शनिवार, 19 अक्तूबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

प्रदर्श्या तप्ततपसां अवितृप्तदृशां नृणाम् ।
आदायान्तरधाद्यस्तु स्वबिम्बं लोकलोचनम् ॥ ११ ॥
यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोग
     मायाबलं दर्शयता गृहीतम् ।
विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धेः
     परं पदं भूषणभूषणाङ्गम् ॥ १२ ॥
यद्धर्मसूनोर्बत राजसूये
     निरीक्ष्य दृक्स्वस्त्ययनं त्रिलोकः ।
कार्त्स्न्येन चाद्येह गतं विधातुः
     अर्वाक्सृतौ कौशलमित्यमन्यत ॥ १३ ॥
यस्यानुरागप्लुतहासरास
     लीलावलोकप्रतिलब्धमानाः ।
व्रजस्त्रियो दृग्भिरनुप्रवृत्त
     धियोऽवतस्थुः किल कृत्यशेषाः ॥ १४ ॥

जिन्होंने कभी तप नहीं किया, उन लोगों को भी इतने दिनों तक दर्शन देकर अब उनकी दर्शन-लालसा को तृप्त किये बिना ही वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने त्रिभुवन-मोहन श्रीविग्रह को छिपाकर अन्तर्धान हो गये हैं और इस प्रकार उन्होंने मानो उनके नेत्रोंको ही छीन लिया है ॥ ११ ॥ भगवान्‌ ने अपनी योगमाया का प्रभाव दिखाने के लिए मानवलीलाओं के योग्य जो दिव्य श्रीविग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत् तो मोहित हो ही जाता था, वे स्वयं भी विस्मित हो जाते थे । सौभाग्य और सुन्दरताकी पराकाष्ठा थी उस रूपमें। उससे आभूषण (अङ्गोंके गहने) भी विभूषित हो जाते थे ॥ १२ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें जब भगवान्‌ के उस नयनाभिराम रूपपर लोगों की दृष्टि पड़ी थी, तब त्रिलोकी ने यही माना था कि मानवसृष्टि की रचना में विधाता की जितनी चतुराई है, सब इसी रूपमें पूरी हो गयी है ॥ १३ ॥ उनके प्रेमपूर्ण हास्य-विनोद और लीलामय चितवन से सम्मानित होने पर व्रजबालाओंकी आँखें उन्हीं की ओर लग जाती थीं और उनका चित्त भी ऐसा तल्लीन हो जाता था कि वे घरके काम-धंधोंको अधूरा ही छोडक़र जड पुतलियोंकी तरह खड़ी रह जाती थीं॥१४॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

पंद्रहवाँ अध्याय

 

बर्हिष्मतीपुरी आदि की वनिताओं का गोपीरूप में प्राकट्य तथा भगवान् के साथ उनका रासविलास; मांधाता और सौभरि के संवाद में यमुना-पञ्चाङ्ग की प्रस्तावना

 

श्रीनारद उवाच -
व्रजे शोणपुराधीशो गोपो नन्दो धनी महान् ।
 भार्याः पञ्चसहस्राणि बभूवुस्तस्य मैथिल ॥ १ ॥
 जाता मत्स्यवरात्तास्तु समुद्रे गोपकन्यकाः ।
 तथाऽन्याश्च त्रिवाचापि पृथिव्या दोहनान्नृप ॥ २ ॥
 बर्हिष्मतीपुरंध्र्यो या जाता जातिस्मराः पराः ।
 तथाऽन्याप्सरसोऽभूवन् वरान्नारायणस्य च ॥ ३ ॥
 तथा सुतलवासिन्यो वामनस्य वरात्स्त्रियः ।
 तथा नागेन्द्रकन्याश्च जाताः शेषवरात्परात् ॥ ४ ॥
 ताभ्यो दुर्वाससा दत्तं कृष्णापञ्चांगमद्‌भुतम् ।
 तेन संपूज्य यमुनां वव्रिरे श्रीपतिं वरम् ॥ ५ ॥
 एकदा श्रीहरिस्ताभिर्वृन्दारण्ये मनोहरे ।
 यमुनानिकटे दिव्ये पुंस्कोकिलतरुव्रजे ॥ ६ ॥
 मधुपध्वनिसंयुक्ते कूजत्कोकिलसारसे ।
 मधुमासे मन्दवायौ वसन्तलतिकावृते ॥ ७ ॥
 दोलोत्सवं समारेभे हरिर्मदनमोहनः ।
 कदम्बवृक्षे रहसि कल्पवृक्षे मनोहरे ॥ ८ ॥
 कालिन्दीजलकल्लोलकोलाहलसमाकुले ।
 तद्दोलाखेलनं चक्रुः ता गोप्यः प्रेमविह्वलाः ॥ ९ ॥
 राधया कीर्तिसुतया चन्द्रकोटिप्रकाशया ।
 रेजे वृन्दावने कृष्णो यथा रत्या रतीश्वरः ॥ १० ॥
 एवं प्राप्ताश्च याः सर्वाः श्रीकृष्णं नंदनंदनम् ।
 परिपूर्णतमं साक्षात्तासां किं वर्ण्यते तपः ॥ ११ ॥
 नागेन्द्रकन्या याः सर्वाः चैत्रमासे मनोहरे ।
 बलभद्रं हरिं प्राप्ताः कृष्णातीरे तु ताः शुभा ॥ १२ ॥
 इदं मया ते कथितं गोपीनां चरितं शुभम् ।
 सर्वपापहरं पुण्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १३ ॥


