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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
उन्नीसवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
दामोदर
कृष्णका उलूखल-बन्धन तथा उनके द्वारा यमलार्जुन-वृक्षोंका उद्धार
बाला
ऊचुः
अनेन पातितौ वृक्षौ ताभ्यां द्वौ पुरुषौ स्थितौ ।
एनं नत्वा गतावद्य तावुदीच्यां स्फुरत्प्रभौ ॥२३॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तेषां न ते श्रद्दधिरे ततः ।
मुमोच नंदः स्वं बालं दाम्ना बद्धमुलूखले ॥२४॥
संलालयन्स्वांकदेशे समाघ्राय शिशुं नृप ।
निर्भर्त्स्य भामिनीं नंदो विप्रेभ्यो गोशतं ददौ ॥२५॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
काविमौ पुरुषौ दिव्यौ वद देवर्षिसत्तम ।
केन दोषेण वृक्षत्वं प्रापितौ यमलार्जुनौ ॥२६॥
श्रीनारद उवाच -
नलकूबरमणिग्रीवौ राजराजसुतौ परौ ।
जग्मतुर्नंदनवनं मंदाकिन्यास्तटे स्थितौ ॥२७॥
अप्सरोभिर्गीयमानौ चेरतुर्गतवाससौ ।
वारुणीमदिरामत्तौ युवानौ द्रव्यदर्पितौ ॥२८॥
कदाचिद्देवलो नाम मुनींद्रो वेदपारगः ।
नग्नौ दृष्ट्वा च तावाह दुष्टशीलौ गतस्मृती ॥२९॥
देवल उवाच -
युवां वृक्षसमौ दृष्टौ निर्लज्जौ द्रव्यदर्पितौ ।
तस्माद्वृक्षौ तु भूयास्तां वर्षाणां शतकं भुवि ॥३०॥
द्वापरांते भारते च माथुरे व्रजमंडले ।
कलिंदनंदिनीतीरे महावनसमीपतः ॥३१॥
परिपूर्णतमं साक्षात्कृष्णं दामोदरं हरिम् ।
गोलोकनाथं तं दृष्ट्वा पूर्वरूपौ भविष्यथः ॥३२॥
इत्थं देवलशापेन वृक्षत्वं प्रापितौ नृप ।
नलकूबरमणिग्रीवौ श्रीकृष्णेन विमोचितौ ॥३३॥
बालकोंने कहा – इस कन्हैयाने ही दोनों वृक्षोंको
गिराया है। उन वृक्षोंसे दो पुरुष निकलकर यहाँ खड़े थे,
जो इसे नमस्कार करके अभी-अभी उत्तर दिशाकी ओर गये हैं। उनके
अङ्गोंसे दीप्तिमती प्रभा निकल रही थी ॥ २३ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! ग्वाल-बालोंकी यह बात सुनकर उन बड़े-बूढ़े गोपोंने उसपर विश्वास
नहीं किया। नन्दजीने ओखलीमें रस्सीसे बँधे हुए अपने बालकको खोल दिया और लाड़-प्यार
करते हुए गोद में उठाकर उस शिशुको सूँघने लगे। नरेश्वर ! नन्दजीने अपनी पत्नीको
बहुत उलाहना दिया और ब्राह्मणोंको सौ गायें दानके रूपमें दीं ।। २४-२५॥
बहुलाश्वने
कहा- देवर्षिप्रवर ! वे दोनों दिव्य पुरुष कौन थे, यह बताइये । किस दोषके कारण उन्हें यमलार्जुनवृक्ष होना पड़ा था ।। २६ ।।
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! वे दोनों कुबेरके श्रेष्ठ पुत्र थे,
जिनका नाम था - 'नलकूबर' और 'मणिग्रीव'। एक दिन वे
नन्दनवनमें गये और वहाँ मन्दाकिनीके तटपर ठहरे। वहाँ अप्सराएँ उनके गुण गाती रहीं
और वे दोनों वारुणी मदिरासे मतवाले होकर वहाँ नंग-धड़ंग विचरते रहे। एक तो उनकी
युवावस्था थी और दूसरे वे द्रव्य के दर्प (धन के मद) से दर्पित (उन्मत्त ) थे। उसी
अवसर पर किसी काल में 'देवल' नामधारी
मुनीन्द्र, जो वेदोंके पारंगत विद्वान् थे, उधर आ निकले । उन दोनों कुबेर-पुत्रोंको नम देखकर ऋषिने उनसे कहा— 'तुम दोनोंके स्वभावमें दुष्टता भरी है । तुम दोनों अपनी सुध-बुध खो बैठे
हो । २७ - २९॥
इतना
कहकर देवलजी फिर बोले- तुम दोनों वृक्षके समान जड, धृष्ट तथा निर्लज्ज हो । तुम्हें अपने द्रव्यका बड़ा घमंड है; अतः तुम दोनों इस भूतलपर सौ (दिव्य) वर्षोंतकके लिये वृक्ष हो जाओ। जब
द्वापरके अन्तमें भारतवर्षके भीतर मथुरा जनपदके व्रज-मण्डलमें कलिन्दनन्दिनी
यमुनाके तटपर महावनके समीप तुम दोनों साक्षात् परिपूर्णतम दामोदर हरि गोलोकनाथ
श्रीकृष्णका दर्शन करोगे, तब तुम्हें अपने पूर्वस्वरूपकी
प्राप्ति हो जायगी ॥ ३०-३२ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— नरेश्वर ! इस प्रकार देवलके शापसे वृक्षभावको प्राप्त हुए नलकूबर और
मणिग्रीवका श्रीकृष्णने उद्धार किया ॥ ३३ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें
यमलार्जुन-मोचन'
नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १९ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से