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सोमवार, 23 सितंबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०२)
रविवार, 22 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
सिद्ध के द्वारा अपने पूर्वजन्म के वृत्तान्त
का वर्णन तथा गोलोक से उतरे हुए विशाल रथपर आरूढ़ हो उसका श्रीकृष्ण-लोक में गमन
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा सिद्धवाक्यं ब्राह्मणो विस्मयं गतः।
पुनः पप्रच्छ तं राजन् गिरिराजप्रभाववित् ॥१॥
ब्राह्मण उवाच -
पुरा जन्मनि कस्त्वं भोस्त्वया किं कलुषं कृतम् ।
सर्वं वद महाभाग त्वं साक्षाद्दिव्यदर्शनः ॥२॥
सिद्ध उवाच -
पुरा जन्मनि वैश्योऽहं धनी वैश्यसुतो महान् ।
आबाल्याद्द्युतनिरतो विटगोष्ठीविशारदः ॥३॥
वेश्यारतः कुमार्गोऽहं मदिरामदविह्वलः ।
मात्रा पित्रा भार्ययापि भर्त्सितोऽहं सदा द्विज ॥४॥
एकदा तु मया विप्र पितरौ गरदानतः ।
मारितौ च तथा भार्या खड्गेन पथि मारिता ॥५॥
गृहीत्वा तद्धनं सर्वं वेश्यया सहितः खलः ।
दक्षिणाशां च गतवान् दस्युकर्माऽतिनिर्दयः ॥६॥
एकदा तु मया वेश्या निःक्षिप्ता ह्यंधकूपके ।
दस्युना हि मया पाशैर्मारिताः शतशो नराः ॥७॥
धनलोभेन भो विप्र ब्रह्महत्याशतं कृतम् ।
क्षत्रहत्या वैश्यहत्याः शूद्रहत्याः सहस्रशः ॥८॥
एकदा मांसमानेतुं मृगान् हन्तुं वने गतम् ।
सर्पोऽदशत्पदा स्पृष्टो दुष्टं मां निधनं गतम् ॥९॥
संताड्य मुद्गरैर्घोरैर्यमदूता भयंकराः ।
बद्ध्वा मां नरकं निन्युर्महापातकिनं खलम् ॥१०॥
मन्वन्तरं तु पतितः कुम्भीपाके महाखले ।
कल्पैकं तप्तसूर्मौ च महादुःखं गतः खलः ॥११॥
चतुरशीतिलक्षाणां नरकाणां पृथक् पृथक् ।
वर्षं वर्षं निपतितो निर्गतोऽहं यमेच्छया ॥१२॥
ततस्तु भारते वर्षे प्राप्तोऽहं कर्मवासनाम् ।
दशवारं सूकरोऽहं व्याघ्रोऽहं शतजन्मसु ॥१३॥
उष्ट्रोऽहं जन्मशतकं महिषः शतजन्मसु ।
सर्पोऽहं जन्मसाहस्रं मारितो दुष्टमानवैः ॥१४॥
एवं वर्षायुतांते तु निर्जले विपिने द्विज ।
राक्षसश्चेदृशो जातो विकरालो महाखलः ॥१५॥
कस्य शूद्रस्य देहं वै समारुह्य व्रजं गतः ।
वृन्दावनस्य निकटे यमुना निकटाच्छुभात् ॥१६॥
समुत्थिता यष्टिहस्ताः श्यामलाः कृष्णपार्षदाः ।
तैस्ताडितो धर्षितोऽहं व्रजभूमौ पलायितः ॥१७॥
बुभिक्षितो बहुदिनैस्त्वां खादितुमिहागतः ।
तावत्त्वया ताडितोऽहं गिरिराजाश्मना मुने ॥१८॥
श्रीकृष्णकृपया साक्षात्कल्याणं मे बभूव ह ।
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! सिद्धकी यह बात सुनकर
ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ । गिरिराजके प्रभावको जानकर उसने सिद्ध से
पुनः प्रश्न किया ॥ १ ॥
ब्राह्मणने पूछा- महाभाग ! इस समय तो तुम साक्षात्
दिव्यरूपधारी दिखायी देते हो। परंतु पूर्वजन्ममें तुम कौन थे और तुमने कौन-सा पाप किया
था ? ॥ २ ॥
सिद्धने कहा – पूर्वजन्म में
