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गुरुवार, 29 अगस्त 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०९)
बुधवार, 28 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( गिरिराज खण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
( गिरिराज खण्ड )
पहला अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीकृष्ण के द्वारा गोवर्धनपूजन का प्रस्ताव
और उसकी विधि का वर्णन
सनंद उवाच -
हे नन्दसूनो हे तात त्वं साक्षाज्ज्ञानशेवधिः ।
कर्तव्या केन विधिना पूजाऽद्रेर्वद तत्त्वतः ॥१४॥
श्रीभगवानुवाच -
आलिप्य गोमयेनापि गिरिराजभुवं ह्यधः ।
धृत्वाऽथ सर्वसम्भारं भक्तियुक्तो जितेन्द्रियः ॥१५॥
सहस्रशीर्षामंत्रेणाद्रये स्नानं च कारयेत् ।
गंगाजलेन यमुनाजलेनापि द्विजैः सह ॥१६॥
शुक्लगोदुग्धधाराभिस्ततः पञ्चामृतैर्गिरिम् ।
स्नापयित्वा गन्धपुष्पैः पुनः कृष्णाजलेन वै ॥१७॥
वस्त्रं दिव्यं च नैवेद्यमासनं सर्वतोऽधिकम् ।
मालालंकारनिचयं दत्त्वा दीपावलिं पराम् ॥१८॥
ततः प्रदक्षिणां कुर्यान्नमस्कुर्यात्ततः परम् ।
कृतांजलिपुटो भूत्वा त्विदमेतदुदीरयेत् ॥१९॥
नमो वृन्दावनाङ्काय तुभ्यं गोलोकमौलिने ।
पूर्णब्रह्मातपत्राय नमो गोवर्धनाय च ॥२०॥
पुष्पांजलिं ततः कुर्यान्नीराजनमतः परम् ।
घण्टकांस्यमृदङ्गाद्यैर्वादित्रैर्मधुरस्वनैः ॥२१॥
वेदाहमेतं मंत्रेण वर्षलाजैः समाचरेत् ।
तत्समीपे चान्नकूटं कुर्याच्छ्रद्धासमन्वितः ॥२२॥
कचोलानां चतुःषष्टिपञ्चपंक्तिसमन्वितम् ।
तुलसीदलमिश्रैश्च श्रीगंगायमुनाजलैः ॥२३॥
षट्पञ्चाशत्तमैर्भागैः कुर्यात्सेवां समाहितः ।
ततोऽग्नीन् ब्राह्मणान्पूज्य गाः सुरान् गन्धपुष्पकैः ॥२४॥
भोजयित्वा द्विजवरान् सौगंधैर्मिष्टभोजनैः ।
अन्येभ्यश्चाश्वपाकेभ्यो दद्याद्भोजनमुत्तमम् ॥२५॥
गोपीगोपालवृन्दैश्च गवां नृत्यं च कारयेत् ।
मंगलैर्जयशब्दैश्च कुर्याद्गोवर्द्धनोत्सवम् ॥२६॥
यत्र गोवर्धनाभावस्तत्र पूजाविधिं शृणु ।
गोमयैर्वर्द्धनं कुर्यात्तदाकारं परोन्नतम् ॥२७॥
पुष्पव्यूहैर्लताजालैरिषिकाभिः समन्वितः ।
पूजनीयः सदा मर्त्यैर्गिरिर्गोवर्धनो भुवि ॥२८॥
शिलासमानं पुरटं क्षिप्त्वाऽद्रौ तच्छिलां नयेत् ।
गृह्णीयाद्यो विना स्वर्णं स महारौरवं व्रजेत् ॥२९॥
शालग्रामस्य देवस्य सेवनं कारयेत्सदा ।
पातकं न स्पृशेत्तं वै पद्मपत्रं यथा जलम् ॥३०॥
गिरिराजशिलासेवां यः करोति द्विजोत्तमः ।
सप्तद्वीपमहीतीर्थावगाहफलमेति सः ॥३१॥
गिरिराजमहापूजां वर्षे वर्षे करोति यः ।
इह सर्वसुखं भुक्त्वाऽमुत्र मोक्षं प्रयाति सः ॥३२॥
सन्नन्द बोले- नन्दनन्दन ! तात ! तुम तो साक्षात् ज्ञानकी
निधि हो । गिरिराजकी पूजा किस विधिसे करनी होगी, यह ठीक-ठीक बताओ ॥ १४ ॥
श्रीभगवान् ने कहा- जहाँ गिरिराजकी पूजा करनी हो, वहाँ
उनके नीचेकी धरतीको गोबर से लीप- पोतकर वहीं सब सामग्री रखनी चाहिये । इन्द्रियोंको
वशमें रखकर बड़े भक्ति-भावसे 'सहस्रशीर्षा' मन्त्र पढ़ते हुए, ब्राह्मणोंके
साथ रहकर गङ्गाजल या यमुनाजलसे गिरिराजको स्नान कराना चाहिये। फिर श्वेत गोदुग्ध की धारा से तथा पञ्चामृत से स्नान कराकर, पुनः
यमुना- जलसे नहलाये। उसके बाद गन्ध, पुष्प, वस्त्र, आसन, भाँति-भाँतिके नैवेद्य, माला,
