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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
सातवाँ
अध्याय ( पोस्ट 02 )
ब्रह्माजी
के द्वारा गौओं, गोवत्सों एवं
गोप-बालकों का हरण
बाला ऊचुः -
यस्य मातामहा मूढा शृणु नन्दकुमारक ।
न ज्ञानं भोजने तस्य तस्मात्स्वादु न विद्यते ॥ १९ ॥
ततो ददौ च कवलं श्रीदामा माधवाय च ।
अन्यान् सर्वान् बहुश्रेष्ठं जगुः सर्वे व्रजार्भकाः ॥ २० ॥
पुनः कृष्णाय प्रददौ कवलं च वरूथपः ।
अन्यान् बालान् तथा सर्वान् किंचित्किंचित्प्रयत्नतः ।
भुक्त्वा तु जहसुः सर्वे श्रीकृष्णाद्या व्रजार्भकाः ॥ २१ ॥
बालाः ऊचुः -
तादृशं भोजनञ्चास्य यादृशं सुबलस्य वै ॥ २२ ॥
भुक्त्वात्युद्विग्नमनसः सर्वे वयमतः किल ।
एतं पृथक्पृथक् सर्वे दर्शयन्तः स्वभोजनम् ॥ २३ ॥
हासयन्तो हसन्तश्च चक्रुः क्रीडां परस्परम् ।
जठरस्य पटे वेणुं वेत्रं शृङ्गश्च कक्षके ॥ २४ ॥
वामे पाणौ च कवलं ह्यंगुलीषु फलानि च ।
शिरसा मुकुटं बिभ्रत्स्कन्धे पीतपटं तथा ॥ २५ ॥
हृदये वनमालाश्च कटौ काञ्चीं तथैव च ।
पादयोर्नूपुरौ बिभ्रच्छ्रीवत्सं कौस्तुभं हृदि ॥ २६ ॥
तिष्ठन् मध्ये गोपगोष्ठ्यां हासयन्नर्मभिः स्वकैः ।
स्वर्गे लोके च मिषति बुभुजे यज्ञभुग्हरिः ॥ २७ ॥
एवं कृष्णात्मनाथेषु भुंजानेष्वर्भकेषु च ।
विविशुर्गह्वरे दूरं तृणलोभेन वत्सकाः ॥ २८ ॥
विलोक्य तान् भयत्रस्तान् गोपान् कृष्ण उवाच ह ।
यूयं गच्छन्तु माहं तु ह्यानेष्ये वत्सकानिह ॥ २९ ॥
इत्युक्त्वा कृष्ण उत्थाय गृहीत्वा कवलं करे ।
विचिकाय दरीकुञ्जगह्वरे वत्सकान् स्वकान् ॥ ३० ॥
तदैव चाम्भोजभवः समागतो
विलोक्य मुक्तिं ह्यघराक्षसस्य च ।
ददर्श कृष्णं मनसा यथारुचि
भुंजानमन्नं व्रजबालकैः सह ॥ ३१ ॥
दृष्ट्वा च कृष्णं मनसा स ऊचे
त्वयं हि गोपो न हि देवदेवः ।
हरिर्यदि स्याद्बहुकुत्सितान्ने
कथं रतो वा व्रजगोपबालैः ॥ ३२ ॥
इत्युक्त्वा मोहितो ब्रह्मा मायया परमात्मनः ।
द्रष्टुं मञ्जु महत्त्वं तु मनश्चक्रे ह्यहो नृप ॥ ३३ ॥
सर्वान् वत्सानितो गोपान्नीत्वा खेऽवस्थितः पुरा ।
अन्तर्दधे विस्मितोऽजो दृष्ट्वाघासुरमोक्षणम् ॥ ३४ ॥
बालक
बोले- 'नन्दनन्दन ! सुनो! जिसके नाना मूढ़ (मूर्ख) हैं, उसको भोजनका ज्ञान नहीं रहता।
इसलिये तुमको स्वाद प्राप्त नहीं हुआ' ॥ १९ ॥
इसके
उपरान्त श्रीदामाने माधव को और अन्य बालकोंको भोजन के ग्रास दिये । व्रज-बालकों ने उसको उत्तम बताकर
उसकी बहुत प्रशंसा की। इसके बाद वरूथप नाम के एक बालक ने पुनः श्रीकृष्णको एवं अन्य बालकोंको आग्रहपूर्वक कौर दिये। श्रीकृष्ण
आदि वे सभी लोग थोड़ा-थोड़ा खाकर हँसने लगे ।। २०-२१ ॥
बालकोंने
कहा – 'यह भी सुबलके ग्रास-जैसा ही है। हम सभी उसे खाकर उद्विग्न हुए हैं।' इस प्रकार
सभी ने अपने-अपने ग्रास चखाये और सभी परस्पर हँसने-हँसाने और
खेलने लगे। कटिवस्त्र में वेणु, बगलमें लकुटी एवं सींगा, बायें
हाथमें भोजन का कौर, अंगुलियोंके बीचमें फल, माथेपर मुकुट, कंधेपर
पीला दुपट्टा, गलेमें वनमाला, कमर में करधनी, पैरोंमें नूपुर और हृदयपर श्रीवत्स तथा
कौस्तुभमणि धारण किये हुए श्रीकृष्ण गोप-बालकोंके बीचमें बैठकर अपनी विनोदभरी बातोंसे
बालकों को हँसाने लगे ।। २२-२६ ॥
इस
प्रकार यज्ञभोक्ता श्रीहरि भोजन करने लगे, जिसको देवता एवं मनुष्य आश्चर्यचकित होकर
देखते रहे । इस प्रकार श्रीकृष्णके द्वारा रक्षित बालकोंका जिस
समय भोजन हो रहा था, उसी समय बछड़े घासकी लालचमें पड़कर दूरके एक गहन वनमें घुस गये
। गोप-बालक भयसे व्याकुल हो गये। यह देखकर श्रीकृष्ण बोले- 'तुमलोग मत जाओ। मैं बछड़ोंको
यहाँ ले आऊँगा ।' यों कहकर श्रीकृष्ण उठे और भोजनका कौर हाथमें लिये ही गुफाओं एवं
कुञ्जोंमें तथा गहन वनमें बछड़ोंको ढूंढ़ने लगे ॥ २७ - ३० ॥
जिस
समय व्रजवासी बालकों के साथ श्रीकृष्ण यमुनातटपर रुचिपूर्वक भोजन
कर रहे थे, उसी समय पद्मयोनि ब्रह्माजी अघासुरकी मुक्ति देखकर उसी स्थानपर पहुँच गये।
इस दृश्यको देखकर ब्रह्माजी मन-ही-मन कहने लगे- 'ये तो देवाधिदेव श्रीहरि नहीं हैं,
अपितु कोई गोपकुमार हैं। यदि ये श्रीहरि होते तो गोप-बालकोंके साथ इतने अपवित्र अन्नका
के
साथ भोजन कैसे करते ?' राजन् ! ब्रह्माजी परमात्माकी मायासे मोहित होकर इस प्रकार बोल
गये । उन्होंने उनकी (भगवान्की) मनोज्ञ महिमाको जाननेका निश्चय किया । ब्रह्माजी स्वयं
आकाशमें अवस्थित थे। इसके उपरान्त अघासुर- उद्धारकी लीलाके दर्शनसे चकित होकर समस्त
गायों-बछड़ों तथा गोप-बालकोंका हरण करके वे अन्तर्धान हो गये ॥ ३१ - ३४ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'ब्रह्माजीके द्वारा गौओं, गोवत्सों
और गोप-बालकों का हरण' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से