सोमवार, 24 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

श्रीशुक उवाच

एवं प्रियतमादिष्टमाकर्ण्य व्रजयोषितः

ता ऊचुरुद्धवं प्रीतास्तत्सन्देशागतस्मृतीः ३८

 

गोप्य ऊचुः

दिष्ट्याहितो हतः कंसो यदूनां सानुगोऽघकृत्

दिष्ट्याप्तैर्लब्धसर्वार्थैः कुशल्यास्तेऽच्युतोऽधुना ३९

कच्चिद्गदाग्रजः सौम्य करोति पुरयोषिताम्

प्रीतिं नः स्निग्धसव्रीड हासोदारेक्षणार्चितः ४०

कथं रतिविशेषज्ञः प्रियश्च पुरयोषिताम्

नानुबध्येत तद्वाक्यैर्विभ्रमैश्चानुभाजितः ४१

अपि स्मरति नः साधो गोविन्दः प्रस्तुते क्वचित्

गोष्ठिमध्ये पुरस्त्रीणाम्ग्राम्याः स्वैरकथान्तरे ४२

ताः किं निशाः स्मरति यासु तदा प्रियाभिर्

वृन्दावने कुमुदकुन्दशशाङ्करम्ये

रेमे क्वणच्चरणनूपुररासगोष्ठ्याम्

अस्माभिरीडितमनोज्ञकथः कदाचित् ४३

अप्येष्यतीह दाशार्हस्तप्ताः स्वकृतया शुचा

सञ्जीवयन्नु नो गात्रैर्यथेन्द्रो वनमम्बुदैः ४४

कस्मात्कृष्ण इहायाति प्राप्तराज्यो हताहितः

नरेन्द्र कन्या उद्वाह्य प्रीतः सर्वसुहृद्वृतः ४५

किमस्माभिर्वनौकोभिरन्याभिर्वा महात्मनः

श्रीपतेराप्तकामस्य क्रियेतार्थः कृतात्मनः ४६

परं सौख्यं हि नैराश्यं स्वैरिण्यप्याह पिङ्गला

तज्जानतीनां नः कृष्णे तथाप्याशा दुरत्यया ४७

क उत्सहेत सन्त्यक्तुमुत्तमःश्लोकसंविदम्

अनिच्छतोऽपि यस्य श्रीरङ्गान्न च्यवते क्वचित् ४८

सरिच्छैलवनोद्देशा गावो वेणुरवा इमे

सङ्कर्षणसहायेन कृष्णेनाचरिताः प्रभो ४९

पुनः पुनः स्मारयन्ति नन्दगोपसुतं बत

श्रीनिकेतैस्तत्पदकैर्विस्मर्तुं नैव शक्नुमः ५०

गत्या ललितयोदार हासलीलावलोकनैः

माध्व्या गिरा हृतधियः कथं तं विस्मराम हे ५१

हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन

मग्नमुद्धर गोविन्द गोकुलं वृजिनार्णवात् ५२

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अपने प्रियतम श्रीकृष्णका यह संदेशा सुनकर गोपियोंको बड़ा आनन्द हुआ उनके संदेशसे उन्हें श्रीकृष्णके स्वरूप और एक-एक लीलाकी याद आने लगी। प्रेमसे भरकर उन्होंने उद्धवजीसे कहा ॥ ३८ ॥

