नारदजी
का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य-
लोक में जाने का निश्चय
न
ह्येष क्षयतां याति सोमः सुरगणैर्यथा ।
कम्पितः
पतते भूमिं पुनश्चैवाधिरोहति ॥ ५४॥
देवता लोग
चन्द्रमा का अमृत पीकर जिस प्रकार उसे क्षीण कर देते हैं, उस प्रकार सूर्यदेव का क्षय नहीं होता । धूममार्ग से चन्द्रमण्डल में गया
हुआ जीव कर्मभोग समाप्त होनेपर कम्पित हो फिर इस पृथ्वीपर गिर पड़ता है। इसी
प्रकार नूतन कर्मफल भोगने के लिये वह पुनः चन्द्रलोक में जाता है ( सारांश यह कि
चन्द्रलोकमें जानेवालेको आवागमनसे छुटकारा नहीं मिलता है ) ॥ ५४ ॥
क्षीयते
हि सदा सोमः पुनश्चैवाभिपूर्यते ।
नेच्छाम्येवं
विदित्वैते ह्रासवृद्धी पुनः पुनः ॥ ५५ ॥
इसके सिवा
चन्द्रमा सदा घटता-बढ़ता रहता है । उसकी हास- वृद्धिका क्रम कभी टूटता नहीं है ।
इन सब बातोंको जानकर मुझे चन्द्र- लोकमें जाने या ह्रास-वृद्धिके चक्करमें पड़नेकी
इच्छा नहीं होती है ॥ ५५ ॥
रविस्तु
सन्तापयते लोकान् रश्मिभिरुल्बणैः ।
सर्वतस्तेज
आदत्ते नित्यमक्षयमण्डलः॥५६॥
सूर्यदेव
अपनी प्रचण्ड किरणों से समस्त जगत् को सन्तप्त करते हैं । वे सब जगहसे तेज को
स्वयं ग्रहण करते हैं (उनके तेजका कभी ह्रास नहीं होता); इसलिये उनका मण्डल सदा अक्षय बना रहता है ॥ ५६ ॥
अतो
मे रोचते गन्तुमादित्यं दीप्ततेजसम् ।
अत्र
वत्स्यामि दुर्धर्षो निःशङ्केनान्तरात्मना ॥ ५७ ॥
अतः उद्दीप्त
तेजवाले आदित्यमण्डलमें जाना ही मुझे अच्छा जान पड़ता है। इसमें मैं निर्भीकचित्त
होकर निवास करूँगा । किसीके लिये भी मेरा पराभव करना कठिन होगा ॥ ५७ ॥
सूर्यस्य
सदने चाहं निक्षिप्येदं कलेवरम् ।
ऋषिभिः
सह यास्यामि सौरं तेजोऽतिदुःसहम् ॥ ५८
॥ इस शरीरको
सूर्यलोकमें छोड़कर मैं ऋषियोंके साथ सूर्यदेवके अत्यन्त दुःसह तेजमें प्रवेश कर
जाऊँगा ॥ ५८ ॥
आपृच्छामि
नगान् नागान् गिरिमुर्वी दिशो दिवम् ।
देवदानवगन्धर्वान्
पिशाचोरगराक्षसान् ॥ ५९ ॥
इसके लिये
मैं नग-नाग,
पर्वत, पृथ्वी, दिशा,
द्युलोक, देव, दानव,
गन्धर्व, पिशाच, सर्प और
राक्षसों से आज्ञा माँगता हूँ ॥ ५९ ॥
लोकेषु
सर्वभूतानि प्रवेक्ष्यामि न संशयः ।
पश्यन्तु
योगवीर्यं मे सर्वे देवाः सहर्षिभिः ॥ ६० ॥
आज मैं
निःसन्देह जगत् के सम्पूर्ण भूतोंमें प्रवेश करूँगा । समस्त देवता और ऋषि मेरी
योगशक्तिका प्रभाव देखें ॥ ६० ॥
अथानुज्ञाप्य
तमृषिं नारदं लोकविश्रुतम् ।
तस्मादनुज्ञां
सम्प्राप्य जगाम पितरं प्रति ॥ ६१ ॥
ऐसा निश्चय
करके शुकदेवजीने विश्वविख्यात देवर्षि नारदजीसे आज्ञा माँगी। उनसे आज्ञा लेकर वे अपने
पिता व्यासजीके पास गये ॥ ६१ ॥
सोऽभिवाद्य
महात्मानं कृष्णद्वैपायनं मुनिम् ।
शुकः
प्रदक्षिणं कृत्वा कृष्णमापृष्टवान् मुनिम् ॥ ६२ ॥
वहाँ अपने
पिता महात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिको प्रणाम करके शुकदेवजीने उनकी प्रदक्षिणा की
और उनसे जानेके लिये आज्ञा माँगी ॥ ६२ ॥
श्रुत्वा
चर्षिस्तद् वचनं शुकस्य
प्रीतो
महात्मा पुनराह चैनम् ।
भो
भो पुत्र स्थीयतां तावदद्य
यावच्चक्षुः
प्रीणयामि त्वदर्थे ॥ ६३ ॥
शुकदेवकी यह
बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए महात्मा व्यासने उनसे कहा - 'बेटा! बेटा! आज यहीं रहो, जिससे तुम्हें जी - भर
निहारकर अपने नेत्रोंको तृप्त कर लूँ ' ॥ ६३ ॥
निरपेक्षः
शुको भूत्वा निःस्नेहो मुक्तसंशयः ।
मोक्षमेवानुसञ्चिन्त्य
गमनाय मनो दधे॥६४॥
परंतु
शुकदेवजी स्नेह का बन्धन तोड़कर निरपेक्ष हो गये थे । तत्त्व के विषय में उन्हें
कोई संशय नहीं रह गया था;
अतः बारम्बार मोक्षका ही चिन्तन करते हुए उन्होंने वहाँ से जाने का
ही विचार किया ॥ ६४ ॥
पितरं
सम्परित्यज्य जगाम मुनिसत्तमः ।
कैलासपृष्ठं
विपुलं सिद्धसङ्घनिषेवितम् ॥ ६५ ॥
पिता को वहीं
छोड़कर मुनिश्रेष्ठ शुकदेव सिद्ध- समुदाय से सेवित विशाल कैलासशिखर पर चले गये ॥
६५॥
॥
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारदगीतायां तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से