बुधवार, 30 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सतहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सतहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

शाल्व-उद्धार

 

एवं वदन्ति राजर्षे ऋषयः के च नान्विताः ।

 यत् स्ववाचो विरुध्येत नूनं ते न स्मरन्त्युत ॥ ३० ॥

 क्व शोकमोहौ स्नेहो वा भयं वा येऽज्ञसम्भवाः ।

 क्व चाखण्डितविज्ञान ज्ञानैश्वर्यस्त्वखण्डितः ॥ ३१ ॥

यत्पादसेवोर्जितयाऽऽत्मविद्यया

     हिन्वन्त्यनाद्यात्मविपर्ययग्रहम् ।

 लभन्त आत्मीयमनन्तमैश्वरं

     कुतो नु मोहः परमस्य सद्गतेः ॥ ३२ ॥

 तं शस्त्रपूगैः प्रहरन्तमोजसा

     शाल्वं शरैः शौरिरमोघविक्रमः ।

 विद्ध्वाच्छिनद्‌ वर्म धनुः शिरोमणिं

     सौभं च शत्रोर्गदया रुरोज ह ॥ ३३ ॥

 तत्कृष्णहस्तेरितया विचूर्णितं

     पपात तोये गदया सहस्रधा ।

 विसृज्य तद्‌ भूतलमास्थितो गदां

     उद्यम्य शाल्वोऽच्युतमभ्यगाद् द्रुतम् ॥ ३४ ॥

 आधावतः सगदं तस्य बाहुं

     भल्लेन छित्त्वाथ रथाङ्‌गमद्‌भुतम् ।

 वधाय शाल्वस्य लयार्कसन्निभं

     बिभ्रद् बभौ सार्क इवोदयाचलः ॥ ३५ ॥

 जहार तेनैव शिरः सकुण्डलं

     किरीटयुक्तं पुरुमायिनो हरिः ।

 वज्रेण वृत्रस्य यथा पुरन्दरो

     बभूव हाहेति वचस्तदा नृणाम् ॥ ३६ ॥

तस्मिन्निपतिते पापे सौभे च गदया हते ।

 नेदुर्दुन्दुभयो राजन् दिवि देवगणेरिताः ।

 सखीनां अपचितिं कुर्वन् दन्तवक्रो रुषाभ्यगात् ॥ ३७ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! इस प्रकारकी बात पूर्वापर का विचार न करनेवाले कोई-कोई ऋषि कहते हैं। अवश्य ही वे इस बातको भूल जाते हैं कि श्रीकृष्णके सम्बन्धमें ऐसा कहना उन्हींके वचनोंके विपरीत है ॥ ३० ॥ कहाँ अज्ञानियोंमें रहनेवाले शोक, मोह, स्नेह और भय; तथा कहाँ वे परिपूर्ण भगवान्‌ श्रीकृष्णजिनका ज्ञान, विज्ञान और ऐश्वर्य अखण्डित है, एकरस है। (भला, उनमें वैसे भावोंकी सम्भावना ही कहाँ है ?) ॥ ३१ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलों की सेवा करके आत्मविद्याका भलीभाँति सम्पादन करते हैं और उसके द्वारा शरीर आदिमें आत्मबुद्धिरूप अनादि अज्ञानको मिटा डालते हैं तथा आत्मसम्बन्धी अनन्त ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। उन संतोंके परम गतिस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णमें भला, मोह कैसे हो सकता है ? ॥ ३२ ॥

अब शाल्व भगवान्‌ श्रीकृष्णपर बड़े उत्साह और वेगसे शस्त्रोंकी वर्षा करने लगा था। अमोघशक्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी अपने बाणोंसे शाल्वको घायल कर दिया और उसके कवच, धनुष तथा सिरकी मणिको छिन्न-भिन्न कर दिया। साथ ही गदाकी चोटसे उसके विमानको भी जर्जर कर दिया ॥ ३३ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके हाथोंसे चलायी हुई गदासे वह विमान चूर-चूर होकर समुद्रमें गिर पड़ा। गिरनेके पहले ही शाल्व हाथमें गदा लेकर धरतीपर कूद पड़ा और सावधान होकर बड़े वेगसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ओर झपटा ॥ ३४ ॥ शाल्वको आक्रमण करते देख उन्होंने भालेसे गदाके साथ उसका हाथ काट गिराया। फिर उसे मार डालनेके लिये उन्होंने प्रलयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी और अत्यन्त अद्भुत सुदर्शन चक्र धारण कर लिया। उस समय उनकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो सूर्यके साथ उदयाचल शोभायमान हो ॥ ३५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने उस चक्रसे परम मायावी शाल्वका कुण्डल-किरीटसहित सिर धड़से अलग कर दिया; ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्रने वज्रसे वृत्रासुरका सिर काट डाला था। उस समय शाल्वके सैनिक अत्यन्त दु:खसे हाय-हायचिल्ला उठे ॥ ३६ ॥ परीक्षित्‌ ! जब पापी शाल्व मर गया और उसका विमान भी गदाके प्रहारसे चूर-चूर हो गया, तब देवतालोग आकाशमें दुन्दुभियाँ बजाने लगे। ठीक इसी समय दन्तवक्त्र अपने मित्र शिशुपाल आदिका बदला लेनेके लिये अत्यन्त क्रोधित होकर आ पहुँचा ॥ ३७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे सौभवधो नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७७ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सतहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सतहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