आभूषण- समूह तथा उत्तम दीपमाला समर्पित करके गिरिराजकी परिक्रमा करे । इसके बाद साष्टाङ्ग
प्रणाम करके, दोनों हाथ जोड़कर, इस प्रकार कहे — 'जो श्रीवृन्दावन के
अङ्क में अवस्थित तथा गोलोक के मुकुट हैं,
पूर्णब्रह्म परमात्मा के छत्ररूप उन गिरिराज गोवर्धन को हमारा बारंबार नमस्कार है ।' ॥१७-२०॥
तदनन्तर पुष्पाञ्जलि अर्पित करे। उसके बाद घंटा, झाँझ
और मृदङ्ग आदि मधुर ध्वनि करनेवाले बाजे बजाते हुए गिरिराजकी आरती करे। तदनन्तर 'वेदाहमेतं
पुरुषं महान्तम्०' इत्यादि मन्त्र पढ़ते हुए उनके ऊपर लावाकी
वर्षा करे और श्रद्धा पूर्वक गिरिराजके समीप अन्नकूट स्थापित करे। फिर चौसठ कटोरों को पाँच पङ्क्तियों में रखे और उनमें तुलसीदल-
मिश्रित गङ्गा-यमुनाका जल भर दे। फिर एकाग्रचित्त हो गिरिराजकी सेवामें छप्पन भोग अर्पित
करे । तत्पश्चात् अग्नि में होम करके ब्राह्मणोंकी पूजा करे तथा
गौओं और देवताओंपर भी गन्ध-पुष्प चढ़ाये। अन्तमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको सुगन्धित मिष्टान्न
भोजन कराकर, अन्य लोगों को —यहाँतक कि चण्डाल भी छूटने न पायें- उत्तम भोजन दे। इसके बाद गोपियों और गोपों के
समुदाय गौओं के सामने नृत्य करें, मङ्गल- गीत गायें और जय-जयकार
करते पूजनोत्सव सम्पन्न करें ।। २४ - २६ ।।
जहाँ गोवर्धन नहीं हैं, वहाँ गोवर्धन पूजाकी क्या विधि
है, यह सुनो। गोबर से गोवर्धनका बहुत ऊँचा आकार बनाये। फिर उन्हें पुष्प-समूहों, लता
- जालें और सींकोंसे सुशोभित करके, उसे ही गोवर्धन-गिरि मानकर सदा भूतलपर मनुष्योंको
उसकी पूजा करनी चाहिये ।। २७ - २८ ।।
यदि कोई गोवर्धनकी शिला ले जाकर पूजन करना चाहे तो
जितना बड़ा प्रस्तर ले जाय, उतना ही सुवर्ण उस पर्वतपर छोड़ दे।
जो बिना सुवर्ण दिन वहाँकी शिला ले जायगा, वह महारौरव नरक में पड़ेगा।
शालग्राम भगवान् की सदा सेवा करनी चाहिये।
शालग्रामके पूजक को पातक उसी तरह स्पर्श नहीं
करते, जैसे पद्मपत्र पर जलका लेप नहीं होता। जो
श्रेष्ठ द्विज गिरिराज-शिलाकी सेवा करता है, वह सा द्वीपोंसे युक्त भूमण्डलके
तीर्थोंमें स्नान करनेका फल पाता है। जो प्रतिवर्ष गिरिराजकी
महापूजा करता वह इस लोकमें सम्पूर्ण सुख भोगकर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।। २७ – ३२ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में गिरिराजखण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवाद में 'श्रीगिरिराज की पूजा-विधिवर्णन' नामक पहला
अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०८)
मंगलवार, 27 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 01)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
पहला अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीकृष्ण के द्वारा गोवर्धनपूजन का प्रस्ताव
और उसकी विधि का वर्णन
बहुलाश्व उवाच –
कथं दधार भगवान् गिरिं गोवर्धनं वरम्
।
उच्छिलींध्रं यथा बालो ह्स्तेनैकेन लीलया ॥१॥
परिपूर्णतमस्यास्य श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
वदैतच्चरितं दिव्यमद्भुतं मुनिसत्तम ॥२॥
श्रीनारद उवाच -
वार्षिकं हि करं राज्ञे यथा शक्राय वै तथा ।
बलिं ददुः प्रावृडन्ते गोपाः सर्वे कृषीवलाः ॥३॥