 गोपियोंने कहाउद्धवजी ! यह बड़े सौभाग्यकी और आनन्दकी बात है कि यदुवंशियोंको सतानेवाला पापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। यह भी कम आनन्दकी बात नहीं है कि श्रीकृष्णके बन्धु-बान्धव और गुरुजनोंके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये तथा अब हमारे प्यारे श्यामसुन्दर उनके साथ सकुशल निवास कर रहे हैं ॥ ३९ ॥ किन्तु उद्धवजी ! एक बात आप हमें बतलाइये। जिस प्रकार हम अपनी प्रेमभरी लजीली मुसकान और उन्मुक्त चितवनसे उनकी पूजा करती थीं और वे भी हमसे प्यार करते थे, उसी प्रकार मथुराकी स्त्रियोंसे भी वे प्रेम करते हैं या नहीं?’ ॥ ४० ॥ तबतक दूसरी गोपी बोल उठी—‘अरी सखी ! हमारे प्यारे श्यामसुन्दर तो प्रेमकी मोहिनी कलाके विशेषज्ञ हैं। सभी श्रेष्ठ स्त्रियाँ उनसे प्यार करती हैं, फिर भला जब नगरकी स्त्रियाँ उनसे मीठी-मीठी बातें करेंगी और हाव-भावसे उनकी ओर देखेंगी तब वे उनपर क्यों न रीझेंगे ?’ ॥ ४१ ॥ दूसरी गोपियाँ बोलीं—‘साधो ! आप यह तो बतलाइये कि जब कभी नागरी नारियोंकी मण्डलीमें कोई बात चलती है और हमारे प्यारे स्वच्छन्दरूपसे, बिना किसी संकोचके जब प्रेमकी बातें करने लगते हैं, तब क्या कभी प्रसंगवश हम गँवार ग्वालिनोंकी भी याद करते हैं ?’ ॥ ४२ ॥ कुछ गोपियोंने कहा—‘उद्धवजी ! क्या कभी श्रीकृष्ण उन रात्रियोंका स्मरण करते हैं, जब कुमुदिनी तथा कुन्दके पुष्प खिले हुए थे, चारों ओर चाँदनी छिटक रही थी और वृन्दावन अत्यन्त रमणीय हो रहा था ! उन रात्रियोंमें ही उन्होंने रास-मण्डल बनाकर हमलोगोंके साथ नृत्य किया था। कितनी सुन्दर थी वह रास-लीला ! उस समय हमलोगोंके पैरोंके नूपुर रुनझुन-रुनझुन बज रहे थे। हम सब सखियाँ उन्हींकी सुन्दर-सुन्दर लीलाओंका गान कर रही थीं और वे हमारे साथ नाना प्रकारके विहार कर रहे थे॥ ४३ ॥ कुछ दूसरी गोपियाँ बोल उठीं—‘उद्धवजी ! हम सब तो उन्हींके विरहकी आगसे जल रही हैं। देवराज इन्द्र जैसे-जल बरसाकर वनको हरा-भरा कर देते हैं, उसी प्रकार क्या कभी श्रीकृष्ण भी अपने कर-स्पर्श आदिसे हमें जीवनदान देनेके लिये यहाँ आवेंगे ?’ ॥ ४४ ॥ तबतक एक गोपीने कहा—‘अरी सखी ! अब तो उन्होंने शत्रुओंको मारकर राज्य पा लिया है; जिसे देखो, वही उनका सुहृद् बना फिरता है। अब वे बड़े-बड़े नरपतियोंकी कुमारियोंसे विवाह करेंगे, उनके साथ आनन्दपूर्वक रहेंगे; यहाँ हम गँवारिनोंके पास क्यों आयेंगे ?’ ॥ ४५ ॥ दूसरी गोपीने कहा—‘नहीं सखी ! महात्मा श्रीकृष्ण तो स्वयं लक्ष्मीपति हैं। उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण ही हैं, वे कृतकृत्य हैं। हम वनवासिनी ग्वालिनों अथवा दूसरी राजकुमारियोंसे उनका कोई प्रयोजन नहीं है। हमलोगोंके बिना उनका कौन-सा काम अटक रहा है ॥ ४६ ॥ देखो वेश्या होनेपर भी पिङ्गलाने क्या ही ठीक कहा हैसंसारमें किसीकी आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है।यह बात हम जानती हैं, फिर भी हम भगवान्‌ श्रीकृष्णके लौटनेकी आशा छोडऩेमें असमर्थ हैं। उनके शुभागमनकी आशा ही तो हमारा जीवन है ॥ ४७ ॥ हमारे प्यारे श्यामसुन्दरने, जिनकी कीर्तिका गान बड़े-बड़े महात्मा करते रहते हैं, हमसे एकान्तमें जो मीठी-मीठी प्रेमकी बातें की हैं उन्हें छोडऩेका, भुलानेका उत्साह भी हम कैसे कर सकती हैं ? देखो तो, उनकी इच्छा न होनेपर भी स्वयं लक्ष्मीजी उनके चरणोंसे लिपटी रहती हैं, एक क्षणके लिये भी उनका अङ्ग- सङ्ग छोडक़र कहीं नहीं जातीं ॥ ४८ ॥ उद्धवजी ! यह वही नदी है, जिसमें वे विहार करते थे। यह वही पर्वत है, जिसके शिखरपर चढक़र वे बाँसुरी बजाते थे। ये वे ही वन हैं, जिनमें वे रात्रिके समय रासलीला करते थे और ये वे ही गौएँ हैं, जिनको चरानेके लिये वे सुबह-शाम हमलोगोंको देखते हुए जाते-आते थे। और यह ठीक वैसी ही वंशीकी तान हमारे कानोंमें गूँजती रहती है, जैसी वे अपने अधरोंके संयोगसे छेड़ा करते थे। बलरामजीके साथ श्रीकृष्णने इन सभीका सेवन किया है ॥ ४९ ॥ यहाँका एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलिकण उनके परम सुन्दर चरणकमलोंसे चिह्नित है। इन्हें जब-जब हम देखती हैं, सुनती हैंदिनभर यही तो करती रहती हैंतब-तब वे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर नन्दनन्दनको हमारे नेत्रोंके सामने लाकर रख देते हैं। उद्धवजी ! हम किसी भी प्रकार मरकर भी उन्हें भूल नहीं सकतीं ॥ ५० ॥ उनकी वह हंसकी-सी सुन्दर चाल, उन्मुक्त हास्य, विलासपूर्ण चितवन और मधुमयी वाणी ! आह ! उन सबने हमारा चित्त चुरा लिया है, हमारा मन हमारे वशमें नहीं है; अब हम उन्हें भूलें तो किस तरह ? ॥ ५१ ॥ हमारे प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम्हीं हमारे जीवनके स्वामी हो। सर्वस्व हो, प्यारे, तुम लक्ष्मीनाथ हो तो क्या हुआ ? हमारे लिये तो व्रजनाथ ही हो। हम व्रजगोपियोंके एकमात्र तुम्हीं सच्चे स्वामी हो। श्यामसुन्दर ! तुमने बार-बार हमारी व्यथा मिटायी है, हमारे संकट काटे हैं। गोविन्द ! तुम गौओंसे बहुत प्रेम करते हो। क्या हम गौएँ नहीं हैं ? तुम्हारा यह सारा गोकुल जिसमें ग्वालबाल, माता-पिता, गौएँ और हम गोपियाँ सब कोई हैंदु:खके अपार सागरमें डूब रहा है। तुम इसे बचाओ, आओ, हमारी रक्षा करो ॥ ५२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