शाल्व-उद्धार

 

श्रीशुक उवाच -

स तूपस्पृश्य सलिलं दंशितो धृतकार्मुकः ।

 नय मां द्युमतः पार्श्वं वीरस्येत्याह सारथिम् ॥ १ ॥

 विधमन्तं स्वसैन्यानि द्युमन्तं रुक्मिणीसुतः ।

 प्रतिहत्य प्रत्यविध्यन् नाराचैरष्टभिः स्मयन् ॥ २ ॥

 चतुर्भिश्चतुरो वाहान् सूतमेकेन चाहनत् ।

 द्वावाभ्यं धनुश्च केतुं च शरेणान्येन वै शिरः ॥ ३ ॥

 गदसात्यकिसाम्बाद्या जघ्नुः सौभपतेर्बलम् ।

 पेतुः समुद्रे सौभेयाः सर्वे संछिन्नकन्धराः ॥ ४ ॥

 एवं यदूनां शाल्वानां निघ्नतामितरेतरम् ।

 युद्धं त्रिणवरात्रं तद् अभूत् तुमुलमुल्बणम् ॥ ५ ॥

 इन्द्रप्रस्थं गतः कृष्ण आहूतो धर्मसूनुना ।

 राजसूयेऽथ निवृत्ते शिशुपाले च संस्थिते ॥ ६ ॥

 कुरुवृद्धाननुज्ञाप्य मुनींश्च ससुतां पृथाम् ।

 निमित्तान्यतिघोराणि पश्यन् द्वावारवतीं ययौ ॥ ७ ॥

 आह चाहमिहायात आर्यमिश्राभिसङ्‌गतः ।

 राजन्याश्चैद्यपक्षीया नूनं हन्युः पुरीं मम ॥ ८ ॥

 वीक्ष्य तत्कदनं स्वानां निरूप्य पुररक्षणम् ।

 सौभं च शाल्वराजं च दारुकं प्राह केशवः ॥ ९ ॥

 रथं प्रापय मे सूत शाल्वस्यान्तिकमाशु वै ।

 सम्भ्रमस्ते न कर्तव्यो मायावी सौभराडयम् ॥ १० ॥

 इत्युक्तश्चोदयामास रथमास्थाय दारुकः ।

 विशन्तं ददृशुः सर्वे स्वे परे चारुणानुजम् ॥ ११ ॥

 शाल्वश्च कृष्णमालोक्य हतप्रायबलेश्वरः ।

 प्राहरत् कृष्णसूताय शक्तिं भीमरवां मृधे ॥ १२ ॥

 तामापतन्तीं नभसि महोल्कामिव रंहसा ।

 भासयन्तीं दिशः शौरिः सायकैः शतधाच्छिनत् ॥ १३ ॥

 तं च षोडशभिर्विद्ध्वा बाणैः सौभं च खे भ्रमत् ।

 अविध्यच्छरसन्दोहैः खं सूर्य इव रश्मिभिः ॥ १४ ॥

 शाल्वः शौरेस्तु दोः सव्यं शार्ङ्‌गं शार्ङ्‌गधन्वनः ।

 बिभेद न्यपतद् हस्तात् शार्ङ्‌गमासीत् तदद्‌भुतम् ॥ १५ ॥

 हाहाकारो महानासीद्‌ भूतानां तत्र पश्यताम् ।

 निनद्य सौभराडुच्चैः इदमाह जनार्दनम् ॥ १६ ॥

 यत्त्वया मूढ नः सख्युः भ्रातुर्भार्या हृतेक्षताम् ।

 प्रमत्तः स सभामध्ये त्वया व्यापादितः सखा ॥ १७ ॥

 तं त्वाद्य निशितैर्बाणैः अपराजितमानिनम् ।

 नयाम्यपुनरावृत्तिं यदि तिष्ठेर्ममाग्रतः ॥ १८ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