महेन्द्रयागसंभारचयं दृष्ट्वैकदा हरिः ।
नन्दं पप्रच्छ सदसि वल्लभानां च शृण्वताम् ॥४॥
श्रीभगवानुवाच -
शक्रस्य पूजनं ह्येतत्किं फलं चास्य विद्यते ।
लौकिकं वा वदन्त्येतदथवा पारलौकिकम् ॥५॥
श्रीनन्द उवाच -
शक्रस्य पूजनं ह्येतद्भुक्तिमुक्तिकरं परम् ।
एतद्विना नरो भूमौ जायते न सुखी क्वचित् ॥६॥
श्रीभगवानुवाच -
शक्रादयो देवगणाश्च सर्वतो
भुंजन्ति ये स्वर्गसुखं स्वकर्मभिः ।
विशन्ति ते मर्त्यपदं शुभक्षये
तत्सेवनं विद्धि न मुक्तिकारणम् ॥७॥
भयं भवेद्वै परमेष्ठिने यतो
वार्ता तु का कौ किल तत्कृतात्मनाम् ।
तस्मात्परं कालमनंतमेव हि
सर्वं बलिष्ठं सुबुधा विदुः परे ॥८॥
ततस्तमाश्रित्य सुकर्मभिः परं
भजेद्धरिं यज्ञपतिं सुरेश्वरम् ।
विसृज्य सर्वं मनसा कृतेः फलं
व्रजेत्परं मोक्षमसौ न चान्यथा ॥९॥
गोविप्रसाध्वग्निसुराः श्रुतिस्तथा
धर्मश्च यज्ञाधिपतेर्विभूतयः ।
धिष्ण्येषु चैतेषु हरिं भजन्ति ये
सदा त्विहामुत्र सुखं व्रजन्ति ते ॥१०॥
समुत्थितोऽसौ हरिवक्षसो गिरि-
र्गोवर्धनो नाम गिरीन्द्रराजराट् ।
समागतो ह्यत्र पुलस्त्यतेजसा
यद्दर्शनाज्जन्म पुनर्न विद्यते ॥११॥
सम्पूज्य गोविप्रसुरान्महाद्रये
दातव्यमद्यैव परं ह्युपायनम् ।
एष प्रियो मे मखराज एव हि
न चेद्यथेच्छास्ति तथा कुरु व्रज ॥१२॥
श्रीनारद उवाच -
तेषां मध्येऽथ सन्नन्दो गोपो वृद्धोऽतिनीतिवित् ।
अतिप्रसन्नः श्रीकृष्णमाह नन्दस्य शृण्वतः ॥१३॥
राजा बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे ! जैसे बालक खेल-ही-खेलमें
गोबर – छत्ते को उखाड़कर हाथमें ले लेता है, उसी प्रकार भगवान्ने
एक ही हाथसे महान् पर्वत गोवर्धनको लीलापूर्वक उठाकर छत्रकी भाँति धारण कर लिया था-
ऐसी बात सुनी जाती है। सो यह प्रसङ्ग कैसे आया ? मुनिसत्तम ! इन परिपूर्णतम परमात्मा
श्रीकृष्णचन्द्रके उसी दिव्य अद्भुत चरित्रका आप वर्णन कीजिये ॥ १-२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! जैसे खेती करनेवाले किसान
राजाको वार्षिक कर देते हैं, उसी प्रकार समस्त गोप प्रतिवर्ष शरदऋतुमें देवराज इन्द्रके
लिये बलि (पूजा और भोग) अर्पित करते थे। एक समय श्रीहरिने महेन्द्रयागके लिये सामग्रीका
संचय होता देख गोपसभामें नन्दजीसे प्रश्न किया। उनके उस प्रश्न को अन्यान्य गोप भी
सुन रहे थे ।। ३-४ ॥
श्रीभगवान् बोले- यह जो इन्द्रकी पूजा की जाती है,
इसका क्या फल है ? विद्वान् लोग इसका कोई लौकिक फल बताते हैं या पारलौकिक ? ॥ ५ ॥
श्रीनन्द ने कहा - श्यामसुन्दर
! देवराज इन्द्रका यह पूजन भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला परम उत्तम साधन है । भूतलपर
इसके बिना मनुष्य कहीं और कभी सुखी नहीं हो सकता ॥ ६ ॥
श्रीभगवान् बोले- पिताजी ! इन्द्र आदि देवता अपने पूर्वकृत
पुण्यकर्मो के प्रभावसे ही सब ओर स्वर्गका सुख भोगते हैं। भोगद्वारा शुभकर्मका क्षय
हो जानेपर उन्हें भी मर्त्यलोकमें आना पड़ता है। अतः उनकी सेवाको आप मोक्षका साधन मत
मानिये । जिससे परमेष्ठी ब्रह्माको भी भय प्राप्त होता है, फिर उनके द्वारा पृथ्वीपर
उत्पन्न किये गये प्राणियोंकी तो बात ही क्या है, उस कालको ही श्रेष्ठ विद्वान् सब से उत्कृष्ट, अनन्त तथा सब प्रकारसे बलिष्ठ मानते हैं ॥७-८॥
