सोमवार, 30 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

अयोध्यावासिनी गोपियों के आख्यान के प्रसङ्ग में राजा विमल की संतान के लिये चिन्ता तथा महामुनि याज्ञवल्क्य द्वारा उन्हें बहुत-सी पुत्री होने का विश्वास दिलाना

 

श्रीनारद उवाच -
अयोध्यावासिनीनां तु गोपीनां वर्णनं शृणु ।
 चतुष्पदार्थदं साक्षात्कृष्णप्राप्तिकरं परम् ॥ १ ॥
 सिन्धुदेशेषु नगरी चंपका नाम मैथिल ।
 बभूव तस्यां विमलो राजा धर्मपरायणः ॥ २ ॥
 कुवेर इव कोशाढ्यो मनस्वी मृगराडिव ।
 विष्णुभक्तः प्रशांतात्मा प्रह्लाद इव मूर्तिमान् ॥ ३ ॥
 भार्याणां षट्सहस्राणि बभूवुस्तस्य भूपतेः ।
 रूपवत्यः कंजनेत्रा वंध्यात्वं ताः समागताः ॥ ४ ॥
 अपत्यं केन पुण्येन भूयान् मेऽत्र शुभं नृप ।
 एवं चिन्तयतस्तस्य बहवो वत्सरा गताः ॥ ५ ॥
 एकदा याज्ञवल्क्यस्तु मुनीन्द्रस्तमुपागतः ।
 तं नत्वाभ्यर्च विधिवन्नृपस्तत्संमुखे स्थितः ॥ ६ ॥
 चिंताकुलं नृपं वीक्ष्य याज्ञवल्क्यो महामुनिः ।
 सर्वज्ञः सर्वविच्छान्तः प्रत्युवाच नृपोत्तमम् ॥ ७ ॥


 श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच -
राजन् कृशोऽसि कस्मात्त्वं का चिंता ते हृदि स्थिता ।
 सप्रस्वगेषु कुशलं दृश्यते सांप्रतं तव ॥ ८ ॥


 विमल उवाच -
ब्रह्मंस्त्वं किं न जानासि तपसा दिव्यचक्षुषा ।
 तथाऽप्यहं वदिष्यामि भवतो वाक्यगौरवात् ॥ ९ ॥
 आनपत्येन दुःखेन व्याप्तोऽहं मुनिसत्तम ।
 किं करोमि तपो दानं वद येन भवेत्प्रजा ॥ १० ॥


 श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा याज्ञवल्क्यो ध्यानस्तिमितलोचनः ।
 दीर्घं दध्यौ मुनिश्रेष्ठो भूतं भव्यं विचिंतयन् ॥ ११ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! अब अयोध्या- वासिनी गोपियोंका वर्णन सुनो, जो चारों पदार्थोंको देनेवाला तथा साक्षात् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला सर्वोत्कृष्ट साधन है ॥ १ ॥

मिथिलेश्वर ! सिन्धुदेश में चम्पका नाम से प्रसिद्ध एक नगरी थी, जिसमें धर्मपरायण विमल नामक राजा हुए थे। वे कुबेरके समान कोष से सम्पन्न तथा सिंह के समान मनस्वी थे। वे भगवान् विष्णुके भक्त और प्रशान्तचित्त महात्मा थे। वे अपनी अविचल भक्तिके कारण मूर्तिमान् प्रह्लाद से प्रतीत होते थे । उन भूपालके  छः हजार रानियाँ थीं। वे सब की सब सुन्दर रूप- वाली तथा कमलनयनी थीं, परंतु भाग्यवश वे वन्ध्या हो गयीं। राजन् ! 'मुझे किस पुण्यसे उत्तम संतानकी प्राप्ति होगी ?' - ऐसा विचार करते हुए राजा विमलके बहुत वर्ष व्यतीत हो गये ॥ २-५ ॥

एक दिन उनके यहाँ मुनिवर याज्ञवल्क्य पधारे । राजा ने उनको प्रणाम करके उनका विधिवत् पूजन किया और फिर उनके सामने वे विनीतभाव से खड़े हो गये ॥

नृपतिशिरोमणि राजा को चिन्ता से आकुल देख सर्वज्ञ, सर्ववित् तथा शान्तस्वरूप महामुनि याज्ञवल्क्यने उनसे पूछा-- ।। ७ ।।

याज्ञवल्क्य बोले- राजन् ! तुम दुर्बल क्यों हो गये हो ? तुम्हारे हृदयमें कौन-सी चिन्ता खड़ी हो गयी है ? इस समय तुम्हारे राज्यके सातों अङ्गों में तो कुशल- मङ्गल ही दिखायी देता है ? ॥ ८ ॥

विमल ने कहा- -ब्रह्मन् ! आप अपनी तपस्या एवं दिव्यदृष्टि से क्या नहीं जानते हैं ? तथापि आपकी आज्ञाका गौरव मानकर मैं अपना कष्ट बता रहा हूँ । मुनिश्रेष्ठ ! मैं संतान हीनता के दुःख से चिन्तित हूँ। कौन-सा तप और दान करूँ, जिससे मुझे संतान की प्राप्ति हो ।। ९-१० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- विमलकी यह बात सुनकर याज्ञवल्क्यमुनिके नेत्र ध्यानमें स्थित हो गये। वे मुनिश्रेष्ठ भूत और वर्तमानका चिन्तन करते हुए दीर्घकालतक ध्यानमें मग्न रहे ॥ ११ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

