सोमवार, 15 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

श्रीकृष्णद्वारा कालियदमन तथा दावानल-पान

 

बलं विनाथ गोपालैश् चारयन् गा हरिः स्वयम् ।
कालिन्दीकूलमागत्य ययौ वारिविषावृतम् ॥ १ ॥
कालियेन फणीन्द्रेण जलं यत्र विदूषितम् ।
पीत्वा निपेतुर्वसवो गावो गोपा जलान्तिके ॥ २ ॥
तदा तान् जीवयामास दृष्ट्या पीयूषपूर्णया ।
आर्द्रचित्तो हरिः साक्षाद्‌भगवान् वृजिनार्दनः ॥ ३ ॥
कटौ पीतपटं बद्ध्वा नीपमारुह्य माधवः ।
पपातोत्तुंगविटपात्तत्तोये विषदूषिते ॥ ४ ॥
उच्चचाल जलं दुष्टं कृष्णसंघातघूर्णितम् ।
तत्सर्पमन्दिरे नद्यां भृंगीभूतं बभूव ह ॥ ५ ॥
तदैव कालियः क्रुद्धः फणी फणशतावृतः ।
दशन्दन्तैश्च भुजया चच्छाद नृप माधवम् ॥ ६ ॥
कृष्णो दीर्घं वपुः कृत्वा बन्धनान्निर्गतश्च तम् ।
पुच्छे गृहीत्वा सर्पेंद्रं भ्रामयित्वा त्वितस्ततः ॥ ७ ॥
जलेनिपात्य हस्ताभ्यां चिक्षेपाशु धनुःशतम् ।
पुनरुत्थाय सर्पेन्द्रो लेलिहानो भयंकरः ॥ ८ ॥
वामहस्ते हरिं सर्पो रुषा जग्राह माधवम् ।
हरिर्दक्षिणहस्तेन गृहीत्वा तं महाखलम् ॥ ९ ॥
तज्जले पोथयामास सुपर्ण इव पन्नगम् ।
सर्पो मुखशतं दीर्घं प्रसार्य पुनरागतः ॥ १० ॥
पुच्छे गृहीत्वा तं कृष्णः चकर्षाशु धनुःशतम् ।
कृष्णहस्ताद्‌विनिष्क्रम्य सर्पस्तं व्यदशत्पुनः ॥ ११ ॥
तताड मुष्टिना सर्पं त्रैलोक्यबलधारकः ।
कृष्णमुष्टिप्रहारेण मूर्च्छितो विगतस्मृतिः ॥ १२ ॥
नतं कृत्वाऽऽननशतं स्थितोऽभूत् कृष्णसंमुखे ।
आरुह्य तत्फणिशतं मणिवृन्दमनोहरम् ॥ १३ ॥
ननर्त नटवत्कृष्णो नटवेषो मनोहरः ।
गायन् सप्तस्वरै रागं संगीतं च सतालकम् ॥ १४ ॥
पुष्पैर्देवेषु वर्षत्सु तांडवे नटराजवत् ।
वादयन् स मुदा वीणाऽऽनकदुन्दुभिवेणुकान् ॥ १५ ॥
सतालं पदविन्यासैस्तत्फणां सोज्ज्वलान् बहून् ।
बभंज श्वसतः कृष्णः कालियस्य महात्मनः ॥ १६ ॥
तदैव नागपत्‍न्यस्ता आगता भयविह्वलाः ।
नत्वा कृष्णपदं देवमूचुर्गद्‌गदया गिरा ॥ १७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! एक दिन बलरामजीको साथमें लिये बिना ही श्रीहरि स्वयं ग्वाल- बालोंके साथ गाय चराने चले आये। यमुनाके तटपर आकर उन्होंने उस विषाक्त जलको पी लिया, जिसे नागराज कालियने अपने विषसे दूषित कर दिया था। उस जलको पीकर बहुत-सी गायें और गोपगण प्राणहीन होकर पानीके निकट ही गिर पड़े। यह देख सर्वपापहारी साक्षात् भगवान् श्रीहरिका चित्त दयासे द्रवित हो उठा। उन्होंने अपनी पीयूषपूर्ण दृष्टिसे देखकर उन सबको जीवित कर दिया ॥ १-३

 

इसके बाद पीताम्बर को कमर में कसकर बाँध लिया। फिर वे माधव तटवर्ती कदम्ब वृक्षपर चढ़ गये और उसकी ऊँची डाल से उस विष-दूषित जलमें कूद पड़े। भगवान् श्रीकृष्णके कूदनेसे वह दूषितजल चक्कर काटकर ऊपरको उछला। यमुनाके उस भागमें कालियनाग रहता था । भँवर उठनेसे उस सर्पका भवन इस तरह चक्कर काटने लगा, जैसे जलमें पानीके भौरे घूमते हैं। नरेश्वर । उस समय सौ फणोंसे युक्त फणिराज कालिय क्रुद्ध हो उठा और माधवको दाँतोंसे डँसते हुए उसने अपने शरीरसे उन्हें आच्छादित कर लिया ॥ ४-६