इसलिये उस काल का ही आश्रय लेकर
मनुष्य को सत्कर्मों द्वारा सुरेश्वर यज्ञपति
परमात्मा श्रीहरिका भजन करना चाहिये । अपने सम्पूर्ण सत्कर्मों के फलका मनसे परित्याग
करके जो श्रीहरिका भजन करता है, वही परममोक्षको प्राप्त होता है; दूसरे किसी प्रकारसे
उसको मोक्ष नहीं मिलता। गौ, ब्राह्मण, साधु, अग्नि, देवता, वेद तथा धर्म — ये भगवान्
यज्ञेश्वरकी विभूतियाँ हैं । इनको आधार बनाकर जो श्रीहरिका भजन करते हैं, वे सदा इस
लोक और परलोकमें सुख पाते हैं ॥९-१०॥
भगवान्- के वक्षःस्थलसे प्रकट हुआ वह गिरीन्द्रोंका
सम्राट् गोवर्धन नामक पर्वत महर्षि पुलस्त्यके प्रभावसे इस व्रजमण्डलमें आया है। उसके
दर्शनसे मनुष्यका इस जगत् में पुनर्जन्म नहीं होता। गौओं, ब्राह्मणों तथा देवताओंका
पूजन करके आज ही यह उत्तम भेंट- सामग्री महान् गिरिराजको अर्पित की जाय । यह यज्ञ नहीं,
यज्ञोंका राजा है। यही मुझे प्रिय है। यदि आप यह काम नहीं करना चाहते तो जाइये; जैसी
इच्छा हो, वैसा कीजिये ॥ ११- १२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं राजन् ! उन गोपोंमें सन्नन्द नामक
एक बड़े-बूढ़े गोप थे, जो बड़े नीतिवेत्ता थे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर नन्दजीके
सुनते हुए श्रीकृष्णसे कहा ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०७)
सोमवार, 26 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) छब्बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
छब्बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
श्रीकृष्णका विरजाके
साथ विहार; श्रीराधाके भयसे विरजाका नदीरूप होना, उसके सात पुत्रोंका उसी शापसे सात
समुद्र होना तथा राधाके शापसे श्रीदामाका अंशतः शङ्खचूड होना
श्रीनारद उवाच -
इति श्त्वाऽथ भगवान् तन्निकुंजं जगाम ह ॥ ३१ ॥
श्रीकृष्ण मित्रं श्रीदामा राधां प्राह रुषा वचः ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ॥ ३२ ॥
असंख्यब्रह्मांडपतिर्गोलोकेषु विराजते ।
त्वादृशीः कोटिशः शक्तीः कर्तुं शक्तः परात्परः ॥ ३३ ॥
तं विनिंदसि राधे त्वं मानं मा कुरु मा कुरु ।
राधोवाच -
हे मूढ पितरं स्तुत्वा मातरं मां विनिन्दसि ॥ ३४ ॥
राक्षसो भव दुर्बुद्धे गोलोकाच्च बहिर्भव ।
श्रीदामोवाच -
अनुकूलेन कृष्णेन जातं मानं शुभे तव ॥ ३५ ॥
तस्माद्भुवि परात्कृष्णात् परिपूर्णतमात्प्रभो ।
शतवर्षं ते वियोगो भविष्यति न संशयः ॥ ३६ ॥
श्रीनारद उवाच -
एवं परस्परं शापात् स्वकृताद्भयभीतयोः ।
अतीव चिन्तां गतयोराविरासीत्स्वयं प्रभुः ॥ ३७ ॥
श्रीभगवानुवाच -
वचनं वै स्वनिगमं दूरीकृर्तुं क्षमोऽस्म्यहम् ।
भक्तानां वचनं राधे दूरीकर्तुं न च क्षमः ॥ ३८ ॥
मा शोचं कुरु कल्याणि वरं मे शृणु राधिके ।
मासं मासं वियोगांते दर्शनं मे भविष्यति ॥ ३९ ॥
भुवो भारावताराय कल्पे वाराहसंज्ञके ।
भक्तानां दर्शनं दातुं गमिष्यामि त्वया सह ॥ ४० ॥
श्रीदमन् शृणु मे वाक्यमंशेन त्वसुरो भव ।
वैवस्वतान्तरे रासे हेलनं मे करिष्यसि ॥ ४१ ॥
मद्धस्तेन च ते मृत्युर्भविष्यति न संशयः ।
पुनः स्वविरहं पूर्वं प्राप्स्यसि त्वं वरान्मम ॥ ४२ ॥
श्रीनारद उवाच -
एवं शापेन श्रीदामा पुरा पुण्यजनालये ।
सुधनस्य गृहे जन्म लेभे राजन् महातपाः ॥ ४३ ॥
