गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.१४)


 ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।

कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥ २१॥

 

हे पृथानन्दन! जो मनुष्य इस शरीरीको अविनाशीनित्यजन्मरहित और अव्यय जानता हैवह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये?

 

व्याख्या

 

शरीरकी किसी भी क्रिया से शरीरी में किंचिन्मात्र भी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता । अतः शरीरी किसी भी क्रिया का न तो कर्ता (तथा भोक्ता) बनता है, न कारयिता ही बनता है ।

 

ॐ तत्सत् !

 

शेष आगामी पोस्ट में .........

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)




गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.१३)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  

न जायते म्रियते वा कदाचि-  

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।

अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो-  

न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ २०॥

 

यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहितनित्य-निरन्तर रहनेवालाशाश्वत और अनादि है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।

 

व्याख्या

 

उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना-ये छः विकार शरीरमें ही होते हैं ।  शरीरीमें ये विकार कभी हुए ही नहीं, कभी होंगे नहीं, कभी हो सकते ही नहीं ।

 

        शरीरी कभी उत्पन्न नहीं होता-न जायते’, ‘अजः’; उत्पन्न होकर विकारी सत्तावाला नहीं होता-अयं भूत्वा भविता वा न भूय:’; यह बदलता नहीं- शाश्वतः’; यह बढ़ता नहीं-पुराणः’, यह क्षीण नहीं होता-नित्यः’; और यह मरता नहीं-न म्रियते’, न हन्यते हन्यमाने शरीरे

 

        मुख्य विकार दो ही हैं-उत्पन्न होना और नष्ट होना ।  अतः प्रस्तुत श्लोकमें इस दोनों विकारोंका दो-दो बार निषेध किया गया है; जैसे-न जायते म्रियतेऔर अजः’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे

 

ॐ तत्सत् !

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)




गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.१२)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ १९॥

 

जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता हैवे दोनों ही इसको नहीं जानतेक्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है।

 

व्याख्या

 

शरीरीमें कर्तापन नहीं है और मृत्युरूप विकार भी नहीं है । कर्तापन आदि सभी विकार प्रकृतिसे मानेहुए सम्बन्ध (मैं-पन)- में ही हैं ।

 

ॐ तत्सत् !

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)




गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.११)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ 


अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥ १८॥

 

अविनाशीजाननेमें न आनेवाले और नित्य रहनेवाले इस शरीरीके ये देह अन्तवाले कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन ! तुम युद्ध करो ।

 

व्याख्या

 

पूर्वश्लोकमें शरीरीको अविनाशी बताकर अब भगवान्‌ यह कहते हैं कि मात्र शरीर नाशवान्‌ हैं, मरनेवाले हैं ।  तात्पर्य है कि मिला हुआ तथा बिछुड़नेवाला शरीर हमारा स्वरूप नहीं है ।  शरीर तो केवल कर्म-सामग्री, जिसका उपयोग केवल दूसरोंकी सेवा करनेमें ही है ।  अपने लिये उसका किंचिन्मात्र भी उपयोग नहीं है ।  अतः शरीरके नाशसे अपनी कोई हानि नहीं होती ।

 

ॐ तत्सत् !

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)



गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.१०)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

 

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमहर्ति॥ १७॥

 

अविनाशी तो उसको जानजिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश कोई भी नहीं कर सकता।

 

व्याख्या

 

जिस सत्‌-तत्त्वका अभाव विद्यमान नहीं है, वही अविनाशी तत्त्व है, जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है ।  अविनाशी होने के कारण तथा सम्पूर्ण जगत्‌में व्याप्त होनेके कारण उसका कभी कोई नाश कर सकता ही नहीं ।  नाश उसीका होता है, जो नाशवान्‌ तथा एक देशमें स्थित हो ।

 

ॐ तत्सत् !

