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बुधवार, 18 सितंबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०७)
मंगलवार, 17 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) नवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
नवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन
कटिदेशात्स्वर्णभूमिर्दिव्यरत्नखचित्प्रभा
।
उदरे रोमराजिश्च माधव्यो विस्तृता लताः ॥१५॥
नानापक्षिगणैर्व्याप्ता ध्वनद्भ्रमरभूषिताः ।
सुपुष्पफलभारैश्च नताः सत्कुलजा इव ॥१६॥
श्रीनाभिपंकजात्तस्य पंकजानि सहस्रशः ।
सरःसु हरिलोकस्य तानि रेजुरितस्ततः ॥१७॥
त्रिबलिप्रांततो वायुर्मन्दगाम्यतिशीतलः ।
जत्रुदेशाच्छुभा जाता मथुरा द्वारकापुरी ॥१८॥
भुजाभ्यां श्रीहरेर्जाताः श्रीदामाद्यष्ट पार्षदाः ।
नन्दाश्च मणिबंधाभ्यामुपनन्दाः कराग्रतः ॥१९॥
श्रीकृष्णबाहुमूलाभ्यां सर्वे वै वृषभानवः ।
कृष्णरोमसमुद्भूताः सर्वे गोपगणा नृप ॥२०॥
श्रीकृष्णमनसो गावो वृषा धर्मधुरन्धराः ।
बुद्धेर्यवसगुल्मानि बभूवुमैंथिलेश्वर ॥२१॥
तद्वामांसात्समुद्भूतं गौरं तेजः स्फुरत्प्रभम् ।
लीला श्रीर्भूश्च विरजा तस्माज्जाता हरेः प्रियाः ॥२२॥
लीलावती प्रिया तस्य तां राधां तु विदुः परे ।
श्रीराधाया भुजाभ्यां तु विशाखा ललिता सखी ॥२३॥
सहचर्यस्तथा गोप्यो राधारोमोद्भवा नृप ।
एवं गोलोकरचनां चकार मधुसूदनः ॥२४॥
विधाय सर्व निजलोकमित्थं
श्रीराधया तत्र रराज राजन् ।
असंख्यलोकाण्डपतिः परात्मा
परः परेशः परिपूर्णदेवः ॥२५॥
तत्रैकदा सुन्दररासमण्डले
स्फुरत्क्वणन्नूपुरशब्दसंकुले ।
सुच्छत्रमुक्ताफलदामजावृत-
स्रवद्बृहद्बिन्दुविराजितांगणे ॥२६॥
श्रीमालतीनां सुवितानजालतः
स्वतः स्रवत्सन्मकरन्दगन्धिते ।
मृदङ्गतालध्वनिवेणुनादिते
सुकण्ठगीतादिमनोहरे परे ॥२७॥
श्रीसुन्दरीरासरसे मनोरमे
मध्यस्थितं कोटिमनोजमोहनम् ।
जगाद राधापतिमूर्जया गिरा
कृत्वा कटाक्षं रसदानकौशलम् ॥२८॥
राधोवाच -
यदि रासे प्रसन्नोऽसि मम प्रेम्णा जगत्पते ।
तदाहं प्रार्थनां त्वां तु करोमि मनसि स्थिताम् ॥२९॥
श्रीभगवानुवाच -
इच्छां वरय वामोरु या ते मनसि वर्त्तते ।
न देयं यदि यद्वस्तु प्रेम्णा दास्यामि तत्प्रिये ॥३०॥
राधोवाच -
वृन्दावने दिव्यनिकुंजपार्श्वे
कृष्णातटे रासरसाय योग्यम् ।
रहःस्थलं त्वं कुरुतान्मनोज्ञं
मनोरथोऽयं मम देवदेव ॥३१॥
उनके कटिप्रदेशसे दिव्य रत्नोंद्वारा जटित प्रभामयी
स्वर्णभूमि का प्राकट्य हुआ और उनके उदरमें जो रोमावलियाँ हैं,
वे ही विस्तृत माधवी लताएँ बन गयीं। उन लताओंमें नाना प्रकारके पक्षियोंके झुंड सब
ओर फैलकर कलरव कर रहे थे। गुंजार करते हुए भ्रमर उन लता - कुञ्जोंकी शोभा बढ़ा रहे
थे ।। १५ ।।
वे लताएँ सुन्दर फूलों और फलोंके भारसे इस प्रकार झुकी
हुई थीं, जैसे उत्तम कुलकी कन्याएँ लज्जा और विनयके भारसे नतमस्तक रहा करती हैं भगवान्के
नाभिकमलसे सहस्रों कमल प्रकट हुए, जो हरिलोकके सरोवरोंमें इधर-उधर सुशोभित हो रहे थे।
