शनिवार, 6 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन

शौनक उवाच ।

हत्वा स्वरिक्थस्पृध आततायिनो
युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः ।
सहानुजैः प्रत्यवरुद्धभोजनः
कथं प्रवृत्तः किमकारषीत्ततः ॥ १ ॥

सूत उवाच –

वंशं कुरोर्वंशदवाग्निनिर्हृतं
संरोहयित्वा भवभावनो हरिः ।
निवेशयित्वा निजराज्य ईश्वरो
युधिष्ठिरं प्रीतमना बभूव ह ॥ २ ॥
निशम्य भीष्मोक्तमथाच्युतोक्तं
प्रवृत्त विज्ञान विधूत विभ्रमः ।
शशास गामिन्द्र इवाजिताश्रयः
परिध्युपान्तां अनुजानुवर्तितः ॥ ३ ॥
कामं ववर्ष पर्जन्यः सर्वकामदुघा मही ।
सिषिचुः स्म व्रजान् गावः पयसोधस्वतीर्मुदा ॥ ४ ॥
नद्यः समुद्रा गिरयः सवनस्पतिवीरुधः ।
फलन्त्योषधयः सर्वाः कामं अन्वृतु तस्य वै ॥ ५ ॥
नाधयो व्याधयः क्लेशा दैवभूतात्महेतवः ।
अजातशत्रौ अवभवन् जन्तूनां राज्ञि कर्हिचित् ॥ ६ ॥

शौनकजीने पूछा—धार्मिकशिरोमणि महाराज युधिष्ठिरने अपनी पैतृक सम्पत्तिको हड़प जानेके इच्छुक आतताइयों का नाश करके अपने भाइयोंके साथ किस प्रकारसे राज्य-शासन किया और कौन-कौन-से काम किये, क्योंकि भोगोंमें तो उनकी प्रवृत्ति थी ही नहीं ॥ १ ॥
सूतजी कहते हैं—सम्पूर्ण सृष्टिको उज्जीवित करनेवाले भगवान्‌ श्रीहरि परस्परकी कलहाग्नि से दग्ध कुरुवंशको पुन: अंकुरित कर और युधिष्ठिर को उनके राज्यसिंहासन पर बैठाकर बहुत प्रसन्न हुए ॥ २ ॥ भीष्मपितामह और भगवान्‌ श्रीकृष्णके उपदेशोंके श्रवणसे उनके अन्त:करण में विज्ञान- का उदय हुआ और भ्रान्ति मिट गयी। भगवान्‌के आश्रयमें रहकर वे समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीका इन्द्रके समान शासन करने लगे। भीमसेन आदि उनके भाई पूर्णरूप से उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे ॥ ३ ॥ युधिष्ठिरके राज्यमें आवश्यकतानुसार यथेष्ट वर्षा होती थी, पृथ्वीमें समस्त अभीष्ट वस्तुएँ पैदा होती थीं, बड़े-बड़े थनोंवाली बहुत-सी गौएँ प्रसन्न रहकर गोशालाओं को दूधसे सींचती रहती थीं ॥ ४ ॥ नदियाँ, समुद्र, पर्वत, वनस्पति, लताएँ और ओषधियाँ प्रत्येक ऋतुमें यथेष्टरूपसे अपनी-अपनी वस्तुएँ राजाको देती थीं ॥ ५ ॥ अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरके राज्यमें किसी प्राणीको कभी भी आधि-व्याधि अथवा दैविक, भौतिक और आत्मिक क्लेश नहीं होते थे ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से


शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 04)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

छठा अध्याय  (पोस्ट 04)

 

कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन

 

श्रीनारद उवाच -
अथ नत्वा मुनिं कंसो विचरन्स मदोन्मदः ।
न केऽपि युयुधुस्तेन राजानश्च बलिं ददुः ॥४४॥
समुद्रस्य तटे कंसो दैत्यं नाम्ना ह्यघासुरम् ।
सर्पाकारं च फीत्कारैर्लेलिहानं ददर्श ह ॥४५॥
आगच्छन्तं दशन्तं च गृहीत्वा तं निपात्य सः ।
चकार स्वगले हारं निर्भयो दैत्यराड् बली ॥४६॥
प्राच्यां तु बंगदेशेषु दैत्योऽरिष्टो महावृषः ।
तेन सार्द्धं स युयुधे गजेनापि गजो यथा ॥४७॥
शृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप कंसमूर्द्धनि ।
कंसो गिरिं संगृहीत्वा चाक्षिपत्तस्य मस्तके ॥४८॥
जघान मुष्टिनारिष्टं कंसो वै दैत्यपुंगवः ।
मूर्च्छितं तं विनिर्जित्य तेनोदीचीं दिशं गतः ॥४९॥
प्राग्ज्योतिषेश्वरं भौमं नरकाख्यं महाबलम् ।
उवाच कंसो युद्धार्थी युद्धं मे देहि दैत्यराट् ॥५०॥
अहं दासो भवेयं वो भवन्तो जयिनो यदि ।
अहं जयो चेद्‌भवतो दासान्सर्वान्करोम्यहम् ॥५१॥