शंखचूड इति ख्यातो धनदानुचरोऽभवत् ।
तस्माच्छ्रीदाम्नि तज्ज्योतिः लीनं जातं विदेहराट् ॥ ४४ ॥
स्वात्मारमो लीलया सर्वकार्यं
स्वस्मिन् धाम्नि ह्यद्वितीयः करोति
।
यः सर्वेशः सर्वरूपो महात्मा
चित्रं नेदं नौमि कृष्णाय तस्मै ॥ ४५
॥
इदं मया ते कथितं मनोहरं
वैदेह वृंदावनखंडमग्रतः ।
श्रृणोति चैतच्चरितं नरो वरः
परंपदं पुण्यतमं प्रयाति सः ॥ ४६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! यह सुनकर भगवान् विरजा के निकुञ्ज में
चले गये । तब श्रीकृष्ण के मित्र श्रीदामा ने
राधा से रोषपूर्वक कहा ।। ३१ ।।
श्रीदामा बोला - राधे
! श्रीकृष्ण साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् हैं। वे स्वयं असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति
और गोलोकके स्वामीके रूपमें विराजमान हैं। परात्पर श्रीकृष्ण तुम- जैसी करोड़ों शक्तियोंको
बना सकते हैं। उनकी तुम निन्दा करती हो ? ऐसा मान न करो, न करो ।। ३२-३३ ॥
राधा बोली - ओ मूर्ख
! तू बापकी स्तुति करके मुझ माताकी निन्दा करता है ! अतः दुर्बुद्धे ! राक्षस हो जा
और गोलोकसे बाहर चला जा || ३४ ॥
श्रीदामा बोला - शुभे
! श्रीकृष्ण सदा तुम्हारे अनुकूल रहते हैं, इसीलिये तुम्हें इतना मान हो गया है। अतः
परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णसे भूतलपर तुम्हारा सौ वर्षोंके लिये वियोग हो संशय नहीं
है । ३५-३६ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! इस प्रकार परस्पर शाप देकर अपनी ही करनी से भयभीत हो,
जब राधा और श्रीदामा अत्यन्त चिन्तामें डूब गये, तब स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ प्रकट
हुए ।। ३७ ।।
श्रीभगवान् ने कहा- राधे ! मैं अपने निगम- स्वरूप वचन को
तो छोड़ सकता हूँ, किंतु भक्तों की बात अन्यथा करनेमें सर्वथा
असमर्थ हूँ। कल्याणि राधिके ! शोक मत करो,
मेरी बात सुनो। वियोग- कालमें भी प्रतिमास एक बार तुम्हें मेरा दर्शन हुआ करेगा। वाराहकल्पमें
भूतलका भार उतारने और भक्तजनोंको दर्शन देनेके लिये मैं तुम्हारे साथ पृथ्वीपर चलूँगा
। श्रीदामन् ! तुम भी मेरी बात सुनो। तुम अपने एक अंशसे असुर हो जाओ। वैवस्वत मन्वन्तर-
में रासमण्डलमें आकर जब तुम मेरी अवहेलना करोगे, तब मेरे हाथसे तुम्हारा वध होगा, इसमें
संशय नहीं है। तत्पश्चात् फिर मेरे वरदानसे तुम अपना पूर्व शरीर प्राप्त कर लोगे ॥
३८–४२ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! इस प्रकार शापवश महातपस्वी श्रीदामाने पूर्वकालमें यक्षलोकमें सुधनके घर जन्म
लिया। वह शङ्खचूड नामसे विख्यात हो यक्षराज कुबेरका सेवक हो गया। यही कारण है कि शङ्खचूडकी
ज्योति श्रीदामामें लीन हुई ।। ४३-४४ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण स्वात्माराम
हैं, एकमात्र अद्वितीय परमात्मा हैं। वे अपने ही धाममें लीलापूर्वक सारा कार्य करते
हैं। जो सर्वेश्वर, सर्वरूप एवं महान् आत्मा हैं, उनके लिये यह सब कार्य अद्भुत नहीं
है; मैं उन श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार करता हूँ ।। ४५ ।।
विदेहराज ! यह मनोहर
वृन्दावनखण्ड मैंने तुम्हारे सामने कहा है। जो नरश्रेष्ठ इस चरित्रका श्रवण करता है,