रविवार, 23 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

श्रीशुक उवाच

अथोद्धवो निशम्यैवं कृष्णदर्शनलालसाः

सान्त्वयन्प्रियसन्देशैर्गोपीरिदमभाषत २२

 

श्रीउद्धव उवाच

अहो यूयं स्म पूर्णार्था भवत्यो लोकपूजिताः

वासुदेवे भगवति यासामित्यर्पितं मनः २३

दानव्रततपोहोम जपस्वाध्यायसंयमैः

श्रेयोभिर्विविधैश्चान्यैः कृष्णे भक्तिर्हि साध्यते २४

भगवत्युत्तमःश्लोके भवतीभिरनुत्तमा

भक्तिः प्रवर्तिता दिष्ट्या मुनीनामपि दुर्लभा २५

दिष्ट्या पुत्रान्पतीन्देहान्स्वजनान्भवनानि च

हित्वावृणीत यूयं यत्कृष्णाख्यं पुरुषं परम् २६

सर्वात्मभावोऽधिकृतो भवतीनामधोक्षजे

विरहेण महाभागा महान्मेऽनुग्रहः कृतः २७

श्रूयतां प्रियसन्देशो भवतीनां सुखावहः

यमादायागतो भद्रा अहं भर्तू रहस्करः २८

 

श्रीभगवानुवाच

भवतीनां वियोगो मे न हि सर्वात्मना क्वचित्

यथा भूतानि भूतेषु खं वाय्वग्निर्जलं मही

तथाहं च मनःप्राण भूतेन्द्रियगुणाश्रयः २९

आत्मन्येवात्मनात्मानं सृजे हन्म्यनुपालये

आत्ममायानुभावेन भूतेन्द्रियगुणात्मना ३०

आत्मा ज्ञानमयः शुद्धो व्यतिरिक्तोऽगुणान्वयः

सुषुप्तिस्वप्नजाग्रद्भिर्मायावृत्तिभिरीयते ३१

येनेन्द्रियार्थान्ध्यायेत मृषा स्वप्नवदुत्थितः

तन्निरुन्ध्यादिन्द्रियाणि विनिद्रः प्रत्यपद्यत ३२

एतदन्तः समाम्नायो योगः साङ्ख्यं मनीषिणाम्

त्यागस्तपो दमः सत्यं समुद्रान्ता इवापगाः ३३

यत्त्वहं भवतीनां वै दूरे वर्ते प्रियो दृशाम्

मनसः सन्निकर्षार्थं मदनुध्यानकाम्यया ३४

यथा दूरचरे प्रेष्ठे मन आविश्य वर्तते

स्त्रीणां च न तथा चेतः सन्निकृष्टेऽक्षिगोचरे ३५

मय्यावेश्य मनः कृत्स्नं विमुक्ताशेषवृत्ति यत्

अनुस्मरन्त्यो मां नित्यमचिरान्मामुपैष्यथ ३६

या मया क्रीडता रात्र्यां वनेऽस्मिन्व्रज आस्थिताः

अलब्धरासाः कल्याण्यो मापुर्मद्वीर्यचिन्तया ३७

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! गोपियाँ भगवान्‌ श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्सुकलालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं। उनकी बातें सुनकर उद्धवजी ने उन्हें उनके प्रियतम का सन्देश सुनाकर सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा ॥ २२ ॥

