड और किशोरावस्थाका सुख हमसे नहीं पा सके ॥ ३ ॥ दुर्दैववश हमलोगोंको आपके पास रहनेका सौभाग्य ही नहीं मिला। इसीसे बालकोंको माता-पिताके घरमें रहकर जो लाड़-प्यारका सुख मिलता है, वह हमें भी नहीं मिल सका ॥ ४ ॥ पिता और माता ही इस शरीरको जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं। तब कहीं जाकर यह शरीर, धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षकी प्राप्तिका साधन बनता है। यदि कोई मनुष्य सौ वर्षतक जीकर माता और पिताकी सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकारसे उऋण नहीं हो सकता ॥ ५ ॥ जो पुत्र सामथ्र्य रहते भी अपने माँ-बापकी शरीर और धनसे सेवा नहीं करता, उसके मरनेपर यमदूत उसे उसके अपने शरीरका मांस खिलाते हैं ॥ ६ ॥ जो पुरुष समर्थ होकर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक, सन्तान, गुरु, ब्राह्मण और शरणागतका भरण-पोषण नहीं करतावह जीता हुआ भी मुर्देके समान ही है ! ॥ ७ ॥ पिताजी ! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गये। क्योंकि कंसके भयसे सदा उद्विग्रचित्त रहनेके कारण हम आपकी सेवा करनेमें असमर्थ रहे ॥ ८ ॥ मेरी माँ और मेरे पिताजी ! आप दोनों हमें क्षमा करें। हाय ! दुष्ट कंसने आपको इतने-इतने कष्ट दिये, परंतु हम परतन्त्र रहनेके कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा न कर सके॥ ९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...