मैं एक धनी वैश्य था । अत्यन्त समृद्ध वैश्य -बालक होनेके कारण मुझे बचपन से ही जुआ खेलने की आदत पड़ गयी थी। धूर्तों और जुआरियोंकी गोष्ठी
में मैं सब से चतुर समझा जाता था ॥ ३ ॥
आगे चलकर मैं वेश्या में आसक्त
हो गया, कुपथपर चलने और मदिरा के मदसे उन्मत्त रहने लगा । ब्रह्मन्
! इसके कारण मुझे अपने माता-पिता और पत्नीकी ओरसे बड़ी फटकार मिलने लगी। एक दिन मैंने
माँ-बापको तो जहर देकर मार डाला और पत्नीको साथ लेकर कहीं जानेके बहाने निकला और रास्तेमें
मैंने तलवारसे उसकी हत्या कर दी। इस तरह उन सबके धनको हथियाकर मैं उस वेश्याके साथ
दक्षिण दिशामें चला गया। यह है मेरी दुष्टताका परिचय । दक्षिण जाकर मैं अत्यन्त निर्दयतापूर्वक
लूट-पाटका काम करने लगा ॥ ४-६ ॥
एक दिन उस वेश्या को भी मैंने
अँधेरे कुऍ में डाल दिया। डाकू तो मैं हो ही गया था, मैंने फाँसी
लगाकर सैकड़ों मनुष्योंको मौतके घाट उतार दिया। विप्रवर ! धनके लोभसे मैंने सैकड़ों
ब्रह्महत्याएँ कीं । क्षत्रिय- हत्या, वैश्य - हत्या और शूद्र हत्याकी संख्या तो हजारों
तक पहुँच गयी होगी ॥ ७-८ ॥
एक दिनकी बात है कि मैं मांस लानेके निमित्त मृगोंका
वध करनेके लिये वनमें गया । वहाँ एक सर्पके ऊपर मेरा पैर पड़ गया और उसने मुझे डॅस
लिया। फिर तो तत्काल मेरी मृत्यु हो गयी और यमराजके भयंकर दूतोंने आकर मुझ दुष्ट और
महापातकी को भयानक मुद्गरों से पीट-पीटकर
बाँधा और नरक में पहुँचा दिया ॥ ९-१० ॥
मुझे महादुष्ट मानकर 'कुम्भीपाक' में डाला गया और वहाँ
एक मन्वन्तरतक रहना पड़ा। तत्पश्चात् 'तप्तसूर्मि' नामक नरकमें मुझ दुष्टको एक कल्पतक
महान् दुःख भोगना पड़ा। इस तरह चौरासी लाख नरकोंमेंसे प्रत्येकमें अलग-अलग यमराजकी
इच्छासे मैं एक-एक वर्षतक पड़ता और निकलता रहा ॥ ११-१२ ॥
तदनन्तर भारतवर्षमें कर्मवासना के
अनुसार मेरा दस बार तो सूअरकी योनिमें जन्म हुआ और सौ बार व्याघ्रकी योनिमें। फिर सौ
जन्मोंतक ऊँट और उतने ही जन्मोंतक भैंसा हुआ। इसके बाद एक सहस्र जन्मतक मुझे सर्पकी
योनिमें रहना पड़ा। फिर कुछ दुष्ट मनुष्यों ने मिलकर मुझे मार
डाला ॥१३-१४॥
विप्रवर! इस तरह दस हजार वर्ष बीतनेपर जलशून्य विपिन में मैं ऐसा विकराल और महाखल राक्षस हुआ, जैसा कि तुमने अभी-अभी देखा
है ॥ १५ ॥
एक दिन किसी शूद्र के शरीरमें
आविष्ट होकर व्रजमें गया । वहाँ वृन्दावन के निकटवर्ती
यमुनाके सुन्दर तटसे हाथमें छड़ी लिये हुए कुछ श्यामवर्णवाले श्रीकृष्णके पार्षद उठे
और मुझे पीटने लगे। उनके द्वारा तिरस्कृत होकर मैं व्रजभूमिसे इधर भाग आया; तबसे बहुत
दिनोंतक मैं भूखा रहा और तुम्हें खा जानेके लिये यहाँ आया। इतनेमें ही तुमने मुझे गिरिराजके
पत्थरसे मार दिया। मुने ! मुझपर साक्षात् श्रीकृष्णकी कृपा हो गयी, जिससे मेरा कल्याण
हो गया ॥१६ -१८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०१)