वृथा त्वं कत्थसे मन्द न पश्यस्यन्तिकेऽन्तकम् ।

 पौरुषं दर्शयन्ति स्म शूरा न बहुभाषिणः ॥ १९ ॥

 इत्युक्त्वा भगवान् शाल्वं गदया भीमवेगया ।

 तताड जत्रौ संरब्धः स चकम्पे वमन्नसृक् ॥ २० ॥

 गदायां सन्निवृत्तायां शाल्वस्त्वन्तरधीयत ।

 ततो मुहूर्त आगत्य पुरुषः शिरसाच्युतम् ।

 देवक्या प्रहितोऽस्मीति नत्वा प्राह वचो रुदन् ॥ २१ ॥

 कृष्ण कृष्ण महाबाहो पिता ते पितृवत्सल ।

 बद्ध्वापनीतः शाल्वेन सौनिकेन यथा पशुः ॥ २२ ॥

 निशम्य विप्रियं कृष्णो मानुषीं प्रकृतिं गतः ।

 विमनस्को घृणी स्नेहाद् बभाषे प्राकृतो यथा ॥ २३ ॥

 कथं राममसम्भ्रान्तं जित्वाजेयं सुरासुरैः ।

 शाल्वेनाल्पीयसा नीतः पिता मे बलवान् विधिः ॥ २४ ॥

 इति ब्रुवाणे गोविन्दे सौभराट् प्रत्युपस्थितः ।

 वसुदेवमिवानीय कृष्णं चेदमुवाच सः ॥ २५ ॥

 एष ते जनिता तातो यदर्थमिह जीवसि ।

 वधिष्ये वीक्षतस्तेऽमुं ईशश्चेत् पाहि बालिश ॥ २६ ॥

 एवं निर्भर्त्स्य मायावी खड्गेनानकदुन्दुभेः ।

 उत्कृत्य शिर आदाय खस्थं सौभं समाविशत् ॥ २७ ॥

ततो मुहूर्तं प्रकृतावुपप्लुतः

     स्वबोध आस्ते स्वजनानुषङ्‌गतः ।

 महानुभावस्तदबुध्यदासुरीं

     मायां स शाल्वप्रसृतां मयोदिताम् ॥ २८ ॥

 न तत्र दूतं न पितुः कलेवरं

     प्रबुद्ध आजौ समपश्यदच्युतः ।

 स्वाप्नं यथा चाम्बरचारिणं रिपुं

     सौभस्थमालोक्य निहन्तुमुद्यतः ॥ २९ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब प्रद्युम्नजी ने हाथ-मुँह धोकर, कवच पहन धनुष धारण किया और सारथिसे कहा कि मुझे वीर द्युमान् के पास फिर से ले चलो॥ १ ॥ उस समय द्युमान् यादवसेना को तहस-नहस कर रहा था। प्रद्युम्नजी ने उसके पास पहुँचकर उसे ऐसा करनेसे रोक दिया और मुसकराकर आठ बाण मारे ॥ २ ॥ चार बाणोंसे उसके चार घोड़े और एक-एक बाणसे सारथि, धनुष, ध्वजा और उसका सिर काट डाला ॥ ३ ॥ इधर गद, सात्यकि, साम्ब आदि यदुवंशी वीर भी शाल्वकी सेनाका संहार करने लगे। सौभ-विमानपर चढ़े हुए सैनिकोंकी गरदनें कट जातीं और वे समुद्रमें गिर पड़ते ॥ ४ ॥ इस प्रकार यदुवंशी और शाल्वके सैनिक एक-दूसरेपर प्रहार करते रहे। बड़ा ही घमासान और भयङ्कर युद्ध हुआ और वह लगातार सत्ताईस दिनोंतक चलता रहा ॥ ५ ॥