श्रीनारद उवाच -
पूर्वं प्रलंबो युयुधे कंसेनापि महाबलः ।
मृगेन्द्रेण मृगेन्द्रोऽद्रावुद्‌भटेन यथोद्‌भटः ॥५२॥
मल्लयुद्धे गृहीत्वा तं कंसो भूमौ निपात्य च ।
पुनर्गृहीत्वा चिक्षेप प्राग्ज्योतिषपुरं प्रति ॥५३॥
आगतो धेनुको नाम्ना कंसं जग्राह रोषतः ।
नोदयामास दूरेण बलं कृत्वाऽथ दारुणम् ॥५४॥
कंसस्तं नोदयामास धेनुकं शतयोजनम् ।
निपात्य चूर्णयामास तदङ्गं मुष्टिभिर्दृढैः ॥५५॥
तृणावर्तो भौमवाक्यात्कंसं नीत्वा नभो गतः ।
तत्रैव युयुधे दैत्य ऊर्ध्वं वै लक्षयोजनम् ॥५६॥
कंसोऽनन्तबलं कृत्वा दैत्यं नीत्वा तदाम्बरात् ।
भूमौ स पातयामास बमन्तं रुधिरं मुखात् ॥५७॥
तुण्डेनाथ ग्रसन्तं च बकं दैत्यं महाबलम् ।
कंसो निपातयामास मुष्टिना वज्रघातिना ॥५८॥
उत्थाय दैत्यो बलवान् सितपक्षो घनस्वनः ।
क्रोधयुक्तः समुत्पत्य तीक्ष्णतुण्डोऽग्रसच्च तम् ॥५९॥
निगीर्णोऽपि स वज्राङ्‌गो तद्‌गले रोधकृच्च यः ।
सद्यश्चच्छर्द तं कंसं क्षतकण्ठो महाबकः ॥६०॥
कंसो बकं संगृहीत्वा पातयित्वा महीतले ।
कराभ्यां भ्रामयित्वा च युद्धे तं विचकर्ष ह ॥६१॥
तत्स्वसारं पूतनाख्यां योद्धुकमामवस्थिताम् ।
तामाह कंसः प्रहसन्वाक्यं मे शृणु पूतने ॥६२॥
स्त्रिया सार्धमहं युद्धं न करोमि कदाचन ।
बकासुरः स्यान्मे भ्राता त्वं च मे भगिनी भव ॥६३॥
ततोऽनन्तबलं कंसं वीक्ष्य भौमोऽपि धर्षितः ।
चकार सौहृदं कंसे साहाय्यार्थं सुरान्प्रति ॥६४॥

श्रीनारदजी कहते हैं—राजन् ! तदनन्तर बल के मदसे उन्मत्त रहनेवाला कंस मुनिवर परशुरामजीको प्रणाम करके भूतलपर विचरने लगा। किन्हीं राजाओंने उसके साथ युद्ध नहीं किया— सबने उसे कर देना स्वीकार कर लिया। अब कंस समुद्रके तटपर गया। वहाँ 'अघासुर' नामक एक दानव रहता था, जो सर्प के आकार का था। वह फुफकारता और लपलपाती जीभ से चाटता-सा दिखायी देता था। वह आकर कंस- को डँसने लगा। यह देख पराक्रमी दैत्यराजने निर्भयतापूर्वक उसे पकड़ा और धरतीपर पटक दिया। फिर उसे अपने गलेकी माला बना लिया ॥ ४४-४६ ॥

उन दिनों पूर्वदिशावर्ती बंगदेशमें 'अरिष्ट' नामक दैत्य रहता था, जिसकी आकृति बैलके समान थी। उस दैत्यके साथ कंस इस प्रकार जा भिड़ा जैसे एक हाथीके साथ दूसरा हाथी लड़ता है। वह दानव अपनी सींगोंसे बड़े-बड़े पर्वतोंको उठाता और कंसके मस्तकपर पटक देता था। कंस भी उसी पर्वत को हाथ में लेकर अरिष्टासुर पर दे मारता था। उस युद्धमें दैत्यराज कंसने मुक्केसे अरिष्टासुरपर प्रहार किया, जिससे वह दानव मूर्च्छित हो गया। इस प्रकार उस अरिष्टासुर को पराजित करके उसके साथ ही कंस उत्तर दिशाकी ओर चल दिया।

प्राग्ज्योतिषपुर के स्वामी महाबली भूमिपुत्र 'नरक' के पास जाकर युद्धार्थी कंस ने उससे कहा-- 'दैत्येश्वर ! तुम मुझे युद्ध करने का अवसर दो । यदि संग्राम में तुम्हारी जीत हो गयी तो मैं तुम्हारा सेवक बन जाऊँगा । साथ ही मुझे विजय प्राप्त होनेपर तुम सबको मेरा भृत्य बनना पड़ेगा ।। ४७–५१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! प्राग्ज्योतिषपुर में सर्वप्रथम महापराक्रमी प्रलम्बासुर कंस के साथ इस प्रकार युद्ध करने लगा, जैसे किसी पर्वतपर एक उद्भट सिंह के साथ दूसरा उद्भट सिंह लड़ता हो । कंस ने उस मल्लयुद्ध में प्रलम्बासुर को पकड़ा और पृथ्वी पर दे मारा। फिर उसे उठाकर प्राग्ज्योतिषपुर के स्वामी भौमासुर के पास फेंक दिया। तदनन्तर 'धेनुक' नाम से विख्यात दानव ने आकर कंस को रोषपूर्वक पकड़ लिया। उसने दारुण बल का प्रयोग करके कंस को दूर तक पीछे हटा दिया। तब कंस ने भी धेनुकासुर को बहुत दूर पीछे ढकेल दिया और सुदृढ़ घूँसों से मारकर उसके शरीर को चूर-चूर कर दिया । तदनन्तर भौमासुर- की आज्ञा से 'तृणावर्त' कंस को पकड़कर लाख योजन ऊपर आकाश में ले गया और वहीं युद्ध करने लगा ॥ ५२-५६ ॥

कंस ने अपनी अनन्त शक्ति लगाकर बलपूर्वक उस दैत्य को आकाश से खींचकर पृथ्वीपर पटक दिया । उस समय तृणावर्त के मुँह से खून की धार बह चली । इसके बाद महाबली 'बकासुर' आकर अपनी चोंचसे कंसको निगल जानेकी चेष्टा करने लगा। कंसने वज्रके समान कठोर मुक्केसे प्रहार करके उसे भी धराशायी कर दिया। बलवान् बकासुर फिर उठ गया । उसके पंख सफेद थे। वह मेघके समान गम्भीर गर्जना करता था । क्रोधपूर्वक उड़कर तीखी चोंचवाले उस बकासुरने कंसको निगल लिया ॥ ५७-५९ ॥

कंस का शरीर वज्र की भाँति कठोर था । निगले जानेपर उसने उस दानवके गलेकी नलीको रूँध दिया। फिर महान् बली बकासुरने कण्ठ छिद जानेके कारण कंसको मुँहसे बाहर उगल दिया । तदनन्तर कंसने उस दैत्यको पकड़कर जमीनपर पटका और दोनों हाथोंसे घुमाता हुआ उसे वह युद्धभूमि में घसीटने लगा। बकासुर की एक बहन थी । उसका नाम था- 'पूतना' । वह भी युद्ध करने के लिये उद्यत हो गयी। उसे उपस्थित देखकर कंसने हँसते हुए कहा – 'पूतने ! मेरी बात सुन लो। तुम स्त्री हो, मैं तुम्हारे साथ कभी भी लड़ नहीं सकता। अब यह बकासुर मेरा भाई और तुम बहन होकर रहो' ॥ तदनन्तर महान् पराक्रमी कंसको देखकर भौमासुरने भी पराजय स्वीकार कर ली। फिर देवताओंसे युद्ध करनेके समय सहायता प्रदान करनेके लिये वह कंसके साथ सौहार्दपूर्ण बर्ताव करने लगा ।। ६० - ६४ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवाद में 'कंसके बलका

