॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति
कम्॥ २१॥
हे पृथानन्दन! जो मनुष्य इस शरीरीको
अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये?
व्याख्या—
शरीरकी किसी भी क्रिया से शरीरी में
किंचिन्मात्र भी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता । अतः शरीरी किसी भी क्रिया का न तो
कर्ता (तथा भोक्ता) बनता है, न
कारयिता ही बनता है ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)