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)



गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०९)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

 

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥ १६॥

 

असत् का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत् का  अभाव विद्यमान नहीं है। तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इन दोनों का ही तत्त्व देखा अर्थात् अनुभव किया है।

 

व्याख्या

 

दो विभाग हैं- चेतन-विभाग (है’) और जड़-विभाग (नहीं) ।  परमात्मा तथा सम्पूर्ण जीव चेतन-विभागमें है और संसार-शरीर जड़-विभागमें हैं ।  जड़ और चेतन – दोनों का स्वभाव परस्पर विरुद्ध है ।  यह नियम है कि परस्परविरुद्ध विश्वास  एक साथ नहीं रह सकते । इसलिये हैपर विश्वास  होते ही नहींका विश्वास निर्जीव हो जाता है और नहींसे विश्वास उठते ही हैका विश्वास सजीव हो जाता है ।  सच्चा साधक एक है’ (सत्‌-तत्त्व) के सिवाय अन्य (असत्‌) की सत्ता स्वीकार ही नहीं करता ।  अन्यकी सत्ता स्वीकार न करने पर साधकमें स्वतः हैकी स्मृति जाग्रत्‌ हो जाती है ।  हैकी स्मृतिसे साधककी साध्यके साथ अभिन्नता हो जाती है ।

 

         कोई मनुष्य नहींको कितनी ही दृढतासे स्वीकार करे, उसकी निवृत्ति होती ही है, प्राप्ति होती ही नहीं ।   परन्तु हैको कितना ही अस्वीकार करे, उसकी प्राप्ति होती ही है ।  उसकी विस्मृति तो हो सकती है, पर निवृत्ति होती ही नहीं । अतः एक सत्तामात्र हैके सिवाय कुछ नहीं है- यह सार बात है, जिसका महापुरुषों ने अनुभव किया है ।

 

         संसारमें अभाव ही मुख्य है । इसके भावमें भी अभाव है, अभावमें भी अभाव है ।  परन्तु परमात्मामें भाव ही मुख्य है ।  उनके अभावमें में भी भाव है, भावमें भी भाव है ।  संसार दीखे या न दीखे, मिले या न मिले, उसका वियोगही मुख्य है ।  परमात्मा दीखें या न दीखें, मिलें या न मिलें, उनका योगही मुख्य है।  संसारका नित्यवियोग है ।  परमात्माका नित्ययोग है ।

 

 

ॐ तत्सत् !

 

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गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०८)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

 

 यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ १५॥

 

कारण कि हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दु:खमें सम रहनेवाले जिस बुद्धिमान् मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) विचलित (सुखी-दु:खी) नहीं करतेवह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।

 

व्याख्या

 

मिले हुए और बिछुडनेवाले शरीरको मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानना मनुष्यकी मूल भूल है ।  यह भूल स्वतः-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्यके द्वारा रची हुई (कृत्रिम) है ।  अपने विवेकको महत्त्व न देनेसे ही यह भूल उत्पन्न होती है ।  इस एक भूलसे फिर अनेक तरहकी भूलें उत्पन्न होती हैं ।  इसलिये इस भूलको मिटाना बहुत आवश्यक है और इसको मिटानेकी जिम्मेवारी मनुष्य पर ही है ।  इसको मिटानेके लिये भगवान्‌ने मनुष्यको विवेक प्रदान किया है ।  जब साधक अपने विवेकको महत्त्व देकर इस भूलको मिटा देता है, तब वह निर्मम-निरहंकार हो जाता है ।  निर्मम-निरहंकार होते ही साधक मे  समता आजाती है ।

 

 

ॐ तत्सत् !

 

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गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०७)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

 

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥ १४॥

 

हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियोंके विषय (जड़ पदार्थ) तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता)-के द्वारा सुख और दु:ख देनेवाले हैं तथा आने-जानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो।

 

व्याख्या

 

संसारकी समस्त परिस्थितियाँ आने-जानेवाली, मिलने-बिछुड़नेवाली हैं ।  मनुष्य यह चाहता है कि सुखदायी परिस्थितिबनी रहे और दुःखदायी परिस्थिति न आये ।  परन्तु सुखदायी परिस्थिति जाती ही है और दःखदायी परिस्थिति आती ही है- यह प्राकृतिक नियम है अथवा प्रभुका मंगलमय विधान है ।  अतः साधकको प्रत्येक परिस्थिति प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करनी चाहिये । निरन्तर परिवर्तनशील वस्तुओंमें स्थिरता देखना भूल है ।  इस भूलसे ही ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है ।  देखनेमें वस्तु मुख्य दीखती है, क्रिया गौण ।  पर वास्तवमें क्रिया-ही-क्रिया है, वस्तु है ही नहीं ।

 

ॐ तत्सत् !