 

तब श्रीकृष्ण अपने शरीरको बड़ा करके उसके बन्धनसे छूट गये और उस सर्पराजकी पूँछ पकड़कर उसे इधर-उधर घुमाने लगे । घुमाते - घुमाते उन्होंने उसे पानीमें गिराकर पुनः दोनों हाथोंसे उठा लिया और तुरंत उसे सौ धनुष दूर फेंक दिया। उस भयानक नागराजने पुनः उठकर जीभ लपलपाते हुए रोषपूर्वक माधव श्रीहरिका बायाँ हाथ पकड़ लिया। तब श्रीहरिने उस महादुष्टको दाहिने हाथसे पकड़कर उस जलमें उसी प्रकार दबा दिया, जैसे गरुड किसी नागको रगड़ दे। और अपने सौ मुखोंको बहुत अधिक फैलाकर वह सर्प उनके पास आ गया। तब उसकी पूँछ पकड़कर श्रीकृष्ण उसे सौ धनुष दूर खींच ले गये। श्रीकृष्णके हाथसे सहसा निकलकर उसने पुनः उन्हें डँस लिया ॥ ७-११

 

यह देख अपनेमें त्रिभुवन का बल धारण करनेवाले श्रीहरि ने उस सर्प को एक मुक्का मारा। श्रीकृष्णके मुक्के की चोट खाकर वह सर्प मूर्च्छित हो अपनी सुध-बुध खो बैठा। तदनन्तर अपने सौ मुखोंको आनत करके वह श्रीकृष्णके सामने स्थित हुआ। उसके सौ फन सौ मणियोंके प्रकाशसे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते थे। श्रीकृष्ण उन फनोंपर चढ़ गये और मनोहर नट-वेष धारण करके नटकी भाँति नृत्य करने लगे। साथ ही वे सातों स्वरोंसे किसी रागका अलाप करते हुए तालके साथ संगीत प्रस्तुत करने लगे। उस समय नटराजकी भाँति सुन्दर ताण्डव करनेवाले श्रीकृष्णके ऊपर देवतालोग फूल बरसाने लगे और प्रसन्नतापूर्वक वीणा, ढोल, नगारे तथा बाँसुरी बजाने लगे । तालके साथ पदविन्यास करनेसे श्रीकृष्णने लंबी साँस खींचते हुए महाकाय कालियके बहुत-से उज्ज्वल फनोंको भग्न कर दिया। उसी समय भयसे विह्वल हुई नागपत्नियाँ आ पहुँचीं और भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें नमस्कार करके गद्गद वाणीद्वारा इस प्रकार स्तुति करने लगीं ॥। १ - १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

भगवान्‌के स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा 
तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन

वैश्वानरं याति विहायसा गतः
    सुषुम्नया ब्रह्मपथेन शोचिषा ।
विधूतकल्कोऽथ हरेरुदस्तात्
    प्रयाति चक्रं नृप शैशुमारम् ॥ २४ ॥
तद्विश्वनाभिं त्वतिवर्त्य विष्णोः
    अणीयसा विरजेनात्मनैकः ।
नमस्कृतं ब्रह्मविदामुपैति
    कल्पायुषो यद् विबुधा रमन्ते ॥ २५ ॥
अथो अनन्तस्य मुखानलेन
    दन्दह्यमानं स निरीक्ष्य विश्वम् ।
निर्याति सिद्धेश्वरयुष्टधिष्ण्यं
    यद् द्वैपरार्ध्यं तदु पारमेष्ठ्यम् ॥ २६ ॥
न यत्र शोको न जरा न मृत्युः
    न आर्तिः न चोद्वेग ऋते कुतश्चित् ।
यच्चित्ततोऽदः कृपयानिदं विदां
    दुरन्तदुःखप्रभवानुदर्शनात् ॥ २७ ॥