उन दिनों भगवान्‌ श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिरके बुलानेसे इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे। राजसूय यज्ञ हो चुका था और शिशुपालकी भी मृत्यु हो गयी थी ॥ ६ ॥ वहाँ भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि बड़े भयङ्कर अपशकुन हो रहे हैं। तब उन्होंने कुरुवंशके बड़े-बूढ़ों, ऋषि-मुनियों, कुन्ती और पाण्डवोंसे अनुमति लेकर द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ॥ ७ ॥ वे मन-ही-मन कहने लगे कि मैं पूज्य भाई बलरामजीके साथ यहाँ चला आया। अब शिशुपालके पक्षपाती क्षत्रिय अवश्य ही द्वारकापर आक्रमण कर रहे होंगे॥ ८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने द्वारकामें पहुँचकर देखा कि सचमुच यादवोंपर बड़ी विपत्ति आयी है। तब उन्होंने बलरामजीको नगरकी रक्षाके लिये नियुक्त कर दिया और सौभपति शाल्वको देखकर अपने सारथि दारुकसे कहा॥ ९ ॥ दारुक ! तुम शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ शाल्वके पास ले चलो। देखो, यह शाल्व बड़ा मायावी है, तो भी तुम तनिक भी भय न करना॥ १० ॥ भगवान्‌की ऐसी आज्ञा पाकर दारुक रथपर चढ़ गया और उसे शाल्वकी ओर ले चला । भगवान्‌के रथकी ध्वजा गरुड़चिह्नसे चिह्नित थी। उसे देखकर यदुवंशियों तथा शाल्वकी सेनाके लोगोंने युद्धभूमिमें प्रवेश करते ही भगवान्‌को पहचान लिया ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌ ! अबतक शाल्वकी सारी सेना प्राय: नष्ट हो चुकी थी। भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखते ही उसने उनके सारथिपर एक बहुत बड़ी शक्ति चलायी। वह शक्ति बड़ा भयङ्कर शब्द करती हुई आकाशमें बड़े वेगसे चल रही थी और बहुत बड़े लूकके समान जान पड़ती थी। उसके प्रकाशसे दिशाएँ चमक उठी थीं। उसे सारथिकी ओर आते देख भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने बाणोंसे उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये ॥ १२-१३ ॥ इसके बाद उन्होंने शाल्वको सोलह बाण मारे और उसके विमानको भी, जो आकाशमें घूम रहा था, असंख्य बाणोंसे चलनी कर दियाठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे आकाशको भर देता है ॥ १४ ॥ शाल्वने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी बायीं भुजामें, जिसमें शार्ङ्गधनुष शोभायमान था, बाण मारा, इससे शार्ङ्गधनुष भगवान्‌के हाथसे छूटकर गिर पड़ा। यह एक अद्भुत घटना घट गयी ॥ १५ ॥ जो लोग आकाश या पृथ्वीसे यह युद्ध देख रहे थे, वे बड़े जोरसे हाय-हायपुकार उठे। तब शाल्वने गरजकर भगवान्‌ श्रीकृष्णसे यों कहा॥ १६ ॥ मूढ़ ! तूने हमलोगोंके देखते-देखते हमारे भाई और सखा शिशुपालकी पत्नीको हर लिया तथा भरी सभामें, जब कि हमारा मित्र शिशुपाल असावधान था तूने उसे मार डाला ॥ १७ ॥ मैं जानता हूँ कि तू अपनेको अजेय मानता है। यदि मेरे सामने ठहर गया तो मैं आज तुझे अपने तीखे बाणोंसे वहाँ पहुँचा दूँगा, जहाँसे फिर कोई लौटकर नहीं आता॥ १८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘रे मन्द ! तू वृथा ही बहक रहा है। तुझे पता नहीं कि तेरे सिरपर मौत सवार है। शूरवीर व्यर्थकी बकवाद नहीं करते, वे अपनी वीरता ही दिखलाया करते हैं॥ १९ ॥ इस प्रकार कहकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने क्रोधित हो अपनी अत्यन्त वेगवती और भयङ्कर गदासे शाल्वके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह खून उगलता हुआ काँपने लगा ॥ २० ॥ इधर जब गदा भगवान्‌ के पास लौट आयी, तब शाल्व अन्तर्धान हो गया। इसके बाद दो घड़ी बीतते-बीतते एक मनुष्य ने भगवान्‌ के पास पहुँचकर उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और वह रोता हुआ बोला—‘मुझे आपकी माता देवकीजीने भेजा है ॥ २१ ॥ उन्होंने कहा है कि अपने पिताके प्रति अत्यन्त प्रेम रखनेवाले महाबाहु श्रीकृष्ण ! शाल्व तुम्हारे पिताको उसी प्रकार बाँधकर ले गया है, जैसे कोई कसाई पशुको बाँधकर ले जाय !॥ २२ ॥ यह अप्रिय समाचार सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण मनुष्य-से बन गये। उनके मुँहपर कुछ उदासी छा गयी। वे साधारण पुरुषके समान अत्यन्त करुणा और स्नेहसे कहने लगे॥ २३ ॥ अहो ! मेरे भाई बलरामजीको तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सकता। वे सदा-सर्वदा सावधान रहते हैं। शाल्वका बल-पौरुष तो अत्यन्त अल्प है। फिर भी इसने उन्हें कैसे जीत लिया और कैसे मेरे पिताजीको बाँधकर ले गया ? सचमुच, प्रारब्ध बहुत बलवान् है॥ २४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि शाल्व वसुदेवजीके समान एक मायारचित मनुष्य लेकर वहाँ आ पहुँचा और श्रीकृष्णसे कहने लगा॥ २५ ॥ मूर्ख ! देख, यही तुझे पैदा करनेवाला तेरा बाप है, जिसके लिये तू जी रहा है। तेरे देखते-देखते मैं इसका काम तमाम करता हूँ। कुछ बल-पौरुष हो, तो इसे बचा॥ २६ ॥ मायावी शाल्वने इस प्रकार भगवान्‌को फटकारकर मायारचित वसुदेवका सिर तलवारसे काट लिया और उसे लेकर अपने आकाशस्थ विमानपर जा बैठा ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयंसिद्ध ज्ञानस्वरूप और महानुभाव हैं। वे यह घटना देखकर दो घड़ीके लिये अपने स्वजन वसुदेवजीके प्रति अत्यन्त प्रेम होनेके कारण साधारण पुरुषोंके समान शोकमें डूब गये। परन्तु फिर वे जान गये कि यह तो शाल्वकी फैलायी हुई आसुरी माया ही है, जो उसे मयदानवने बतलायी थी ॥ २८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने युद्धभूमिमें सचेत होकर देखान वहाँ दूत है और न पिताका वह शरीर; जैसे स्वप्नमें एक दृश्य दीखकर लुप्त हो गया हो ! उधर देखा तो शाल्व विमानपर चढक़र आकाशमें विचर रहा है। तब वे उसका वध करनेके लिये उद्यत हो गये ॥२९॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