भागवत के दस लक्षण

स एवेदं जगद्धाता भगवान् धर्मरूपधृक् ।
पुष्णाति स्थापयन् विश्वं तिर्यङ्नरसुरादिभिः ॥ ४२ ॥
ततः कालाग्निरुद्रात्मा यत्सृष्टं इदमात्मनः ।
सं नियच्छति तत्काले घनानीकं इवानिलः ॥ ४३ ॥
इत्थं भावेन कथितो भगवान् भगवत्तमः ।
न इत्थं भावेन हि परं द्रष्टुं अर्हन्ति सूरयः ॥ ४४ ॥
नास्य कर्मणि जन्मादौ परस्य अनुविधीयते ।
कर्तृत्वप्रतिषेधार्थं माययारोपितं हि तत् ॥ ४५ ॥
अयं तु ब्रह्मणः कल्पः सविकल्प उदाहृतः ।
विधिः साधारणो यत्र सर्गाः प्राकृतवैकृताः ॥ ४६ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहरहे  हैं) वे भगवान्‌ जगत् के  धारण-पोषण के लिये धर्ममय विष्णुरूप स्वीकार करके देवता, मनुष्य और पशु, पक्षी आदि रूपों में अवतार लेते हैं तथा विश्व का पालन-पोषण करते हैं ॥ ४२ ॥ प्रलय का समय आने पर वे ही भगवान्‌ अपने बनाये हुए इस विश्व को कालाग्निस्वरूप रुद्र का रूप ग्रहण करके अपने में वैसे ही लीन कर लेते हैं, जैसे वायु मेघमाला को ॥ ४३ ॥
परीक्षित्‌ ! महात्माओंने अचिन्त्यैश्वर्य भगवान्‌ का इसी प्रकार वर्णन किया है। परन्तु तत्त्वज्ञानी पुरुषों को केवल इस सृष्टि, पालन और प्रलय करनेवाले रूप में ही उनका दर्शन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे तो इससे परे भी हैं ॥ ४४ ॥ सृष्टि की रचना आदि कर्मों का निरूपण करके पूर्ण परमात्मा से कर्म या कर्तापनका सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह तो मायासे आरोपित होनेके कारण कर्तृत्वका निषेध करनेके लिये ही है ॥ ४५ ॥ यह मैंने ब्रह्माजीके महाकल्पका अवान्तर कल्पोंके साथ वर्णन किया है। सब कल्पोंमें सृष्टि-क्रम एक-सा ही है। अन्तर है तो केवल इतना ही कि महाकल्पके प्रारम्भमें प्रकृतिसे क्रमश: महत्तत्त्वादिकी उत्पत्ति होती है और कल्पोंके प्रारम्भमें प्राकृत सृष्टि तो ज्यों-की-त्यों रहती ही है, चराचर प्राणियोंकी वैकृत सृष्टि नवीन रूपसे होती है ॥ ४६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 29 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौथा अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

चौथा अध्याय

 

कोसलप्रान्तीय स्त्रियों का व्रज में गोपी होकर श्रीकृष्ण के प्रति अनन्यभाव से प्रेम करना

 

श्रीनारद उवाच -
कौशलानां गोपिकानां वर्णनं शृणु मैथिल ।
 सर्वपापहरं पुण्यं श्रीकृष्णचरितामृतम् ॥ १ ॥
 नवोपनन्दगेहेषु जाता रामवराद्‌व्रजे ।
 परिणीता गोपजनै रत्नरभूषणभूषिताः ॥ २ ॥
 पूर्णचन्द्रप्रतीकाशा नवयौवनसंयुताः ।
 पद्मिन्यो हंसगमनाः पद्मपत्रविलोचनाः ॥ ३ ॥
 जारधर्मेण सुस्नेहं सुदृढं सर्वतोऽधिकम् ।
 चक्रुः कृष्णे नन्दसुते कमनीये महात्मनि ॥ ४ ॥
 ताभिः सार्द्धं सदा हास्यं व्रजवीथीषु माधवः ।
 स्मितैः पीतपटादानैः कर्षणैः स चकार ह ॥ ५ ॥
 दधिविक्रयार्थं यान्त्यस्ताः कृष्ण कृष्णेति चाब्रुवन् ।
 कृष्णे हि प्रेमसंयुक्ता भ्रमंत्यः कुंजमडले ॥ ६ ॥
 खे वायौ चाग्निजलयोर्मह्यां ज्योतिर्दिशासु च ।
 द्रुमेषु जनवृन्देषु तासां कृष्णो हि लक्ष्यते ॥ ७ ॥
 प्रेमलक्षणसंयुक्ताः श्रीकृष्णहृतमानसाः ।
 अष्टभिः सात्त्विकैर्भावैः संपन्नास्ताश्च योषितः ॥ ८ ॥
 प्रेम्णा परमहंसानां पदवीं समुपागताः ।
 कृष्णनन्दाः प्रधावन्त्यो व्रजवीथीषु ता नृप ॥ ९ ॥
 जडा जडं न जानंत्यो जडोन्मत्तपिशाचवत् ।
 अब्रुवन्त्यो ब्रुवन्त्यो वा गतलज्जा गतव्यथाः ॥ १० ॥
 एवं कृतार्थतां प्राप्प्तास्तन्मया याश्च गोपिकाः ।
 बलादाकृष्य कृष्णस्य चुचुंबुर्मुखपंकजम् ॥ ११ ॥
 तासां तपः किं कथयामि राजन्
     पूर्णे परे ब्रह्मणि वासुदेवे ।
 याश्चक्रिरे प्रेम हृदिंद्रियाद्यै-
     र्विसृज्य लोकव्यवहारमार्गम् ॥ १२ ॥
 या रासरंगे विनिधाय बाहुं
     कृष्णांसयोः प्रेमविभिन्नचित्ताः ।
 चक्रुर्वशे कृष्णमलं तपस्त-
     द्‌वक्तुं न शक्तो वदनैः फणीन्द्रः ॥ १३ ॥
 योगेन सांख्येन शुभेन कर्मणा
     न्यायादिवैशेषिकतत्त्ववित्तमैः ।
 यत्प्राप्यते तच्च पदं वेदेहराट्
     संप्राप्यते केवलभक्तिभावतः ॥ १४ ॥
 भक्त्यैव वश्यो हरिरादिदेवः
     सदा प्रमाणं किल चात्र गोप्यः ।
 सांख्यं च योगं न कृतं कदापि
     प्रेम्णैव यस्य प्रकृतिं गताः स्युः ॥ १५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— मिथिलेश्वर ! अब कोसल- प्रदेशकी गोपिकाओंका वर्णन सुनो। यह श्रीकृष्ण चरितामृत समस्त पापोंका नाश करनेवाला तथा पुण्य-जनक है। कोसलप्रान्तकी स्त्रियाँ श्रीरामके वरसे व्रजमें नौ उपनन्दोंके घरोंमें उत्पन्न हुईं और व्रजके गोपजनोंके साथ उनका विवाह हो गया। वे सब-की- सब रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित थीं। उनकी अङ्गकान्ति पूर्ण चन्द्रमाकी चाँदनीके समान थी। वे नूतन यौवनसे सम्पन्न थीं। उनकी चाल हंसके समान थी और नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान विशाल थे । वे पद्मिनी जाति की नारियाँ थीं । उन्होंने कमनीय महात्मा नन्द-नन्दन श्रीकृष्णके प्रति जारधर्मके अनुसार उत्तम, सुदृढ़ तथा सबसे अधिक स्नेह किया ॥ १-४ ॥                                                                                                                                                                              व्रजकी गलियोंमें माधव मुस्कराकर पीताम्बर छीन- कर और आँचल खींचकर उनके साथ सदा हास- परिहास किया करते थे । वे गोपबालाएँ जब दही बेचने- के लिये निकलतीं तो 'दही लो, दही लो' -यह कहना भूलकर 'कृष्ण लो, कृष्ण लो' कहने लगती थीं । श्रीकृष्णके प्रति प्रेमासक्त होकर वे कुञ्जमण्डलमें घूमा करती थीं। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नक्षत्र- मण्डल, सम्पूर्ण दिशा, वृक्ष तथा जनसमुदायोंमें भी उन्हें केवल कृष्ण ही दिखायी देते थे । प्रेमके समस्तलक्षण उनमें प्रकट थे। श्रीकृष्णने उनके मन हर लिये थे । वे सारी व्रजाङ्गनाएँ आठों सात्त्विक भावों से सम्पन्न थीं*  ॥ ५-८ ॥