 श्रीबहुलाश्व उवाच -
यमुनायाश्च पंचांगं दत्तं दुर्वाससा मुने ।
 गोपीभ्यो येन गोविन्दः प्राप्तस्तद्‍ब्रूहि मां प्रभो ॥ १४ ॥


 श्रीनारद उवाच -
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
 यस्य श्रवणमात्रेण पापहानिः परा भवेत् ॥ १५ ॥
 अयोध्याधिपतिः श्रीमान् मांधाता राजसत्तमः ।
 मृगयां विचरन् प्राप्तः सौभरेराश्रमं शुभम् ॥ १६ ॥
 वृन्दावने स्थितं साक्षात्कृष्णातीरे मनोहरे ।
 नत्वा जामातरं राजा सौभरिं प्राह मानदः ॥ १७ ॥


 मांधातोवाच -
भगवन् सर्ववित्साक्षात्त्वं परावरवित्तमः ।
 लोकानां तमसोऽन्धानां दिव्यसूर्य इवापरः ॥ १८ ॥
 इह लोके भवेद्‌राज्यं सर्वसिद्धिसमन्वितम् ।
 अमुत्र कृष्णसारूप्यं येन स्यात्तद्वदाशु मे ॥ १९ ॥


 सौभरिरुवाच -
यमुनायाश्च पञ्चागं वदिष्यामि तवाग्रतः ।
 सर्वसिद्धिकरं शश्वत्कृष्णसारूप्यकारकम् ॥ २० ॥
 यावत्सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतितिष्ठति ।
 तावद्‌राज्यप्रदं चात्र श्रीकृष्णवशकारकम् ॥ २१ ॥
 कवचं च स्तवं नाम्नां सहस्रं पटलं तथा ।
 पद्धतिं सूर्यवंशेन्द्र पञ्चांगानि विदुर्बुधाः ॥ २२ ॥

नारदजी कहते हैं— राजन् ! व्रजमें शोणपुरके स्वामी नन्द बड़े धनी थे। मिथिलेश्वर ! उनके पाँच हजार पत्नियाँ थीं । उनके गर्भसे समुद्रसम्भवा लक्ष्मीजीकी वे सखियाँ उत्पन्न हुईं, जिन्हें मत्स्यावतार - धारी भगवान् से वैसा वर प्राप्त हुआ था । नरेश्वर ! इनके सिवा और भी, विचित्र ओषधियाँ, जो पृथ्वीके दोहनसे प्रकट हुई थीं, वहाँ गोपीरूप में उत्पन्न हुईं ॥ १-२

बर्हिष्मतीपुरी की वे नारियाँ भी, जिन्हें महाराज पृथुका वर प्राप्त था, जातिस्मरा गोपियों के रूप में व्रज में उत्पन्न हुई थीं तथा नर-नारायण के वरदान से अप्सराएँ भी गोपीरूपमें प्रकट हुई थीं । सुतलवासिनी दैत्यनारियाँ वामनके वरसे तथा नागराजोंकी कन्याएँ भगवान् शेषके उत्तम वरसे व्रजमें उत्पन्न हुईं। दुर्वासामुनिने उन सबको अद्भुत 'कृष्णा-पञ्चाङ्ग' दिया था, जिससे यमुनाजीकी पूजा करके उन्होंने श्रीपतिका वररूपमें वरण किया ।। -५

एक दिनकी बात है— मनोहर वृन्दावनमें दिव्य यमुनातटपर, जहाँ नर-कोकिलोंसे सुशोभित हरे-भरे वृक्ष-समुदाय शोभा दे रहे थे, भ्रमरोंके गुञ्जारवके साथ कोकिलों और सारसोंकी मीठी बोली गूँज रही थी, वासन्ती लताओं से आवृत तथा शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु से परिसेवित मधुमास में, उन गोपाङ्गनाओंके साथ, मदनमोहन श्यामसुन्दर श्रीहरिने कल्पवृक्षों की श्रेणीसे मनोरम प्रतीत होनेवाले कदम्बवृक्षके नीचे एकान्त स्थानमें झूला झूलनेका उत्सव आरम्भ किया ॥ ६-८

 वहाँ यमुना-जलकी उत्ताल तरङ्गोंका कोलाहल फैला हुआ था। वे प्रेमविह्वला गोपाङ्गनाएँ श्रीहरिके साथ झूला झूलनेकी क्रीड़ा कर रही थीं। जैसे रतिके साथ रति- पति कामदेव शोभा पाते हैं, उसी प्रकार करोड़ों चन्द्रोंसे भी अधिक कान्तिमती कीर्तिकुमारी श्रीराधाके साथ वृन्दावनमें श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण सुशोभित हो रहे थे । इस प्रकार जो साक्षात् परिपूर्णतम नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को प्राप्त हुई थीं, उन समस्त गोपाङ्गनाओंके तपका क्या वर्णन हो सकता है ? ॥ ९-११

नागराजोंकी समस्त सुन्दरी कन्याएँ, जो गोपीरूपमें उत्पन्न हुई थीं, मनोहर चैत्र मासमें यमुनाके तटपर श्रीबलभद्र हरिकी सेवामें उपस्थित थीं। राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे गोपियोंके शुभ चरित्रका वर्णन किया, जो परम पवित्र तथा समस्त पापोंको हर लेनेवाला है। अब पुनः क्या सुनना चाहते हो ? ।। १२ – १३॥