मंगलवार, 29 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

शाल्व के साथ यादवों का युद्ध

 

बहुरूपैकरूपं तद् दृश्यते न च दृश्यते ।

मायामयं मयकृतं दुर्विभाव्यं परैरभूत् ॥ २१ ॥

क्वचिद्‌भूमौ क्वचिद्‌ व्योम्नि गिरिमूर्ध्नि जले क्वचित् ।

अलातचक्रवद्‌ भ्राम्यत् सौभं तद् दुरवस्थितम् ॥ २२ ॥

यत्र यत्रोपलक्ष्येत ससौभः सहसैनिकः ।

शाल्वः ततस्ततोऽमुञ्चन् शरान् सात्वतयूथपाः ॥ २३ ॥

शरैरग्न्यर्कसंस्पर्शैः आशीविषदुरासदैः ।

पीड्यमानपुरानीकः शाल्वोऽमुह्यत् परेरितैः ॥ २४ ॥

शाल्वानीकपशस्त्रौघैः वृष्णिवीरा भृशार्दिताः ।

न तत्यजू रणं स्वं स्वं लोकद्वयजिगीषवः ॥ २५ ॥

शाल्वामात्यो द्युमान् नाम प्रद्युम्नं प्राक् प्रपीडितः ।

आसाद्य गदया मौर्व्या व्याहत्य व्यनदद् बली ॥ २६ ॥

प्रद्युम्नं गदया शीर्ण वक्षःस्थलमरिंदमम् ।

अपोवाह रणात् सूतो धर्मविद् दारुकात्मजः ॥ २७ ॥

लब्धसंज्ञो मुहूर्तेन कार्ष्णिः सारथिमब्रवीत् ।

अहो असाध्विदं सूत यद् रणान्मेऽपसर्पणम् ॥ २८ ॥

न यदूनां कुले जातः श्रूयते रणविच्युतः ।

विना मत्क्लीबचित्तेन सूतेन प्राप्तकिल्बिषात् ॥ २९ ॥

किं नु वक्ष्येऽभिसङ्‌गम्य पितरौ रामकेशवौ ।

युद्धात् सम्यगपक्रान्तः पृष्टस्तत्रात्मनः क्षमम् ॥ ३० ॥

व्यक्तं मे कथयिष्यन्ति हसन्त्यो भ्रातृजामयः ।

क्लैब्यं कथं कथं वीर तवान्यैः कथ्यतां मृधे ॥ ३१ ॥

 

सारथिरुवाच -

धर्मं विजानताऽऽयुष्मन् कृतमेतन्मया विभो ।

सूतः कृच्छ्रगतं रक्षेद् रथिनं सारथिं रथी ॥ ३२ ॥

एतद्‌ विदित्वा तु भवान् मयापोवाहितो रणात् ।

उपसृष्टः परेणेति मूर्च्छितो गदया हतः ॥ ३३ ॥

 