शनिवार, 21 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
दसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
गोवर्धन शिला के
स्पर्श से एक राक्षस का उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्ध के मुख से गोवर्द्धन की महिमा
का वर्णन
चित्रकूटे पयस्विन्यां श्रीरामनवमीदिने
।
पारियात्रे तृतीयायां वैशाखस्य द्विजोत्तम ॥२८॥
कुकुराद्रौ च पूर्णायां नीलाद्रौ द्वादशीदिने ।
इन्द्रकीले च सप्तम्यां स्नानं दानं तपःक्रियाः ॥२९॥
तत्सर्वं कोटिगुणितं भवतीत्थं हि भारते ।
गोवर्धने तु तत्सर्वमनन्तं जायते द्विज ॥३०॥
गोदावर्यां गुरौ सिंहे मायापुर्यां तु कुंभगे ।
पुष्करे पुष्यनक्षत्रे कुरुक्षेत्रे रविग्रहे ॥३१॥
चन्द्रग्रहे तु काश्यां वै फाल्गुने नैमिषे तथा ।
एकादश्यां शूकरे च कार्तिक्यां गणमुक्तिदे ॥३२॥
जन्माष्टम्यां मधोः पुर्यां खाण्डवे द्वादशीदिने ।
कार्तिक्यां पूर्णिमायां तु वटेश्वरमहावटे ॥३३॥
मकरार्के प्रयागे तु बर्हिष्मत्यां हि वैधृतौ ।
अयोध्यासरयूतीरे श्रीरामनवमीदिने ॥३४॥
एवं शिवचतुर्दश्यां वैजनाथशुभे वने ।
तथा दर्शे सोमवारे गंगासागरसंगमे ॥३५॥
दशम्यां सेतुबन्धे च श्रीरङ्गे सप्तमीदिने ।
एषु दानं तपः स्नानं जपो देवद्विजार्चनम् ॥३६॥
तत्सर्वं कोटिगुणितं भवतीह द्विजोत्तम ।
तत्तुल्यं पुण्यमाप्नोति गिरौ गोवर्धने वरे ॥३७॥
गोविन्दकुण्डे विशदे यः स्नाति कृष्णमानसः ।
प्राप्नोति कृष्णसारूप्यं मैथिलेन्द्र न संशयः ॥३८॥
अश्वमेधसहस्राणि राजसूयशतानि च ।
मानसीगङ्गया तुल्यं न भवंत्यत्र नो गिरौ ॥३९॥
त्वया विप्र कृतं साक्षाद्गिरिराजस्य दर्शनम् ।
स्पर्शनं च ततः स्नानं न त्वत्तोऽप्यधिको भुवि ॥४०॥
न मन्यसे चेन्मां पश्य महापातकिनं परम् ।
गोवर्धनशिलास्पर्शात्कृष्णसारूप्यतां गतम् ॥४१॥
द्विजोत्तम ! चित्रकूट पर्वतपर श्रीरामनवमी के दिन पयस्विनी (मन्दाकिनी) में वैशाख की तृतीया को पारियात्र पर्वतपर, पूर्णिमा को कुकुराचलपर,
द्वादशी के दिन नीलाचलपर और सप्तमी को इन्द्रकील
पर्वतपर जो स्नान, दान और तप आदि पुण्यकर्म किये जाते हैं, वे सब कोटिगुने हो जाते
हैं। ब्रह्मन् ! इसी प्रकार भारतवर्षके गोवर्द्धन तीर्थमें जो स्नानादि शुभकर्म किया
जाता है, वह सब अनन्तगुना हो जाता है ।। २८-३० ॥
बृहस्पति के सिंहराशि में स्थित होने पर गोदावरी में
और कुम्भराशि में स्थित होनेपर हरद्वार में,
पुष्यनक्षत्र आनेपर पुष्करमें, सूर्यग्रहण होनेपर कुरुक्षेत्र में, चन्द्रग्रहण होनेपर
काशीमें, फाल्गुन आनेपर नैमिषारण्य में, एकादशी के दिन शूकरतीर्थ में, कार्तिक की पूर्णिमा को गढ़मुक्तेश्वर
में, जन्माष्टमीके दिन मथुरामें, द्वादशीके दिन खाण्डव-वनमें, कार्तिककी पूर्णिमाको
वटेश्वर नामक महावटके पास, मकर संक्राति लगनेपर प्रयाग- तीर्थमें, वैधृतियोग आनेपर