 

उद्धवजीने कहाअहो गोपियो ! तुम कृतकृत्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। देवियो ! तुम सारे संसारके लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुमलोगोंने इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपना हृदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है ॥ २३ ॥ दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याणके अन्य विविध साधनोंके द्वारा भगवान्‌की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है ॥ २४ ॥ यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुमलोगोंने पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसीका आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि- मुनियोंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ॥ २५ ॥ सचमुच यह कितने सौभाग्यकी बात है कि तुमने अपने पुत्र, पति, देह, स्वजन और घरोंको छोडक़र पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णको, जो सबके परम पति हैं, पतिके रूपमें वरण किया है ॥ २६ ॥ महाभाग्यवती गोपियो ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके वियोगसे तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्माके प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है, जो सभी वस्तुओंके रूपमें उनका दर्शन कराता है। तुमलोगोंका वह भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ, यह मेरे ऊपर तुम देवियोंकी बड़ी ही दया है ॥ २७ ॥ मैं अपने स्वामीका गुप्त काम करनेवाला दूत हूँ। तुम्हारे प्रियतम भगवान्‌ श्रीकृष्णने तुमलोगोंको परम सुख देनेके लिये यह प्रिय सन्देश भेजा है। कल्याणियो! वही लेकर मैं तुमलोगोंके पास आया हूँ, अब उसे सुनो ॥ २८ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा हैमैं सबका उपादान कारण होनेसे सबका आत्मा हूँ, सबमें अनुगत हूँ; इसलिये मुझसे कभी भी तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता। जैसे संसारके सभी भौतिक पदार्थोंमें आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वीये पाँचों भूत व्याप्त हैं, इन्हींसे सब वस्तुएँ बनी हैं, और यही उन वस्तुओंके रूपमें हैं ? वैसे ही मैं मन, प्राण, पञ्चभूत, इन्द्रिय और उनके विषयोंका आश्रय हूँ। वे मुझमें हैं, मैं उनमें हूँ और सच पूछो तो मैं ही उनके रूपमें प्रकट हो रहा हूँ ॥ २९ ॥ मैं ही अपनी मायाके द्वारा भूत, इन्द्रिय और उनके विषयोंके रूपमें होकर उनका आश्रय बन जाता हूँ तथा स्वयं निमित्त भी बनकर अपने-आपको ही रचता हूँ, पालता हूँ और समेट लेता हूँ ॥ ३० ॥ आत्मा माया और मायाके कार्योंसे पृथक् है। वह विशुद्ध ज्ञानस्वरूप, जड प्रकृति, अनेक जीव तथा अपने ही अवान्तर भेदोंसे रहित सर्वथा शुद्ध है। कोई भी गुण उसका स्पर्श नहीं कर पाते। मायाकी तीन वृत्तियाँ हैंसुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत्। इनके द्वारा वही अखण्ड, अनन्त बोधस्वरूप आत्मा कभी प्राज्ञ, तो कभी तैजस और कभी विश्वरूपसे प्रतीत होता है ॥ ३१ ॥ मनुष्यको चाहिये कि वह समझे कि स्वप्नमें दीखनेवाले पदार्थोंके समान ही जाग्रत् अवस्थामें इन्द्रियोंके विषय भी प्रतीत हो रहे हैं, वे मिथ्या हैं। इसीलिये उन विषयोंका चिन्तन करनेवाले मन और इन्द्रियोंको रोक ले और मानो सोकर उठा हो, इस प्रकार जगत्के स्वाप्निक विषयोंको त्यागकर मेरा साक्षात्कार करे ॥ ३२ ॥ जिस प्रकार सभी नदियाँ घूम-फिरकर समुद्रमें ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार मनस्वी पुरुषोंका वेदाभ्यास, योग-साधन, आत्मानात्म-विवेक, त्याग, तपस्या, इन्द्रियसंयम और सत्य आदि समस्त धर्म, मेरी प्राप्तिमें ही समाप्त होते हैं। सबका सच्चा फल है मेरा साक्षात्कार; क्योंकि वे सब मनको निरुद्ध करके मेरे पास पहुँचाते हैं ॥ ३३ ॥

 