प्रेम ने उन सबको परमहंसों (ब्रह्मनिष्ठ महात्माओं) की अवस्था को पहुँचा दिया था। नरेश्वर ! वे कान्तिमती गोपाङ्गनाएँ श्रीकृष्णके आनन्दमें ही मग्न हो व्रजकी गलियोंमें विचरा करती थीं। उनमें जड़-चेतनका भान नहीं रह गया था । वे जड, उन्मत्त और पिशाचोंकी भाँति कभी मौन रहतीं और कभी बहुत बोलने लगती थीं। वे लाज और चिन्ताको तिलाञ्जलि दे चुकी थीं। इस प्रकार कृतार्थताको प्राप्त हो जो श्रीकृष्णमें तन्मय हो रही थीं, वे गोपाङ्गनाएँ बलपूर्वक खींचकर श्रीकृष्णके मुखार- विन्दको चूम लेती थीं। राजन् ! उनके तपका मैं क्या वर्णन करूँ ? जो सारे लोक व्यवहार एवं मर्यादा- मार्गको तिलाञ्जलि देकर हृदय तथा इन्द्रिय आदिके द्वारा पूर्ण परब्रह्म वासुदेवमें अविचल प्रेम करती थीं ॥ ९-१२

जो रास-क्रीडामें श्रीकृष्णके कंधोंपर अपनी बाँहें रखकर, प्रेमसे विगलितचित्त हो श्रीकृष्णको पूर्णतया अपने वशमें कर चुकी थीं, उनकी तपस्याका अपने सहस्रमुखोंसे वर्णन करनेमें नागराज शेष भी समर्थ नहीं हैं ॥ १३

विदेहराज ! न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनोंके तत्त्वज्ञोंमें श्रेष्ठतम महात्मा योग-सांख्य और शुभ- कर्मद्वारा जिस पदको प्राप्त करते हैं, वहीं पद केवल भक्ति भावसे उपलब्ध हो जाता है। आदि देव श्रीहरि केवल भक्तिसे ही वशमें होते हैं, निश्चय ही इस विषय में सदा गोपियाँ ही प्रमाण हैं। उन्होंने कभी सांख्य और योगका अनुष्ठान नहीं किया, तथापि केवल प्रेमसे ही वे भगवत्स्वरूपता को प्राप्त हो गयीं ॥ १४ – १५ ॥

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* आठ सात्त्विक भावोंके नाम इस प्रकार हैं-

'अङ्गोंका अकड़ जाना, पसीना होना, रोमाञ्च हो आना, बोलते समय आवाजका बदल जाना, शरीरमें कम्पन होना, मुँहका रंग उड़ जाना, नेत्रोंसे आँसू बहना तथा मरणान्तिक अवस्थातक पहुँच जाना — ये आठ प्रेमके सात्त्विक भाव माने गये हैं।

 

इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'कोसलप्रान्तीय गोपिकाओंका आख्यान' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

भागवत के दस लक्षण

अमुनी भगवद् रूपे मया ते ह्यनुवर्णिते ।
उभे अपि न गृह्णन्ति मायासृष्टे विपश्चितः ॥ ३५ ॥
स वाच्य वाचकतया भगवान् ब्रह्मरूपधृक् ।
नामरूपक्रिया धत्ते सकर्माकर्मकः परः ॥ ३६ ॥
प्रजापतीन् मनून् देवान् ऋषीन् पितृगणान् पृथक् ।
सिद्धचारणगन्धर्वान् विद्याध्रासुर गुह्यकान् ॥ ३७ ॥
किन्नराप्सरसो नागान् सर्पान् किम्पुरुषोरगान् ।
मातृरक्षःपिशाचांश्च प्रेतभूतविनायकान् ॥ ३८ ॥
कूष्माण्दोन्माद वेतालान् यातुधानान् ग्रहानपि ।
खगान् मृगान् पशून् वृक्षान् गिरीन् नृप सरीसृपान् ॥ ३९ ॥
द्विविधाश्चतुर्विधा येऽन्ये जल स्थल वनौकसः ।
कुशला-अकुशला मिश्राः कर्मणां गतयस्त्विमाः ॥ ४० ॥
सत्त्वं रजस्तम इति तिस्रः सुर-नृ-नारकाः ।
तत्राप्येकैकशो राजन् भिद्यन्ते गतयस्त्रिधा ।
यद् एकैकतरोऽन्याभ्यां स्वभाव उपहन्यते ॥ ४१ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं) मैंने तुम्हें भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म—व्यक्त और अव्यक्त जिन दो रूपों का वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान्‌ की मायाके द्वारा रचित हैं। इसलिये विद्वान् पुरुष इन दोनों को ही स्वीकार नहीं करते ॥ ३५ ॥ वास्तवमें भगवान्‌ निष्क्रिय हैं। अपनी शक्तिसे ही वे सक्रिय बनते हैं। फिर तो वे ब्रह्मा का या विराट् रूप धारण करके वाच्य और वाचक—शब्द और उसके अर्थ के रूपमें प्रकट होते हैं और अनेकों नाम, रूप तथा क्रियाएँ स्वीकार करते हैं ॥ ३६ ॥ परीक्षित्‌ ! प्रजापति, मनु, देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, असुर, यक्ष, किन्नर, अप्सराएँ, नाग, सर्प, किम्पुरुष, उरग, मातृकाएँ, राक्षस, पिशाच, प्रेत, भूत, विनायक, कूष्माण्ड, उन्माद, वेताल, यातुधान, ग्रह, पक्षी, मृग, पशु, वृक्ष, पर्वत, सरीसृप इत्यादि जितने भी संसारमें नाम-रूप हैं, सब भगवान्‌के ही हैं ॥ ३७—३९ ॥ संसारमें चर और अचर भेदसे दो प्रकारके तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेदसे चार प्रकारके जितने भी जलचर, थलचर तथा आकाशचारी प्राणी हैं, सब-के-सब शुभ-अशुभ और मिश्रित कर्मोंके तदनुरूप फल हैं ॥ ४० ॥  सत्त्व की प्रधानता से देवता, रजोगुण की प्रधानता से मनुष्य और तमोगुण की प्रधानता से नारकीय योनियाँ मिलती हैं। इन गुणोंमें भी जब एक गुण दूसरे दो गुणोंसे अभिभूत हो जाता है, तब प्रत्येक गतिके तीन-तीन भेद और हो जाते हैं ॥ ४१ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 28 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) तीसरा अध्याय