बर्हिष्मतिमें, श्रीरामनवमीके दिन अयोध्यागत सरयूके तटपर, शिव चतुर्दशीको शुभ वैद्यनाथ-
वनमें, सोमवारगत अमावास्याको गङ्गासागर-संगममें, दशमीको सेतुबन्धपर तथा सप्तमीको श्रीरङ्गतीर्थमें
किया हुआ दान, तप, स्नान, जप, देवपूजन, ब्राह्मणपूजन आदि जो शुभकर्म किया जाता है,
द्विजोत्तम ! वह कोटिगुना हो जाता है ।। ३१–३६
॥
इन सबके समान पुण्य फल केवल गोवर्धन पर्वतकी यात्रा
करनेसे प्राप्त हो जाता है। मैथिलेन्द्र ! जो भगवान् श्रीकृष्णमें मन लगाकर निर्मल
गोविन्दकुण्डमें स्नान करता है, वह भगवान् श्रीकृष्णका सारूप्य प्राप्त कर लेता है—इसमें
संशय नहीं है ।। ३७-३८ ॥
हमारे गोवर्द्धन पर्वतपर जो मानसी गङ्गा है, उनमें
डुबकी लगानेकी समानता करनेवाले सहस्रों अश्वमेध यज्ञ तथा सैकड़ों राजसूय यज्ञ भी नहीं
हैं। विप्रवर! आपने साक्षात् गिरिराजका दर्शन, स्पर्श तथा वहाँ स्नान किया है, अतः
इस भूतलपर आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। यदि आपको विश्वास न हो तो मेरी ओर देखिये।
मैं बहुत बड़ा महापातकी था, किंतु गोवर्द्धनकी शिलाका स्पर्श होनेमात्र से मैंने भगवान्
श्रीकृष्णका सारूप्य प्राप्त कर लिया ।। ३९-४१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीगिरिराजका माहात्म्य' नामक दसवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट१०)
शुक्रवार, 20 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
दसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
गोवर्धन शिला के
स्पर्श से एक राक्षस का उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्ध के मुख से गोवर्द्धन की महिमा
का वर्णन
सिद्ध उवाच -
गिरिराजो हरे रूपं श्रीमान् गोवर्धनो गिरिः ।
तस्य दर्शनमात्रेण नरो याति कृतार्थताम् ॥१४॥
गन्धमादनयात्रायां यत्फलं लभते नरः ।
तस्मात्कोटिगुणं पुण्यं गिरिराजस्य दर्शने ॥१५॥
पंचवर्षसहस्राणि केदारे यत्तपःफलम् ।
तच्च गोवर्धने विप्र क्षणेन लभते नरः ॥१६॥
मलयाद्रौ स्वर्णभारदानस्यापि च यत्फलम् ।
तस्मात्कोटिगुणं पुण्यं गिरिराजे हि मासिकम् ॥१७॥
पर्वते मंगलप्रस्थे यो दद्याद्धेमदक्षिणाम् ।
स याति विष्णुसारूप्यं युक्तः पापशतैरपि ॥१८॥
तत्पदं हि नरो याति गिरिराजस्य दर्शनात् ।
गिरिराजसमं पुण्यमन्यत्तीर्थं न विद्यते ॥१९॥
ऋषभाद्रौ कूटकाद्रौ कोलकाद्रौ तथा नरः ।
सुवर्णशृङ्गयुक्तानां गवां कोटीर्ददाति यः ॥२०॥
महापुण्यं लभेत्सोऽपि विप्रान्संपूज्य यत्नतः ।
तस्माल्लक्षगुणं पुण्यं गिरौ गोवर्धने द्विज ॥२१॥
ऋष्यमूकस्य सह्यस्य तथा देवगिरेः पुनः ।
यात्रायां लभते पुण्यं समस्ताया भुवः फलम् ॥२२॥
गिरिराजस्य यात्रायां तस्मात्कोटिगुणं फलम् ।
गिरिराजसमं तीर्थं न भूतं न भविष्यति ॥२३॥
श्रीशैले दश वर्षाणि कुण्डे विद्याधरे नरः ।
स्नानं करोति सुकृती शतयज्ञफलं लभेत् ॥२४॥
