श्री परमात्मने नम:
इसमें कोई सन्देह नहीं कि धर्म
का पागलपन उन्नति में बाधक होता है परन्तु अन्धश्रद्धा उससे भी भयानक है । ईसाईयों को प्रार्थना के लिये गिरजे की क्या आवश्यकता है ? क्रास के चिन्ह में पवित्रता कहां से आगयी ? प्रार्थना करते समय आंखें क्यों मूंद लेनी चाहिये ? परमेश्वर के गुणोंका वर्णन करते समय ‘प्राटेष्टण्ट’ ईसाई मूर्तियों की कल्पना क्यों करते हैं? ‘कैथलिक’ मत माननेवालों को मूर्तियों की क्यों आवश्यकता हुई ? बन्धुओं ! बात यह है कि जैसे श्वासोच्छ्वास के बिना जीना सम्भव नहीं, वैसे ही गुणों की किसी तरह की मनोमयी मूर्ति बनाये बिना उनका चिन्तन होना भी असम्भव है। हमें सभी को कभी यह अनुभव नहीं हो सकता कि हमारा चित्त निराकार में लीन हो गय़ा है, क्योंकि हमें जड़विषय और गुणों की मिश्र अवस्था में देखनेका अभ्यास पड़ गया है। गुणोंके बिना जड़ विषय और जड़ विषयों के बिना गुणों का चिन्तन नहीं किया जा सकता, इसी तत्त्व को समझकर हिन्दुओं ने गुणों का मूर्तिमय दृश्य स्वरूप बनाया है। हमारी मूर्तियां हमें ईश्वर के गुणों का स्मरण कराने वाले चिन्हमात्र हैं। चित्तकी चञ्चलता मिटकर वह सद्गुणों की मूर्ति परमात्मा में तल्लीन हो जाय, इसीलिये मूर्तियां बनीं हैं। हिन्दु इस बातको जानते हैं कि पत्थरकी मूर्ति ईश्वर नहीं है, वे उसमें ईश्वर की भावना करते हैं । इसीसे वे पेड़, पत्ती, अग्नि, जल, पत्थर आदि समस्त दृश्य पदार्थों की पूजा किया करते हैं, वे पत्थर को नहीं पूजते, ईश्वरको पूजते हैं । आप मुखसे कहते हैं ‘हे परमात्मन् ! तुम सर्वव्यापी हो ।’ परन्तु क्या आपने कभी इस बात का सचमुच अनुभव किया है ? प्रार्थना करते समय आपके हृदय में क्या आकाश का अनन्त विस्तार या समुद्र की विशालता नहीं झलकती ? यही ‘सर्वव्यापी’ परमात्मा का दृश्यस्वरूप है ।
मूर्तिपूजा में मनुष्यस्वभाव के विरुद्ध क्या है ? हमारे मन की रचना ही इसप्रकार की है कि वह किसी दृश्य पदार्थ की सहायताके बिना केवल गुणोंका चिन्तन नहीं कर सकता। मस्जिद, गिरजा, क्रास, अग्नि, आकाश, समुद्र, आदि सभी दृश्यपदार्थ हैं, यदि हिदुओं ने इनकी जगह मूर्ति की सहज कल्पना कर ली तो क्या बुरा किया ? निराकार की स्तुति करने वाले लोग मूर्तिपूजकों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, परन्तु उन्हें इस कल्पना का पता ही नहीं है कि मनुष्य भी ईश्वर हो सकता है। वे बेचारे चार दीवारों की कोठरी में बन्द हैं। अड़ोसी पड़ोसियों की सहायता करनेसे आगे अधिक दूरतक उनकी दृष्टि नहीं जाती ।
( लेखक: स्वामी विवेकानन्द )
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..........००३. ०८. फाल्गुन कृ० ११ सं० १९८५. कल्याण (पृ०७५७)