वर्णन' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट १२)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

सूत उवाच ।

कृष्ण एवं भगवति मनोवाक् दृष्टिवृत्तिभिः ।
आत्मनि आत्मानमावेश्य सोऽन्तःश्वास उपारमत् ॥ ४३ ॥
सम्पद्यमानमाज्ञाय भीष्मं ब्रह्मणि निष्कले ।
सर्वे बभूवुस्ते तूष्णीं वयांसीव दिनात्यये ॥ ४४ ॥
तत्र दुन्दुभयो नेदुः देवमानव वादिताः ।
शशंसुः साधवो राज्ञां खात्पेतुः पुष्पवृष्टयः ॥ ४५ ॥
तस्य निर्हरणादीनि सम्परेतस्य भार्गव ।
युधिष्ठिरः कारयित्वा मुहूर्तं दुःखितोऽभवत् ॥ ४६ ॥
तुष्टुवुर्मुनयो हृष्टाः कृष्णं तत् गुह्यनामभिः ।
ततस्ते कृष्णहृदयाः स्वाश्रमान्प्रययुः पुनः ॥ ४७ ॥
ततो युधिष्ठिरो गत्वा सहकृष्णो गजाह्वयम् ।
पितरं सान्त्वयामास गान्धारीं च तपस्विनीम् ॥ ४८ ॥
पित्रा चानुमतो राजा वासुदेवानुमोदितः ।
चकार राज्यं धर्मेण पितृपैतामहं विभुः ॥ ४९ ॥

सूतजी कहते हैं—इस प्रकार भीष्मपितामह ने मन, वाणी और दृष्टि की वृत्तियोंसे आत्मस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णमें अपने-आपको लीन कर दिया। उनके प्राण वहीं विलीन हो गये और वे शान्त हो गये ॥ ४३ ॥ उन्हें अनन्त ब्रह्ममें लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप हो गये, जैसे दिनके बीत जानेपर पक्षियोंका कलरव शान्त हो जाता है ॥ ४४ ॥ उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे। साधुस्वभावके राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ॥ ४५ ॥ शौनकजी ! युधिष्ठिरने उनके मृत शरीरकी अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समयके लिये वे शोकमग्न हो गये ॥ ४६ ॥ उस समय मुनियोंने बड़े आनन्दसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी उनके रहस्यमय नाम ले-लेकर स्तुति की। इसके पश्चात् अपने हृदयोंको श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमोंको लौट गये ॥ ४७ ॥ तदनन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ युधिष्ठिर हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारीको ढाढस बँधाया ॥ ४८ ॥ फिर धृतराष्ट्रकी आज्ञा और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनुमतिसे समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंश परम्परागत साम्राज्यका धर्मपूर्वक शासन करने लगे ॥ ४९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे युधिष्ठिरराज्यप्रलम्भो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से


गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

छठा अध्याय  (पोस्ट 03)

 

कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन

 

शतवारं चोज्जहार गिरिमुत्पाट्य दैत्यराट् ।
पुनस्तत्र स्थितं रामं क्रोधसंरक्तलोचनम् ॥३२॥
प्रलयार्कप्रभं दृष्ट्वा ननाम शिरसा मुनिम् ।
पुनः प्रदक्षिणीकृत्य तदंघ्र्योर्निपपात ह ॥३३॥
ततः शान्तो भार्गवोऽपि कंसं प्राह महोग्रदृक् ।
हे कीटमर्कटीडिंभ तुच्छोऽसि मशको यथा ॥३४॥
अद्यैव त्वां हन्मि दुष्ट क्षत्रियं वीर्यमानिनम् ।
मत्समीपे धनुरिदं लक्षभारसमं महत् ॥३५॥
इदं च विष्णुना दत्तं शंभवे त्रैपुरे युधि ।
शंभोः करादिह प्राप्तं क्षत्रियाणां वधाय च ॥३६॥
यदि चेदं तनोषि त्वं तदा च कुशलं भवेत् ।
चेदस्य कर्षणं न स्याद्‌घातयिष्यामि ते बलम् ॥३७॥
श्रुत्वा वचस्तदा दैत्यः कोदण्डं सप्ततालकम् ।
गृहीत्वा पश्यतस्तस्य सज्जं कृत्वाथ लीलया ॥३८॥
आकृष्य कर्णपर्यंतं शतवारं ततान ह ।
प्रत्यञ्चास्फोटनेनैव टङ्कारोऽभूत्तडित्स्वनः ॥३९॥
ननाद तेन ब्रह्माण्डं सप्त लोकैर्बिलैः सह ।
विचेलुर्दिग्गजास्तारा ह्यपतन् भूमिमंडले ॥४०॥
धनुः संस्थाप्य तत्कंसो नत्वा नत्वाह भार्गवम् ।
हे देव क्षत्रियो नास्मि दैत्योऽहं ते च किंकरः ॥४१॥
तव दासस्य दासोऽहं पाहि मां पुरुषोत्तम ।
श्रुत्वा प्रसन्नः श्रीरामस्तस्मै प्रादाद्धनुश्च तत् ॥४२॥


श्रीजामदग्न्य उवाच -
यत्कोदण्डं वैष्णवं तद्‌येन भंगीभविष्यति ।
परिपूर्णतमो नात्र सोऽपि त्वां घातयिष्यति ॥४३॥

दानवराज कंस ने उस पर्वत को सौ बार उखाड़कर ऊपर को उठा लिया। फिर वहाँ रहनेवाले मुनिवर परशुरामजी के, जिनके नेत्र क्रोधसे लाल थे और जो प्रलयकाल के सूर्य की भाँति तेजस्वी थे, चरणों में मस्तक झुकाया और बार-बार उनकी प्रदक्षिणा की। फिर उनके दोनों चरणोंमें वह लेट गया। तब अत्यन्त उग्र दृष्टिवाले परशुरामजीकी क्रोधाग्नि शान्त हो गयी। वे बोले- रे कीट ! रे बँदरिया के बच्चे ! तू मच्छर के समान तुच्छ है। तू बलके घमंड में चूर रहनेवाला दुष्ट क्षत्रिय है । मैं आज ही तुझे मौतके मुखमें भेजता हूँ। देख, मेरे पास यह महान् धनुष है। इसकी गुरुता लाख भार (लगभग तीन लाख मन) के बराबर है ॥ ३२-३५ ॥