गोवर्धने पुच्छकुण्डे दिनैकं स्नानकृन्नरः ।
कोटियज्ञफलं साक्षात्पुण्यमेति न संशयः ॥२५॥
वेंकटाद्रौ वारिधारे महेन्द्रे विन्ध्यपर्वते ।
यज्ञं कृत्वा ह्यश्वमेधं नरो नाकपतिर्भवेत् ॥२६॥
गोवर्धनेऽस्मिन्यो यज्ञं कृत्वा दत्वा सुदक्षिणाम् ।
नाके पदं संविधाय स विष्णोः पदमाव्रजेत् ॥२७॥
सिद्ध ने कहा- ब्रह्मन् ! श्रीमान्
गिरिराज गोवर्द्धन पर्वत साक्षात् श्रीहरिका रूप है। उसके दर्शनमात्र से मनुष्य कृतार्थ हो जाता है । गन्धमादन की
यात्रा करनेसे मनुष्य को जिस फलकी प्राप्ति होती है, उससे कोटिगुना
पुण्य गिरिराज के दर्शनसे होता है। विप्रवर ! केदारतीर्थ में पाँच हजार वर्षों तक तपस्या करनेसे जिस फलकी
प्राप्ति होती है, वही फल गोवर्द्धन पर्वत पर तप करनेसे मनुष्यको
क्षणभरमें प्राप्त हो जाता है ।। १४–१६ ॥
मलयाचलपर एक भार स्वर्णका दान करनेसे जिस पुण्यफलकी
प्राप्ति होती है, उससे कोटिगुना पुण्य गिरिराजपर एक माशा सुवर्णका दान करनेसे ही मिल
जाता है। जो मङ्गलप्रस्थ पर्वतपर सोनेकी दक्षिणा देता है, वह सैकड़ों पापोंसे युक्त
होनेपर भी भगवान् विष्णुका सारूप्य प्राप्त कर लेता है। भगवान्के उसी पदको मनुष्य
गिरिराजका दर्शन करनेमात्रसे पा लेता है। गिरिराजके समान पुण्यतीर्थ दूसरा कोई नहीं
है ।। १७–१९ ॥
ऋषभ पर्वत, कूटक पर्वत तथा कोलक पर्वतपर सोनेसे मढ़े
सींगवाली एक करोड़ गौओंका जो दान करता है, वह भी ब्राह्मणोंका यत्नपूर्वक पूजन करके
महान् पुण्यका भागी होता है । ब्रह्मन् ! उसकी अपेक्षा भी लाखगुना पुण्य गोवर्द्धन
पर्वतकी यात्रा करनेमात्रसे सुलभ होता है ।। २०–२१ ॥
ऋष्यमूक, सह्यगिरि तथा देवगिरिकी एवं सम्पूर्ण पृथ्वी की यात्रा करनेपर मनुष्य जिस पुण्यफलको पाता है,गिरिराज
गोवर्धनकी यात्रा करनेपर उससे भी कोटिगुना अधिक फल उसे प्राप्त हो जाता है। अतः गिरिराजके
समान तीर्थ न तो पहले कभी हुआ है और न भविष्यत्काल में होगा ही
।। २२–२३ ॥
श्रीशैल पर दस वर्षों तक रहकर वहाँ के विद्याधर- कुण्ड में जो प्रतिदिन स्नान करता है, वह पुण्यात्मा मनुष्य सौ यज्ञोंके
अनुष्ठान का फल पा लेता है; परंतु गोवर्द्धन पर्वत के पुच्छकुण्ड में एक दिन स्नान करने- वाला मनुष्य
कोटियज्ञोंके साक्षात् अनुष्ठानका पुण्य- फल पा लेता है, इसमें संशय नहीं है ।। २४-२५ ॥
वेङ्कटाचल, वारिधार, महेन्द्र और विन्ध्याचलपर एक अश्वमेध
- यज्ञका अनुष्ठान करके मनुष्य स्वर्गलोकका अधिपति हो जाता है; परंतु इस गोवर्द्धन
पर्वतपर जो यज्ञ करके उत्तम दक्षिणा देता है, वह स्वर्गलोकके मस्तकपर पैर रखकर भगवान्
विष्णुके धाममें चला जाता है ।। २६-२७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०९)
गुरुवार, 19 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज
खण्ड)
दसवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
गोवर्धन शिला के