परीक्षित्‌ ! योगी ज्योतिर्मय मार्ग सुषुम्णाके द्वारा जब ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थान करता है, तब पहले वह आकाशमार्गसे अग्निलोकमें जाता है; वहाँ उसके बचे-खुचे मल भी जल जाते हैं। इसके बाद वह वहाँसे ऊपर भगवान्‌ श्रीहरिके शिशुमार नामक ज्योतिर्मय चक्रपर पहुँचता है ॥ २४ ॥ भगवान्‌ विष्णुका यह शिशुमार चक्र विश्वब्रह्माण्डके भ्रमणका केन्द्र है। उसका अतिक्रमण करके अत्यन्त सूक्ष्म एवं निर्मल शरीरसे वह अकेला ही महर्लोकमें जाता है। वह लोक ब्रह्मवेत्ताओंके द्वारा भी वन्दित है और उसमें कल्पपर्यन्त जीवित रहनेवाले देवता विहार करते रहते हैं ॥ २५ ॥ फिर जब प्रलयका समय आता है, तब नीचेके लोकोंको शेषके मुखसे निकली हुई आगके द्वारा भस्म होते देख वह ब्रह्मलोकमें चला जाता है, जिस ब्रह्मलोकमें बड़े-बड़े सिद्धेश्वर विमानोंपर निवास करते हैं। उस ब्रह्मलोककी आयु ब्रह्माकी आयुके समान ही दो परार्द्ध की है ॥ २६ ॥ वहाँ न शोक है न दु:ख, न बुढ़ापा है न मृत्यु। फिर वहाँ किसी प्रकारका उद्वेग या भय तो हो ही कैसे सकता है। वहाँ यदि दु:ख है तो केवल एक बातका। वह यही कि इस परमपदको न जाननेवाले लोगोंके जन्ममृत्युमय अत्यन्त घोर सङ्कटोंको देखकर दयावश वहाँके लोगोंके मनमें बड़ी व्यथा होती है ॥ २७ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 14 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )

 

धेनुकासुर का उद्धार

 

राजोवाच ।।
मुने मुक्तिं कथं प्राप्तः पूर्वं को धेनुकासुरः ।।
कथं खरत्वमापन्न एतन्मे ब्रूहि तत्त्वतः ।। ३३ ।।


श्रीनारद उवाच ।।
वैरोचनेर्बलेः पुत्रो नाम्ना साहसिको बली ।।
नारीणां दशसाहस्रै रेमे वै गन्धमादने।।३४।।
वादित्राणां नूपुराणां शब्दोभूत्तद्वने महान्।।
गुहायामास्थितस्यापि श्रीकृष्णं स्मरतो मुनेः ।। ३५ ।।
दुर्वाससोऽथ तेनापि ध्यानभंगो बभूव ह ।।
निर्गतः पादुकारूढो दुर्वासाः कृशविग्रहः ।। ३६ ।।
दीर्घश्मश्रुर्यष्टि धरः क्रोधपुंजोनलद्युतिः ।।
यस्य शापाद्विश्वमिदं कंपते स जगाद ह ।। ३७ ।।


दुर्वासा उवाच ।।
उत्तिष्ठ गर्दभाकार गर्दभो भव दुर्मते ।।
वर्षाणां तु चतुर्लक्षं व्यतीते भारते पुनः ।। ३८ ।।
माधुरे मंडले दिव्ये पुण्ये तालवने वने ।।
बलदेवस्य हस्तेन मुक्तिस्ते भविताऽसुर ।। ३९ ।।


श्रीनारद उवाच ।।
तस्माद्बलस्य हस्तेन श्रीकृष्णस्तं जघान ह ।।
प्रह्लादाय वरो दत्तो न वध्यो मे तवान्वयः ।। ४० ।।

 

राजाने पूछा- मुने ! धेनुकासुर पूर्वजन्ममें कौन था ? उसे मुक्ति कैसे प्राप्त हुई ? तथा उसे गधेका शरीर क्यों मिला ? यह सब मुझे ठीक-ठीक बताइये ॥ ३३ ॥

 

श्रीनारदजीने कहा- विरोचनकुमार बलिका एक बलवान् पुत्र था, जिसका नाम था — साहसिक । वह दस हजार स्त्रियोंके साथ गन्धमादन पर्वतपर विहार कर रहा था। वहाँ वनमें नाना प्रकारके वाद्यों तथा रमणियोंके नूपुरोंका महान् शब्द होने लगा, जिससे उस पर्वतकी कन्दरामें रहकर श्रीकृष्णका चिन्तन करनेवाले दुर्वासा मुनिका ध्यान भङ्ग हो गया । वे खड़ाऊँ पहनकर बाहर निकले। उस समय मुनिवर दुर्वासाका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। दाढ़ी-मूँछ बहुत बढ़ गयी थीं। वे लाठीके सहारे चलते थे । क्रोधकी तो वे मूर्तिमान् राशि ही थे और अग्निके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। दुर्वासा उन ऋषियोंमेंसे हैं, जिनके शापके भयसे यह सारा विश्व काँपता रहता है | वे बोले ।। ३४-३७ ॥

 

दुर्वासा ने कहा- दुर्बुद्धि असुर ! तू गदहेके  समान भोगासक्त है, इसलिये गदहा हो जा। आज से चार लाख वर्ष बीतने पर भारत में दिव्य माथुर मण्डलके अन्तर्गत पवित्र तालवन में बलदेवजी के हाथ से तेरी मुक्ति होगी ।। ३८-३९ ॥