भगवान् के त्रिवली - प्रान्तसे मन्दगामी और अत्यन्त शीतल समीर
प्रकट हुआ और उनके गलेकी हँसुलीसे 'मथुरा' तथा 'द्वारका' इन दो पुरियोंका प्रादुर्भाव
हुआ ।। १६–१८ ॥
श्रीहरिकी दोनों भुजाओंसे 'श्रीदामा' आदि आठ पार्षद
उत्पन्न हुए। कलाइयों से 'नन्द' और कराग्रभाग से
'उपनन्द' प्रकट हुए। श्रीकृष्णकी भुजाओं के मूल- भागों से समस्त वृषभानुओं का प्रादुर्भाव हुआ। नरेश्वर
! समस्त गोपगण श्रीकृष्ण के रोमसे उत्पन्न हुए हैं। श्रीकृष्णके
मनसे गौओं तथा धर्मधुरंधर वृषभो का प्राकट्य हुआ । मैथिलेश्वर
! उनकी बुद्धिसे घास और झाड़ियाँ प्रकट हुईं ।। १९-२१ ।।
भगवान् के बायें कंधे से एक परम कान्तिमान् गौर तेज प्रकट हुआ, जिससे लीला, श्री, भूदेवी,
विरजा तथा अन्यान्य हरिप्रियाएँ आविर्भूत हुईं। भगवान्को प्रियतमा जो 'श्रीराधा' हैं,
उन्हींको दूसरे लोग 'लीलावती' या 'लीला' के नामसे जानते हैं। श्रीराधाकी दोनों भुजाओंसे
'विशाखा' और 'ललिता' – इन दो सखियोंका आविर्भाव हुआ । नरेश्वर ! दूसरी दूसरी जो सहचरी
गोपियाँ हैं, वे सब राधा के रोम से प्रकट
हुई हैं। इस प्रकार मधुसूदन ने गोलोक की
रचना की ।। २२ - २४ ।।
राजन् ! इस तरह अपने सम्पूर्ण लोककी रचना करके असंख्य
ब्रह्माण्डोंके अधिपति, परात्पर, परमात्मा, परमेश्वर, परिपूर्ण देव श्रीहरि वहाँ श्रीराधाके
साथ सुशोभित हुए ।। २५ ।।
उस गोलोक में एक दिन सुन्दर रासमण्डल में, जहाँ बजते हुए नूपुरों का मधुर शब्द गूँज
रहा था, जहाँ का आँगन सुन्दर छत्रमें लगी हुई मुक्ताफल की लड़ियों से अमृत की
वर्षा होती रहने के कारण रसकी बड़ी-बड़ी बूँदोंसे सुशोभित था; मालती
के चंदोवों से स्वतः झरते हुए मकरन्द और गन्धसे सरस एवं
सुवासित था; जहाँ मृदङ्ग, तालध्वनि और वंशीनाद सब ओर व्याप्त था, जो मधुरकण्ठ से गाये गये गीत आदिके कारण परम मनोहर प्रतीत होता था तथा सुन्दरियोंके
रासरससे परिपूर्ण एवं परम मनोरम था; उसके मध्यभागमें स्थित कोटिमनोजमोहन हृदय- वल्लभसे
श्रीराधाने रसदान-कुशल कटाक्षपात करके गम्भीर वाणीमें कहा ।। २६–२८
।।
श्रीराधा बोलीं- जगदीश्वर ! यदि आप रासमें मेरे प्रेमसे
प्रसन्न हैं तो मैं आपके सामने अपने मनकी प्रार्थना व्यक्त करना चाहती हूँ ॥ २९ ॥
श्रीभगवान् बोले – प्रिये ! वामोरु !! तुम्हारे मनमें
जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो। तुम्हारे प्रेमके कारण मैं तुम्हें अदेय वस्तु भी दे दूँगा
॥ ३० ॥
श्रीराधाने कहा- वृन्दावनमें यमुनाके तटपर दिव्य निकुञ्जके
पार्श्वभागमें आप रासरसके योग्य कोई एकान्त एवं मनोरम स्थान प्रकट कीजिये । देवदेव
! यही मेरा मनोरथ है ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०६)
सोमवार, 16 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) नवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
नवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन
श्रीबहुलाश्व उवाच -