स्पर्श से एक राक्षस का उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्ध के मुख से गोवर्द्धन की महिमा
का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण महापापं प्रणश्यति ॥१॥
विजयो ब्राह्मणः कश्चिद्गौतमीतीरवासकृत् ।
आययौ स्वमृणं नेतुं मथुरां पापनाशिनीम् ॥२॥
कृत्वा कार्यं गृहं गच्छन् गोवर्धनतटीं गतः ।
वर्तुलं तत्र पाषाणं चैकं जग्राह मैथिल ॥३॥
शनैः शनैर्वनोद्देशे निर्गतो व्रजमंडलात् ।
अग्रे ददर्श चायान्तं राक्षसं घोररूपिणम् ॥४॥
हृदये च मुखं यस्य त्रयः पादा भुजाश्च षट् ।
हस्तत्रयं च स्थूलोष्ठो नासा हस्तसमुन्नता ॥५॥
सप्तहस्ता ललज्जिह्वा कंटकाभास्तनूरुहाः ।
अरुणे अक्षिणी दीर्घे दंता वक्रा भयंकराः ॥६॥
राक्षसो घुर्घुरं शब्दं कृत्वा चापि बुभुक्षितः ।
आययौ संमुखे राजन् ब्राह्मणस्य स्थितस्य च ॥७॥
गिरिराजोद्भवेनासौ पाषाणेन जघान तम् ।
गिरिराजशिलास्पर्शात्त्यक्त्वाऽसौ राक्षसीं तनुम् ॥८॥
पद्मपत्रविशालाक्षः श्यामसुन्दरविग्रहः ।
वनमाली पीतवासा मुकुटी कुंडलान्वितः ॥९॥
वंशीधरो वेत्रहस्तः कामदेव इवापरः ।
भूत्वा कृतांजलिर्विप्रं प्रणनाम मुहुर्मुहुः ॥१०॥
सिद्ध उवाच -
धन्यस्त्वं ब्राह्मणश्रेष्ठ परत्राणपरायणः ।
त्वया विमोचितोऽहं वै राक्षसत्वान्महामते ॥११॥
पाषाणस्पर्शमात्रेण कल्याणं मे बभूव ह ।
न कोऽपि मां मोचयितुं समर्थो हि त्वया विना ॥१२॥
श्रीब्राह्मण उवाच -
विस्मितस्तव वाक्येऽहं न त्वां मोचयितुं क्षमः ।
पाषाणस्पर्शनफलं न जाने वद सुव्रत ॥१३॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! इस विषय में एक पुराने इतिहास का वर्णन किया जाता है,
जिसके श्रवण मात्र से बड़े-बड़े पापों का
विनाश हो जाता है ॥ १ ॥
गौतमी गङ्गा (गोदावरी) के तटपर विजय नामसे प्रसिद्ध
एक ब्राह्मण रहता था। वह अपना ऋण वसूल करनेके लिये पापनाशिनी मथुरापुरीमें आया । अपना
कार्य पूरा करके जब वह घरको लौटने लगा, तब गोवर्द्धनके तटपर गया। मिथिलेश्वर ! वहाँ
उसने एक गोल पत्थर ले लिया । धीरे-धीरे वनप्रान्तमें होता हुआ जब वह व्रजमण्डलसे बाहर
निकल गया, तब उसे अपने सामनेसे आता हुआ एक घोर राक्षस दिखायी दिया। उसका मुँह उसकी
छातीमें था। उसके तीन पैर और छः भुजाएँ थीं, परंतु हाथ तीन ही थे। ओठ बहुत ही मोटे
और नाक एक हाथ ऊँची थी। उसकी सात हाथ लंबी जीभ लपलपा रही थी, रोएँ काँटोंके समान थे,
आँखें बड़ी-बड़ी और लाल थीं, दाँत टेढ़े-मेढ़े और भयंकर थे । राजन् ! वह राक्षस बहुत
भूखा था, अतः 'घुर घुर' शब्द करता हुआ वहाँ खड़े हुए ब्राह्मणके सामने आया। ब्राह्मणने
गिरिराजके पत्थरसे उस राक्षसको मारा। गिरिराजकी शिलाका स्पर्श होते ही वह राक्षस-शरीर
छोड़कर श्यामसुन्दर रूपधारी हो गया। उसके विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमलपत्रके समान शोभा