 

नारदजी कहते हैं- राजन् ! उस शापके कारण ही भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके हाथसे उसका वध करवाया; क्योंकि उन्होंने प्रह्लादजीको यह वर दे रखा है कि तुम्हारे वंशका कोई दैत्य मेरे हाथसे नहीं मारा जायगा ॥ ४० ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में वृन्दावनखण्ड के अन्तर्गत 'धेनुकासुर का उद्धार' नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

यदि प्रयास्यन् नृप पारमेष्ठ्यं
    वैहायसानामुत यद् विहारम् ।
अष्टाधिपत्यं गुणसन्निवाये
    सहैव गच्छेन्मनसेन्द्रियैश्च ॥ २२ ॥
योगेश्वराणां गतिमाहुरन्तः
    बहिस्त्रिलोक्याः पवनान्तरात्मनाम् ।
न कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवन्ति
    विद्यातपोयोगसमाधिभाजाम् ॥ २३ ॥

परीक्षित्‌ ! यदि योगी की इच्छा हो कि मैं ब्रह्मलोकमें जाऊँ, आठों सिद्धियाँ प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धों के साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय ब्रह्माण्डके किसी भी प्रदेश में विचरण करूँ, तो उसे मन और इन्द्रियों को साथ ही लेकर शरीर से निकलना चाहिये ॥ २२ ॥ योगियों का शरीर वायु की भाँति सूक्ष्म होता है। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञानका सेवन करनेवाले योगियों को त्रिलोकी के बाहर और भीतर सर्वत्र स्वछन्दरूप से विचरण करने का अधिकार होता है। केवल कर्मों के द्वारा इस प्रकार बेरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता ॥ २३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 13 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

धेनुकासुर का उद्धार

 

गोवर्धनं समुत्पाट्य श्रीकृष्णे प्राहिणोत्खरः ।।
गिरिं गृहीत्वा श्रीकृष्णः णाक्षिपत्त स्य मस्तके ।।२१।।
दैत्यो गिरिं गृहीत्वाथ श्रीकृष्णे प्राहिणोद्बली।।
कृष्णो गोवर्धनं नीत्वा पूर्वस्थाने समाक्षिपत् ।।२२।।
पुनर्धावन्महादैत्यः शृङ्गाभ्यां । दारयन्भुवम्।।
बलं पश्चिमपादाभ्यां ताडयित्वा जगर्ज ह।२३।
ननाद तेन ब्रह्मांडं प्रैजद्भूखण्डमण्डलम्।।
हस्ताभ्यां संगृहीत्वा तं बलदेवो महाबलः।।२४।।
भूपृष्ठे पोथयामास मूर्च्छितं भग्नमस्तकम् ।।
पुनस्तताड तं दैत्यं मुष्टिना ह्यच्युताग्रजः ।।२५।।
तेन मुष्टिप्रहारेण सद्यो वै निधनं गतः ।।
तदैव ववृषुर्देवाः पुष्पैर्नन्दनसंभवैः ।। २६ ।।
देहाद्विनिर्गतः सोऽपि श्यामसुन्दरविग्रहः ।।
स्रग्वी पीतांबरो देवो वनमालाविभूषितः ।।२७।।
लक्षपार्षदसंयुक्तः सहस्र ध्वजशोभितः ।।
सहस्रचक्रध्वनिभृद्धयायुतसमन्वितः ।। २८ ।।
लक्षचामरशोभाढ्योऽरुणवर्णोऽतिरत्नभृत् ।।
दिव्ययोजनविस्तीर्णो मनोयायी मनोहरः ।।२९।।
किंकिणीजालसंयुक्तो घटामंजीरसंयुतः ।।
हरिं प्रदक्षिणीकृत्य सबलं दिव्यरूपधृक् ।। ३० ।।
दिव्यं रथं समारुह्य द्योतयन्मंडलन्दिशाम् ।।
जगाम दैत्यो हे राजन्गोलोकं प्रकृतेः परम् ।। ३१ ।।
श्रीकृष्णो धेनुकं हत्वा सबलो बालकैः सह ।।
तद्यशस्तु प्रगायद्भिर्बभौ गोकुलगोगणैः ।। ३२ ।।

श्रीकृष्णने पर्वतको हाथसे पकड़कर पुनः उसीके मस्तकपर दे मारा। तदनन्तर उस बलवान् दैत्यने फिर पर्वतको हाथमें ले लिया और श्रीकृष्णके ऊपर फेंका। किंतु श्रीकृष्णने गोवर्धनको ले जाकर उसके पूर्व स्थानपर रख दिया ॥ २१-२२

 