त्रिपुरासुर- से युद्ध के समय भगवान् विष्णु ने यह धनुष भगवान् शंकर को दिया था । फिर क्षत्रियों का विनाश करने के लिये यह शंकरजी के हाथ से मुझे प्राप्त हुआ । यदि तू इसे चढ़ा सका, तब तो कुशल है; यदि नहीं चढ़ा सका तो तेरे सारे बल का विनाश कर दूँगा ' ॥ ३६-३७ ॥

परशुराम जी की बात सुनकर कंस ने उस धनुष को, जो सात ताड़ के बराबर लंबा था, उठा लिया और परशुरामजी के देखते-देखते उसे लीलापूर्वक चढ़ा दिया। फिर कान तक

खींच-खींचकर उसे सौ बार फैलाया। उसकी प्रत्यञ्चा- के खींचने से बिजली की गड़गड़ाहट के समान टंकार शब्द होने लगा । उसकी भीषण ध्वनि से सातों लोकों और पातालोंके साथ पूरा ब्रह्माण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये और तारागण टूट-टूटकर जमीन पर गिरने लगे। फिर कंस ने धनुष को नीचे रख दिया और परशुराम जी को बारंबार प्रणाम करके कहा- 'भगवन्! मैं क्षत्रिय नहीं हूँ। मैं आपका सेवक दैत्य हूँ । आपके दासोंका दास हूँ। पुरुषोत्तम ! मेरी रक्षा कीजिये।' कंसकी ऐसी प्रार्थना सुनकर परशुरामजी प्रसन्न हो गये। फिर वह धनुष उन्होंने कंसको ही दे दिया ।। ३८-४२ ॥

परशुरामजी ने कहा- यह धनुष भगवान् विष्णुका है। इसे जो तोड़ देगा, वहीं यहाँ साक्षात् परिपूर्णतम पुरुष है । उसी के हाथ से तुम्हारी मृत्यु होगी ॥ ४३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ११)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे
धृतहयरश्मिनि तत् श्रियेक्षणीये ।
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षोः
यमिह निरीक्ष्य हता गताः स्वरूपम् ॥ ३९ ॥
ललित गति विलास वल्गुहास
प्रणय निरीक्षण कल्पितोरुमानाः ।
कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः
प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः ॥ ४० ॥
मुनिगण नृपवर्यसङ्कुलेऽन्तः
सदसि युधिष्ठिर राजसूय एषाम् ।
अर्हणं उपपेद ईक्षणीयो
मम दृशिगोचर एष आविरात्मा ॥ ४१ ॥
तमिममहमजं शरीरभाजां
हृदि हृदि धिष्ठितमात्म कल्पितानाम् ।
प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं
समधिगतोऽस्मि विधूत भेदमोहः ॥ ४२ ॥

(भीष्मजी कहते हैं) अर्जुन के रथ की रक्षा में सावधान जिन श्रीकृष्ण के बायें हाथ में घोड़ों की रास थी और दाहिने हाथमें चाबुक, इन दोनोंकी शोभासे उस समय जिनकी अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारत युद्धमें मरनेवाले वीर जिनकी इस छविका दर्शन करते रहनेके कारण सारूप्य मोक्षको प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थसारथि भगवान्‌ श्रीकृष्णमें मुझ मरणासन्नकी परम प्रीति हो ॥ ३९ ॥ जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव-भावयुक्त चेष्टाएँ, मधुर मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीलामें उनके अन्तर्धान हो जानेपर प्रेमोन्माद से मतवाली होकर जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान्‌ श्रीकृष्ण में मेरा परम प्रेम हो ॥ ४० ॥ जिस समय युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ हो रहा था, मुनियों और बड़े-बड़े राजाओंसे भरी हुई सभामें सबसे पहले सबकी ओरसे इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान्‌ श्रीकृष्णकी मेरी आँखोंके सामने पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्युके समय मेरे सामने खड़े हैं ॥ ४१ ॥ जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखोंसे अनेक रूपोंमें दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियोंके हृदयमें अनेक रूप-से जान पड़ते हैं; वास्तवमें तो वे एक और सबके हृदयमें विराजमान हैं ही। उन्हीं इन भगवान्‌ श्रीकृष्णको मैं भेद-भ्रमसे रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ ॥ ४२ ॥

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बुधवार, 3 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

छठा अध्याय  (पोस्ट 02)

 

कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन

 

द्वंद्वयोधी ततः कंसो भुजवीर्यमदोद्धतः ।
माहिष्मतीं ययौ वीरोऽथैकाकी चण्डविक्रमः ॥१६॥
चाणूरो मुष्टिकः कूटः शलस्तोशलकस्तथा ।
माहिष्मतीपतेः पुत्रा मल्ला युद्धजयैषिणः ॥१७॥
कंसस्तानाह साम्नापि दीयध्वं रंगमेव हे ।
अहं दासो भवेयं वो भवंतो जयिनो यदि ॥१८॥
अहं जयी चेद्‌भवतो दासान्सर्वान्करोम्यहम् ।
सर्वेषां पश्यतां तेषां नागराणां महात्मनाम् ॥१९॥
इति प्रतिज्ञां कृत्वाथ युयुधे तैर्जयैषिभिः ।
यदागतं स चाणूरं गृहीत्वा यादवेश्वरः ॥२०॥
भूपृष्ठे पोथयामास शब्दमुच्चैः समुच्चरन् ।
तदाऽऽयान्तं मुष्टिकाख्यं मुष्टिभिर्युधि निर्गतम् ॥२१॥
एकेन मुष्टिना तं वै पातयामास भूतले ।
कूटं समागतं कंसो गृहीत्वा पादयोश्च तम् ॥२२॥
भुजमास्फोट्य धावन्तं शलं नीत्वा भुजेन सः ।
पातयित्वा पुनर्नीत्वा भूमिं तं विचकर्ष ह ॥२३॥
अथ तोशलकं कंसो गृहीत्वा भुजयोर्बलात् ।
निपात्य भूमावुत्थाप्य चिक्षेप दशयोजनम् ॥२४॥
दासभावे च तान्कृत्वा तैः सार्द्धं यादवेश्वरः ।
मद्वाक्येन ययावाशु प्रवर्षणगिरिं वरम् ॥२५॥
तस्मै निवेद्याभिप्रायं युयुधे वानरेण सः ।
द्विविदेनापि विंशत्या दिनैः कंसो ह्यविश्रमम् ॥२६॥
द्विविदो गिरिमुत्पाट्य चिक्षेप तस्य मूर्द्धनि ।
कंसो गिरिं गृहीत्वा च तस्योपरि समाक्षिपत् ॥२७॥
द्विविदो मुष्टिना कंसं घातयित्वा नभो गतः ।
धावन्कंसश्च तं नीत्वा पातयामास भूतले ॥२८॥
मूर्छितस्तत्प्रहारेण परं कल्मषमाययौ ।
क्षीणसत्त्वश्चूर्णितोऽस्थिदासभावं गतस्तदा ॥२९॥
तेनैवाथ गतः कंसः ऋष्यमूकवनं ततः ।
तत्र केशी महादैत्यो हयरूपो घनस्वनः ॥३०॥
मुष्टिभिस्ताडयित्वा तं वशीकृत्यारुरोह तम् ।
इत्थं कंसो महावीर्यो महेंद्राख्यं गिरिं ययौ ॥३१॥