पाने लगे। वनमाला, पीताम्बर, मुकुट और कुण्डलोंसे उसकी बड़ी शोभा होने लगी। हाथमें
वंशी और बेंत लिये वह दूसरे कामदेवके समान प्रतीत होने लगा । इस प्रकार दिव्यरूपधारी
होकर उसने दोनों हाथ जोड़कर ब्राह्मण-देवताको बारंबार प्रणाम किया । २ – १० ॥
सिद्ध बोला- ब्राह्मणश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो; क्योंकि
दूसरोंको संकटसे बचानेके पुण्यकार्यमें लगे हुए हो। महामते ! आज तुमने मुझे राक्षसकी
योनिसे छुटकारा दिला दिया । इस पाषाणके स्पर्शमात्रसे मेरा कल्याण हो गया। तुम्हारे
सिवा दूसरा कोई मेरा उद्धार करनेमें समर्थ नहीं था ।। ११-१२ ॥
ब्राह्मण बोले- सुव्रत ! मैं तो तुम्हारी बात सुनकर
आश्चर्यमें पड़ गया हूँ। मुझमें तुम्हारा उद्धार करनेकी शक्ति नहीं है । पाषाण के स्पर्शका क्या फल है, यह भी मैं नहीं जानता; अतः तुम्हीं बताओ ॥
१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०८)
बुधवार, 18 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) नवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
नवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
तथाऽस्तु चोक्त्वा भगवान् रहोयोग्यं विचिन्तयन् ।
स्वनेत्रपंकजाभ्यां तु हृदयं संददर्श ह ॥३२॥
तदैव कृष्णहृदयाद्गोपीव्यूहस्य पश्यतः ।
निर्गतं सजलं तेजोऽनुरागस्येव चांकुरम् ॥३३॥
पतितं रासभूमौ तद्ववृधे पर्वताकृति ।
रत्नधातुमयं दिव्यं सुनिर्झरदरीवृतम् ॥३४॥
कदंबबकुलाशोकलताजालमनोहरम् ।
मन्दारकुन्दवृन्दाढ्यं सुपक्षिगणसंकुलम् ॥३५॥
क्षणमात्रेण वैदेह लक्षयोजनविस्तृतम् ।
शतकोटिर्योजनानां लंबितं शेषवत्पुनः ॥३६॥
ऊर्ध्वं समुन्नतं जातं पञ्चाशत्कोटियोजनम् ।
करीन्द्रवत्स्थितं शश्वत्पञ्चाशत्कोटिविस्तृतम् ॥३७॥
कोटियोजनदीर्घांगैः शृङ्गानां शतकैः स्फुरत् ।
उच्चकैः स्वर्णकलशैः प्रासादमिव मैथिल ॥३८॥
गोवर्धनाख्यं तच्चाहुः शतशृङ्गं तथापरे ।
एवंभूतं तु तदपि वर्द्धितं मनसोत्सुकम् ॥३९॥
कोलाहले तदा जाते गोलोके भयविह्वले ।
वीक्ष्योत्थाय हरिः साक्षाद्धस्तेनाशु तताड तम् ॥४०॥
किं वर्द्धसे भो प्रच्छिन्नं लोकमाच्छाद्य तिष्ठसि ।
किं वा न चैते वसितुं तच्छान्तिमकरोद्धरिः ॥४१॥
संवीक्ष्य तं गिरिवरं प्रसन्ना भगवत्प्रिया ।
तस्मिन् रहःस्थले राजन् रराज हरिणा सह ॥४२॥
सोऽयं गिरिवरः साक्षाच्छ्रीकृष्णेन प्रणोदितः ।
सर्वतीर्थमयः श्यामो घनश्यामः सुरप्रियः ॥४३॥
भारतात्पश्चिमदिशि शाल्मलीद्वीपमध्यतः ।
गोवर्धनो जन्म लेभे पत्न्यां द्रोणाचलस्य च ॥४४॥
पुलस्त्येन समानीतो भारते व्रजमण्डले ।
वैदेह तस्यागमनं मया तुभ्यं पुरोदितम् ॥४५॥
यथा पुरा वर्द्धितुमुत्सुकोऽयं
तथा पिधानं भविता भुवो वा ।
विचिन्त्य शापं मुनिना परेशो
द्रोणात्मजायेति ददौ क्षयार्थम् ॥४६॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! तब 'तथास्तु' कहकर भगवान् ने एकान्त – लीला के योग्य स्थान का चिन्तन करते हुए नेत्र – कमलों द्वारा अपने