तदनन्तर फिर धावा करके महादैत्य धेनुक ने दोनों सींगों से पृथ्वी को विदीर्ण कर दिया और पिछले पैरों से पुनः बलरामपर प्रहार करके बड़े जोरसे गर्जना की। उसकी उस गर्जनासे समस्त ब्रह्माण्ड गूँज उठा और भूमण्डल काँपने लगा । तब महाबली बलदेवने दोनों हाथोंसे उसको पकड़ लिया और उसे पृथ्वीपर दे मारा। इससे उसका मस्तक फूट गया और होश- हवास जाता रहा। इसके बाद श्रीकृष्ण के बड़े भाई ने पुनः उस दैत्यपर मुक्के से प्रहार किया ॥ २३-२५

 

उस मुष्टिप्रहार से धेनुकासुर की तत्काल मृत्यु हो गयी। उसी समय देवताओं ने नन्दनवन के फूल बरसाये ॥ २६ ॥

 

देह से पृथक् होकर धेनुक श्यामसुन्दर - विग्रह धारणकर पुष्पमाला, पीताम्बर तथा वनमाला से समलंकृत देवता हो गया। लाख-लाख पार्षद उसकी सेवा में जुट आये। सहस्त्रों ध्वज उसके रथ की शोभा बढ़ाने लगे। सहस्रों पहियोंकी घर्घरध्वनिसे युक्त उस रथमें दस हजार घोड़े जुते थे। लाखों चँवरों की वहाँ शोभा हो रही थी। वह रथ अरुणवर्ण का था और अत्यधिक रत्नों से जटित था। उसका विस्तार एक दिव्य योजन का था। वह मन के समान तीव्रगति से चलनेवाला विमान या रथ बड़ा ही मनोहर था ॥ २७-२९

 

राजन् ! उसमें घुँघुरुओंकी जाली लगी थी। घंटे और मञ्जीर बजते थे । दिव्यरूपधारी दैत्य धेनुक बलरामसहित श्रीकृष्ण- की परिक्रमा करके, उक्त दिव्य रथपर आरूढ़ हो, दिशामण्डलको देदीप्यमान करता हुआ, प्रकृतिसे परे विद्यमान गोलोकधाममें चला गया। इस प्रकार धेनुक- का वध करके बलरामसहित श्रीकृष्ण अपना यशोगान करते हुए ग्वाल-बालोंके साथ व्रजको लौटे। उनके साथ गौओंका समुदाय भी था ॥ ३०-३२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

इत्थं मुनिस्तूपरमेद् व्यवस्थितो
    विज्ञानदृग्वीर्य सुरन्धिताशयः ।
स्वपार्ष्णिनऽपीड्य गुदं ततोऽनिलं
    स्थानेषु षट्सून्नमयेज्जितक्लमः ॥ १९ ॥
नाभ्यां स्थितं हृद्यधिरोप्य तस्माद्
    उदुदानगत्योरसि तं नयेन्मुनिः ।
ततोऽनुसन्धाय धिया मनस्वी
    स्वतालुमूलं शनकैर्नयेत ॥ २० ॥
तस्माद् भ्रुवोरन्तरमुन्नयेत
    निरुद्धसप्तायतनोऽनपेक्षः ।
स्थित्वा मुहूर्तार्धमकुण्ठदृष्टिः
    निर्भिद्य मूर्धन् विसृजेत् परं गतः ॥ २१ ॥

ज्ञानदृष्टि के बलसे जिसके चित्त की वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रह्मनिष्ठ योगी को इस प्रकार अपने शरीरका त्याग करना चाहिये। पहले एड़ी से अपनी गुदा को दबाकर स्थिर हो जाय और तब बिना घबड़ाहट के प्राणवायु को षट्चक्रभेदन की रीति से ऊपर ले जाय ॥ १९ ॥ मनस्वी योगी को चाहिये कि नाभिचक्र मणिपूरक में स्थित वायु को हृदयचक्र अनाहत में, वहाँसे उदानवायु के द्वारा वक्ष:स्थल के ऊपर विशुद्ध चक्रमें, फिर उस वायु को धीरे-धीरे तालुमूल में (विशुद्ध चक्र के अग्रभाग में) चढ़ा दे ॥ २० ॥ तदनन्तर दो आँख, दो कान, दो नासाछिद्र और मुख—इन सातों छिद्रों को रोककर उस तालुमूल में स्थित वायुको भौंहोंके बीच आज्ञाचक्रमें ले जाय। यदि किसी लोकमें जानेकी इच्छा न हो तो आधी घड़ीतक उस वायुको वहीं रोककर स्थिर लक्ष्यके साथ उसे सहस्रार में ले जाकर परमात्मा में स्थित हो जाय। इसके बाद ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके शरीर- इन्द्रियादि को छोड़ दे ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