कंस द्वन्द्वयुद्ध का प्रेमी था । अपने बाहुबल के मद से अकेला ही द्वन्द्वयुद्धके  लिये उन्मत्त रहता था । वह प्रचण्डपराक्रमी वीर माहिष्मतीपुरीमें गया। माहिष्मतीनरेशके पाँच पुत्र प्रख्यात मल्ल थे और मल्लयुद्धमें विजय पानेका हौंसला रखते थे। उनके नाम थे— चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल ॥ १६-१७ ॥

कंस ने सामनीति का आश्रय ले प्रेमपूर्वक उनसे कहा— 'तुमलोग मेरे साथ मल्लयुद्ध करो। यदि तुम्हारी विजय हो जायगी तो मैं तुम्हारा सेवक होकर रहूँगा; और कदाचित् मेरी विजय हो गयी तो तुम सबको भी मैं अपना सेवक बना लूँगा।' वहाँ जितने भी नागरिक महान् पुरुष थे, उन सबके सामने कंसने इस प्रकारकी प्रतिज्ञा की और विजय पानेकी इच्छा रखनेवाले उन वीरोंके साथ मल्लयुद्ध आरम्भ कर दिया। ज्यों ही चाणूर आया, यादवेश्वर कंसने उच्चस्वरसे गर्जना करते हुए उसे पकड़कर पृथ्वीपर दे मारा। उसी क्षण मुष्टिक भी वहाँ आ गया। वह रोषसे मुक्का ताने हुए था। कंसने उसे भी एक ही मुक्केसे धराशायी कर दिया। अब कूट आया, कंसने उसके दोनों पैर पकड़ लिये और जमीनपर दे मारा। फिर ताल ठोंकता हुआ शल भी दौड़कर आ पहुँचा। कंसने उसे एक ही हाथसे पकड़ा और जमीनपर पटककर घसीटने लगा। इसके बाद कंसने तोशलके दोनों हाथ बलपूर्वक पकड़ लिये और जमीनपर पटक दिया। फिर तत्काल उठाकर दस योजनकी दूरीपर फेंक दिया। इस प्रकार यादवेश्वर कंस उन सभी वीरोंको अपना सेवक बनाकर, मेरे (नारदजीके) कहनेसे उन योद्धाओंके साथ उसी क्षण श्रेष्ठ पर्वत प्रवर्षणगिरिपर जा पहुँचा ॥ १८-२५ ॥

वहाँ वह वानर द्विविद को अपना अभिप्राय बताकर उसके साथ बीस दिनोंतक अविराम युद्ध करता रहा । द्विविद ने पर्वत की चट्टान उठाकर उसे कंस के मस्तक पर फेंका, किंतु कंसने उस शिलाखण्डको पकड़कर उसीके ऊपर चला दिया। तब द्विविद कंसपर मुक्केसे प्रहार करके आकाशमें उड़ गया। कंसने भी उसका पीछा करके उसे पकड़ लिया और लाकर जमीनपर पटक दिया । कंसके प्रहारसे द्विविदको मूर्च्छा आ गयी। उसकी सारी उत्साह शक्ति जाती रही। हड्डियाँ चूर- चूर हो गयीं। फिर तो वह भी कंसका सेवक बन गया ।। १६–२९ ॥

तदनन्तर कंस द्विविदके साथ वहाँसे ऋष्यमूक- वनमें गया। वहाँ 'केशी' नामसे विख्यात एक महादैत्य रहता था, जिसकी घोड़ेके समान आकृति थी । वह बादलके समान गर्जता था। उसे मुक्कोंकी मारसे अपने वशमें करके कंस उसपर सवार हो गया। इस प्रकार वह महान् पराक्रमी कंस महेन्द्रगिरि पर जा पहुँचा ।। ३०-३१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट १०)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञां
ऋतमधि कर्तुमवप्लुतो रथस्थः ।
धृतरथ चरणोऽभ्ययात् चलद्‍गुः
हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ॥ ३७ ॥
शितविशिखहतो विशीर्णदंशः
क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ।
प्रसभं अभिससार मद्वधार्थं
स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥ ३८ ॥

(भीष्मजी कहते हैं) मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्णको शस्त्र ग्रहण कराकर छोङूँगा; उसे सत्य एवं ऊँची करनेके लिये उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करनेकी प्रतिज्ञा तोड़ दी। उस समय वे रथसे नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथीको मारनेके लिये उसपर टूट पड़ता है, वैसे ही रथका पहिया लेकर मुझपर झपट पड़े। उस समय वे इतने वेगसे दौड़े कि उनके कंधेका दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी काँपने लगी ॥ ३७ ॥ मुझ आततायीने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीरका कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था, अर्जुनके रोकनेपर भी वे बलपूर्वक मुझे मारनेके लिये मेरी ओर दौड़े आ रहे थे। वे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलतासे परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति हों—आश्रय हों ॥ ३८ ॥ 