हृदयकी ओर देखा। उसी समय गोपी समुदाय के देखते-देखते श्रीकृष्णके
हृदयसे अनुरागके मूर्तिमान् अङ्कुरकी भाँति एक सघन तेज प्रकट हुआ । रासभूमिमें गिरकर
वह पर्वतके आकारमें बढ़ गया। वह सारा का सारा दिव्य पर्वत रत्नधातुमय था । सुन्दर झरनों
और कन्दराओंसे उसकी बड़ी शोभा थी ।। ३२-३४ ।।
कदम्ब, बकुल, अशोक आदि वृक्ष तथा लता-जाल उसे और भी
मनोहर बना रहे थे । मन्दार और कुन्दवृन्दसे सम्पन्न उस पर्वतपर भाँति-भाँतिके पक्षी
कलरव कर रहे थे ।। ३५ ।।
विदेहराज ! एक ही क्षणमें वह पर्वत एक लाख योजन विस्तृत
और शेषकी तरह सौ कोटि योजन लंबा हो गया ।। ३६ ।।
उसकी ऊँचाई पचास करोड़ योजनकी हो गयी। पचास कोटि योजनमें
फैला हुआ वह पर्वत सदाके लिये गजराजके समान स्थित दिखायी देने लगा। मैथिल ! उसके कोटि
योजन विशाल सैकड़ों शिखर दीप्तिमान् होने लगे। उन शिखरोंसे गोवर्धन पर्वत उसी प्रकार
सुशोभित हुआ, मानो सुवर्णमय उन्नत कलशोंसे कोई ऊँचा महल शोभा पा रहा हो ।। ३७ – ३८ ॥
कोई-कोई विद्वान् उस गिरि को
गोवर्धन और दूसरे लोग 'शतशृङ्ग' कहते हैं । इतना विशाल होने पर भी वह पर्वत मनसे उत्सुक-सा होकर बढ़ने लगा। इससे गोलोक भयसे विह्वल
हो गया और वहाँ सब ओर कोलाहल मच गया। यह देख श्रीहरि उठे और अपने साक्षात् हाथसे शीघ्र
ही उसे ताड़ना दी और बोले- 'अरे ! प्रच्छन्नरूप से बढ़ता क्यों
जा रहा है ? सम्पूर्ण लोक को आच्छादित करके स्थित हो गया ? क्या
ये लोक यहाँ निवास करना नहीं चाहते ?" यों कहकर श्रीहरि ने
उसे शान्त किया—उसका बढ़ना रोक दिया । उस उत्तम पर्वत को प्रकट
हुआ देख भगवत्प्रिया श्रीराधा बहुत प्रसन्न हुईं। राजन् ! वे उसके एकान्तस्थलमें श्रीहरि के साथ सुशोभित होने लगीं ।। ३९-४२ ।।
इस प्रकार यह गिरिराज साक्षात् श्रीकृष्णसे प्रेरित
होकर इस व्रजमण्डलमें आया है। यह सर्वतीर्थमय है। लता कुञ्जोंसे श्याम आभा धारण करनेवाला
यह श्रेष्ठ गिरि मेघकी भाँति श्याम तथा देवताओंका प्रिय है । भारतसे पश्चिम दिशामें
शाल्मलिद्वीपके मध्य- भागमें द्रोणाचल की पत्नी के गर्भसे गोवर्धन ने जन्म लिया । महर्षि पुलस्त्य
उसको भारतके व्रजमण्डलमें ले आये । विदेहराज ! गोवर्धनके आगमन की
बात मैं तुमसे पहले निवेदन कर चुका हूँ ।। ४३-४५
।।
जैसे यह पहले गोलोकमें उत्सुकतापूर्वक बढ़ने लगा था,
उसी तरह यहाँ भी बढ़े तो वह पृथ्वी तक के
लिये एक ढक्कन बन जायगा -यह सोचकर मुनि ने द्रोणपुत्र गोवर्धनको
प्रतिदिन क्षीण होने का शाप दे दिया ।। ४६ ॥
इस प्रकार श्री गर्गसंहिता में श्रीगिरिराजखण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवाद में 'श्रीगिरिराज की उत्पत्ति' नामक नवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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