अहो गोवर्धनः साक्षाद्गिरिराजो हरिप्रियः ।
तत्समानं न तीर्थं हि विद्यते भूतले दिवी ॥१॥
कदा बभूव श्रीकृष्णवक्षसोऽयं गिरीश्वरः ।
एतद्वद महाबुद्धे त्वं साक्षाद्धरिमानसः ॥२॥
श्रीनारद उवाच -
गोलोकोत्पत्तिवृत्तान्तं शृणु राजन् महामते ।
चतुष्पदार्थदं नॄणामाद्यलीलासमन्वितम् ॥३॥
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्प्रभुः ॥४॥
प्रत्यग्धामा स्वयंज्योती रममाणो निरन्तरम् ।
यत्र कालः कलयतामीश्वरो धाममानिनाम् ॥५॥
राजन्न प्रभवेन्माया न महांश्च गुणः कुतः ।
न विशन्ति क्वचिद्राजन् मनश्चितो मतिर्ह्यहम् ॥६॥
स्वधाम्नि ब्रह्म साकारमिच्छया व्यरचीकरत् ।
प्रथमं चाभवच्छेषो बिसश्वेतो बृहद्वपुः ॥७॥
तदुत्संगे महालोको गोलोको लोकवन्दितः ।
यं प्राप्य भक्तिसंयुक्तः पुनरावर्तते न हि ॥८॥
असंख्यब्रह्माण्डपतेर्गोलोकाधिपतेः प्रभोः ।
पुनः पादाब्जसंभूता गंगा त्रिपथगामिनी ॥९॥
पुनर्वामांसतस्तस्य कृष्णाऽभूत्सरितां वरा ।
रेजे शृङ्गारकुसुमैर्यथोष्णिङ्मुद्रिता नृप ॥१०॥
श्रीरासमण्डलं दिव्यं हेमरत्नसमन्वितम् ।
नानाशृङ्गारपटलं गुल्फाभ्यां श्रीहरेः प्रभोः ॥११॥
सभाप्रांगणवीथीभिर्मण्डपैः परिवेष्टितः ।
वसन्तमाधुर्यधरः कूजत्कोकिलसंकुलः ॥१२॥
मयूरैः षट्पदैर्व्याप्तः सरोभिः परिसेवितः ।
जातो निकुंजो जंघाभ्यां श्रीकृष्णस्य महात्मनः ॥१३॥
वृदावनं च जानुभ्यां राजन् सर्ववनोत्तमम् ।
लीलासरोवरः साक्षादूरुभ्यां परमात्मनः ॥१४॥
बहुलाश्व बोले- देवर्षे ! महान् आर्श्वयकी बात है,
गोवर्धन साक्षात् पर्वतोंका राजा एवं श्रीहरि को बहुत ही प्रिय
है। उसके समान दूसरा तीर्थ न तो इस भूतलपर है और न स्वर्गमें ही । महामते ! आप साक्षात् श्रीहरिके हृदय हैं | अतः अब यह बताइये कि यह गिरिराज
श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल से कब प्रकट हुआ
।। १-२ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन ! महामते ! गोलोक के प्राकट्यका वृत्तान्त सुनो – यह श्रीहरिकी आदिलीलासे सम्बद्ध है
और मनुष्योंको धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष - चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाला है। प्रकृतिसे
परे विद्यमान साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण सर्वसमर्थ, निर्गुण पुरुष एवं अनादि
आत्मा हैं। उनका तेज अन्तर्मुखी है। वे स्वयंप्रकाश प्रभु निरन्तर रमणशील हैं, जिनपर
धामाभिमानी गणनाशील देवताओंका ईश्वर 'काल' भी शासन करनेमें समर्थ नहीं है ।। ३-५ ।।
राजन् ! माया भी जिनपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती,
उनपर महत्तत्त्व और सत्त्वादि गुणोंका वश तो चल ही कैसे सकता है। राजन् ! उनमें कभी
मन, चित्त, बुद्धि और अहंकारका भी प्रवेश नहीं होता। उन्होंने अपने संकल्प से अपने ही स्वरूप में साकार ब्रह्म को व्यक्त किया ॥ सबसे पहले विशालकाय शेषनागका प्रादुर्भाव हुआ, जो
कमलनाल के समान श्वेतवर्ण के हैं। उन्हींकी