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मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

छठा अध्याय  (पोस्ट 01)

 

कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
कंसः कोऽयं दैत्यो महाबलपराक्रमः ।
तस्य जन्मानि कर्माणि ब्रूहि देवर्षिसत्तम ॥१॥


श्रीनारद उवाच -
समुद्रमथने पूर्वं कालनेमिर्महासुरः ।
युयुधे विष्णुना सार्द्धं युद्धे तेन हतो बलात् ॥२॥
शुक्रेण जीवितस्तत्र संजीविन्या च विद्यया ।
पुनर्विष्णुं योद्धुकाम उद्योगं मनसाकरोत् ॥३॥
तपस्तेपे तदा दैत्यो मन्दराचलसन्निधौ ।
नित्यं दूर्वारसं पीत्वा भजन्देवं पितामहम् ॥४॥
दिव्येषु शतवर्षेषु व्यतीतेषु पितामहः ।
अस्थिशेषं सवल्मीकं वरं ब्रूहीत्युवाच तम् ॥५॥
ब्रह्माण्डे ये स्थिता देवा विष्णुमूला महाबलाः ।
तेषां हस्तैर्न मे मृत्युः पूर्णानामपि मा भवेत् ॥६॥


ब्रह्मोवाच -
दुर्लभोऽयं वरो दैत्य यस्त्वया प्रार्थितः परः ।
कालान्तरे ते प्राप्तः स्यान्मद्वाक्यं न मृषा भवेत् ॥७॥


श्रीनारद उवाच -
कौमारेऽपि महामल्लैः सततं स युयोध ह ।
उग्रसेनस्य पत्‍न्यां कौ जन्म लेभेऽसुरः पुनः ॥८॥
जरासंधो मगधेंद्रो दिग्जयाय विनिर्गतः ।
यमुनानिकटे तस्य शिबिरोऽभूदितस्ततः ॥९॥
द्विपः कुवलयापीडः सह्स्रद्विपसत्त्वभूत् ।
बभञ्ज श्रृङ्खलासङ्घं दुद्राव शिबिरान्मदी ॥१०॥
निपातयन्स शिबिरान्गृहांश्च भूभृतस्तटान् ।
रंगभूम्यामाजगाम यत्र कंसोऽप्ययुध्यत ॥११॥
पलायितेषु मल्लेषु कंसस्तं तु समागतम् ।
शुण्डाशुण्डे सङ्गृहीत्वा पातयामास भूतले ॥१२॥
पुनर्गृहीत्वा हस्ताभ्यां भ्रामयित्वोग्रसेनजः ।
जरासन्धस्य सेनायां चिक्षेप शतयोजनम् ॥१३॥
तदद्‌भुतं बलं दृष्ट्वा प्रसन्नो मगधेश्वरः ।
अस्तिप्राप्ती ददौ कन्ये तस्मै कंसाय शंसिते ॥१४॥
अश्वार्बुदं हस्तिलक्षं रथानां च त्रिलक्षकम् ।
अयुतं चैव दासीनां पारिबर्हं जरासुतः ॥१५॥

राजा बहुलाश्व ने कहा- देवर्षिशिरोमणे ! यह महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न कंस पहले किस दैत्यके नाम से विख्यात था ? आप इसके पूर्वजन्मों और कर्मों का विवरण मुझे सुनाइये ॥ १ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! पूर्वकाल में समुद्र मन्थन के अवसर पर महान् असुर कालनेमि ने भगवान् विष्णु के साथ युद्ध किया। उस युद्धमें भगवान् ने उसे बलपूर्वक मार डाला। उस समय शुक्राचार्यजी ने अपनी संजीवनी विद्या के बलसे उसे पुनः जीवित कर दिया। तब वह पुनः भगवान् विष्णुसे युद्ध करने के लिये मन-ही-मन उद्योग करने लगा ॥ २-३ ॥

उस समय वह दानव मन्दराचल पर्वत के समीप तपस्या करने लगा। प्रतिदिन दूब का रस पीकर उसने देवेश्वर ब्रह्माकी आराधना की। देवताओं के कालमान से सौ वर्ष बीत जानेपर ब्रह्माजी उसके पास गये। उस समय कालनेमि के शरीर में केवल हड्डियाँ रह गयी थीं और उसपर दीमकें चढ़ गयी थीं। ब्रह्माजी ने उससे कहा- 'वर माँगो' ॥ ४-५ ॥

कालनेमिने कहा – इस ब्रह्माण्डमें जो-जो महाबली देवता स्थित हैं, उन सबके मूल भगवान् विष्णु हैं। उन सम्पूर्ण देवताओंके हाथसे भी मेरी मृत्यु न हो ॥ ६ ॥

ब्रह्माजीने कहा- दैत्य ! तुमने जो यह उत्कृष्ट वर माँगा है, वह तो अत्यन्त दुर्लभ है; तथापि किसी दूसरे समय तुम्हें यह प्राप्त हो सकता है। मेरी वाणी कभी झूठी नहीं हो सकती ॥७॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! फिर वही कालनेमि नामक असुर पृथ्वीपर उग्रसेनकी स्त्री (पद्मावती) के गर्भसे उत्पन्न हुआ। कुमारावस्थामें ही वह बड़े-बड़े पहलवानोंके साथ कुश्ती लड़ा करता था। (एक समयकी बात है — ) मगधराज जरासंध दिग्विजयके लिये निकला। यमुना नदीके निकट इधर-उधर उसकी छावनी पड़ गयी ॥ ८-९ ॥

उसके पास 'कुवलयापीड़' नामका एक हाथी था, जिसमें हजार हाथियोंके समान शक्ति थी । उसके गण्डस्थल से मद चू रहा था। एक दिन उसने बहुत-सी साँकलों को तोड़ डाला और शिविरसे बाहरकी ओर दौड़ चला । शिविरों, गृहों और पर्वतीय तटोंको तोड़ता-फोड़ता हुआ वह उस रङ्गभूमि (अखाड़े) में जा धमका, जहाँ कंस भी कुश्ती लड़ रहा था। उसके आनेपर सभी शूरवीर भाग चले। उसे आया देख कंसने उस हाथीकी सूँड़ पकड़ी और पृथ्वीपर गिरा दिया ॥ १०-१२ ॥

