नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
संयताश्च
हि दक्षाश्च मतिमन्तश्च मानवाः ।
दृश्यन्ते
निष्फलाः सन्तः प्रहीणाः सर्वकर्मभिः ॥ १० ॥
बड़े-बड़े
संयमी,
बुद्धिमान् और चतुर मनुष्य भी समस्त कर्मोंसे श्रान्त होकर असफल होते देखे जाते हैं ॥ १० ॥
अपरे
बालिशाः सन्तो निर्गुणाः पुरुषाधमाः ।
आशीर्भिरप्यसंयुक्ता
दृश्यन्ते सर्वकामिनः ॥ ११ ॥
किंतु दूसरे
मूर्ख,
गुणहीन और अधम मनुष्य भी किसी का आशीर्वाद न मिलने पर भी सम्पूर्ण
कामनाओं से सम्पन्न दिखायी देते हैं ॥ ११ ॥
भूतानामपरः
कश्चिद्धिंसायां सततोत्थितः ।
वञ्चनायां
च लोकस्य स सुखेष्वेव जीर्यते ॥ १२ ॥
कोई-कोई
मनुष्य तो सदा प्राणियोंकी हिंसामें ही लगा रहता है और सब लोगोंको धोखा दिया करता
है तो भी वह सुख ही भोगते-भोगते बूढ़ा होता है ॥ १२ ॥
अचेष्टमानमासीनं
श्रीः कञ्चिदुपतिष्ठते ।
कश्चित्
कर्मानुसृत्यान्यो न प्राप्यमधिगच्छति ॥ १३॥
कितने ही ऐसे
हैं,
जो कोई काम न करके चुपचाप बैठे रहते हैं, फिर
भी लक्ष्मी उनके पास अपने-आप पहुँच जाती है और कुछ लोग काम करके भी अपनी प्राप्य
वस्तु को उपलब्ध नहीं कर पाते ॥ १३॥
अपराधं
समाचक्ष्व पुरुषस्य स्वभावतः ।
शुक्रमन्यत्र
सम्भूतं पुनरन्यत्र गच्छति ॥ १४ ॥
इसमें
स्वभावतः पुरुष का ही अपराध (प्रारब्ध - दोष) समझो । वीर्य अन्यत्र उत्पन्न होता
है और सन्तानोत्पादन के लिये अन्यत्र जाता है ॥ १४ ॥
तस्य
योनौ प्रयुक्तस्य गर्भो भवति वा न वा ।
आम्रपुष्पोपमा
यस्य निवृत्तिरुपलभ्यते ॥ १५ ॥
कभी तो वह
योनिमें पहुँचकर गर्भ धारण कराने में समर्थ होता है और कभी नहीं होता तथा कभी-कभी
आम के बौर के समान वह व्यर्थ ही झर जाता है ॥ १५ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से