गोदमें लोकवन्दित महालोक गोलोक प्रकट हुआ, जिसे पाकर भक्तियुक्त पुरुष फिर इस संसार में नहीं लौटता है ।। ६-८ ।।
फिर असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति गोलोकनाथ भगवान्
श्रीकृष्णके चरणारविन्दसे त्रिपथगा गङ्गा प्रकट हुईं। नरेश्वर ! तत्पश्चात् श्रीकृष्णके
बायें कंधेसे सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुनाजीका प्रादुर्भाव हुआ, जो शृङ्गार-कुसुमोंसे
उसी प्रकार सुशोभित हुई, जैसे छपी हुई पगड़ीके वस्त्रकी शोभा होती है । तदनन्तर भगवान्
श्रीहरिके दोनों गुल्फों (टखनों या घुट्टियों) से हेमरत्नोंसे युक्त दिव्य रासमण्डल
और नाना प्रकारके शृङ्गार-साधनोंके समूहका प्रादुर्भाव हुआ ।। ९-११ ।।
इसके बाद महात्मा श्रीकृष्णकी दोनों पिंडलियोंसे निकुञ्ज
प्रकट हुआ, जो सभाभवनों, आँगनों, गलियों और मण्डपोंसे घिरा हुआ था। वह निकुञ्ज वसन्तकी
माधुरी धारण किये हुए था। उसमें कूजते हुए कोकिलों की काकली सर्वत्र
व्याप्त थी । मोर, भ्रमर तथा विविध सरोवरों से भी वह परिशोभित
एवं परिसेवित दिखायी देता था । राजन् ! भगवान् के दोनों घुटनों से सम्पूर्ण वनों में उत्तम श्रीवृन्दावन का आविर्भाव हुआ। साथ ही उन साक्षात् परमात्मा की
दोनों जाँघों से लीला-सरोवर प्रकट हुआ। ।। १२-१४ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०५)
रविवार, 15 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) आठवाँ अध्याय
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
आठवाँ अध्याय
विभिन्न तीर्थों में गिरिराज के विभिन्न अङ्गों की स्थिति का
वर्णन
श्रीबहुलाश्व उवाच -
केषु केषु तदङ्गेषु किं किं तीर्थं समाश्रितम्॥
वद देव महादेव त्वं परावरवित्तमः॥१॥
श्रीनारद उवाच -
यत्र यस्य प्रसिद्धिः स्यात्तदंगं परमं विदुः॥
क्रमतो नास्त्यंगचयो गिरिराजस्य मैथिल॥२॥
यथा सर्वगतं ब्रह्म सर्वांगानि च तस्य वै॥
विभूतेर्भावतः शश्वत्तथा वक्ष्यामि मानद॥३॥
शृङ्गारमण्डलस्याधो मुखं गोवर्धनस्य च॥
यत्रान्नकूटं कृतवान् भगवान् व्रजवासिभिः॥४॥
नेत्रे वै मानसी गंगा नासा चन्द्रसरोवरः॥
गोविन्दकुण्डो ह्यधरश्चिबुकं कृष्णकुण्डकः॥५॥
राधाकुण्डं तस्य जिह्वा कपोलौ ललितासरः॥
गोपालकुण्डः कर्णश्च कर्णान्तः कुसुमाकरः॥६॥
मौलिचिह्ना शीला तस्य ललाटं विद्धि मैथिल॥
शिरश्चित्रशिला तस्य ग्रीवा वै वादनी शिला॥७॥
कांदुकं पार्श्वदेशञ्च औष्णिषं कटिरुच्यते॥
द्रोणतीर्थं पृष्ठदेशे लौकिकं चोदरे स्मृतम्॥८॥
कदम्बखण्डमुरसि जीवः शृङ्गारमण्डलम्॥
श्रीकृष्णपादचिह्नं तु मनस्तस्य महात्मनः॥९॥
हस्तचिह्नं तथा बुद्धिरैरावतपदं पदम्॥
सुरभेः पादचिह्नेषु पक्षौ तस्य महात्मनः॥१०॥
पुच्छकुण्डे तथा पुच्छं वत्सकुंडे बलं स्मृतम्॥
रुद्रकुण्डे तथा क्रोधं कामं शक्रसरोवरे॥११॥
कुबेरतीर्थे चोद्योगं ब्रह्मतीर्थे प्रसन्नताम्॥
यमतीर्थे ह्यहंकारं वदन्तीत्थं पुराविदः॥१२॥
एवमंगानि सर्वत्र गिरिराजस्य मैथिल॥