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

तीसरा अध्याय

 

मैथिलीरूपा गोपियों का आख्यान; चीरहरणलीला और वरदान-प्राप्ति

 

श्रीनारद उवाच -
मैथिलीनां गोपिकानामाख्यानं शृणु मैथिल ।
 दशाश्वमेधतीर्थस्य फलदं भक्तिवर्धनम् ॥ १ ॥
 श्रीरामस्य वराज्जाताः नवनन्दगृहेषु याः ।
 कमनीयं नन्दसूनुं दृष्ट्वा ता मोहमास्थिताः ॥ २ ॥
 मार्गशीर्षे शुभे मासि चक्रुः कात्यायनीव्रतम् ।
 उपचारैः षोडशभिः कृत्वा देवीं महीमयीम् ॥ ३ ॥
 अरुणोदयवेलायां स्नाताः श्रीयमुनाजले ।
 नित्यं समेता आजग्मुर्गायन्त्यो भगवद्‌गुणान् ॥ ४ ॥
 एकदा ताः स्ववस्त्राणि तीरे न्यस्य व्रजांगनाः ।
 विजर्ह्रुर्यमुनातोये कराभ्यां सिंचतीर्मिथः ॥ ५ ॥
 तासां वासांसि संनीय भगवान् प्रातरागतः ।
 त्वरं कदंबमारुह्य चौरवन्मौनमास्थितः ॥ ६ ॥
 ता न वीक्ष्य स्ववासांसि विस्मिता गोपकन्यकाः ।
 नीपस्थितं विलोक्याथ सलज्जा जहसुर्नृप ॥ ७ ॥
 प्रतीच्छन्तु स्ववासांसि सर्वा आगत्य चात्र वै ।
 अन्यथा न हि दास्यामि वृक्षात्कृष्ण उवाच ह ॥ ८ ॥
 राजंत्यस्ताः शीतजले हसंत्यः प्राहुरानताः ॥ ९ ॥


 गोप्य ऊचुः -
हे नन्दनन्दन मनोहर गोपरत्‍न
     गोपालवंशनवहंस महार्तिहारिन् ।
 श्रीश्यामसुन्दर तवोदितमद्य वाक्यं
     कुर्मः कथं विवसनाः किल तेऽपि दास्यः ॥ १० ॥
 गोपाङ्गनावसनमुण्नवनीतहारी
     जातो व्रजेऽतिरसिकः किल निर्भयोऽसि ।
 वासांसि देहि न चेन्मथथुराधिपाय
     वक्ष्यामहेऽनयमतीव कृतं त्वयाऽ‍त्र ॥ ११ ॥


 श्रीभगवानुवाच -
दास्यो ममैव यदि सुन्दरमन्दहासा
     इच्छन्तु वैत्य किल चात्र कदंबमूले ।
 नोचेत्समस्तवसनानि नयामि गेहां-
     स्तस्मात्करिष्यथ ममैव वचोऽविलम्बात् ॥ १२ ॥


 श्रीनारद उवाच –

तदा ता निर्गताः सर्वा जलाद्‌गोप्योऽतिवेपिताः ।
 आनता योनिमाच्छाद्य पाणिभ्यां शीतकर्शिताः ॥ १३ ॥
 कृष्णदत्तानि वासांसि ददुः सर्वा व्रजजांगनाः ।
 मोहिताश्च स्थितास्तत्र कृष्णे लज्जायितेक्षणाः ॥ १४ ॥
 ज्ञात्वा तासामभिप्रायं परमप्रेमलक्षणम् ।
 आह मन्दस्मितः कृष्णः समन्ताद्‌वीक्ष्य ता वचः ॥ १५ ॥


 श्रीभगवानुवाच -
भवतीभिर्मार्गशीर्षे कृतं कात्यायनीव्रतम् ।
 मदर्थं तच्च सफलं भविष्यति न संशयः ॥ १६ ॥
 परश्वोऽहनि चाटव्यां कृष्णातीरे मनोहरे ।
 युष्माभिश्च करिष्यामि रासं पूर्णमनोरथम् ॥ १७ ॥
 इत्युक्त्वाऽथ गते कृष्णे परिपूर्णतमे हरौ ।
 प्राप्तानन्दा मंदहासा गोप्यः सर्वा गृहान् ययुः ॥ १८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! मिथिलेश्वर ! अब मिथिलादेशमें उत्पन्न गोपियोंका आख्यान सुनो। यह दशाश्वमेध - तीर्थपर स्नानका फल देनेवाला और भक्ति-भावको बढ़ानेवाला है। श्रीरामचन्द्रजीके वरसे जो नौ नन्दोंके घरोंमें उत्पन्न हुई थीं, वे मैथिलीरूपा गोपकन्याएँ परम कमनीय नन्दनन्दनका दर्शन करके मोहित हो गयीं ॥ १-

उन्होंने मार्गशीर्षक शुभ मास में कात्यायनीका व्रत किया और उनकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर वे षोडशोपचा रसे उसकी पूजा करने लगीं। अरुणोदयकी वेला में वे प्रतिदिन एक साथ भगवान् के गुण गाती हुई आतीं और श्रीयमुनाजीके जल में स्नान करती थीं। एक दिन वे व्रजाङ्गनाएँ अपने वस्त्र यमुनाजीके किनारे रखकर उनके जलमें प्रविष्ट हुईं और दोनों हाथोंसे जल उलीचकर एक-दूसरी को भिगोती हुई जल-विहार करने लगीं ॥ -

प्रातःकाल भगवान् श्यामसुन्दर वहाँ आये और तुरंत उन सबके वस्त्र लेकर कदम्बपर आरूढ़ हो चोर की तरह चुपचाप बैठ गये । राजन् ! अपने वस्त्रोंको न देखकर वे गोपकन्याएँ बड़े विस्मयमें पड़ीं तथा कदम्बपर बैठे हुए श्यामसुन्दरको देखकर लजा गयीं और हँसने लगीं। तब वृक्षपर बैठे हुए श्रीकृष्ण उन गोपियोंसे कहने लगे- 'तुम सब लोग यहाँ आकर अपने- अपने कपड़े ले जाओ, अन्यथा मैं नहीं दूँगा ।' राजन् ! तब वे गोपकन्याएँ शीतल जलके भीतर खड़ी खड़ी हँसती हुई लज्जासे मुँह नीचे किये बोलीं --६-९ ॥