गोपियो ! इसमें सन्देह नहीं कि मैं तुम्हारे नयनोंका ध्रुवतारा हूँ। तुम्हारा जीवन-सर्वस्व हूँ। किन्तु मैं जो तुमसे इतना दूर रहता हूँ, उसका कारण है। वह यही कि तुम निरन्तर मेरा ध्यान कर सको, शरीरसे दूर रहनेपर भी मनसे तुम मेरी सन्निधिका अनुभव करो, अपना मन मेरे पास रखो ॥ ३४ ॥ क्योंकि स्त्रियों और अन्यान्य प्रेमियोंका चित्त अपने परदेशी प्रियतममें जितना निश्चल भावसे लगा रहता है, उतना आँखोंके सामने, पास रहनेवाले प्रियतममें नहीं लगता ॥ ३५ ॥ अशेष वृत्तियोंसे रहित सम्पूर्ण मन मुझमें लगाकर जब तुमलोग मेरा अनुस्मरण करोगी, तब शीघ्र ही सदाके लिये मुझे प्राप्त हो जाओगी ॥ ३६ ॥ कल्याणियो ! जिस समय मैंने वृन्दावनमें शारदीय पूर्णिमाकी रात्रिमें रास-क्रीडा की थी उस समय जो गोपियाँ स्वजनोंके रोक लेनेसे व्रजमें ही रह गयींमेरे साथ रास-विहारमें सम्मिलित न हो सकीं, वे मेरी लीलाओंका स्मरण करनेसे ही मुझे प्राप्त हो गयी थीं। (तुम्हें भी मैं मिलूँगा अवश्य,निराश होनेकी कोई बात नहीं है ) ॥ ३७ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे लुब्धधर्मा

स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम्

बलिमपि बलिमत्त्वावेष्टयद्ध्वाङ्क्षवद्यस्

तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थः १७

यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट्

सकृददनविधूतद्वन्द्वधर्मा विनष्टाः

सपदि गृहकुटुम्बं दीनमुत्सृज्य दीना

बहव इह विहङ्गा भिक्षुचर्यां चरन्ति १८

वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः

कुलिकरुतमिवाज्ञाः कृष्णवध्वो हरिण्यः

ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीव्र

स्मररुज उपमन्त्रिन्भण्यतामन्यवार्ता १९

प्रियसख पुनरागाः प्रेयसा प्रेषितः किं

वरय किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेऽङ्ग

नयसि कथमिहास्मान्दुस्त्यजद्वन्द्वपार्श्वं

सततमुरसि सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते २०

अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनास्ते

स्मरति स पितृगेहान्सौम्य बन्धूंश्च गोपान्

क्वचिदपि स कथा नः किङ्करीणां गृणीते

भुजमगुरुसुगन्धं मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु २१

 

ऐ रे मधुप ! जब वे राम बने थे, तब उन्होंने कपिराज बालि को व्याध के समान छिपकर बड़ी निर्दयतासे मारा था। बेचारी शूर्पणखा कामवश उनके पास आयी थी, परंतु उन्होंने अपनी स्त्रीके वश होकर उस बेचारीके नाक-कान काट लिये और इस प्रकार उसे कुरूप कर दिया। ब्राह्मणके घर वामनके रूपमें जन्म लेकर उन्होंने क्या किया ? बलिने तो उनकी पूजा की, उनकी मुँहमाँगी वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण करके भी उसे वरुणपाशसे बाँधकर पातालमें डाल दिया। ठीक वैसे ही, जैसे कौआ बलि खाकर भी बलि देनेवालेको अपने अन्य साथियोंके साथ मिलकर घेर लेता है और परेशान करता है। अच्छा, तो अब जाने दे; हमें श्रीकृष्णसे क्या, किसी भी काली वस्तुके साथ मित्रतासे कोई प्रयोजन नहीं है। परंतु यदि तू यह कहे कि जब ऐसा है तब तुमलोग उनकी चर्चा क्यों करती हो ?’ तो भ्रमर ! हम सच कहती हैं, एक बार जिसे उसका चसका लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं सकता। ऐसी दशामें हम चाहनेपर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकतीं ॥ १७ ॥ श्रीकृष्णकी लीलारूप कर्णामृतके एक कणका भी जो रसास्वादन कर लेता है, उसके राग-द्वेष, सुख-दु:ख आदि सारे द्वन्द्व छूट जाते हैं। यहाँतक कि बहुत-से लोग तो अपनी दु:खमयदु:खसे सनी हुई घर-गृहस्थी छोडक़र अकिञ्चन हो जाते हैं, अपने पास कुछ भी संग्रह- परिग्रह नहीं रखते और पक्षियोंकी तरह चुन-चुनकरभीख माँगकर अपना पेट भरते हैं, दीन- दुनियासे जाते रहते हैं। फिर भी श्रीकृष्णकी लीलाकथा छोड़ नहीं पाते। वास्तवमें उसका रस, उसका चसका ऐसा ही है। यही दशा हमारी हो रही है ॥ १८ ॥ जैसे कृष्णसार मृगकी पत्नी भोली- भाली हरिनियाँ व्याधके सुमधुर गानका वश्विास कर लेती हैं और उसके जालमें फँसकर मारी जाती हैं, वैसे ही हम भोली-भाली गोपियाँ भी उस छलिया कृष्णकी कपटभरी मीठी-मीठी बातोंमें आकर उन्हें सत्यके समान मान बैठीं और उनके नखस्पर्शसे होनेवाली कामव्याधिका बार-बार अनुभव करती रहीं। इसलिये श्रीकृष्णके दूत भौंरे ! अब इस विषयमें तू और कुछ मत कह। तुझे कहना ही हो तो कोई दूसरी बात कह ॥ १९ ॥ हमारे प्रियतमके प्यारे सखा ! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो। अवश्य ही हमारे प्रियतमने मनानेके लिये तुम्हें भेजा होगा। प्रिय भ्रमर ! तुम सब प्रकारसे हमारे माननीय हो। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो माँग लो। अच्छा, तुम सच बताओ, क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है। हम तो उनके पास जा चुकी हैं। परंतु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर ! उनके साथउनके वक्ष:स्थलपर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा ॥ २० ॥ अच्छा, हमारे प्रियतमके प्यारे दूत मधुकर ! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान्‌ श्रीकृष्ण गुरुकुलसे लौटकर मधुपुरीमें अब सुखसे तो हैं न ? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँके घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालोंकी भी याद करते हैं ? और क्या हम दासियोंकी भी कोई बात कभी चलाते हैं ? प्यारे भ्रमर ! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगरके समान दिव्य सुगन्धसे युक्त भुजा हमारे सिरोंपर रखेंगे ? क्या हमारे जीवनमें कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ? ॥ २१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