कथितानि मया तुभ्यं सर्वपापहराणि च॥१३॥
गिरिराजविभूतिं च यः शृणोति नरोत्तमः॥
स गच्छेद्धाम परमं गोलोकं योगिदुर्लभम्॥१४॥
समुत्थितोऽसौ हरिवक्षसो गिरि-
र्गोवर्धनो नाम गिरीन्द्रराजराट्॥
समागतो ह्यत्र पुलस्त्यतेजसा
यद्दर्शनाज्जन्म पुनर्न विद्यते॥१५॥
बहुलाश्वने पूछा- महाभाग ! देव !! आप पर, अपर भूत और
भविष्यके ज्ञाताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। अतः बताइये, गिरिराजके किन-किन अङ्गोंमें कौन-
कौन-से तीर्थ विद्यमान हैं ? ॥ १ ॥
श्रीनारदजी बोले – राजन् ! जहाँ, जिस अङ्ग- की प्रसिद्धि
है, वही गिरिराजका उत्तम अङ्ग माना गया है। क्रमशः गणना करनेपर कोई भी ऐसा स्थान नहीं
है, जो गिरिराजका अङ्ग न हो। मानद ! जैसे ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है और सारे अङ्ग
उसीके हैं, उसी प्रकार विभूति और भावकी दृष्टिसे गोवर्धनके जो शाश्वत अङ्ग माने जाते
हैं, उनका मैं वर्णन करूँगा ।। २-३ ॥
शृङ्गारमण्डलके अधोभागमें श्रीगोवर्धनका मुख हैं, जहाँ
भगवान् ने व्रजवासियोंके साथ अन्नकूट का
उत्सव किया था । 'मानसी गङ्गा' गोवर्धनके दोनों नेत्र हैं, 'चन्द्रसरोवर' नासिका,
'गोविन्दकुण्ड' अधर और 'श्रीकृष्णकुण्ड' चिबुक है। 'राधाकुण्ड' गोवर्धनकी जिह्वा और
'ललितासरोवर' कपोल है। 'गोपालकुण्ड' कान और 'कुसुमसरोवर' कर्णान्तभाग है ।। ४-६ ॥
मिथिलेश्वर
! जिस शिलापर मुकुटका चिह्न है, उसे गिरिराजका ललाट समझो । 'चित्रशिला' उनका मस्तक
और 'वादिनी शिला' उनकी ग्रीवा है। 'कन्दुकतीर्थ' उनका पार्श्वभाग है और 'उष्णीषतीर्थ
को उनका कटिप्रदेश बतलाया जाता है । 'द्रोणतीर्थ' पृष्ठदेशमें और 'लौकिकतीर्थ' पेट में है ।। ७-८ ॥
'कदम्बखण्ड' हृदयस्थलमें है । 'शृङ्गारमण्डलतीर्थ'
उनका जीवात्मा है। 'श्रीकृष्ण-चरण-चिह्न' महात्मा गोवर्धन का
मन है । 'हस्तचिह्नतीर्थ' बुद्धि तथा 'ऐरावत - चरणचिह्न' उनका चरण है। सुरभिके चरण
चिह्नों में महात्मा गोवर्धनके पंख हैं ।। ९-१०
॥
'पुच्छकुण्ड' में पूँछकी भावना की जाती है। 'वत्सकुण्ड'
में उनका बल, 'रुद्रकुण्ड' में क्रोध तथा 'इन्द्रसरोवर' में कामकी स्थिति है। 'कुबेरतीर्थ'
उनका उद्योगस्थल और 'ब्रह्मतीर्थ' प्रसन्नताका प्रतीक है । पुराणवेत्ता पुरुष 'यमतीर्थ
में गोवर्धनके अहंकारकी स्थिति बताते हैं ।। ११-१२ ॥
मैथिल ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सर्वत्र गिरिराज के अङ्ग बताये हैं, जो समस्त पापोंको हर लेनेवाले हैं। जो नरश्रेष्ठ
गिरिराजकी इस विभूतिको सुनता है, वह योगिजनदुर्लभ 'गोलोक' नामक परमधाममें जाता है।
गिरिराजोंका भी राजा गोवर्धन पर्वत श्रीहरिके वक्षःस्थलसे प्रकट हुआ है और पुलस्त्यमुनिके
तेजसे इस व्रजमण्डलमें उसका शुभागमन हुआ है। उसके दर्शनसे मनुष्यका इस लोकमें पुनर्जन्म
नहीं होता ।। १३-१५ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'गिरिराजकी विभूतियोंका वर्णन नामक आठवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०४)