गोपियोंने कहा- हे मनोहर नन्दनन्दन ! हे गोपरत्न ! हे गोपाल बंशके नूतन हंस ! हे महान् पीड़ाको हर लेनेवाले श्रीश्यामसुन्दर ! तुम जो आज्ञा करोगे, वही हम करेंगी। तुम्हारी दासी होकर भी हम यहाँ वस्त्रहीन होकर कैसे रहें? आप गोपियोंके वस्त्र लूटनेवाले और माखनचोर हैं। व्रजमें जन्म लेकर भी बड़े रसिक हैं। भय तो आपको छू नहीं सका है। हमारा वस्त्र हमें लौटा दीजिये, नहीं तो हम मथुरा- नरेशके दरबार में आपके द्वारा इस अवसरपर की गयी बड़ी भारी अनीतिकी शिकायत करेंगी ।। १०-११ ॥

श्रीभगवान् बोले- सुन्दर मन्दहास्य से सुशोभित होनेवाली गोपाङ्गनाओ ! यदि तुम मेरी दासियाँ हो तो इस कदम्बकी जड़के पास आकर अपने वस्त्र ले लो । नहीं तो मैं इन सब वस्त्रों को अपने घर उठा ले जाऊँगा । अतः तुम अविलम्ब मेरे कथनानुसार कार्य करो ॥ १२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब वे सब व्रजवासिनी गोपियाँ अत्यन्त काँपती हुई जलसे बाहर निकलीं और आनत-शरीर हो, हाथोंसे योनिको ढककर शीतसे कष्ट पाते हुए श्रीकृष्णके हाथसे दिये गये वस्त्र लेकर उन्होंने अपने अङ्गों में धारण किये । इसके बाद श्रीकृष्णको लजीली आँखोंसे देखती हुई वहाँ मोहित हो खड़ी रहीं । उनके परम प्रेमसूचक अभिप्रायको जानकर मन्द मन्द मुस्कराते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण उनपर चारों ओरसे दृष्टिपात करके इस प्रकार बोले-- ॥ १३ – १५ ॥

श्रीभगवान् ने कहा—गोपाङ्गनाओ! तुमने मार्गशीर्ष मासमें मेरी प्राप्तिके लिये जो कात्यायनी - व्रत किया है, वह अवश्य सफल होगा—इसमें संशय नहीं है। परसों दिनमें वनके भीतर यमुनाके मनोहर तटपर मैं तुम्हारे साथ रास करूँगा, जो तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करनेवाला होगा ।। १६-१७ ।।

यों कहकर परिपूर्णतम श्रीहरि जब चले गये, तब आनन्दोल्लाससे परिपूर्ण हो मन्दहासकी छटा बिखेरती हुई वे समस्त गोप-बालाएँ अपने घरों को गयीं ॥ १८ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'मैथिलीरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

  



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

भागवत के दस लक्षण

आदित्सोः अन्नपानानां आसन् कुक्ष्यन्न नाडयः ।
नद्यः समुद्राश्च तयोः तुष्टिः पुष्टिः तदाश्रये ॥ २९ ॥
निदिध्यासोः आत्ममायां हृदयं निरभिद्यत ।
ततो मनः ततश्चंद्रः सङ्कल्पः काम एव च ॥ ३० ॥
त्वक् चर्म मांस रुधिर मेदो मज्जास्थि धातवः ।
भूम्यप्तेजोमयाः सप्त प्राणो व्योमाम्बु वायुभिः ॥ ३१ ॥
गुणात्मकान् इंद्रियाणि भूतादि प्रभवा गुणाः ।
मनः सर्व विकारात्मा बुद्धिर्विज्ञानरूपिणी ॥ ३२ ॥
एतद् भगवतो रूपं स्थूलं ते व्याहृतं मया ।
मह्यादिभिश्च आवरणैः अष्टभिः बहिरावृतम् ॥ ३३ ॥
अतः परं सूक्ष्मतमं अव्यक्तं निर्विशेषणम् ।
अनादिमध्यनिधनं नित्यं वाङ् मनसः परम् ॥ ३४ ॥

जब विराट् पुरुषको अन्न-जल ग्रहण करनेकी इच्छा हुई, तब कोख, आँतें और नाडिय़ाँ उत्पन्न हुर्ईं। साथ ही कुक्षिके देवता समुद्र, नाडिय़ोंके देवता नदियाँ एवं तुष्टि और पुष्टि—ये दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न हुए ॥ २९ ॥ जब उन्होंने अपनी मायापर विचार करना चाहा, तब हृदयकी उत्पत्ति हुई। उससे मनरूप इन्द्रिय और मनसे उसका देवता चन्द्रमा तथा विषय कामना और सङ्कल्प प्रकट हुए ॥ ३० ॥ विराट् पुरुषके शरीरमें पृथ्वी, जल और तेजसे सात धातुएँ प्रकट हुर्ईं—त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा और अस्थि। इसी प्रकार आकाश, जल और वायुसे प्राणोंकी उत्पत्ति हुई ॥ ३१ ॥ श्रोत्रादि सब इन्द्रियाँ शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाली हैं। वे विषय अहंकारसे उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकारोंका उत्पत्तिस्थान है और बुद्धि समस्त पदार्थोंका बोध करानेवाली है ॥ ३२ ॥ मैंने भगवान्‌ के इस स्थूलरूप का वर्णन तुम्हें सुनाया है। यह बाहरकी ओरसे पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन आठ आवरणोंसे घिरा हुआ है ॥ ३३ ॥ इससे परे भगवान्‌ का अत्यन्त सूक्ष्मरूप है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि, मध्य और अन्तसे रहित एवं नित्य है। वाणी और मनकी वहाँतक पहुँच नहीं है ॥ ३४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) दूसरा अध्याय

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

दूसरा अध्याय

 

ऋषिरूपा गोपियों का उपाख्यान – वङ्गदेश के मङ्गल-गोप की कन्याओं का नन्दराज के व्रज में आगमन तथा यमुनाजी के तटपर रासमण्डल में प्रवेश

 

श्रीनारद उवाच

गोपीनामृषिरूपाणामाख्यानं शृणु मैथिल ।
 सर्वपापहरं पुण्यं कृष्णभक्तिविवर्धनम् ॥१॥
 वङ्गेषु मङ्गलो नाम गोप आसीन्महामनाः ।
 लक्ष्मीवाञ्छ्रुतसम्पन्नो नवलक्षगवां पतिः ॥२॥
 भार्याः पञ्चसहस्राणि बभूवुस्तस्य मैथिल ।
 कदाचिद्दैवयोगेन धनं सर्वं क्षयं गतम् ॥३॥
 चौरैर्नीतास्तस्य गावः काश्चिद्राज्ञा हृता बलात् ।
 एवं दैन्ये च सम्प्राप्ते दुःखितो मङ्गलोऽभवत् ॥४॥
 तदा श्रीरामस्य वराद्दण्डकारण्यवासिनः ।
 ऋषयः स्त्रीत्वमापन्ना बभूवुस्तस्य कन्यकाः ॥५॥
 दृष्ट्वा कन्यासमूहं स दुःखी गोपोऽथ मङ्गलः ।
 उवाच दैन्यदुःखाढ्य आधिव्याधिसमाकुलः ॥६॥