 

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गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०६)

 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

 न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।

न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम्॥ १२॥

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥ १३॥

 

किसी काल में मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजा लोग नहीं थेयह बात भी नहीं हैऔर इसके बाद (भविष्य में मैंतू और राजालोग) हम सभी नहीं रहेंगेयह बात भी नहीं है।

देहधारी के इस मनुष्यशरीर में जैसे बालकपनजवानी और वृद्धावस्था होती हैऐसे ही दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।

 

व्याख्या

 

मनुष्यमात्र को मैं हूँ’- इस रूप में अपनी एक सत्ता का अनुभव होता  है ।  इस सत्ता में अहम्‌ (मैं’) मिला हुआ होनेसे ही हूँके रूपमें अपनी अलग एकदेशीय सत्ता अनुभवमें आती है ।  यदि अहम्‌ न रहे तो हैके रूपमें एक सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभवमें आयेगी ।  वह सर्वदेशीय सत्ता ही प्राणीमात्रका वास्तविक स्वरूप है ।  उस सत्तामें जड़ताका मिश्रण नहीं है अर्थात्‌ उसमें मैं, तु, यह और वह- ये चारों ही नहीं हैं ।  सार बात यह है कि एक चिन्मय सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं है ।

जीव स्वयं तो निरन्तर अमरत्त्वमें ही रहता है, पर शरीर निरन्तर मृत्युमें जा रहा है ।  जीवके गर्भ में आते ही मृत्यु का यह क्रम आरम्भ हो जाता है ।  गर्भावस्था मरती है तो बाल्यावस्था आती है ।  बाल्यावस्था मरती है तो युवावस्था आती है ।  युवावस्था मरती है तो वृद्धावस्था आती है ।  वृद्धावस्था मरती है तो देहान्तर-अवस्था आती है अर्थात्‌ दूसरे जन्म की प्राप्ति होती है । इस प्रकार  शरीर की अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उसमें रहनेवाला शरीरी ज्यों-का-त्यों रहता है ।  कारण यह है कि शरीर और शरीरी- दोनोंके विभाग ही अलग-अलग हैं ।  अतः साधक अपनेको कभी शरीर न माने ।  बन्धन-मुक्ति स्वयं की होती है, शरीर की नहीं ।

 

ॐ तत्सत् !

 

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मंगलवार, 10 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच:॥ १०॥

श्रीभगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:॥ ११॥

हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र ! दोनों सेनाओं के मध्य भाग में विषाद करते हुए उस अर्जुन के प्रति हँसते हुए-से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।

श्रीभगवान् बोले—

तुमने शोक न करनेयोग्य का शोक किया है और विद्वत्ता (पण्डिताई)-की बातें कह रहे हो; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पण्डितलोग शोक नहीं करते।

व्याख्या—

इस श्लोक से भगवान् शरीर और शरीरी (स्वयं) के विवेक का उपदेश आरम्भ करते हैं, जो प्रत्येक मार्ग के साधक के लिए अत्यंत आवश्यक है | शरीर सदा मृत्यु में रहता है और शरीरी सदा अमरत्व में रहता है, इसलिए दोनों के लिए ही शोक करने का कोई औचित्य नहीं है—यह इस सम्पूर्ण उपदेश का सार है |

यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने की है कि भगवान् ने इस प्रकरण में चिन्मय सत्तारूप अपने अंश (आत्मा) को ही सामान्य लोगों को समझाने की दृष्टि से ‘शरीरी’ तथा ‘देही’ नामों से कहा है | वास्तव में शरीरी का शरीर से सम्बन्ध है ही नहीं, हो सकता ही नहीं, असम्भव है |

ॐ तत्सत् !

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...