शनिवार, 14 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
सातवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
गिरिराज गोवर्धनसम्बन्धी तीर्थोंका वर्णन
कदम्बखण्डतीर्थं च लीलायुक्तं हरेः
सदा ।
तस्य दर्शनमात्रेण नरो नारायणो भवेत् ॥२६॥
यत्र वै राधया रासे शृङ्गारोऽकारि मैथिल ।
तत्र गोवर्धने जातं स्थले शृङ्गारमण्डलम् ॥२७॥
येन रूपेण कृष्णेन धृतो गोवर्धनो गिरिः ।
तद्रूपं विद्यते तत्र नृप शृङ्गारमण्डलम् ॥२८॥
अब्दाश्चतुःसहस्राणि तथा चाष्टौ शतानि च ।
गतास्तत्र कलेरादौ क्षेत्रे शृङ्गारमण्डले ॥२९॥
गिरिराजगुहामध्यात्सर्वेषां पश्यतां नृप ।
स्वतः सिद्धं च तद्रूपं हरेः प्रादुर्भविष्यति ॥३०॥
श्रीनाथं देवदमनं तं वदिष्यन्ति सज्जनाः ।
गोवर्धने गिरौ राजन् सदा लीलां करोति यः ॥३१॥
ये करिष्यन्ति नेत्राभ्यां तस्य रूपस्य दर्शनम् ।
ते कृतार्था भविष्यन्ति मैथिलेन्द्र कलौ जनाः ॥३२॥
जगन्नाथो रंगनाथो द्वारकानाथ एव च ।
बद्रीनाथश्चतुष्कोणे भारतस्यापि पर्वते ॥३३॥
मध्ये गोवर्धनस्यापि नाथोऽयं वर्तते नृप ।
पवित्रे भारते वर्षे पंच नाथाः सुरेश्वराः ॥३४॥
सद्धर्ममण्डपस्तम्बा आर्तत्राणपरायणाः ।
तेषां तु दर्शनं कृत्वा नरो नारायणो भवेत् ॥३५॥
चतुर्णां भुवि नाथानां कृत्वा यात्रां नरः सुधीः ।
न पश्येद्देवदमनं स न यात्राफलं लभेत् ॥३६॥
श्रीनाथं देवदमनं पश्येद्गोवर्धने गिरौ ।
चतुर्णां भुवि नाथानां यात्रायाः फलमाप्नुयात् ॥३७॥
ऐरावतस्य सुरभेः पादचिह्नानि यत्र वै ।
तत्र नत्वा नरः पापी वैकुण्ठं याति मैथिल ॥३८॥
हस्तचिह्नं पादचिह्नं श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
दृष्ट्वा नत्वा नरः कश्चित्साक्षात्कृष्णपदं व्रजेत् ॥३९॥
एतानि नृप तीर्थानि कुंडाद्यायतनानि च ।
अंगानि गिरिराजस्य किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥४०॥
श्रीहरिकी लीलासे युक्त जो 'कदम्बखण्ड' नामक तीर्थ
है, वहाँ सदा ही श्रीकृष्ण लीलारत रहते हैं। इस तीर्थका दर्शन करने मात्र से नर नारायण हो जाता है। मैथिल ! जहाँ गोवर्धनपर रास में श्रीराधा ने शृङ्गार धारण किया था, वह स्थान
'शृङ्गारमण्डल' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । नरेश्वर ! श्रीकृष्णने
जिस रूप से गोवर्धन पर्वत को धारण किया
था, उनका वही रूप शृङ्गारमण्डल – तीर्थ में विद्यमान है ॥ २६-२८ ॥
जब कलियुग के चार हजार आठ सौ
वर्ष बीत जायँगे, तब शृङ्गारमण्डल क्षेत्र में गिरिराज की गुफा के मध्यभाग से
सब के देखते-देखते श्रीहरिका स्वतः सिद्ध रूप प्रकट होगा ॥ २९-३० ॥
नरेश्वर । देवताओं का अभिमान
चूर्ण करनेवाले उस स्वरूपको सज्जन पुरुष 'श्रीनाथजी' के नाम से
पुकारेंगे। राजन् ! गोवर्धन पर्वतपर श्रीनाथजी सदा ही लीला करते हैं। मैथिलेन्द्र
! कलियुग में जो लोग अपने नेत्रों से श्रीनाथजी के रूप का दर्शन करेंगे, वे कृतार्थ हो जायँगे
॥ ३१–३२ ॥