 मङ्गल उवाच -
किं करोमि क्व गच्छामि को मे दुःखं व्यपोहति ।
 श्रीर्न भूतिर्नाभिजनो न बलं मेऽस्ति साम्प्रतम् ॥७॥
 धनं विना कथं चासां विवाहो हा भविष्यति ।
 भोजने यत्र सन्देहो धनाश तत्र कीदृशी ॥८॥
 सति दैन्ये कन्यकाः स्युः काकतालीयवद्गृहे ।
 तस्मात्कस्यापि राज्ञस्तु धनिनो बलिनस्त्वहम् ॥९॥
 दास्याम्येताः कन्यकाश्च कन्यानां सौख्यहेतवे ।
 कदर्थीकृत्य ता कन्याः एवं बुद्ध्या स्थितोऽभवत् ॥
 तदैव माथुराद्देशाद्गोपश्चैकः समागतः ॥१०॥


 नारद उवाच -
तीर्थयायी जयो नाम वृद्धोबुद्धिमतां वरः ।
 तन्मुखान्नन्दराजस्य श्रुतं वैभवमद्भुतम् ॥११॥
 नन्दराजस्य बलये मङ्गलो दैन्यपीडितः ।
 विचिन्त्य प्रेषयामास कन्यकाश्चारुलोचनाः ॥ १२ ॥
 ता नन्दराजस्य गृहे कन्यका रत्नभूषिताः ।
 गवां गोमयहारिण्यो बभूवुर्गोव्रजेषु च ॥ १३ ॥
 श्रीकृष्णं सुन्दरं दृष्ट्वा कन्या जातिस्मराश्च ताः ।
 कालिन्दीसेवनं चक्रुर्नित्यं श्रीकृष्णहेतवे ॥ १४ ॥
 अथैकदा श्यामलाङ्गी कालिन्दी दीर्घलोचना ।

ताभ्यः स्वदर्शनं दत्वा वरं दातुं समुद्यता ॥ १५ ॥
 ता वव्रिरे व्रजेशस्य पुत्रो भूयात्पतिश्च नः ।
 तथास्तु चोक्त्वा कालिन्दी तत्रैवान्तरधीयत ॥ १६ ॥
 ताः प्राप्ता वृन्दकारण्ये कार्तिक्यां रासमण्डले ।
 ताभिः सार्धं हरी रेमे सुरीभिः सुरराडिव ॥ १७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— मैथिल ! अब तुम ऋषिरूपा गोपियोंकी कथा सुनो। वह सब पापोंको हर लेनेवाली, परम पावन तथा श्रीकृष्णके प्रति भक्ति- भावकी वृद्धि करनेवाली है । वङ्गदेशमें मङ्गल नामसे प्रसिद्ध एक महामनस्वी गोप था, जो लक्ष्मीवान्, शास्त्रज्ञानसे सम्पन्न तथा नौ लाख गौओंका स्वामी था। मिथिलेश्वर ! उसके पाँच हजार पत्नियाँ थीं। किसी समय दैवयोगसे उसका सारा धन नष्ट हो गया ॥ १-३ ॥

चोरों ने उसकी गौओंका अपहरण कर लिया। कुछ गौओंको उस देशके राजाने बलपूर्वक अपने अधिकारमें कर लिया। इस प्रकार दीनता प्राप्त होनेपर मङ्गल-गोप बहुत दुःखी हो गया । उन्हीं दिनों श्रीरामचन्द्रजी के वरदानसे स्त्रीभावको प्राप्त हुए दण्डकारण्यके निवासी ऋषि उसकी कन्याएँ हो गये। उस कन्या - समूहको देखकर दुःखी गोप मङ्गल और भी दुःखमें डूब गया और आधि-व्याधिस व्याकुल रहने लगा। उसने मन-ही-मन इस प्रकार कहा-- ॥ १ -६ ॥

मङ्गल बोला- क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कौन मेरा दुःख दूर करेगा ? इस समय मेरे पास न तो लक्ष्मी है, न ऐश्वर्य है, न कुटुम्बीजन हैं और न कोई बल ही है । हाय ! धनके बिना इन कन्याओंका विवाह कैसे होगा ? जहाँ भोजनमें भी संदेह हो, वहाँ धनकी कैसी आशा ? दीनता तो थी ही। काकतालीय न्यायसे कन्याएँ भी इस घरमें आ गयीं। इसलिये किसी धनवान् और बलवान् राजाको ये कन्याएँ अर्पित करूँगा, तभी इन कन्याओंको सुख मिलेगा ।। ७ – ९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार उन कन्याओंकी कोई परवा न करके उसने अपनी ही बुद्धिसे ऐसा निश्चय कर लिया और उसीपर डटा रहा। उन्हीं दिनों मथुरामण्डलसे एक गोप उसके यहाँ आया । वह तीर्थयात्री था। उसका नाम था जय । वह बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ और वृद्ध था। उसके मुखसे मङ्गल ने नन्दराजके अद्भुत वैभवका वर्णन सुना ।। १०११

दीनता से पीड़ित मङ्गल ने बहुत सोच-विचारकर अपनी चारु- लोचना कन्याओंको नन्दराजके व्रजमण्डलमें भेज दिया। नन्दराजके घर में जाकर वे रत्नमय भूषणोंसे विभूषित कन्याएँ उनके गोष्ठमें गौओंका गोबर उठानेका काम करने लगीं। वहाँ सुन्दर श्रीकृष्णको देखकर उन कन्याओंको अपने पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण हो आया और वे श्रीकृष्णकी प्राप्तिके लिये नित्य यमुनाजीकी सेवा-पूजा करने लगीं ।। १२१४

तदनन्तर एक दिन श्यामल अङ्गोंवाली विशाललोचना यमुनाजी उन सबको दर्शन दे, वर-प्रदान करने के लिये उद्यत हुईं। उन गोपकन्याओं ने यह वर माँगा कि 'व्रजेश्वर नन्दराज के पुत्र श्रीकृष्ण हमारे पति हों।' तब 'तथास्तु' कहकर यमुना वहीं अन्तर्धान हो गयीं। वे सब कन्याएँ वृन्दावन में कार्तिक पूर्णिमाकी रात को रासमण्डल में पहुँचीं। वहाँ श्रीहरि ने उनके साथ उसी तरह विहार किया, जैसे देवाङ्गनाओं के साथ देवराज इन्द्र किया करते हैं ॥ १- १७ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'ऋषिरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भागवत के दस लक्षण