इसके बाद कंस ने कुवलयापीड़ को पुनः दोनों हाथों से पकड़कर घुमाया और जरासंध की सेना में, जो वहाँसे बहुत दूर थी, फेंक दिया। मगधनरेश जरासंध कंसके इस अद्भुत बलको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने 'अस्ति' तथा 'प्राप्ति' नामकी अपनी दो परमसुन्दरी कन्याओं का विवाह उसके साथ कर दिया। उस जरापुत्रने एक अरब घोड़े, एक लाख हाथी, तीन लाख रथ और दस हजार दासियाँ कंस को दहेज में दीं ॥ १३-१५ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये
     निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य ।
स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा
     हृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु ॥ ३५ ॥
व्यवहित पृतनामुखं निरीक्ष्य
     स्वजनवधात् विमुखस्य दोषबुद्ध्या ।
कुमतिम अहरत् आत्मविद्यया यः
     चश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु ॥ ३६ ॥

(भीष्मजी कहते हैं) अपने मित्र अर्जुनकी बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव-सेना और कौरव-सेनाके बीचमें अपना रथ ले आये और वहाँ स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टिसे ही शत्रुपक्षके सैनिकोंकी आयु छीन ली, उन पार्थसखा भगवान्‌ श्रीकृष्णमें मेरी परम प्रीति हो ॥ ३५ ॥ अर्जुन ने जब दूरसे कौरवोंकी सेनाके मुखिया हमलोगोंको देखा, तब पाप समझकर वह अपने स्वजनोंके वधसे विमुख हो गया। उस समय जिन्होंने गीताके रूपमें आत्मविद्याका उपदेश करके उसके सामयिक अज्ञानका नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरी प्रीति बनी रहे ॥ ३६ ॥ 

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सोमवार, 1 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

पाँचवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

भिन्न-भिन्न स्थानों तथा विभिन्न वर्गों की स्त्रियों के गोपी होने के कारण एवं अवतार-व्यवस्था का वर्णन

 

अत्रिरुवाच -
गोदोहं कुरुताश्वद्य पृथ्वीयं धारणामयी ।
सर्वं दास्यति वो दुर्गं मनोरथमहार्णवम् ॥१७॥
मनोरथं प्रदुदुहुर्मनःपात्रेण ताश्च गाम् ।
तस्माद्‌गोप्यो भविष्यन्ति वृन्दारण्ये पितामह ॥१८॥
कामसेनामोहनार्थं दिव्या अप्सरसो वराः ।
नारायणस्य सहसा बभूवुर्गन्धमादने ॥१९॥
भर्तुकामाश्च ता आह सिद्धो नारायणो मुनिः ।
मनोरथो वो भविता व्रजोगोप्यो भविष्यथ ॥२०॥
स्त्रियः सुतलवासिन्यो वामनं वीक्ष्य मोहिताः ।
तपस्तप्ता भविष्यन्ति गोप्यो वृन्दावने विधे ॥२१॥
नागेन्द्रकन्या याः शेषं भेजुर्भक्त्या वरेच्छया ।
संकर्षणस्य रासार्थं भविष्यंति व्रजे च ताः ॥२२॥
कश्यपो वसुदेवश्च देवकी चादितिः परा ।
शूरः प्राणो ध्रुवः सोऽपि देवकोऽवतरिष्यति ॥२३॥
वसुश्चैवोद्धवः साक्षाद्दक्षोऽक्रूरो दयापरः ।
हृदीको धनदश्चैव कृतवर्मा त्वपांपतिः ॥२४॥
गदः प्राचीनबर्हिश्च मरुतो ह्युग्रसेन उत् ।
तस्य रक्षां करिष्यामि राज्यं दत्त्वा विधानतः ॥२५॥
युयुधानश्चाम्बरीषः प्रह्लादः सात्यकिस्तथा ।
क्षीराब्धिः शन्तनुः साक्षाद्‌भीष्मो द्रोणो वसूत्तमः ॥२६॥
शलश्चैव दिवोदासो धृतराष्ट्रो भगो रविः ।
पाण्डुः पूषा सतां श्रेष्ठो धर्मो राजा युधिष्ठिरः ॥२७॥
भीमो वायुर्बलिष्ठश्च मनुः स्वायंभुवोऽर्जुनः ।
शतरूपा सुभद्रा च सविता कर्ण एव हि ॥२८॥
नकुलः सहदेवश्च स्मृतौ द्वावश्विनीसुतौ ।
धाता बाह्लीकवीरश्च वह्निर्द्रोणः प्रतापवान् ॥२९॥
दुर्योधनः कलेरंशोऽभिमन्युः सोम एव च ।
द्रौणिः साक्षाच्छिवस्यापि रूपं भूमौ भविष्यति ॥३०॥
इत्थं यदोः कौरवाणामन्येषां भूभुजां नृणाम् ।
कुले कुले च भवतः स्वांशैः स्त्रीभिर्मदाज्ञया ॥३१॥
ये येऽवतारा मे पूर्वं तेषां राज्ञ्यो रमांशकाः ।
भविष्या राजराज्ञीषु सहस्राणि च षोडश ॥३२॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तत्र ब्रह्माणं कमलासनम् ।
दिव्यरूपां भगवतीं योगमायामुवाच ह ॥३३॥
देवक्याः सप्तमं गर्भं संनिकृष्य महामते ।
वसुदेवस्य भार्यायां कंसत्रासभयात्पुनः ॥३४॥
नन्दव्रजे स्थितायां च रोहिण्यां सन्निवेशय ।
नंदपत्‍न्यां भव त्वं वै कृत्वेदं कर्म चाद्‌भुतम् ॥३५॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा ब्रह्मा देवगणैर्नत्वा कृष्णं परात्पराम् ।
भूमिमाश्वास्य वाणीभिः स्वधाम च समाययौ ॥३६॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं विद्धि मैथिल ।
कंसादीनां वधार्थाय प्राप्तोयं भूमिमण्डले ॥३७॥
रोममात्रतनौ जिव्हा भवंत्वित्थं यदा नृप ।
तदापि श्रीहरेस्तस्य वर्ण्यते न गुणो महान् ॥३८॥
नभः पतन्ति विहगा यथा ह्यात्मसमं नृप ।
तथा कृष्णगतिं दिव्यां वदन्तीह विपश्चितः ॥३९॥

 