शनिवार, 22 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

गोप्युवाच

मधुप कितवबन्धो मा स्पृशङ्घ्रिं सपत्न्याः

कुचविलुलितमालाकुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः

वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं

यदुसदसि विडम्ब्यं यस्य दूतस्त्वमीदृक् १२

सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं पाययित्वा

सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान्भवादृक्

परिचरति कथं तत्पादपद्मं नु पद्मा

ह्यपि बत हृतचेता ह्युत्तमःश्लोकजल्पैः १३

किमिह बहु षडङ्घ्रे गायसि त्वं यदूनाम्

अधिपतिमगृहाणामग्रतो नः पुराणम्

विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसङ्गः

क्षपितकुचरुजस्ते कल्पयन्तीष्टमिष्टाः १४

दिवि भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तद्दुरापाः

कपटरुचिरहासभ्रूविजृम्भस्य याः स्युः

चरणरज उपास्ते यस्य भूतिर्वयं का

अपि च कृपणपक्षे ह्युत्तमश्लोकशब्दः १५

विसृज शिरसि पादं वेद्म्यहं चाटुकारैर्

अनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात्

स्वकृत इह विसृष्टापत्यपत्यन्यलोका

व्यसृजदकृतचेताः किं नु सन्धेयमस्मिन् १६

 