वह पुण्यतम परमपदको प्राप्त होता है ॥ ४६ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में वृन्दावनखण्ड के अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवाद में 'शङ्खचूडोपाख्यान' नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६ ॥
॥ श्रीवृन्दावनखण्ड सम्पूर्ण
||
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०६)
रविवार, 25 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) छब्बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
छब्बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीकृष्णका विरजाके
साथ विहार; श्रीराधाके भयसे विरजाका नदीरूप होना, उसके सात पुत्रोंका उसी शापसे सात
समुद्र होना तथा राधाके शापसे श्रीदामाका अंशतः शङ्खचूड होना
अथ कृष्णो नदीभूतां विरजां
विरजांबराम् ।
सविग्रहां चकाराशु स्ववरेण नृपेश्वर ॥ १५ ॥
पुनर्विरजया सार्धं विरजातीरजे वने ।
निकुंजवृंदकारण्ये चक्रे रासं हरिः स्वयम् ॥ १६ ॥
विरजायां सप्त सुता बभूवुः कृष्णतेजसा ।
निकुंजं ते ह्यलंचक्रुः शिशवो बाललीलया ॥ १७ ॥
एकदा तैः कलिरभूल्लघुर्ज्येष्ठश्च ताडितः ।
पलायमानो भयभृन्मातुः क्रोडे जगाम ह ॥ १८ ॥
तल्लालनं समारेभे समाश्वास्य सुतं सती ।
तदा वै भगवान् साक्षात्तत्रैवान्तरधीयत ॥ १९ ॥
रुषा सुतं शशापेयं श्रीकृष्णविरहातुरा ।
त्वं जलं भव दुर्बुद्धे कृष्णविच्छेदकारकः ॥ २० ॥
कदापि त्वं जलं मर्त्या न पिबंतु कदाचन ।
ज्येष्ठान् शशाप व्रजत मेदिनीं कलिकारकाः ॥ २१ ॥
जलरूपा पृथग्याना न समेता भविष्यथ ।
नैमित्तिकं च भवतां मेलनं स्यात्सदा लये ॥ २२ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्थं ते मातृशापेन धरणीं वै समागताः ।
प्रियव्रतरथांगानां परिखासु समास्थिताः ॥ २३ ॥
लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलार्णवाः ।
बभूवुः सप्त ते राजन्नक्षोभ्याश्च दुरत्ययाः ॥ २४ ॥
दुर्विगाह्याश्च गंभीरा आयामं लक्षयोजनात् ।
द्विगुणं द्विगुणं जातं द्वीपे द्वीपे पृथक् पृथक ॥ २५ ॥
अथ पुत्रेषु यातेषु पुत्रस्नेहातिविह्वला ।
स्वप्रियां तां विरहिणीमेत्य कृष्णो वरं ददौ ॥ २६ ॥
कदा न ते मे विच्छेदो मयि भीरु भविष्यति ।
स्वतेजसा स्वपुत्राणां सदा रक्षां करिष्यसि ॥ २७ ॥
अथ राधां विरहिणीं ज्ञात्वा कृष्णो हरिः स्वयम् ।
श्रीदाम्ना सह वैदेह तन्निकुंजं समाययौ ॥ २८ ॥
निकुञ्जद्वारि संप्राप्तं ससखं प्राणवल्लभम् ।
वीक्ष्य मानवती भूत्वा राधा प्राह हरिं वचः ॥ २९ ॥
तत्रैव गच्छ यत्राभूत्स्नेहस्ते नूतनो हरे ।
नदीभूता हि विरजा नदो भवितुमर्हसि ॥ ३० ॥
कुरु वासं तन्निकुंजे मया ते किं प्रयोजनम् ।
नृपेश्वर ! तदनन्तर नदीरूपमें
परिणत हुई विरजाको श्रीकृष्णने शीघ्र ही अपने वरके प्रभावसे मूर्तिमती एवं विमल वस्त्राभूषणोंसे
विभूषित दिव्य नारी बना दिया। इसके बाद वे विरजा-तटवर्ती वनमें वृन्दावन के निकुञ्ज में विरजा के
साथ स्वयं रास करने लगे। श्रीकृष्णके तेजसे विरजाके गर्भसे सात पुत्र हुए। वे सातों
शिशु अपनी बालक्रीड़ासे निकुञ्ज की शोभा बढ़ाने लगे ॥ १५-१७ ॥
एक दिन उन बालकोंमें
झगड़ा हुआ। उनमें जो बड़े थे, उन सबने मिलकर छोटेको मारा । छोटा भयभीत होकर भागा और