अत्रि जी ने कहा- तुम सब शीघ्र ही आज इस गौको दुहो। यह सम्पूर्ण पदार्थोंको धारण करनेवाली धारणामयी धरणी देवी है। तुम्हारे सारे मनोरथोंको- चाहे वे समुद्रके समान अगाध, अपार एवं दुर्गम ही क्यों न हों - अवश्य पूर्ण कर देंगी ॥ १७ ॥

ब्रह्मन् ! तब उन स्त्रियोंने मनको दोहन - पात्र बनाकर अपने मनोरथोंका दोहन किया। इसी कारणसे वे सब की सब वृन्दावनमें गोपियाँ होंगी। बहुत-सी श्रेष्ठ अप्सराएँ, जिनका रूप अत्यन्त मनोहर था और जो कामदेवकी सेनाएँ थीं, भगवान् नारायण ऋषिको मोहित करनेके लिये गन्धमादन पर्वतपर गयीं । परंतु उन्हें देखकर वे भी अपनी सुध-बुध खो बैठीं। उनके मनमें भगवान्‌को पति बनानेकी इच्छा उत्पन्न हो गयी। तब सिद्धतपस्वी नारायण मुनिने कहा- 'तुम व्रजमें गोपियाँ होओगी और वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा' ।।१८-२० ॥

ब्रह्मन् ! सुतल देशकी स्त्रियाँ भगवान् वामनको देखकर उन्हें पानेके लिये उत्कट इच्छा प्रकट करने लगीं। फिर तो उन्होंने तपस्या आरम्भ कर दी। अतः वे भी वृन्दावनमें गोपियाँ होंगी। जिन नागराज- कन्याओंने शेषावतार भगवान्‌को देखकर उन्हें पति बनानेकी इच्छासे उनकी सेवा-समाराधना की हैं, वे सब बलदेवजीके साथ रासविहार करनेके लिये व्रजमें उत्पन्न होंगी ।। २१-२२ ॥

कश्यपजी वासुदेव होंगे | परम पूजनीया अदिति देवकीके रूपमें अवतार लेंगी। प्राण नामक वसु शूरसेन और 'ध्रुव' नामक वसु देवक होंगे। 'वसु' नामके जो वसु हैं, उनका उद्धवके रूपमें प्राकट्य होगा। दयापरायण दक्ष प्रजापति अक्रूरके रूपमें अवतार लेंगे। कुबेर हृदीक नामसे और जल के स्वामी वरुण कृतवर्मा नाम से प्रसिद्ध होंगे ।। २३-२४ ॥

पुरातन राजा प्राचीनवर्हि गद एवं मरुत देवता उग्रसेन बनेंगे। उन उग्रसेनको मैं विधानतः राजा बनाऊँगा और उनकी भलीभाँति रक्षा करूँगा । भक्त राजा अम्बरीष युयुधान और भक्तप्रवर प्रह्लाद सात्यकिके नामसे प्रकट होंगे। क्षीरसागर शंतनु होगा। वसुओंमें श्रेष्ठ द्रोण साक्षात् भीष्मपितामहके रूपमें उत्पन्न होंगे ।। २५-२६ ॥

 

दिवोदास शल के रूप में एवं भग नामके सूर्य धृतराष्ट्रके रूपमें अवतीर्ण होंगे

पूषा नामसे विख्यात देवता पाण्डु होंगे । सत्पुरुषोंमें आदर पानेवाले धर्मराज ही राजा युधिष्ठिरके रूपमें अवतार लेंगे ।। २७-२८ ॥

वायु देवता महान् पराक्रमी भीमसेनके तथा स्वायम्भुव मनु अर्जुनके वेषमें प्रकट होंगे। शतरूपाजी सुभद्रा होंगी और सूर्यनारायण कर्णके रूपसे अवतार लेंगे। अश्विनीकुमार नकुल एवं सहदेव होंगे । धाता महान् बलशाली बाह्लीक नामसे विख्यात होंगे। अग्निदेवता महान् प्रतापी द्रोणाचार्य के रूप में अवतार लेंगे। कलि का अंश दुर्योधन होगा। चन्द्रमा अभिमन्यु के रूपमें अवतार लेंगे । पृथ्वीपर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा साक्षात् भगवान् शंकर का रूप होगा ।। २९-३० ॥

इस प्रकार तुम सब देवता मेरी आज्ञा के अनुसार अपने अंशों और स्त्रियों के साथ यदुवंशी, कुरुवंशी तथा अन्यान्य वंशोंके राजाओंके कुलमें प्रकट होओ। पूर्व समयमें मेरे जितने अवतार हो चुके हैं, उनकी रानियाँ रमा का अंश रही हैं। वे भी मेरी रानियों में सोलह हजार की संख्या में प्रकट होंगी ।। ३१ – ३२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! कमलासन ब्रह्मा से यों कहकर भगवन् श्रीहरि ने दिव्यरूपधारिणी भगवती योगमाया से कहा- ॥ ३३ ॥

भगवान् श्रीहरि बोले—महामते ! तुम देवकी  के सातवें गर्भ को खींचकर उसे वसुदेवकी पत्नी रोहिणीके गर्भमें स्थापित कर दो। वे देवी कंसके डरसे व्रज में नन्द के घर रहती हैं। साथ ही तुम भी ऐसे अलौकिक कार्य करके नन्दरानी के गर्भ से प्रकट हो जाना ।। ३४-३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— परमश्रेष्ठ राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णके वचन सुनकर सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्माजीने परात्पर भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम किया और अपने वचनोंद्वारा पृथ्वीदेवीको धीरज दे, वे अपने धामको चले गये। मिथिलेश्वर जनक ! तुम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको साक्षात् परिपूर्णतम परमात्मा समझो। कंस आदि दुष्टोंका विनाश करनेके लिये ही ये इस धराधामपर पधारे हैं ॥ ३६-३७

शरीर में जितने रोएँ हैं, उतनी जिह्वाएँ हो जायँ, तब भी भगवान् श्रीकृष्णके असंख्य महान् गुणोंका वर्णन नहीं किया जा सकता। महाराज ! जिस प्रकार पक्षीगण अपनी शक्तिके अनुसार ही आकाशमें उड़ते हैं, वैसे ही ज्ञानीजन भी अपनी मति एवं शक्तिके अनुसार ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी दिव्य लीलाओंका गायन करते हैं ॥ ३८-३९ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'अवतार-व्यवस्थाका वर्णन' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...