बहुलाश्व बोले- मुने ! प्रभो ! दुर्वासाका दिया हुआ यमुनाजीका पञ्चाङ्ग क्या है, जिससे गोपियोंको गोविन्दकी प्राप्ति हो गयी ? उसका मुझसे वर्णन कीजिये ॥ १४ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! इस विषयमें विज्ञजन एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण देते हैं, जिसके श्रवणमात्रसे पापोंकी पूर्णतया निवृत्ति हो जाती है। अयोध्यामें मांधाता नामसे प्रसिद्ध एक तेजस्वी राजशिरोमणि उस पुरीके अधिपति थे। एक दिन वे शिकार खेलनेके लिये वनमें गये और विचरते हुए, सौभरिमुनिके सुन्दर आश्रमपर जा पहुँचे । उनका वह आश्रम साक्षात् वृन्दावनमें यमुनाजीके मनोहर तटपर स्थित था । वहाँ अपने जामाता सौभरिमुनिको प्रणाम करके मानदाता मांधाताने कहा ।। १५–१७ ॥

मांधाता बोले- भगवन् ! आप साक्षात् सर्वज्ञ हैं, परावरवेत्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं और अज्ञानान्धकारसे अंधे हुए लोगोंके लिये दूसरे दिव्य सूर्यके समान हैं। मुझे शीघ्र ही ऐसा कोई उत्तम साधन बताइये, जिससे इस लोकमें सम्पूर्ण सिद्धियोंसे सम्पन्न राज्य बना रहे और परलोकमें भगवान् श्रीकृष्णका सारूप्य प्राप्त हो ।। १८-१९ ॥

सौभरि बोले- राजन् ! मैं तुम्हारे सामने यमुनाजीके पञ्चाङ्गका वर्णन करूँगा, जो सदा समस्त सिद्धियोंको देनेवाला तथा श्रीकृष्णके सारूप्यकी प्राप्ति करानेवाला है । यह साधन जहाँसे सूर्यका उदय होता है और जहाँ वह अस्तभावको प्राप्त होता है, वहाँ तक के राज्यकी प्राप्ति करानेवाला तथा यहाँ श्रीकृष्ण को भी वशीभूत करनेवाला है। सूर्यवंशेन्द्र ! किसी भी देवताके कवच, स्तोत्र, सहस्रनाम, पटल तथा पद्धति-ये पाँच अङ्ग विद्वानोंने बताये हैं ।। २० - २२ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'सौभरि और मांधाताका संवाद तथा बर्हिष्मतीपुरीकी नारियों, अप्सराओं, सुतलवासिनी, असुर-कन्याओं तथा नागराज कन्याओंके गोपीरूपमें 'उत्पन्न होनेका उपाख्यान' नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

कृष्णद्युमणि निम्लोचे गीर्णेष्वजगरेण ह ।
किं नु नः कुशलं ब्रूयां गतश्रीषु गृहेष्वहम् ॥ ७ ॥
दुर्भगो बत लोकोऽयं यदवो नितरामपि ।
ये संवसन्तो न विदुः हरिं मीना इवोडुपम् ॥ ८ ॥
इङ्‌गितज्ञाः पुरुप्रौढा एकारामाश्च सात्वताः ।
सात्वतां ऋषभं सर्वे भूतावासममंसत ॥ ९ ॥
देवस्य मायया स्पृष्टा ये चान्यद् असदाश्रिताः ।
भ्राम्यते धीर्न तद्वाक्यैः आत्मन्युप्तात्मनो हरौ ॥ १० ॥

उद्धवजी बोले—विदुरजी ! श्रीकृष्णरूप सूर्यके छिप जाने से हमारे घरों को कालरूप अजगर ने खा डाला है, वे श्रीहीन हो गये हैं; अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊँ ॥ ७ ॥ ओह ! यह मनुष्यलोक बड़ा ही अभागा है; इसमें भी यादव तो नितान्त भाग्यहीन हैं, जिन्होंने निरन्तर श्रीकृष्णके साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचाना—जिस तरह अमृतमय चन्द्रमाके समुद्रमें रहते समय मछलियाँ उन्हें नहीं पहचान सकी थीं ॥ ८ ॥ यादवलोग मनके भावको ताडऩेवाले, बड़े समझदार और भगवान्‌के साथ एक ही स्थानमें रहकर क्रीडा करनेवाले थे; तो भी उन सबने समस्त विश्वके आश्रय, सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्णको एक श्रेष्ठ यादव ही समझा ॥ ९ ॥ किंतु भगवान्‌ की माया से मोहित इन यादवों और इनसे व्यर्थका वैर ठानने वाले शिशुपाल आदि के अवहेलना और निन्दासूचक वाक्यों से भगवत्प्राण महानुभावों की बुद्धि भ्रम में नहीं पड़ती थी ॥ १० ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

कौरव सेना से पीड़ित रंगोजि गोप का कंस की सहायता से व्रजमण्डल की सीमा पर निवास तथा उसकी पुत्रीरूप में जालंधरी गोपियों का प्राकट्य

 