माताकी गोदमें चला गया। सती विरजा पुत्रको आश्वासन दे उसे दुलारने लगीं। उस समय साक्षात्
भगवान् वहाँसे अन्तर्धान हो गये। तब श्रीकृष्णके विरहसे व्याकुल हो, रोषसे अपने पुत्रको
शाप देते हुए विरजाने कहा- 'दुर्बुद्धे ! तू श्रीकृष्णसे वियोग करानेवाला है, अतः जल
हो जा; तेरा जल मनुष्य कभी न पीयें। फिर उसने बड़ोंको शाप देते हुए कहा— 'तुम सब-के-सब
झगड़ालू हो; अतः पृथ्वीपर जाओ और वहाँ जल होकर रहो । तुम सबकी पृथक्-पृथक् गति होगी।
एक-दूसरेसे कभी मिल न सकोगे। सदा ही प्रलयकालमें तुम्हारा नैमित्तिक मिलन होगा' ॥।
१८ - २२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! इस प्रकार माताके शापसे वे सब पृथ्वीपर आ गये और राजा प्रियव्रतके रथके पहियोंसे
बनी हुई परिखाओंमें समाविष्ट हो गये। खारा जल, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, क्षीर तथा
शुद्ध जलके वे सात सागर हो गये । राजन् ! वे सातों समुद्र अक्षोभ्य तथा दुर्लङ्घय हैं।
उनके भीतर प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है । वे बहुत ही गहरे तथा लाख योजनसे लेकर क्रमशः
द्विगुण विस्तारवाले होकर पृथक्-पृथक् द्वीपोंमें स्थित हैं ॥२३-२५ ॥
पुत्रों के चले जाने पर विरजा उनके स्नेह से अत्यन्त व्याकुल हो उठी । तब अपनी उस विरहिणी प्रिया के पास आकर श्रीकृष्णने वर दिया- 'भीरु ! तुम्हारा कभी मुझसे वियोग
नहीं होगा। तुम अपने तेजसे सदैव पुत्रों की रक्षा करती रहोगी।'
विदेहराज ! तदनन्तर श्रीराधाको विरह-दुःख से व्यथित जान श्यामसुन्दर
श्रीहरि स्वयं श्रीदामाके साथ उनके निकुञ्ज में आये । निकुञ्जके
द्वारपर सखाके साथ आये हुए प्राणवल्लभकी ओर देखकर राधा मानवती हो उनसे इस प्रकार बोलीं
।। २६ - २९ ॥
श्रीराधाने कहा - हरे
! वहीं चले जाओ, जहाँ तुम्हारा नया नेह जुड़ा है। विरजा तो नदी हो गयी, अब तुम्हें
उसके साथ नद हो जाना चाहिये। जाओ, उसीके कुञ्जमें रहो। मुझसे तुम्हारा क्या मतलब है
? ॥ ३० ॥
शेष
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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०५)
शनिवार, 24 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) छब्बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
छब्बीसवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीकृष्णका
विरजाके साथ विहार; श्रीराधाके भयसे विरजाका नदीरूप होना, उसके सात पुत्रोंका उसी शापसे
सात समुद्र होना तथा राधाके शापसे श्रीदामाका अंशतः शङ्खचूड होना
श्रीबहुलाश्व
उवाच -
अघासुरादिदैत्यानां ज्योतिः कृष्णे समाविशत् ।
श्रीदाम्नि शंखचूडस्य कस्माल्लीनं बभूव ह ॥ १ ॥
एतद्वद महाबुद्धे त्वं परावरवित्तम ।
अहो श्रीकृष्णचंद्रस्य चरितं परमाद्भुतम् ॥ २ ॥
पुरा गोलोकवृत्तान्तं नारायणमुखाच्छ्रुतम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं शृणु राजन् महामते ॥ ३ ॥
राधा श्रीर्विरजा भूश्च तिस्रः पत्न्योऽभवन्हरेः ।
तासां राधा प्रियाऽतीव श्रीकृष्णस्य महात्मनः ॥ ४ ॥
राधिकासमया राजन् कोटिचंद्रप्रकाशया ।
कुंजे विरजया रेमे एकान्ते चैकदा प्रभुः ॥ ५ ॥
सपत्नीसहितं कृष्णं राधा श्रुत्वा सखीमुखात् ।
अतीव विमना जाता सपत्नीसौख्यदुःखिता ॥ ६ ॥