गोपीने कहारे मधुप ! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी है। तू हमारे पैरोंको मत छू। झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर। हम देख रही हैं कि श्रीकृष्णकी जो वनमाला हमारी सौतोंके वक्ष:स्थलके स्पर्शसे मसली हुई है, उसका पीला-पीला कुङ्कुम तेरी मूछोंपर भी लगा हुआ है। तू स्वयं भी तो किसी कुसुमसे प्रेम नहीं करता, यहाँ-से-वहाँ उड़ा करता है। जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू ! मधुपति श्रीकृष्ण मथुराकी मानिनी नायिकाओंको मनाया करें, उनका वह कुङ्कुमरूप कृपा-प्रसाद, जो युदवंशियोंकी सभामें उपहास करनेयोग्य है, अपने ही पास रखें। उसे तेरे द्वारा यहाँ भेजनेकी क्या आवश्यकता है ? ॥ १२ ॥ जैसा तू काला है, वैसे ही वे भी हैं। तू भी पुष्पोंका रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले। उन्होंने हमें केवल एक बारहाँ, ऐसा ही लगता हैकेवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी और परम मादक अधरसुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियोंको छोडक़र वे यहाँसे चले गये। पता नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरणकमलोंकी सेवा कैसे करती रहती हैं ! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्णकी चिकनी-चुपड़ी बातोंमें आ गयी होंगी। चितचोरने उनका भी चित्त चुरा लिया होगा ॥ १३ ॥ अरे भ्रमर ! हम वनवासिनी हैं । हमारे तो घर-द्वार भी नहीं है। तू हमलोगोंके सामने यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्णका बहुत-सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब भला हमलोगोंको मनानेके लिये ही तो ? परंतु नहीं- नहीं, वे हमारे लिये कोई नये नहीं हैं। हमारे लिये तो जाने-पहचाने, बिलकुल पुराने हैं। तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी। तू जा, यहाँसे चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन श्रीकृष्णकी मधुपुरवासिनी सखियोंके सामने जाकर उनका गुणगान कर। वे नयी हैं, उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं; उनके हृदयकी पीड़ा उन्होंने मिटा दी है। वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी, तेरी चापलूसीसे प्रसन्न होकर तुझे मुँहमाँगी वस्तु देंगी ॥ १४ ॥ भौंरे ! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं, ऐसा तू क्यों कहता है ? उनकी कपटभरी मनोहर मुसकान और भौहोंके इशारेसे जो वशमें न हो जायँ, उनके पास दौड़ी न आवेंऐसी कौन-सी स्त्रियाँ हैं ? अरे अनजान ! स्वर्गमें, पातालमें और पृथ्वीमें ऐसी एक भी स्त्री नहीं है। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं लक्ष्मीजी भी उनके चरणरजकी सेवा किया करती हैं ! फिर हम श्रीकृष्णके लिये किस गिनतीमें हैं ? परंतु तू उनके पास जाकर कहना कि तुम्हारा नाम तो उत्तमश्लोकहै, अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्तिका गान करते हैं; परंतु इसकी सार्थकता तो इसीमें है कि तुम दीनोंपर दया करो। नहीं तो श्रीकृष्ण ! तुम्हारा उत्तमश्लोकनाम झूठा पड़ जाता है ॥ १५ ॥ अरे मधुकर ! देख, तू मेरे पैर पर सिर मत टेक। मैं जानती हूँ कि तू अनुनय-विनय करने में, क्षमा-याचना करने में बड़ा निपुण है। मालूम होता है तू श्रीकृष्ण से ही यही सीखकर आया है कि रूठे हुए को मनाने के लिये दूत कोसन्देशवाहक को कितनी चाटुकारिता करनी चाहिये। परंतु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलनेकी। देख, हमने श्रीकृष्णके लिये ही अपने पति, पुत्र और दूसरे लोगों को छोड़ दिया। परंतु उनमें तनिक भी कृतज्ञता नहीं। वे ऐसे निर्मोही निकले कि हमें छोडक़र चलते बने ! अब तू ही बता, ऐसे अकृतज्ञ के साथ हम क्या सन्धि करें ? क्या तू अब भी कहता है कि उनपर विश्वास करना चाहिये ? ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