इत्थं श्रुत्वा वचस्तस्य कंसो वै दीनवत्सलः ।
 दैत्यकोटिसमायुक्तो मनो गंतुं समादधे ॥ १८ ॥
 गोमूत्रचयसिन्दूरकस्तूरीपत्रभृन्मुखम् ।
 विन्ध्याद्रिसदृशं श्यामं मदनिर्झरसंयुतम् ॥ १९ ॥
 पादे च शृङ्खलाजालं नदंतं घनवद्‍भृशम् ।
 द्विपं कुवलयापीडं समारुह्य मदोत्कटः ॥ २० ॥
 चाणूरमुष्टिकाद्यैश्च केशिव्योमवृषासुरैः ।
 सहसा दंशितः कंसः प्रययौ रंगपत्तनम् ॥ २१ ॥
 यदूनां च कुरूणां च बलयोस्तु परस्परम् ।
 बाणैः खड्गैः त्रिशूलैश्च घोरं युद्धं बभूव ह ॥ २२ ॥
 बाणांधकारे संजाते कंसो नीत्वा महागदाम् ।
 विवेश कुरुसेनासु वने वैश्वानरो यथा ॥ २३ ॥
 कांश्चिद्वीरान् सकवचान् गदया वज्रकल्पया ।
 पातयामास भूपृष्ठे वज्रेणेंद्रो यथा गिरिम् ॥ २४ ॥
 रथान्ममर्द पादाभ्यां पार्ष्णिघातेन घोटकान् ।
 गजे गजं ताडयित्वा गजान्प्रोन्नीय चांघ्रिषु ॥ २५ ॥
 स्कन्धयोः कक्षयोर्धृत्वा सनीडान् रत्‍नकंबलान् ।
 कांश्चिद्‌बलाद्‌‌भ्रामयित्वा चिक्षेप गगने बली ॥ २६ ॥
 गजाञ्छुण्डासु चोन्नीय लोलघंटासमावृतान् ।
 चिक्षेप संमुखे राजन् मृधे व्योमासुरो बली ॥ २७ ॥
 रथान् गृहीत्वा साश्वांश्च शृङ्गाभं भ्रामयन्मुहुः ।
 चिक्षेप दिक्षु बलवान् दैत्यो दुष्टो वृषासुरः ॥ २८ ॥
 बलात्पश्चिमपादाभ्यां वीरानश्वानितस्ततः ।
 पातयामास राजेंद्र केशी दैत्याधिपो बली ॥ २९ ॥
 एवं भयंकरं युद्धं दृष्ट्वा वै कुरुसैनिकाः ।
 शेषा भयातुरा वीरा जग्मुस्तेऽपि दिशो दश ॥ ३० ॥
 रंगोजिं सकुटुम्बं तं नीत्वा कंसोऽथ दैत्यराट् ।
 मथुरां प्रययौ वीरो नादयन् दुंदुभीञ्छनैः ॥ ३१ ॥
 श्रुत्वा पराजयं स्वस्य कौरवाः क्रोधमूर्छिताः ।
 दैत्यानां समयं दृष्ट्वा सर्वे वै मौनमास्थिताः ॥ ३२ ॥
 पुरं बर्हिषदं नाम व्रजसीम्नि मनोहरम् ।
 रंगोजये ददौ कंसो दैत्यानामधिपो बली ॥ ३३ ॥
 वासं चकार तत्रैव रंगोजिर्गोपनायकः ।
 बभूवुस्तस्य भार्यासु जालंधर्यो हरेर्वरात् ॥ ३४ ॥
 परिणीता गोपजनै रूपयौवनभूषिताः ।
 जारधर्मेण सुस्नेहं श्रीकृष्णे ताः प्रचक्रिरे ॥ ३५ ॥
 चैत्रमासे महारासे ताभिः साकं हरिः स्वयम् ।
 पुण्ये वृन्दावने रम्ये रेमे वृन्दावनेश्वरः ॥ ३६ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! दूतकी यह बात सुनकर दीनवत्सल कंसने करोड़ों दैत्योंकी सेनाके साथ वहाँ जानेका विचार किया। उसके हाथीके गण्ड- स्थलपर गोमूत्रमें घोले गये सिन्दूर और कस्तूरीके द्वारा पत्र - रचना की गयी थी। वह हाथी विन्ध्याचलके समान ऊँचा था और उसके गण्डस्थलसे मद झर रहे थे। उसके पैरमें साँकलें थीं। वह मेघकी गर्जनाके समान जोर-जोरसे चिग्घाड़ता था । ऐसे कुवलयापीड नामक गजराजपर चढ़कर मदमत्त राजा कंस सहसा कवच आदिसे सुसज्जित हो चाणूर, मुष्टिक आदि मल्लों तथा केशी, व्योमासुर और वृषासुर आदि दैत्य-योद्धाओंके साथ रङ्गपत्तनकी ओर प्रस्थित हुआ ॥ १८-२१

वहाँ. यादवों और कौरवोंकी सेनाओंमें परस्पर बाणों, खड्गों और त्रिशूलोंके प्रहारसे घोर युद्ध हुआ । जब बाणोंसे सब ओर अन्धकार - सा छा गया, तब कंस एक विशाल गदा हाथमें लेकर कौरव सेनामें उसी प्रकार घुसा, जैसे वनमें दावानल प्रविष्ट हुआ हो। जैसे इन्द्र अपने वज्रसे पर्वतको गिरा देते हैं, उसी प्रकार कंसने अपनी वज्र- सरीखी गदाकी मारसे कितने ही कवचधारी वीरोंको धराशायी कर दिया ॥ २२-२४

उसने पैरोंके आघातसे रथोंको रौंद डाला, एड़ियोंसे मार-मारकर घोड़ोंका कचूमर निकाल दिया। हाथीको हाथीसे ही मारकर कितने ही गजोंको उनके पाँव पकड़कर उछाल दिया। महाबली कंसने कितने ही हाथियोंके कंधों अथवा कक्षभागोंको पकड़कर उन्हें हौदों और झूलों- सहित बलपूर्वक घुमाते हुए आकाशमें फेंक दिया ॥ २५-२६