परीक्षित्‌ ! मय- दानव का बनाया हुआ शाल्वका वह विमान अत्यन्त मायामय था। वह इतना विचित्र था कि कभी अनेक रूपोंमें दीखता तो कभी एकरूपमें, कभी दीखता तो कभी न भी दीखता। यदुवंशियोंको इस बातका पता ही न चलता कि वह इस समय कहाँ है ॥ २१ ॥ वह कभी पृथ्वीपर आ जाता तो कभी आकाशमें उडऩे लगता। कभी पहाडक़ी चोटीपर चढ़ जाता, तो कभी जलमें तैरने लगता। वह अलात-चक्रके समानमानो कोई दुमुँही लुकारियोंकी बनेठी भाँज रहा होघूमता रहता था, एक क्षणके लिये भी कहीं ठहरता न था ॥ २२ ॥ शाल्व अपने विमान और सैनिकोंके साथ जहाँ-जहाँ दिखायी पड़ता, वहीं-वहीं यदुवंशी सेनापति बाणोंकी झड़ी लगा देते थे ॥ २३ ॥ उनके बाण सूर्य और अग्रिके समान जलते हुए तथा विषैले साँपकी तरह असह्य होते थे। उनसे शाल्वका नगराकार विमान और सेना अत्यन्त पीडि़त हो गयी, यहाँतक कि यदुवंशियोंके बाणोंसे शाल्व स्वयं मूर्च्छित हो गया ॥ २४ ॥

परीक्षित्‌ ! शाल्वके सेनापतियोंने भी यदुवंशियोंपर खूब शस्त्रोंकी वर्षा कर रखी थी, इससे वे अत्यन्त पीडि़त थे; परन्तु उन्होंने अपना-अपना मोर्चा छोड़ा नहीं। वे सोचते थे कि मरेंगे तो परलोक बनेगा और जीतेंगे तो विजयकी प्राप्ति होगी ॥ २५ ॥ परीक्षित्‌ ! शाल्व के मन्त्रीका नाम था द्युमान्, जिसे पहले प्रद्युम्नजी ने पचीस बाण मारे थे। वह बहुत बली था। उसने झपटकर प्रद्युम्नजी पर अपनी फौलादी गदासे बड़े जोरसे प्रहार किया और मार लिया, मार लियाकहकर गरजने लगा ॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! गदाकी चोटसे शत्रुदमन प्रद्युम्रजीका वक्ष:स्थल फट-सा गया। दारुकका पुत्र उनका रथ हाँक रहा था। वह सारथिधर्म के अनुसार उन्हें रणभूमिसे हटा ले गया ॥ २७ ॥ दो घड़ीमें प्रद्युम्नजी की मूर्छा टूटी। तब उन्होंने सारथिसे कहा—‘सारथे ! तूने यह बहुत बुरा किया। हाय, हाय ! तू मुझे रणभूमिसे हटा लाया ? ॥ २८ ॥ सूत ! हमने ऐसा कभी नहीं सुना कि हमारे वंशका कोई भी वीर कभी रणभूमि छोडक़र अलग हट गया हो ! यह कलङ्क का टीका तो केवल मेरे ही सिर लगा। सचमुच सूत ! तू कायर है, नपुंसक है ॥ २९ ॥ बतला तो सही, अब मैं अपने ताऊ बलरामजी और पिता श्रीकृष्णके सामने जाकर क्या कहूँगा ? अब तो सब लोग यही कहेंगे न, कि मैं युद्धसे भग गया ? उनके पूछनेपर मैं अपने अनुरूप क्या उत्तर दे सकूँगा ॥ ३० ॥ मेरी भाभियाँ हँसती हुई मुझसे साफ-साफ पूछेंगी कि कहो वीर ! तुम नपुंसक कैसे हो गये ? दूसरोंने युद्धमें तुम्हें नीचा कैसे दिखा दिया ? सूत ! अवश्य ही तुमने मुझे रणभूमिसे भगाकर अक्षम्य अपराध किया है !॥ ३१ ॥

सारथिने कहाआयुष्मन् ! मैंने जो कुछ किया है, सारथिका धर्म समझकर ही किया है। मेरे समर्थ स्वामी ! युद्धका ऐसा धर्म है कि सङ्कट पडऩेपर सारथि रथीकी रक्षा कर ले और रथी सारथिकी ॥ ३२ ॥ इस धर्मको समझते हुए ही मैंने आपको रणभूमिसे हटाया है। शत्रुने आपपर गदा का प्रहार किया था, जिससे आप मूर्च्छित हो गये थे, बड़े सङ्कटमें थे; इसीसे मुझे ऐसा करना पड़ा ॥ ३३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे शाल्वयुद्धे षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

शाल्व के साथ यादवों का युद्ध

 