[भगवान् श्रीनाथजी] भारत के चारों कोनों में क्रमशः जगन्नाथ, श्रीरङ्गनाथ, श्रीद्वारकानाथ और श्रीबद्रीनाथके
नामसे प्रसिद्ध हैं। नरेश्वर ! भारतके मध्यभागमें भी वे गोवर्धननाथके नामसे विद्यमान
हैं। इस प्रकार पवित्र भारतवर्षमें ये पाँचों नाथ देवताओंके भी स्वामी हैं। वे पाँचों
नाथ सद्धर्मरूपी मण्डपके पाँच खंभे हैं और सदा आर्तजनोंकी रक्षामें तत्पर रहते हैं।
उन सबका दर्शन करके नर नारायण हो जाता है ॥ ३३-३५ ॥
जो विद्वान् पुरुष इस भूतलपर चारों नाथोंकी यात्रा
करके मध्यवर्ती देवदमन श्रीगोवर्धननाथका दर्शन नहीं करता, उसे यात्राका फल नहीं मिलता।
जो गोवर्धन पर्वतपर देवदमन श्रीनाथका दर्शन कर लेता है, उसे पृथ्वीपर चारों नाथोंकी
यात्राका फल प्राप्त हो जाता है । ३६ - ३७ ॥
मैथिल ! जहाँ ऐरावत हाथी और सुरभि गौके चरणोंके चिह्न
हैं, वहाँ नमस्कार करके पापी मनुष्य भी वैकुण्ठधाम में चला जाता
है। जो कोई भी मनुष्य महात्मा श्रीकृष्णके हस्तचिह्नका और चरणचिह्नका दर्शन कर लेता
है, वह साक्षात् श्रीकृष्णके धाममें जाता है। नरेश्वर ! ये तीर्थ, कुण्ड और मन्दिर
गिरिराजके अङ्गभूत हैं; उनको बता दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो । ३८-४० ।।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें श्रीगिरिराजखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद-बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीगिरिराजके तीर्थोका वर्णन' नामक सातवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०३)
शुक्रवार, 13 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
गिरिराज गोवर्धनसम्बन्धी तीर्थोंका वर्णन
दृष्ट्वा शक्रपदं याति नत्वा
ब्रह्मपदं च तत् ।
विलुंठन् यस्य रजसा साक्षाद्विष्णुपदं व्रजेत् ॥१३॥
गोपानामुष्णिषाण्यत्र चोरयामास माधवः ।
औष्णिषं नाम तत्तीर्थं महापापहरं गिरौ ॥१४॥
तत्रैकदा वै दधिविक्रयार्थं
विनिर्गतो गोपवधूसमूहः ।
श्रुत्वा क्वणन्नूपुरशब्दमारा-
द्रुरोध तन्मार्गमनंगमोही ॥१५॥
वंशीधरो वेत्रवरेण गोपैः
पुरश्च तासां विनिधाय पादम् ।
मह्यं करादानधनाय दानं
देहीति गोपीर्निजगाद मार्गे ॥१६॥
गोप्य ऊचुः -
वक्रस्त्वमेवासि समास्थितः पथि
गोपार्भकैर्गोरसलम्पटो भृशम् ।
मात्रा च पित्रा सह कारयामो
बलाद्भवन्तं किल कंसबन्धने ॥१७॥
श्रीभगवानुवाच -
कंसं हनिष्यामि महोग्रदण्डं
सबांधवं मे शपथो गवां च ।
एवं करिष्यामि यदोः पुरे बला-
न्नेष्ये सदाहं गिरिराजभूमेः ॥१८॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा दधिपात्राणि बालैर्नीत्वा पृथक् पृथक् ।
भूपृष्ठे पोथयामास सानन्दं नन्दनन्दनः ॥१९॥
अहो एष परं धृष्टो निर्भयो नन्दनन्दनः ।
निरंकुशो भाषणीयो वने वीरः पुरेऽबलः ॥२०॥
ब्रुवामहे यशोदायै नन्दाय च किलाद्य वै ।
एवं वदन्त्यस्ता गोप्यः सस्मिताः प्रययुर्गृहान् ॥२१॥
नीपपालाशपत्राणां कृत्वा द्रोणानि माधवः ।