राजन् ! उस युद्धभूमिमें बलवान् व्योमासुर हाथियोंके शुण्डदण्ड पकड़कर उन्हें चञ्चल घंटाओंसहित उछालकर सामने फेंक देता था। दुष्ट दैत्य बलवान् वृषासुर घोड़ोंसहित रथोंको अपने सींगोंपर उठाकर बारंबार घुमाता हुआ चारों दिशाओंमें फेंकने लगा ॥ २७-२८

राजेन्द्र ! बलवान् दैत्यराज केशीने बलपूर्वक अपने पिछले पैरोंसे बहुत-से वीरों और अश्वोंको इधर-उधर धराशायी कर दिया। ऐसा भयंकर युद्ध देखकर कौरव सेनाके शेष वीर भयसे व्याकुल हो दसों दिशाओंमें भाग गये। दैत्यराज वीर कंस विजयके उल्लासमें नगारे बजवाता हुआ कुटुम्बसहित रंगोजि गोपको अपने साथ ही मथुरा ले गया ॥ २९-३१

अपनी सेनाकी पराजयका समाचार सुनकर कौरव क्रोधसे मूर्च्छित हो उठे। परंतु वर्तमान समयको दैत्योंके अनुकूल देखकर वे सब-के-सब चुप रह गये। व्रजमण्डलकी सीमापर बर्हिषद् नामसे प्रसिद्ध एक मनोहर पुर था, जिसे बलवान् दैत्यराज कंसने रंगोजिको दे दिया । गोपनायक रंगोजि वहीं निवास करने लगा । श्रीहरिके वरदानसे जालंधरके अन्तः- पुरकी स्त्रियाँ उसी गोपकी पत्नियोंके गर्भ से उत्पन्न हुईं ॥ ३२-३४

रूप और यौवनसे विभूषित वे गोपकन्याएँ दूसरे दूसरे गोपजनोंको ब्याह दी गयीं, परंतु वे जारभाव से भगवान् श्रीकृष्णके प्रति प्रगाढ़ प्रेम करने लगीं। वृन्दावनेश्वर श्यामसुन्दरने चैत्र मास के महारास में उन सबके साथ पुण्यमय रमणीय वृन्दावन- के भीतर विहार किया ।। ३-३६ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'जालंधरी गोपियोंका उपाख्यान' नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १४ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

श्रीशुक उवाच ।
इति भागवतः पृष्टः क्षत्त्रा वार्तां प्रियाश्रयाम् ।
प्रतिवक्तुं न चोत्सेह औत्कण्ठ्यात् स्मारितेश्वरः ॥ १ ॥
यः पञ्चहायनो मात्रा प्रातराशाय याचितः ।
तन्नैच्छत् रचयन् यस्य सपर्यां बाललीलया ॥ २ ॥
स कथं सेवया तस्य कालेन जरसं गतः ।
पृष्टो वार्तां प्रतिब्रूयाद् भर्तुः पादौ अनुस्मरन् ॥ ३ ॥
स मुहूर्तं अभूत्तूष्णीं कृष्णाङ्‌घ्रिसुधया भृशम् ।
तीव्रेण भक्तियोगेन निमग्नः साधु निर्वृतः ॥ ४ ॥
पुलकोद् भिन्नसर्वाङ्गो मुञ्चन्मीलद्‌दृशा शुचः ।
पूर्णार्थो लक्षितस्तेन स्नेहप्रसरसम्प्लुतः ॥ ५ ॥
शनकैः भगवल्लोकान् नृलोकं पुनरागतः ।
विमृज्य नेत्रे विदुरं प्रीत्याहोद्धव उत्स्मयन् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब विदुरजीने परम भक्त उद्धवसे इस प्रकार उनके प्रियतम श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखनेवाली बातें पूछीं, तब उन्हें अपने स्वामी का स्मरण हो आया और वे हृदय भर आनेके कारण कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ १ ॥ जब ये पाँच वर्षके थे, तब बालकोंकी तरह खेलमें ही श्रीकृष्णकी मूर्ति बनाकर उसकी सेवा-पूजा में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि कलेवे के लिये माता के बुलानेपर भी उसे छोडक़र नहीं जाना चाहते थे ॥ २ ॥ अब तो दीर्घकाल से उन्हीं की सेवामें रहते-रहते ये बूढ़े हो चले थे; अत: विदुरजीके पूछनेसे उन्हें अपने प्यारे प्रभुके चरणकमलों का स्मरण हो आया—उनका चित्त विरहसे व्याकुल हो गया। फिर वे कैसे उत्तर दे सकते थे ॥ ३ ॥ उद्धवजी श्रीकृष्णके चरणारविन्द-मकरन्द-सुधा से सराबोर होकर दो घड़ीतक कुछ भी नहीं बोल सके। तीव्र भक्तियोगसे उसमें डूबकर वे आनन्द-मग्न ॥ ४ ॥ उनके सारे शरीर में रोमाञ्च हो आया तथा मुँदे हुए नेत्रोंसे प्रेम के आँसुओं की धारा बहने लगी। उद्धवजी को इस प्रकार प्रेम-प्रवाहमें डूबे हुए देखकर विदुरजीने उन्हें कृतकृत्य माना ॥ ५ ॥ कुछ समय बाद जब उद्धवजी भगवान्‌ के प्रेमधामसे उतरकर पुन: धीरे-धीरे संसार में आये, तब अपने नेत्रों को पोंछकर भगवल्लीलाओं का स्मरण हो आनेसे विस्मित हो विदुरजी से इस प्रकार कहने लगे ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