धेनुकासुर का उद्धार

 

योजनं नोदयामास गजं प्रति गजो यथा ।।
गृहीत्वा तं बलः सद्यो भ्रामयित्वाथ धेनुकम् ।। १० ।।
भूपृष्ठे पोथयामास मूर्च्छितो भग्नमस्तकः ।।
क्षणेन पुनरुत्थाय क्रोधसंयुक्तविग्रहः ।।११।।
मूर्ध्नि कृत्वा चतुःशृंगं धृत्वा रूपं भयंकरम् ।।
गोपान्विद्रावयामास शृंगैस्तीक्ष्णैर्भयंकरैः ।।१२।।
अग्रे पलायितान्गोपान्दुद्रावाशु मदोत्कटः ।।
श्रीदामा तं च दंडेन सुबलो मुष्टिना तथा ।।१३।।
स्तोकः पाशेन तं दैत्यं संतताड महाबलम् ।।
क्षेपणेनार्जुनोंशुश्च दैत्यं लत्तिकया खरम् ।।१४।।
विशालर्षभ एत्याशु पादेन स्वबलेन च ।।
तेजस्वी ह्यर्द्धचन्द्रेण देवप्रस्थ श्च पेटकैः ।।१५।।
वरूथपः कंदुकेन संतताड महाखरम् ।।
अथ कृष्णोपि तं नीत्वा हस्ताभ्यां धेनुकासुरम् ।।१६।।
भ्रामयित्वाशु चिक्षेप गिरिगोवर्द्ध- नोपरि ।।
श्रीकृष्णस्य प्रहारेण मूर्च्छितो घटिकाद्वयम् ।। १७ ।।
पुनरुत्थाय स्वतनुं विधुन्वन्दारयन्मुखम् ।।
शृङ्गाभ्यां श्रीहरिं नीत्वा धावन्दैत्यो न भोगतः ।।१८।।
चचार तेन खे युद्धमूर्ध्वं वै लक्षयोजनम् ।।
गृहीत्वा धेनुकं दैत्यं श्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।। १९ ।।
चिक्षेपाधो भूमिमध्ये चूर्णितास्थिः स मूर्च्छितः ।।
पुनरुत्थाय शृङ्गाभ्यां नादं कृत्वातिभैरवम् ।।२०।।

तब बलराम,जी ने तत्काल धेनुक को पकड़कर घुमाना आरम्भ किया और घुमाकर उसे भूतल पर दे मारा। तब उसे मूर्च्छा आ गयी और उसका मस्तक फट गया। तो भी वह क्षणभरमें उठकर खड़ा हो गया। उसके शरीरसे भयानक क्रोध टपक रहा था ॥ १०-११

 

इसके बाद उस दैत्य ने अपने मस्तक में चार सींग प्रकट करके, भयानक रूप धारण कर उन तीखे और भयंकर सींगों से गोपों को खदेड़ना आरम्भ किया ॥ १२

 

गोपोंको आगे-आगे भागते देख वह मदमत्त असुर तुरंत ही उनके पीछे दौड़ा उस समय श्रीदामा ने उसपर डंडेसे प्रहार किया, सुबलने उसको मुक्केसे मारा, स्तोककृष्ण ने उस महाबली दैत्यपर पाश से प्रहार किया, अर्जुन ने क्षेपण से और अंशु ने उस गर्दभाकार दैत्यपर लात से आघात किया। इसके बाद विशालर्षभ ने आकर शीघ्रतापूर्वक अपने पैर से और बल से भी उस दैत्य को दबाया। तेजस्वी ने अर्द्धचन्द्र (गर्दनियाँ) देकर उसे पीछे हटाया और देवप्रस्थ ने उस असुर के कई तमाचे जड़ दिये ॥ १३-१५

 

वरूथप ने उस विशालकाय गधे को गेंद से मारा। तदनन्तर श्रीकृष्णने भी धेनुकासुरको दोनों हाथोंसे उठाकर घुमाया और तुरंत ही गोवर्धन पर्वतके ऊपर फेंक दिया। श्रीकृष्णके उस प्रहारसे धेनुक दो घड़ीतक मूर्च्छित पड़ा रहा। फिर उठकर अपने शरीरको कँपाता हुआ मुँह फाड़कर आगे बढ़ा और दोनों सींगों से श्रीहरिको उठाकर वह दैत्य दौड़कर आकाशमें चला गया ॥ १६-१८

 

आकाश में एक लाख योजन ऊँचे जाकर उनके साथ युद्ध करने लगा । भगवान् श्रीकृष्ण ने धेनुकासुर- को पकड़कर नीचे भूमि को ओर फेंका। इससे उसकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं और वह मूर्च्छित हो गया। तथापि पुनः उठकर अत्यन्त भयंकर सिंहनाद करते हुए उसने दोनों सींगों से गोवर्धन पर्वत को उखाड़ लिया और श्रीकृष्ण के ऊपर चलाया ॥ १९-२०