श्रीशुक उवाच

तं वीक्ष्य कृषानुचरं व्रजस्त्रियः

प्रलम्बबाहुं नवकञ्जलोचनम्

पीताम्बरं पुष्करमालिनं लसन्

मुखारविन्दं परिमृष्टकुण्डलम्

सुविस्मिताः कोऽयमपीव्यदर्शनः

कुतश्च कस्याच्युतवेषभूषणः

इति स्म सर्वाः परिवव्रुरुत्सुकास्

तमुत्तमःश्लोकपदाम्बुजाश्रयम्

तं प्रश्रयेणावनताः सुसत्कृतं

सव्रीडहासेक्षणसूनृतादिभिः

रहस्यपृच्छन्नुपविष्टमासने

विज्ञाय सन्देशहरं रमापतेः

जानीमस्त्वां यदुपतेः पार्षदं समुपागतम्

भर्त्रेह प्रेषितः पित्रोर्भवान्प्रियचिकीर्षया

अन्यथा गोव्रजे तस्य स्मरणीयं न चक्ष्महे

स्नेहानुबन्धो बन्धूनां मुनेरपि सुदुस्त्यजः

अन्येष्वर्थकृता मैत्री यावदर्थविडम्बनम्

पुम्भिः स्त्रीषु कृता यद्वत्सुमनःस्विव षट्पदैः

निःस्वं त्यजन्ति गणिका अकल्पं नृपतिं प्रजाः

अधीतविद्या आचार्यमृत्विजो दत्तदक्षिणम्

खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चातिथयो गृहम्

दग्धं मृगास्तथारण्यं जारा भुक्त्वा रतां स्त्रियम्

इति गोप्यो हि गोविन्दे गतवाक्कायमानसाः

कृष्णदूते समायाते उद्धवे त्यक्तलौकिकाः

गायन्त्यः प्रीयकर्माणि रुदन्त्यश्च गतह्रियः

तस्य संस्मृत्य संस्मृत्य यानि कैशोरबाल्ययोः १०

काचिन्मधुकरं दृष्ट्वा ध्यायन्ती कृष्णसङ्गमम्

प्रियप्रस्थापितं दूतं कल्पयित्वेदमब्रवीत् ११

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! गोपियोंने देखा कि श्रीकृष्णके सेवक उद्धवजीकी आकृति और वेषभूषा श्रीकृष्णसे मिलती-जुलती है। घुटनोंतक लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, नूतन कमलदलके समान कोमल नेत्र हैं, शरीरपर पीताम्बर धारण किये हुए हैं, गलेमें कमलपुष्पोंकी माला है, कानोंमें मणिजटित कुण्डल झलक रहे हैं और मुखारविन्द अत्यन्त प्रफुल्लित है ॥ १ ॥ पवित्र मुसकानवाली गोपियोंने आपसमें कहा—‘यह पुरुष देखनेमें तो बहुत सुन्दर है। परंतु यह है कौन ? कहाँसे आया है ? किसका दूत है ? इसने श्रीकृष्ण-जैसी वेषभूषा क्यों धारण कर रखी है ?’ सब-की-सब गोपियाँ उनका परिचय प्राप्त करनेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो गयीं और उनमेंसे बहुत-सी पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंके आश्रित तथा उनके सेवक-सखा उद्धवजीको चारों ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं ॥ २ ॥ जब उन्हें मालूम हुआ कि ये तो रमारमण भगवान्‌ श्रीकृष्णका सन्देश लेकर आये हैं, तब उन्होंने विनयसे झुककर सलज्ज हास्य, चितवन और मधुर वाणी आदिसे उद्धवजीका अत्यन्त सत्कार किया तथा एकान्तमें आसनपर बैठाकर वे उनसे इस प्रकार कहने लगीं॥ ३ ॥ उद्धवजी ! हम जानती हैं कि आप यदुनाथके पार्षद हैं। उन्हींका संदेश लेकर यहाँ पधारे हैं। आपके स्वामीने अपने माता-पिताको सुख देनेके लिये आपको यहाँ भेजा है ॥ ४ ॥ अन्यथा हमें तो अब इस नन्दगाँवमेंगौओंके रहनेकी जगहमें उनके स्मरण करनेयोग्य कोई भी वस्तु दिखायी नहीं पड़ती; माता-पिता आदि सगे-सम्बन्धियोंका स्नेह-बन्धन तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी बड़ी कठिनाईसे छोड़ पाते हैं ॥ ५ ॥ दूसरोंके साथ जो प्रेम-सम्बन्धका स्वाँग किया जाता है, वह तो किसी-न-किसी स्वार्थके लिये ही होता है। भौरोंका पुष्पोंसे और पुरुषोंका स्त्रियोंसे ऐसा ही स्वार्थका प्रेम-सम्बन्ध होता है ॥ ६ ॥ जब वेश्या समझती है कि अब मेरे यहाँ आनेवालेके पास धन नहीं है, तब उसे वह धता बता देती है। जब प्रजा देखती है कि यह राजा हमारी रक्षा नहीं कर सकता, तब वह उसका साथ छोड़ देती है। अध्ययन समाप्त हो जानेपर कितने शिष्य अपने आचार्योंकी सेवा करते हैं ? यज्ञकी दक्षिणा मिली कि ऋत्विज्लोग चलते बने ॥ ७ ॥ जब वृक्षपर फल नहीं रहते, तब पक्षीगण वहाँसे बिना कुछ सोचे-विचारे उड़ जाते हैं। भोजन कर लेनेके बाद अतिथिलोग ही गृहस्थकी ओर कब देखते हैं ? वनमें आग लगी कि पशु भाग खड़े हुए। चाहे स्त्रीके हृदयमें कितना भी अनुराग हो, जार पुरुष अपना काम बना लेनेके बाद उलटकर भी तो नहीं देखता॥ ८ ॥ परीक्षित्‌ ! गोपियोंके मन, वाणी और शरीर श्रीकृष्णमें ही तल्लीन थे। जब भगवान्‌ श्रीकृष्णके दूत बनकर उद्धवजी व्रजमें आये, तब वे उनसे इस प्रकार कहते-कहते यह भूल ही गयीं कि कौन-सी बात किस तरह किसके सामने कहनी चाहिये। भगवान्‌ श्रीकृष्णने बचपनसे लेकर किशोर अवस्थातक जितनी भी लीलाएँ की थीं, उन सबकी याद कर-करके गोपियाँ उनका गान करने लगीं। वे आत्मविस्मृत होकर स्त्री-सुलभ लज्जाको भी भूल गयीं और फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ ९-१० ॥ एक गोपीको उस समय स्मरण हो रहा था भगवान्‌ श्रीकृष्णके मिलनकी लीलाका। उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा गुनगुना रहा है। उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्णने मनाने के लिये दूत भेजा हो। वह गोपी भौंरेसे इस प्रकार कहने लगी॥ ११ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

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