कौरव सेना से पीड़ित रंगोजि गोप का कंस की सहायता से व्रजमण्डल की सीमा पर निवास तथा उसकी पुत्रीरूप में जालंधरी गोपियों का प्राकट्य

 

श्रीनारद उवाच -
जालंधरीणां गोपीनां जन्मानि शृणु मैथिल ।
 कर्माणि च महाराज पापघ्नानि नृणां सदा ॥ १ ॥
 रजन् सप्तनदीतीरे रंगपत्तनमुत्तमम् ।
 सर्वसंपद्युतं दीर्घं योजनद्वयवर्तुलम् ॥ २ ॥
 रंगोजिस्तत्र गोपालः पुराधीशो महाबलः ।
 पुत्रपौत्रसमायुक्तो धनधान्यसमृद्धिमान् ॥ ३ ॥
 हस्तिनापुरनाथाय धृतराष्ट्राय भूभृते ।
 हैमानामर्बुदशतं वार्षिकं स ददौ सदा ॥ ४ ॥
 एकदा तत्र वर्षांते व्यतीते किल मैथिल ।
 वार्षिकं तु करं राज्ञे न ददौ स मदोत्कटः ॥ ५ ॥
 मिलनार्थं न चायते रंगोजौ गोपनायके ।
 वीरा दश सहस्राणि धृतराष्ट्रप्रणोदिताः ॥ ६ ॥
 बद्ध्वा तं दामभिर्गोपमाजग्मुस्ते गजह्वयम् ।
 कति वर्षाणि रंगोजिः कारागारे स्थितोऽभवत् ॥ ७ ॥
 सन्निरुद्धस्ताडितोऽपि लोभी भीरुर्न चाभवत् ।
 न ददौ स धनं किंचिद्धृतराष्ट्राय भूभृते ॥ ८ ॥
 कारागारान्महाभीमात्कदाचित्स पलायितः ।
 रात्रौ रंगपुरं प्रागाद् रंगोजिर्गोपनायकः ॥ ९ ॥
 पुनस्तं हि समाहर्तुं धृतराष्ट्रप्रणोदितम् ।
 अक्षौहिणीत्रयं राजन् समर्थबलवाहनम् ॥ १० ॥
 तेन सार्द्धं स बाणौघैस्तीक्ष्णधारैः स्फुरत्प्रभैः ।
 युयुधे दंशितो युद्धे धनुष्टंकारयन्मुहुः ॥ ११ ॥
 शत्रुभिश्छिन्नकवचः छिन्नधन्वा हतस्वकः ।
 पुरमेत्य मृधं चक्रे रंगोजिः कतिभिर्दिनैः ॥ १२ ॥
 अनाथः शरणं चेच्छन् कंसाय यदूभूभृते ।
 दूतं स्वं प्रेषयामास रंगोजिर्भयपीडितः ॥ १३ ॥
 दूतस्तु मथुरामेत्य सभां गत्वा नताननः ।
 कृताञ्जलिश्चौग्रसेनिं नत्वा प्राह गिराऽऽर्द्रया ॥ १४ ॥
 रंगोजिनामा नृप रंगपत्तने
     गोपोऽस्ति नीतिज्ञवरः पुराधिपः ।
 स्वशत्रुसंरुद्धपुरो महाधिभृद्
     अलब्धनाथः शरणं गतस्तव ॥ १५ ॥
 त्वं दीनदुःखार्तिहरो महीतले
     भौमदिसंगीतगुणो महाबलः ।
 सुरासुरानुद्भटभूमिपालकान्
     विजित्य युद्धे सुरराडिव स्थितः ॥ १६ ॥
 चन्द्रं चकोरश्च रविं कुशेशयो
     यथा शरच्छीकरमेव चातकः ।
 क्षुधातुरोऽन्नं च जलं तृषातुरः
     स्मरत्यसौ शत्रुभये तथा त्वाम् ॥ १७ ॥

नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! अब जालंधर के अन्तःपुर की स्त्रियों के गोपीरूप में जन्म लेने का वर्णन सुनो। महाराज ! साथ ही उनके कर्मों को भी सुनो, जो सदा ही मनुष्यों के पापों का नाश करने वाले हैं ॥ १ ॥

राजन् ! सप्तनदीके किनारे 'रङ्गपत्तन' नामसे प्रसिद्ध एक उत्तम नगर था, जो सब प्रकार की सम्पदाओंसे सम्पन्न तथा विशाल था । वह दो योजन विस्तृत गोलाकार नगर था। उस नगर का मालिक या पुराधीश रंगोजि नामक एक गोप था, जो महान् बलवान् था । वह पुत्र-पौत्र आदि से संयुक्त तथा धन-धान्य से समृद्धिशाली था ॥ २-३

हस्तिनापुरके स्वामी राजा धृतराष्ट्रको वह सदा एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ वार्षिक करके रूपमें दिया करता था । मिथिलेश्वर ! एक समय वर्ष बीत जानेपर भी धनके मदसे उन्मत्त गोपने राजाको वार्षिक कर नहीं दिया। इतना ही नहीं, वह गोपनायक रंगोजि मिलनेतक नहीं गया। तब धृतराष्ट्रके भेजे हुए दस हजार वीर जाकर उस गोपको बाँधकर हस्तिनापुरमें ले आये। कई वर्षोंतक तो रंगोजि कारागारमें बँधा पड़ा रहा। बाँधे और पीटे जानेपर भी वह लोभी गोप डरा नहीं। उसने राजा धृतराष्ट्रको थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया ॥ ४-८ ॥