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

स्थिरं सुखं चासनमास्थितो यतिः
    यदा जिहासुरिममङ्ग लोकम् ।
काले च देशे च मनो न सज्जयेत्
    प्राणान् नियच्छेन्मनसा जितासुः ॥ १५ ॥
मनः स्वबुद्ध्याऽमलया नियम्य
    क्षेत्रज्ञ एतां निनयेत् तमात्मनि ।
आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो
    लब्धोपशान्तिर्विरमेत कृत्यात् ॥ १६ ॥
न यत्र कालोऽनिमिषां परः प्रभुः
    कुतो नु देवा जगतां य ईशिरे ।
न यत्र सत्त्वं न रजस्तमश्च
    न वै विकारो न महान् प्रधानम् ॥ १७ ॥
परं पदं वैष्णवमामनन्ति
    तद् यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः ।
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा
    हृदोपगुह्यार्हपदं पदे पदे ॥ १८ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं ) परीक्षित्‌ ! जब योगी पुरुष इस मनुष्य-लोकको छोडऩा चाहे, तब देश और काल में मन को न लगाये। सुखपूर्वक स्थिर आसन से बैठकर प्राणों को जीतकर मन से  इन्द्रियों का संयम करे ॥ १५ ॥ तदनन्तर अपनी निर्मल बुद्धिसे मन को नियमित करके मन के साथ बुद्धिको क्षेत्रज्ञ में और क्षेत्रज्ञ को अन्तरात्मा में लीन कर दे। फिर अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन करके धीर पुरुष उस परम शान्तिमय अवस्थामें स्थित हो जाय। फिर उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता ॥ १६ ॥ इस अवस्थामें सत्त्वगुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुणकी तो बात ही क्या है। अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृतिका भी वहाँ अस्तित्व नहीं है। उस स्थितिमें जब देवताओंके नियामक कालकी भी दाल नहीं गलती, तब देवता और उनके अधीन रहनेवाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं ? ॥ १७ ॥ योगीलोग ‘यह नहीं, यह नहीं’—इस प्रकार परमात्मासे भिन्न पदार्थोंका त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थोंमें आत्मबुद्धिका त्याग करके हृदयके द्वारा पद-पदपर भगवान्‌के जिस परम पूज्य स्वरूपका आलिङ्गन करते हुए अनन्य प्रेमसे परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान्‌ विष्णुका परम पद है—इस विषयमें समस्त शास्त्रोंकी सम्मति है ॥ १८ ॥

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गुरुवार, 11 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

ग्यारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

धेनुकासुर का उद्धार

 

श्रीनारदउवाच ।।
एकदा सबलः कृष्णश्चारयन्गा मनोहराः ।।
गोपालैः सहितः सर्वैर्ययौ तालवनं नवम् ।। १ ।।
धेनुकस्य भयाद्गोपा न गतास्ते वनान्तरम् ।।
कृष्णोपि न गतस्तत्र बल एको विवेश ह ।।२।।
नीलांबरं कटौ बद्धा बलदेवो महाबलः ।।
परिपक्वफलार्थं हि तद्वने विचचार ह।।३।।
बाहुभ्यां कंपयंस्तालान्फलसंघं निपातयन् ।।
गर्जंश्च निर्भयः साक्षादनन्तोनन्तविक्रमः।।४।।
फलानां पततां शब्दं श्रुत्वा क्रोधावृतः खरः ।।
मध्याह्ने स्वापकृद्दुष्टो भीमः कंससखो बली ।।५।।
आययौ संमुखे योद्धुं बलदेवस्य धेनुकः ।।
बलं पश्चिम पादाभ्यां निहत्योरसि सत्वरम् ।।६।।
चकार खरशब्दं स्वं परिधावन्मुहुर्मुहुः ।।
गृहीत्वा धेनुकं शीघ्रं बलः पश्चिमपादयोः ।।७।।
चिक्षेप तालवृक्षे च ह- स्तेनैकेनलीलया ।।
तेन भग्नश्च तालोपि तालान्पार्श्वस्थितान्बहून् ।।८।।
पातयामास राजेन्द्र तदद्भुतमिवाभवत् ।।
पुनरुत्थाय दैत्येंद्रो बलं जग्राह रोषतः ।। ९ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ मनोहर गौएँ चराते हुए नूतन तालवनके पास चले गये। उस समय समस्त गोपाल उनके साथ थे। वहाँ धेनुकासुर रहा करता था। उसके भयसे गोपगण वनके भीतर नहीं गये । श्रीकृष्ण भी नहीं गये। अकेले बलरामजीने उसमें प्रवेश किया ॥ १-२