गतिं जिगीषतः पादौ रुरुहातेऽभिकामिकाम् ।
पद्भ्यां  यज्ञः स्वयं हव्यं कर्मभिः क्रियते नृभिः ॥ २५ ॥
निरभिद्यत शिश्नो वै प्रजानन्द अमृतार्थिनः ।
उपस्थ आसीत् कामानां प्रियं तद् उभयाश्रयम् ॥ २६ ॥
उत्सिसृक्षोः धातुमलं निरभिद्यत वै गुदम् ।
ततः पायुस्ततो मित्र उत्सर्ग उभयाश्रयः ॥ २७ ॥
आसिसृप्सोः पुरः पुर्या नाभिद्वारं अपानतः ।
तत्र अपानः ततो मृत्युः पृथक्त्वं उभयाश्रयम् ॥ २८ ॥

जब उन्हें (विराट् पुरुष  को) अभीष्ट स्थान पर जाने की इच्छा हुई, तब उनके शरीर में पैर उग आये। चरणोंके साथ ही चरण-इन्द्रियके अधिष्ठातारूपमें वहाँ स्वयं यज्ञपुरुष भगवान्‌ विष्णु स्थित हो गये और उन्हींमें चलनारूप कर्म प्रकट हुआ। मनुष्य इसी चरणेन्द्रियसे चलकर यज्ञ-सामग्री एकत्र करते हैं ॥ २५ ॥ सन्तान, रति और स्वर्ग-भोगकी कामना होनेपर विराट् पुरुषके शरीरमें लिङ्गकी उत्पत्ति हुई। उसमें उपस्थेन्द्रिय और प्रजापति देवता तथा इन दोनोंके आश्रय रहनेवाले कामसुखका आविर्भाव हुआ ॥ २६ ॥ जब उन्हें मलत्यागकी इच्छा हुई, तब गुदाद्वार प्रकट हुआ। तत्पश्चात् उसमें पायु-इन्द्रिय और मित्र-देवता उत्पन्न हुए। इन्हीं दोनोंके द्वारा मलत्यागकी क्रिया सम्पन्न होती है ॥ २७ ॥  अपानमार्ग-द्वारा एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जानेकी इच्छा होनेपर नाभिद्वार प्रकट हुआ। उससे अपान और मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनोंके आश्रयसे ही प्राण और अपानका बिछोह यानी मृत्यु होती है ॥ २८ ॥ 

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गुरुवार, 26 सितंबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 03)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पहला अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रुतिरूपा गोपियों का वृत्तान्त, उनका श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनि की बातों में संशय तथा श्रीकृष्ण द्वारा उसका निराकरण

 

 सुखेनातः प्रगन्तव्यं भवतीभिर्यदा स्वतः ।
 यमुनामेत्य चैतद्वै वक्तव्यं मार्गहेतवे ॥ ३६ ॥
 यदि दूर्वारसं पीत्वा दुर्वासाः केवलं क्षितौ ।
 व्रती निरन्नो निर्वारि वर्तते पृथिवीतले ॥ ३७ ॥
 तर्हि नो देहि मार्गं वै कालिंदि सरितां वरे ।
 इत्युक्ते वचने कृष्णा मार्गं वो दास्यति स्वतः ॥ ३८ ॥


 श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचो गोप्यो नत्वा तं मुनिपुंगवम् ।
 यमुनामेत्य मुन्युक्तं चोक्त्वा तीर्त्वा नदीं नृप ॥ ३९ ॥
 श्रीकृष्णपार्श्वमाजग्मुर्विस्मिता मंगलायनाः ॥ ४० ॥
 अथ रासे गोपवध्वः सन्देहं मनसोत्थितम् ।
 पप्रच्छुः श्रीहरिं वीक्ष्य रहः पूर्णमनोरथाः ॥ ४१ ॥


 गोप्य ऊचुः -
दुर्वाससो दर्शनं भोः कृतमस्माभिरग्रतः ।
 युवयोर्वाक्यतश्चात्र सन्देहोऽयं प्रजायते ॥ ४२ ॥
 यथा गुरुस्तथा शिष्यो मृषावादी न संशयः ।
 जारस्त्वमसि गोपीनां रसिको बाल्यतः प्रभो ॥ ४३ ॥
 कथं बालयतिस्त्वं वै वद तद्‌वृजिनार्दन ।
 कथं दूर्वारसं पीत्वा दुर्वासा बहुभुङ्‌मुनिः ।
 नो जात एष सन्देहः पश्यन्तीनां व्रजेश्वर ॥ ४४ ॥


 श्रीभगवानुवाच -
निर्ममो निरहंकारः समानः सर्वगः परः ।
 सदा वैषम्यरहितो निर्गुणोऽहं न संशयः ॥ ४५ ॥
 तथापि भक्तान् भजतो भजेऽहं वै यथा तथा ।
 तथैव साधुर्ज्ञानी वै वैषम्यरहितः सदा ॥ ४६ ॥
 न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् ।
 जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥ ४७ ॥
 यस्य सर्वे समारंभाः कामसंकल्पविर्जिताः ।
 ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥ ४८ ॥
 निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
 शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ ४९ ॥
 न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
 तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ५० ॥
 ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः ।
 लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवांभसा ॥ ५१ ॥
 तस्मान्मुनिस्तु दुर्वासा बहुभुक् त्वद्धिते रतः ।
 न तस्य भोजनेच्छा स्याद्दूर्वारसमिताशनः ॥ ५२ ॥


 श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचो गोप्यः सर्वास्ताश्छिन्नसंशयाः ।
 श्रुतिरूपा ज्ञानमय्यो बभूवुर्मैथिलेश्वर ॥ ५३ ॥

मुनि बोले- गोपियो ! तुम सब यहाँसे सुखपूर्वक चली जाओ। जब यमुनाजीके किनारे पहुँचो, तब मार्गके लिये इस प्रकार कहना - 'यदि दुर्वासामुनि इस भूतलपर केवल दुर्वाका रस पीकर रहते हों, कभी अन्न और जल न लेकर व्रतका पालन करते हों तो सरिताओंकी शिरोमणि यमुनाजी ! हमें मार्ग दे दो।' ऐसी बात कहनेपर यमुनाजी तुम्हें स्वतः मार्ग दे देंगी ॥ ३६- ३८ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! यह सुनकर गोपियाँ उन मुनिपुंगवको प्रणाण करके यमुनाके तटपर आयीं और मुनि की बतायी हुई बात कहकर नदी पार हो श्रीकृष्ण के पास आ पहुँचीं। वे मङ्गलधामा गोपियाँ इस यात्रा के विचित्र अनुभव से विस्मित थीं। तदनन्तर रास में गोपाङ्गनाओं ने श्रीकृष्णकी ओर देखकर अपने मनमें उठे हुए संदेहको उनसे पूछा । एकान्तमें श्रीहरि ने उन सबका मनोरथ पूर्ण कर दिया था ।। ३९ –४१ ॥