किसी समय गोपनायक रंगोजि उस महाभयंकर कारागार से भाग निकला तथा रातों-रात रङ्गपुर में आ गया । तब पुनः उसे पकड़ लाने के लिये धृतराष्ट्रकी भेजी हुई शक्तिशाली बल-वाहनसे सम्पन्न तीन अक्षौहिणी सेना गयी। वह गोप भी कवच धारण करके युद्धभूमिमें बारंबार धनुषकी टंकार फैलाता हुआ तीखी धारवाले चमकीले बाणसमूहोंकी वर्षा करके धृतराष्ट्रकी उस सेनाका सामना करने लगा ॥ ९-११

शत्रुओंने उसके कवच और धनुष काट दिये तथा उसके स्वजनोंका भी वध कर डाला; तब वह अपने पुर (दुर्ग) में आकर कुछ दिनोंतक युद्ध चलाता रहा । अन्तमें अनाथ एवं भयसे पीड़ित रंगोजि किसी शरणदाता या रक्षककी इच्छा करने लगा। उसने यादवराज कंसके पास अपना दूत भेजा । दूत मथुरा पहुँचकर राज दरबारमें गया और उसने मस्तक झुकाकर दोनों हाथोंकी अञ्जलि बाँधे उग्रसेनकुमार कंसको प्रणाम करके करुणासे आर्द्र वाणीमें कहा ।। १२-१४ ।।

'महाराज ! रङ्गपत्तन में रंगोजि नाम से प्रसिद्ध एक गोप हैं, जो उस नगरके स्वामी तथा नीतिवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। शत्रुओंने उनके नगर को चारों ओरसे घेर लिया है। वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये हैं और अनाथ होकर आपकी शरणमें आये हैं। इस भूतलपर केवल आप ही दीनों और दुःखियोंकी पीड़ा हरनेवाले हैं। भौमासुरादि वीर आपके गुण गाया करते हैं। आप महाबली हैं और देवता, असुर तथा उद्भट भूमिपालोंको युद्धमें जीतकर देवराज इन्द्रके समान अपनी राजधानीमें विराजमान हैं ॥ १५-१६

जैसे चकोर चन्द्रमाको, कमलोंका समुदाय सूर्यको, चातक शरद् ऋतुके बादलोंद्वारा बरसाये गये जलकणोंको, भूखसे व्याकुल मनुष्य अन्नको तथा प्याससे पीड़ित प्राणी पानी को ही याद करता है, उसी प्रकार रंगोजि गोप शत्रुके भयसे आक्रान्त हो केवल आपका स्मरण कर रहे हैं' ।। १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट१३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट१३)

उद्धव और विदुर की भेंट

नूनं नृपाणां त्रिमदोत्पथानां
    महीं मुहुश्चालयतां चमूभिः ।
वधात्प्रपन्नार्तिजिहीर्षयेशोऽपि
    उपैक्षताघं भगवान् कुरूणाम् ॥ ४३ ॥
अजस्य जन्मोत्पथनाशनाय
    कर्माण्यकर्तुर्ग्रहणाय पुंसाम् ।
नन्वन्यथा कोऽर्हति देहयोगं
    परो गुणानामुत कर्मतंत्रम् ॥ ४४ ॥
तस्य प्रपन्नाखिललोकपानां
    अवस्थितानां अनुशासने स्वे ।
अर्थाय जातस्य यदुष्वजस्य
    वार्तां सखे कीर्तय तीर्थकीर्तेः ॥ ४५ ॥

(विदुरजी कह रहे हैं) यद्यपि कौरवों ने उनके बहुत-से अपराध किये, फिर भी भगवान्‌ ने उनकी इसीलिये उपेक्षा कर दी थी कि वे उनके साथ उन दुष्ट राजाओं को भी मारकर अपने शरणागतों का दु:ख दूर करना चाहते थे, जो धन, विद्या और जातिके मदसे अंधे होकर कुमार्गगामी हो रहे थे और बार-बार अपनी सेनाओंसे पृथ्वी को कँपा रहे थे ॥ ४३ ॥ उद्धवजी ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण जन्म और कर्म से रहित हैं; फिर भी दुष्टों का नाश करनेके लिये और लोगोंको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये उनके दिव्य जन्म-कर्म हुआ करते हैं। नहीं तो, भगवान्‌ की तो बात ही क्या—दूसरे जो लोग गुणोंसे पार हो गये हैं, उनमें भी ऐसा कौन है, जो इस कर्माधीन देहके बन्धनमें पडऩा चाहेगा ॥ ४४ ॥ अत: मित्र ! जिन्होंने अजन्मा होकर भी अपनी शरणमें आये हुए समस्त लोकपाल और आज्ञाकारी भक्तों का प्रिय करनेके लिये यदुकुल में जन्म लिया है, उन पवित्रकीर्ति श्रीहरि की बातें सुनाओ ॥ ४५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) तेरहवाँ अध्याय

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

तेरहवाँ अध्याय

 

देवाङ्गनास्वरूपा गोपियाँ

 