शतयोजनविस्तारं शतयोजनमूर्ध्वगम् ।
कोट्यश्विनीसमायुक्तं कोटिसूर्यसमप्रभम् ॥ ७ ॥
विचित्रवर्णसौवर्णमुक्तादामविलंबितम् ।
पताकाहेमकलशैः कोटिभिर्मंडितं रथम् ॥ ८ ॥
समारुह्य सखीनां सा वेत्रहस्तैर्दशार्बुदैः ।
हरिं द्रष्टुं जगामाशु श्रीराधा भगवत्प्रिया ॥ ९ ॥
तन्निकुंजे द्वारपालं श्रीदामानं महाबलम् ।
हरिन्यस्तं समालोक्य तं निर्भर्त्स्य सखीजनैः ॥ १० ॥
वेत्रैः सन्ताड्य सहसा द्वारि गन्तुं समुद्यता ।
सखीकोलाहलं श्रुत्वा हरिरंतरधीयत ॥ ११ ॥
राधाभयाच्च विरजा नदी भूत्वाऽवहत्तदा ।
कोटियोजनमायामं गोलोकं सहसा नदी ॥ १२ ॥
सहसा कुण्डलीकृत्वा शुशुभेऽब्धिरिवावनिम् ।
रत्नपुष्पैर्विचित्रांगा यथोष्णिङ्मुद्रिता तथा ॥ १३ ॥
हरिं गतं तं विज्ञाय नदीभूतां च तां तथा ।
आलोक्य तन्निकुञ्जं च स्वकुञ्जं राधिका ययौ ॥ १४ ॥
बहुलाश्वने पूछा- महामते
देवर्षे ! आप परावरवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। अतः यह बताइये कि अघासुर आदि दैत्योंकी
ज्योति तो भगवान् श्रीकृष्णमें प्रविष्ट हुई थी, परंतु शङ्खचूडका तेज श्रीदामामें लीन
हुआ, इसका क्या कारण है ? अहो ! श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र अत्यन्त अद्भुत है ॥ १-२
॥
श्रीनारदजी बोले – महामते
नरेश ! यह पूर्वकालमें घटित गोलोकका वृत्तान्त है, जिसे मैंने भगवान् नारायण के मुखसे सुना था । यह सर्वपाप- हारी पुण्य-प्रसङ्ग तुम मुझसे सुनो।
श्रीहरिके तीन पत्नियाँ हुईं – श्रीराधा, विजया (विरजा) और भूदेवी । इन तीनोंमें महात्मा
श्रीकृष्णको श्रीराधा ही अधिक प्रिय हैं। राजन् ! एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण एकान्त कुञ्जमें
कोटि चन्द्रमाओंकी-सी कान्तिवाली तथा श्रीराधिका - सदृश सुन्दरी विरजाके साथ बिहार
कर रहे थे। सखीके मुखसे यह सुनकर कि श्रीकृष्ण मेरी सौतके साथ हैं, श्रीराधा मन-ही-मन
अत्यन्त खिन्न हो उठीं। सपत्नीके सौख्यसे उनको दुःख हुआ, तब भगवत्-प्रिया श्रीराधा
सौ योजन विस्तृत, सौ योजन ऊँचे और करोड़ों अश्विनियोंसे जुते सूर्यतुल्य- कान्तिमान्
रथपर — जो करोड़ों पताकाओं और सुवर्ण- कलशोंसे मण्डित था तथा जिसमें विचित्र रंगके
रत्नों, सुवर्ण और मोतियोंकी लड़ियाँ लटक रही थीं- आरूढ़ हो, दस अरब वेत्रधारिणी सखियोंके
साथ तत्काल श्रीहरिको देखनेके लिये गयीं। उस निकुञ्जके द्वारपर श्रीहरिके द्वारा नियुक्त
महाबली श्रीदामा पहरा दे रहा था। उसे देखकर श्रीराधाने बहुत फटकारा और सखीजनोंद्वारा
बेंतसे पिटवाकर सहसा कुञ्जद्वारके भीतर जानेको उद्यत हुईं। सखियोंका कोलाहल सुनकर श्रीहरि
वहाँसे अन्तर्धान हो गये । ३ – ११ ॥
श्रीराधाके भयसे विरजा
सहसा नदीके रूपमें परिणत हो, कोटियोजन विस्तृत गोलोक में उसके
चारों ओर प्रवाहित होने लगीं। जैसे समुद्र इस भूतल को घेरे हुए
है, उसी प्रकार विरजा नदी सहसा गोलोक को अपने घेरेमें लेकर बहने
लगीं। रत्नमय पुष्पोंसे विचित्र अङ्गोंवाली वह नदी विविध प्रकारके फूलोंकी छापसे अङ्कित
उष्णीष वस्त्रकी भाँति शोभा पाने लगीं 'श्रीहरि चले गये और विरजा नदीरूपमें परिणत हो
गयी' – यह देख श्रीराधिका अपने कुञ्जको लौट गयीं ॥ १२-१४ ॥
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