गोपियाँ बोलीं- प्रभो ! हमने दुर्वासा मुनि का दर्शन उनके सामने जाकर किया है; किंतु आप दोनों के वचनों को सुनकर उनकी सत्यता के सम्बन्ध में हमारे मन में संदेह उत्पन्न हो गया है ।।४२

जैसे गुरुजी असत्यवादी हैं, उसी तरह चेलाजी भी मिथ्यावादी हैं— इसमें संशय नहीं है । अघनाशन! आप तो गोपियों के उपपति और बचपन से ही रसिक हैं, फिर आप बाल ब्रह्मचारी कैसे हुए— यह हमें स्पष्ट बताइये और हमारे सामने बहुत-सा अन्न (भार-के-भार छप्पन भोग) खा जानेवाले ये दुर्वासामुनि केवल दुर्वाका रस पीकर रहनेवाले कैसे हैं ? व्रजेश्वर ! हमारे मनमें यह भारी संदेह उठा है ॥ ४ – ४४ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा— गोपियो ! मैं ममता और अहंकारसे रहित, सबके प्रति समान भाव रखने वाला, सर्वव्यापी, सबसे उत्कृष्ट, सदा विषमताशून्य तथा प्राकृत गुणोंसे रहित हूँ — इसमें संशय नहीं है। तथापि जो भक्त मेरा जिस प्रकार भजन करते हैं, उनका उसी प्रकार मैं भी भजन करता हूँ। इसी प्रकार ज्ञानी साधु-महात्मा भी सदा विषम भावनासे रहित होते हैं ।। ४५ –४

योगयुक्त विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह कर्मोंमें आसक्त हुए अज्ञानीजनों में बुद्धि-भेद न उत्पन्न करें। उनसे सदा समस्त कर्मों का सेवन ही कराये। जिस पुरुषके सभी समारम्भ (आयोजन) कामना और संकल्पसे शून्य होते हैं, उनके सारे कर्म ज्ञानरूपी अग्नि में दग्ध हो जाते हैं (अर्थात् उनके लिये वे कर्म बन्धनकारक नहीं होते) । ऐसे पुरुषको ज्ञानीजन पण्डित (तत्त्वज्ञ) कहते हैं। जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जिसने चित्त और बुद्धि को अपने वश में कर रखा है तथा जो समस्त संग्रह - परिग्रह छोड़ चुका है, वह केवल शरीर - निर्वाह सम्बन्धी कर्म करता हुआ किल्विष (कर्मजनित शुभाशुभ फल) को नहीं प्राप्त होता ।। ४७ –४

इस संसार में ज्ञानके समान पवित्र दूसरी कोई वस्तु नहीं है। योगसिद्ध पुरुष समयानुसार स्वयं ही अपने-आपमें उस ज्ञानको प्राप्त कर लेता है। जो समस्त कर्मोंको ब्रह्मार्पण करके आसक्ति छोड़कर कर्म करता है, वह पापसे उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जैसे कमलका पत्र जलसे । इसलिये दुर्वासामुनि तुम सबके हित साधनमें तत्पर होकर बहुत खानेवाले हो गये । स्वतः उन्हें कभी भोजनकी इच्छा नहीं होती। वे केवल परिमित दुर्वारसका ही आहार करते हैं ।। ५०-५२ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं— मैथिलेश्वर ! श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर समस्त गोपियोंका संशय नष्ट हो गया। वे श्रुतिरूपा गोपाङ्गनाएँ ज्ञानमयी हो गयीं ॥ ५३ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवादमें 'श्रुतिरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दसवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भागवत के दस लक्षण

यदाऽऽत्मनि निरालोकं आत्मानं च दिदृक्षतः ।
निर्भिन्ने ह्यक्षिणी तस्य ज्योतिः चक्षुः गुणग्रहः ॥ २१ ॥
बोध्यमानस्य ऋषिभिः आत्मनः तत् जिघृक्षतः ।
कर्णौ च निरभिद्येतां दिशः श्रोत्रं गुणग्रहः ॥ २२ ॥
वस्तुनो मृदुकाठिन्य लघुगुर्वोष्ण शीतताम् ।
जिघृक्षतः त्वङ् निर्भिन्ना तस्यां रोम महीरुहाः ।
तत्र चान्तर्बहिर्वातः त्वचा लब्धगुणो वृतः ॥ २३ ॥
हस्तौ रुरुहतुः तस्य नाना कर्म चिकीर्षया ।
तयोस्तु बलमिन्द्रश्च आदानं उभयाश्रयम् ॥ २४ ॥

पहले उनके (विराट् पुरुष के ) शरीर में प्रकाश नहीं था; फिर जब उन्हें अपनेको तथा दूसरी वस्तुओंको देखनेकी इच्छा हुई, तब नेत्रोंके छिद्र, उनका अधिष्ठाता सूर्य और नेत्रेन्द्रिय प्रकट हो गये। इन्हींसे रूपका ग्रहण होने लगा ॥ २१ ॥ 
जब वेदरूप ऋषि विराट् पुरुष को स्तुतियों के द्वारा जगाने लगे, तब उन्हें सुननेकी इच्छा हुई। उसी समय कान, उनकी अधिष्ठातृ-देवता दिशाएँ और श्रोत्रेन्द्रिय प्रकट हुई। इसीसे शब्द सुनायी पड़ता है ॥ २२ ॥ जब उन्होंने वस्तुओं की कोमलता, कठिनता, हलकापन, भारीपन, उष्णता और शीतलता आदि जाननी चाही तब उनके शरीरमें चर्म प्रकट हुआ। पृथ्वी में से जैसे वृक्ष निकल आते हैं, उसी प्रकार उस चर्ममें रोएँ पैदा हुए और उसके भीतर-बाहर रहनेवाला वायु भी प्रकट हो गया। स्पर्श ग्रहण करनेवाली त्वचा-इन्द्रिय भी साथ-ही-साथ शरीरमें चारों ओर लिपट गयी और उससे उन्हें स्पर्शका अनुभव होने लगा ॥ २३ ॥ जब उन्हें अनेकों प्रकार के कर्म करनेकी इच्छा हुई, तब उनके हाथ उग आये। उन हाथों में ग्रहण करने की शक्ति हस्तेन्द्रिय तथा उनके अधिदेवता इन्द्र प्रकट हुए और दोनों के आश्रय से होने वाला ग्रहणरूप कर्म भी प्रकट हो गया ॥२४॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०२) विदुरजी का प्रश्न  और मैत्रेयजी का सृष्टिक्रम ...