जघास बालकैः सार्द्धं पिच्छलानि दधीनि च ॥२२॥
द्रोणाकाराणि पत्राणि बभूवुः शाखिनां तदा ।
तत्क्षेत्रं च महापुण्यं द्रोणं नाम नृपेश्वर ॥२३॥
दधिदानं तत्र कृत्वा पीत्वा पत्रधृतं दधि ।
नमस्कुर्यान्नरस्तस्य गोलोकान्न च्युतिर्भवेत् ॥२४॥
नेत्रे त्वाच्छाद्य यत्रैव लीनोऽभून्माधवोऽर्भकैः ।
तत्र तीर्थं लौकिकं च जातं पापप्रणाशनम् ॥२५॥
वहाँ 'शक्रपद' और 'ब्रह्मपद' नामक तीर्थ हैं, जिनका
दर्शन और जिन्हें प्रणाम करके मनुष्य इन्द्रलोक और ब्रह्मलोकमें जाता है। जो वहाँकी
धूलमें लोटता है, वह साक्षात् विष्णुपदको प्राप्त होता है । जहाँ माधवने गोपोंकी पगड़ियाँ
चुरायी थीं, वह महापापहारी तीर्थ उस पर्वतपर 'औष्णीष' नामसे प्रसिद्ध है ॥ १३-१४ ॥
एक समय वहाँ दधि बेचनेके लिये गोपवधुओंका समुदाय आ
निकला। उनके नूपुरोंकी झनकार सुनकर मदनमोहन श्रीकृष्णने निकट आकर उनकी राह रोक ली ।
वंशी और वेत्र धारण किये श्रीकृष्णने ग्वाल- बालोंद्वारा उनको चारों ओरसे घेर लिया
और स्वयं उनके आगे पैर रखकर मार्गमें उन गोपियोंसे बोले- 'इस मार्गपर हमारी ओरसे कर
वसूल किया जाता है, सो तुमलोग हमारा दान दे दो' ॥ १५-१६ ॥
गोपियाँ बोलीं- तुम बड़े टेढ़े हो, जो ग्वाल- बालोंके
साथ राह रोककर खड़े हो गये ? तुम बड़े गोरस - लम्पट हो । हमारा रास्ता छोड़ दो, नहीं
तो माँ-बापसहित तुमको हम बलपूर्वक राजा कंसके कारागारमें डलवा देंगी ॥ १७ ॥
श्रीभगवान् ने कहा- अरी! कंसका क्या डर अरी ! कंसका
क्या डर दिखाती हो ? मैं गौओंकी शपथ खाकर कहता हूँ, महान् उग्रदण्ड धारण करनेवाले कंसको
मैं उसके बन्धु बान्धव सहित मार डालूँगा; अथवा मैं उसे मथुरासे गोवर्धनकी घाटीमें खींच
लाऊँगा ।। १८ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर बालकोंद्वारा
पृथक्-पृथक् सबके दहीपात्र मँगवाकर नन्दनन्दनने बड़े आनन्दके साथ भूमिपर पटक दिये।
गोपियाँ परस्पर कहने लगीं— 'अहो ! यह नन्दका लाला तो बड़ा ही ढीठ और निडर है, निरङ्कुश
है। । इसके साथ तो बात भी नहीं करनी चाहिये । यह गाँवमें तो निर्बल बना रहता है और
वनमें आकर वीर बन जाता है। हम आज ही चलकर यशोदाजी और नन्द- रायजीसे कहती हैं ।' — यों
कहकर गोपियाँ मुस्कराती हुई अपने घरको लौट गयीं ॥ १९ – २१ ॥
इधर माधवने कदम्ब और पलाशके पत्तेके दोने बनाकर बालकोंके
साथ चिकना चिकना दही ले लेकर खाया। तबसे वहाँके वृक्षोंके पत्ते दोनेके आकारके होने
लग गये। नृपेश्वर ! वह परम पुण्य क्षेत्र 'द्रोण' नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ २२-२३ ॥
जो मनुष्य वहाँ दहीं दान करके
स्वयं भी पत्ते में रखे हुए दही को पीकर
उस तीर्थ को नमस्कार करता है, उसकी गोलोक से
कभी च्युति नहीं होती । जहाँ नेत्र मूँदकर माधव बालकों के साथ
लुका-छिपी के खेल खेलते थे, वहाँ 'लौकिक' नामक पापनाशन तीर्थ
हो गया ॥ २४-२५ ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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