श्रीशुक उवाच -

अथान्यदपि कृष्णस्य श्रृणु कर्माद्‌भुतं नृप ।

 क्रीडानरशरीरस्य यथा सौभपतिर्हतः ॥ १ ॥

 शिशुपालसखः शाल्वो रुक्मिण्युद्‌वाह आगतः ।

 यदुभिर्निर्जितः सङ्ख्ये जरासन्धादयस्तथा ॥ २ ॥

 शाल्वः प्रतिज्ञामकरोत् श्रृण्वतां सर्वभूभुजाम् ।

 अयादवां क्ष्मां करिष्ये पौरुषं मम पश्यत ॥ ३ ॥

 इति मूढः प्रतिज्ञाय देवं पशुपतिं प्रभुम् ।

 आराधयामास नृपः पांसुमुष्टिं सकृद् ग्रसन् ॥ ४ ॥

 संवत्सरान्ते भगवान् आशुतोष उमापतिः ।

 वरेण च्छन्दयामास शाल्वं शरणमागतम् ॥ ५ ॥

 देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् ।

 अभेद्यं कामगं वव्रे स यानं वृष्णिभीषणम् ॥ ६ ॥

 तथेति गिरिशादिष्टो मयः परपुरंजयः ।

 पुरं निर्माय शाल्वाय प्रादात् सौभमयस्मयम् ॥ ७ ॥

 स लब्ध्वा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम् ।

 ययस्द्‌वारवतीं शाल्वो वैरं वृष्णिकृतं स्मरन् ॥ ८ ॥

 निरुध्य सेनया शाल्वो महत्या भरतर्षभ ।

 पुरीं बभञ्जोपवनान् उद्यानानि च सर्वशः ॥ ९ ॥

 सगोपुराणि द्वाराणि प्रासादाट्टालतोलिकाः ।

 विहारान् स विमानाग्र्यान् निपेतुः शस्त्रवृष्टयः ॥ १० ॥

 शिला द्रुमाश्चाशनयः सर्पा आसारशर्कराः ।

 प्रचण्डश्चक्रवातोऽभूत् रजसाच्छादिता दिशः ॥ ११ ॥

 इत्यर्द्यमाना सौभेन कृष्णस्य नगरी भृशम् ।

 नाभ्यपद्यत शं राजन् त्रिपुरेण यथा मही ॥ १२ ॥

 प्रद्युम्नो भगवान् वीक्ष्य बाध्यमाना निजाः प्रजाः ।

 म भैष्टेत्यभ्यधाद्‌ वीरो रथारूढो महायशाः ॥ १३ ॥

 सात्यकिश्चारुदेष्णश्च साम्बोऽक्रूरः सहानुजः ।

 हार्दिक्यो भानुविन्दश्च गदश्च शुकसारणौ ॥ १४ ॥

 अपरे च महेष्वासा रथयूथपयूथपाः ।

 निर्ययुर्दंशिता गुप्ता रथेभाश्वपदातिभिः ॥ १५ ॥

 ततः प्रववृते युद्धं शाल्वानां यदुभिः सह ।

 यथासुराणां विबुधैः तुमुलं लोमहर्षणम् ॥ १६ ॥

 ताश्च सौभपतेर्माया दिव्यास्त्रै रुक्मिणीसुतः ।

 क्षणेन नाशयामास नैशं तम इवोष्णगुः ॥ १७ ॥

 विव्याध पञ्चविंशत्या स्वर्णपुङ्खैरयोमुखैः ।

 शाल्वस्य ध्वजिनीपालं शरैः सन्नतपर्वभिः ॥ १८ ॥

 शतेनाताडयच्छाल्वं एकैकेनास्य सैनिकान् ।

 दशभिर्दशभिर्नेतॄन् वाहनानि त्रिभिस्त्रिभिः ॥ १९ ॥

 तदद्‌भुतं महत् कर्म प्रद्युम्नस्य महात्मनः ।

 दृष्ट्वा तं पूजयामासुः सर्वे स्वपरसैनिकाः ॥ २० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब मनुष्यकी-सी लीला करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णका एक और भी अद्भुत चरित्र सुनो। इसमें यह बताया जायगा कि सौभनामक विमानका अधिपति शाल्व किस प्रकार भगवान्‌ के हाथसे मारा गया ॥ १ ॥ शाल्व शिशुपालका सखा था और रुक्मिणीके विवाहके अवसरपर बारातमें शिशुपालकी ओरसे आया हुआ था। उस समय यदुवंशियोंने युद्धमें जरासन्ध आदिके साथ-साथ शाल्वको भी जीत लिया था ॥ २ ॥ उस दिन सब राजाओंके सामने शाल्वने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं पृथ्वीसे यदुवंशियोंको मिटाकर छोडूँगा, सब लोग मेरा बल-पौरुष देखना॥ ३ ॥ परीक्षित्‌ ! मूढ़ शाल्वने इस प्रकार प्रतिज्ञा करके देवाधिदेव भगवान्‌ पशुपतिकी आराधना प्रारम्भ की। वह उन दिनों दिनमें केवल एक बार मुट्ठीभर राख फाँक लिया करता था ॥ ४ ॥ यों तो पार्वतीपति भगवान्‌ शङ्कर आशुतोष हैं, औढरदानी हैं, फिर भी वे शाल्वका घोर सङ्कल्प जानकर एक वर्षके बाद प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने शरणागत शाल्वसे वर माँगनेके लिये कहा ॥ ५ ॥ उस समय शाल्वने यह वर माँगा, कि मुझे आप एक ऐसा विमान दीजिये, जो देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंसे तोड़ा न जा सके; जहाँ इच्छा हो, वहीं चला जाय और यदुवंशियोंके लिये अत्यन्त भयङ्कर हो॥ ६ ॥ भगवान्‌ शङ्कर ने कह दिया तथास्तु !इसके बाद उनकी आज्ञासे विपक्षियोंके नगर जीतनेवाले मयदानव ने लोहे का सौभनामक विमान बनाया और शाल्वको दे दिया ॥ ७ ॥ वह विमान क्या था एक नगर ही था। वह इतना अन्धकारमय था कि उसे देखना या पकडऩा अत्यन्त कठिन था। चलानेवाला उसे जहाँ ले जाना चाहता, वहीं वह उसके इच्छा करते ही चला जाता था। शाल्वने वह विमान प्राप्त करके द्वारकापर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह वृष्णिवंशी यादवोंद्वारा किये हुए वैरको सदा स्मरण रखता था ॥ ८ ॥

परीक्षित्‌ ! शाल्व ने अपनी बहुत बड़ी सेनासे द्वारका को चारों ओरसे घेर लिया और फिर उसके फल-फूलसे लदे हुए उपवन और उद्यानों को उजाडऩे और नगरद्वारों, फाटकों, राजमहलों, अटारियों, दीवारों और नागरिकों के मनोविनो दके स्थानोंको नष्ट-भ्रष्ट करने लगा। उस श्रेष्ठ विमानसे शस्त्रोंकी झड़ी लग गयी ॥ ९-१० ॥ बड़ी-बड़ी चट्टानें, वृक्ष, वज्र, सर्प और ओले बरसने लगे। बड़े जोरका बवंडर उठ खड़ा हुआ। चारों ओर धूल-ही-धूल छा गयी ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌ ! प्राचीनकालमें जैसे त्रिपुरासुरने सारी पृथ्वीको पीडि़त कर रखा था, वैसे ही शाल्वके विमानने द्वारकापुरीको अत्यन्त पीडि़त कर दिया। वहाँके नर-नारियोंको कहीं एक क्षणके लिये भी शान्ति न मिलती थी ॥ १२ ॥ परमयशस्वी वीर भगवान्‌ प्रद्युम्न ने देखाहमारी प्रजाको बड़ा कष्ट हो रहा है, तब उन्होंने रथपर सवार होकर सबको ढाढ़स बँधाया और कहा कि डरो मत॥ १३ ॥ उनके पीछे-पीछे सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, भाइयोंके साथ अक्रूर, कृतवर्मा, भानुविन्द, गद, शुक, सारण आदि बहुत-से वीर बड़े-बड़े धनुष धारण करके निकले। ये सब-के-सब महारथी थे। सबने कवच पहन रखे थे और सबकी रक्षाके लिये बहुत-से रथ, हाथी घोड़े तथा पैदल सेना साथ-साथ चल रही थी ॥ १४-१५ ॥ इसके बाद प्राचीन कालमें जैसे देवताओं के साथ असुरोंका घमासान युद्ध हुआ था, वैसे ही शाल्व के सैनिकों और यदुवंशियों का युद्ध होने लगा। उसे देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे ॥ १६ ॥ प्रद्युम्नजी ने अपने दिव्य अस्त्रों से क्षणभर में ही सौभपति शाल्व की सारी माया काट डाली; ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अपनी प्रखर किरणों से  रात्रि   का अन्धकार मिटा देते हैं ॥ १७ ॥ प्रद्युम्न जी के बाणोंमें सोने के पंख एवं लोहेके फल लगे हुए थे। उनकी गाँठें जान नहीं पड़ती थीं। उन्होंने ऐसे ही पचीस बाणोंसे शाल्वके सेनापतिको घायल कर दिया ॥ १८ ॥ परममनस्वी प्रद्युम्नजी ने सेनापति के साथ ही शाल्व को भी सौ बाण मारे, फिर प्रत्येक सैनिक को एक-एक और सारथियों को दस-दस तथा वाहनों को तीन-तीन बाणोंसे घायल किया ॥ १९ ॥ महामना प्रद्युम्न जी के इस अद्भुत और महान् कर्म को देखकर अपने एवं परायेसभी सैनिक उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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