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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
दिव्यादिव्य, त्रिगुणवृत्तिमयी भूतल-गोपियोंका
वर्णन तथा श्रीराधासहित गोपियोंकी श्रीकृष्णके साथ होली
श्रीनारद उवाच -
इदं मया ते कथितं गोपीनां चरितं शुभम् ।
अन्यसां चैव गोपीनां वर्णनं शृणु मैथिल ॥ १ ॥
वीतिहोत्रोऽग्निभुक् सांबः श्रीकरो गोपतिः श्रुतः ।
व्रजेशः पावनः शांत उपनन्दा व्रजेभवाः ॥ २ ॥
धनवंतो रूपवंतः पुत्रवंतो बहुश्रुताः ।
शीलादिगुणसंपनाः सर्वे दानपरायणाः ॥ ३ ॥
तेषां गृहेषु संजाताः कन्यका देववाक्यतः ।
काश्चिद्दिव्या अदिव्याश्च तथा त्रिगुणवृत्तयः ॥ ४ ॥
भूमिगोप्यश्च संजाताः पुण्यैर्नानाविधैः कृतैः ।
राधिकासहचर्यस्ताः सख्योऽभूवन् विदेहराट् ॥ ५ ॥
एकदा मानिनीं राधां ताः सर्वा व्रजगोपिकाः ।
ऊचुर्वीक्ष्य हरिं प्राप्तं होलिकाया महोत्सवे ॥ ६ ॥
गोप्य ऊचुः -
रंभोरु चन्द्रवदने मधुमानिनीशे
राधे वचः सुललितं ललने शृणु त्वम् ।
श्रीहोलिकोत्सवविहारमलं विधातु-
मायाति ते पुरवने व्रजभूषणोऽयम् ॥ ७
॥
श्रीयौवनोन्मदविधूर्णितलोचनोऽसौ
नीलालकालिकलितां सकपोलगोलः ।
सत्पीतकंचुकघनांतमशेषमाराद्
आचालयन्ध्वनिमता स्वपदारुणेन ॥ ८ ॥
बालार्कमौलिविमलांगदहारमुद्य-
द्विद्युत्क्षिपन् मकरकुण्डलमादधानः
।
पीतांबरेण जयति द्युतिमण्डलोऽसौ
भूमण्डले सधनुषेव घनो दिविस्थः ॥ ९ ॥
आबीरकुंकुमरसैश्च विलिप्तदेहो
हस्ते गृहीतनवसेचनयंत्र आरात् ।
प्रेक्ष्यंस्तवाशु सखि वाटमतीव राधे
त्वद्रासरंगरसकेलिरतः स्थितः सः ॥
१० ॥
निर्गच्छ फाल्गुनमिषेण विहाय मानं
दातव्यमद्य च यशः किल होलिकायै ।
कर्तव्यमाशु निजमन्दिररङ्गवारि-
पाटीरपंकमकरन्दचयं च तूर्णम् ॥ ११ ॥
उत्तिष्ठ गच्छ सहसा निजमण्डलीभि-
र्यत्रास्ति सोऽपि किल तत्र महामते
त्वम् ।
एतादृशोऽपि समयो न कदापि लभ्यः
प्रक्षालितं करतलं विदितं प्रवाहे ॥
१२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— मिथिलेश्वर ! यह मैंने तुमसे
गोपियोंके शुभ चरित्रका वर्णन किया है, अब दूसरी गोपियोंका वर्णन सुनो। वीतिहोत्र,
अग्निभुक्, साम्बु, श्रीकर, गोपति, श्रुत, व्रजेश, पावन तथा शान्त — ये व्रजमें उत्पन्न
हुए नौ उपनन्दोंके नाम हैं। वे सब-के-सब धनवान्, रूपवान् पुत्रवान् बहुत-से शास्त्रोंका
ज्ञान रखनेवाले, शील-सदाचारादि गुणोंसे सम्पन्न तथा दानपरायण हैं ॥ १-३ ॥
इनके घरों में देवताओं की आज्ञा के अनुसार जो कन्याएँ उत्पन्न हुईं,
उनमें से कोई दिव्य, कोई अदिव्य तथा कोई त्रिगुणवृत्तिवाली थीं।
वे सब नाना प्रकारके पूर्वकृत पुण्योंके फलस्वरूप भूतलपर गोपकन्याओंके रूपमें प्रकट
हुई थीं। विदेहराज ! वे सब श्रीराधिकाके साथ रहनेवाली उनकी सखियाँ थीं। एक दिनकी बात
है, होलिका- महोत्सवपर श्रीहरिको आया हुआ देख उन समस्त व्रजगोपिकाओंने मानिनी श्रीराधासे
कहा ॥ ४-६ ॥
गोपियाँ बोलीं- रम्भोरु ! चन्द्रवदने ! मधु- मानिनि
! स्वामिनि ! ललने ! श्रीराधे ! हमारी यह सुन्दर बात सुनो। ये व्रजभूषण नन्दनन्दन तुम्हारी
बरसाना-नगरीके उपवनमें होलिकोत्सव-विहार करने- के लिये आ रहे हैं। शोभासम्पन्न यौवनके
मदसे मत्त उनके चञ्चल नेत्र घूम रहे हैं। घुँघराली नीली अलकावली उनके कंधों और कपोलमण्डलको
चूम रही है | शरीरपर पीले रंगका रेशमी जामा अपनी घनीं शोभा बिखेर रहा है। वे बजते हुए
नूपुरोंकी ध्वनिसे युक्त अपने अरुण चरणारविन्दोंद्वारा सबका ध्यान आकृष्ट कर रहे हैं
॥ ७-८ ॥
उनके मस्तकपर बालरवि के समान
कान्तिमान् मुकुट है। वे भुजाओं में विमल अङ्गद, वक्षःस्थल पर हार और कानों में विद्युत्
को भी विलज्जित करनेवाले मकराकार कुण्डल धारण किये हुए हैं। इस भूमण्डल पर पीताम्बर की पीत प्रभासे सुशोभित उनका श्याम
कान्तिमण्डल उसी प्रकार उत्कृष्ट शोभा पा रहा है, जैसे आकाशमें इन्द्रधनुषसे युक्त
मेघमण्डल सुशोभित होता है ॥ ९ ॥
अबीर और केसर के रस से उनका सारा अङ्ग लिप्त हैं। उन्होंने हाथमें नयी पिचकारी ले रखी
है तथा सखि राधे ! तुम्हारे साथ रासरङ्गकी रसमयी क्रीडामें निमग्न रहनेवाले वे श्यामसुन्दर
तुम्हारे शीघ्र निकलनेकी राह देखते हुए पास ही खड़े हैं । तुम भी मान छोड़कर फगुआ
(होली) के बहाने निकलो । निश्चय ही आज होलिकाको यश देना चाहिये और अपने भवनमें तुरंत
ही रंग-मिश्रित जल, चन्दनके पङ्क और मकरन्द ( इत्र आदि पुष्परस) का अधिक मात्रामें
संचय कर लेना चाहिये। परम बुद्धिमती प्यारी सखी! उठो और सहसा अपनी सखीमण्डलीके साथ
उस स्थानपर चलो, जहाँ वे श्यामसुन्दर भी मौजूद हों। ऐसा समय फिर कभी नहीं मिलेगा। बहती
धारा में हाथ धो लेना चाहिये - यह कहावत सर्वत्र विदित है ॥ १० – १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से