अपने नीले वस्त्र को कमर में बाँधकर कर दिया । राजेन्द्र ! वह एक अद्भुत-सी बात हुई । महाबली बलदेव परिपक्व फल लेनेके लिये उस वनमें दैत्यराज धेनुक ने पुनः उठकर रोषपूर्वक बलरामजीको विचरने लगे। बलरामजी साक्षात् अनन्तदेवके पकड़ लिया और जैसे एक हाथी अपना सामना अवतार हैं। उनका पराक्रम भी अनन्त है। अतः दोनों करनेवाले दूसरे हाथीको दूरतक ठेल ले जाता है, उसी हाथोंसे ताड़के वृक्षोंको हिलाते और फल-समूहोंको प्रकार उन्हें धक्का देकर एक योजन पीछे हटा दिया । गिराते हुए वहाँ निर्भय गर्जना करने लगे। गिरते हुए तब बलरामजी ने तत्काल धेनुक को पकड़कर घुमाना फलों की आवाज सुनकर वह गर्दभाकार असुर रोष से आग-बबूला हो गया। वह दोपहर में सोया करता था, किंतु आज विघ्न पड़ जानेसे वह दुष्ट क्रोधसे भयंकर हो उठा । धेनुकासुर कंसका सखा होनेके साथ ही बड़ा बलवान् था ॥ ३-५

 

वह बलदेवजीके सम्मुख युद्ध करनेके लिये आया और उसने अपने पिछले पैरोंसे उनकी छातीमें तुरंत आघात किया। आघात करके वह बारंबार दौड़ लगाता हुआ गधेकी भाँति रेंकने लगा। तब बलरामजीने धेनुक के दोनों पिछले पैर पकड़कर शीघ्र ही उसे ताड़ के वृक्षपर दे मारा। यह कार्य उन्होंने एक ही हाथ से खेल-खेल में कर डाला ॥ ६-७

 

इससे वह तालवृक्ष स्वयं तो टूट ही गया, गिरते गिरते उसने अपने पार्श्ववर्ती दुसरे बहुत से ताड़ों को धराशायी कर दिया | राजेन्द्र ! वह एक अद्भुत सी बात हुई | दैत्यराज धेनुक ने पुन: उठकर रोषपूर्वक बलरामजी को पकड़ किया और जैसे एक हाथी दूसरे हाथी को दूरतक ठेल ले जाता है, उसी प्रकार उन्हें धक्का देकर एक योजन पीछे हटा दिया ८-९

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

अदीनलीलाहसितेक्षणोल्लसद्
    भ्रूभङ्गसंसूचितभूर्यनुग्रहम् ।
ईक्षेत चिन्तामयमेनमीश्वरं
    यावन्मनो धारणयाऽवतिष्ठते ॥ १२ ॥
एकैकशोऽङ्गानि धियानुभावयेत्
    पादादि यावद् हसितं गदाभृतः ।
जितं जितं स्थानमपोह्य धारयेत्
    परं परं शुद्ध्यति धीर्यथा यथा ॥ १३ ॥
यावन्न जायेत परावरेऽस्मिन्
    विश्वेश्वरे द्रष्टरि भक्तियोगः ।
तावत् स्थवीयः पुरुषस्य रूपं
    क्रियावसाने प्रयतः स्मरेत ॥ १४ ॥

लीलापूर्ण उन्मुक्त हास्य और चितवनसे शोभायमान भौंहोंके द्वारा वे भक्तजनों पर अनन्त अनुग्रह की वर्षा कर रहे हैं। जबतक मन इस धारणा के द्वारा स्थिर न हो जाय, तब तक बार-बार इन चिन्तनस्वरूप भगवान्‌ को देखते रहने की चेष्टा करनी चाहिये ॥ १२ ॥ 
भगवान्‌ के चरण-कमलों से लेकर उनके मुसकानयुक्त मुख-कमलपर्यन्त समस्त अङ्गों की एक-एक करके बुद्धिके द्वारा धारणा करनी चाहिये। जैसे-जैसे बुद्धि शुद्ध होती जायगी, वैसे-वैसे चित्त स्थिर होता जायगा। जब एक अङ्गका ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तब उसे छोडक़र दूसरे अङ्गका ध्यान करना चाहिये ॥ १३ ॥ ये विश्वेश्वर भगवान्‌ दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं। सगुण, निर्गुण—सब कुछ इन्हींका स्वरूप है। जबतक इनमें अनन्य प्रेममय भक्तियोग न हो जाय, तबतक साधकको नित्य-नैमित्तिक कर्मोंके बाद एकाग्रतासे भगवान्‌ के उपर्युक्त स्थूल रूपका ही चिन्तन करना चाहिये ॥१४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन श्र...