श्रीनारद उवाच -
अथ देवांगनानां च गोपीनां वर्णनं शृणु ।
 चतुष्पदार्थदं नॄणां भक्तिवर्धनमुत्तमम् ॥ १ ॥
 बभूव मालवे देशे गोपो नन्दो दिवस्पतिः ।
 भार्यासहस्रसंयुक्तो धनवान् नीतिमान्परः ॥ २ ॥
 तीर्थयात्राप्रसंगेन मथुरायां समागतः ।
 नन्दराजं व्रजाधीशं श्रुत्वा श्रीगोकुलं ययौ ॥ ३ ॥
 मिलित्वा गोपराजं स दृष्ट्वा वृन्दावनश्रियम् ।
 नन्दराजाज्ञया तत्र वासं चक्रे महामनाः ॥ ४ ॥
 योजनद्वयमाश्रित्य घोषं चक्रे गवां पुनः ।
 मुदं प्राप व्रजे राजन् ज्ञातिभिः स दिवस्पतिः ॥ ५ ॥
 तस्य देवलवाक्येन सर्वा देवजनस्त्रियः ।
 जाताः कन्या महादिव्या ज्वलदग्निशिखोपमाः ॥ ६ ॥
 श्रीकृष्णं सुन्दरं दृष्ट्वा मोहिताः कन्यकाश्च ताः ।
 दामोदरस्य प्राप्त्यर्थं चक्रुर्माघव्रतं परम् ॥ ७ ॥
 अर्धोदयेऽर्के यमुनां नित्यं स्नात्वा व्रजांगनाः ।
 उच्चैर्जगुः कृष्णलीलां प्रेमानन्दसमाकुलाः ॥ ८ ॥
 तासां प्रसन्नः श्रीकृष्णो वरं ब्रूहीत्युवाच ह ।
 ता ऊचुस्तं परं नत्वा कृताञ्जलिपुटाः शनैः ॥ ९ ॥


 गोप्य ऊचुः -
योगीश्वराणां किल दुर्लभस्त्वं
     सर्वेश्वरः कारणकारणोऽसि ।
 त्वं नेत्रगामी भवतात्सदा नो
     वंशीधरो मन्मथमन्मथांगः ॥ १० ॥
 तथाऽस्तु चोक्त्वा हरिरादिदेवः
     तासां तु यो दर्शनमाततान ।
 भूयात्सदा ते हृदि नेत्रमार्गे
     तथा स आहूत इवाशु चित्ते ॥ ११ ॥
 परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि ।
 एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह ॥ १२ ॥
 परिकरीकृतपीतपटं हरिं
     शिखिकिरीटनतीकृतकंधरम् ।
 लकुटवेणुकरं चलकुंडलं
     पटुतरं नतवेषधरं भजे ॥ १३ ॥
 भक्त्यैव वश्यो हरिरादिदेवः
     सदा प्रमाणं किल चात्र गोप्यः ।
 सांख्यं च योगं न कृतं कदापि
     प्रेम्णैव यस्य प्रकृतिं गताः स्युः ॥ १४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— मिथिलेश्वर ! अब देवाङ्गनास्वरूपा गोपियोंका वर्णन सुनो, जो मनुष्योंको चारों पदार्थ देनेवाला तथा उनके भक्तिभावको बढ़ानेवाला सर्वोत्तम साधन है ॥ १ ॥

मालवदेशमें एक गोप थे, जिनका नाम था - दिवस्पति नन्द । उनके एक सहस्र पत्रियाँ थीं। वे बड़े धनवान् और नीतिज्ञ थे। एक समय तीर्थयात्राके प्रसङ्गसे उनका मथुरामें आगमन हुआ। वहाँ व्रजाधीश्वर नन्दराजका नाम सुनकर वे उनसे मिलनेके लिये गोकुल गये ॥ २-३

वहाँ नन्दराजसे मिलकर और वृन्दावनकी शोभा देखकर महामना दिवस्पति नन्द- राजकी आज्ञासे वहीं रहने लगे ॥

उन्होंने दो योजन भूमिको घेरकर गौओंके लिये गोष्ठ बनाया । राजन् उस व्रजमें अपने कुटुम्बी बन्धुजनोंके साथ रहते हुए दिवस्पतिको बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई ॥

देवल मुनिके आदेशसे समस्त देवाङ्गनाएँ उन्हीं दिवस्पतिकी महादिव्य कन्याएँ हुईं, जो प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्विनी थीं ॥ ६॥

किसी समय श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका दर्शन पाकर वे सब कन्याएँ मोहित हो गयीं और उन दामोदरकी प्राप्ति- के लिये उन्होंने परम उत्तम माघ मासका व्रत किया। आधे सूर्यके उदित होते-होते प्रतिदिन वे व्रजाङ्गनाएँ यमुनामें जाकर स्नान करतीं और प्रेमानन्दसे विह्वल हो उच्चस्वरसे श्रीकृष्णकी लीलाएँ गाती थीं । भगवान् श्रीकृष्ण उनपर प्रसन्न होकर बोले- 'तुम कोई वर माँगो ।' तब उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर उन परमात्माको प्रणाम करके उनसे धीरे-धीरे कहा ।। ७–९॥

गोपियाँ बोलीं- प्रभो ! निश्चय ही आप योगीश्वरोंके लिये भी दुर्लभ हैं। सबके ईश्वर तथा कारणोंके भी कारण हैं। आप वंशीधारी हैं। आपका अङ्ग मन्मथके मनको भी मथ डालनेवाला (मोह लेने- वाला) है। आप सदा हमारे नेत्रोंके समक्ष रहें ॥ १० ॥

राजन् ! तब 'तथास्तु' कहकर जिन आदिदेव श्रीहरिने गोपियोंके लिये अपने दर्शनका द्वार उन्मुक्त कर दिया, वे सदा तुम्हारे हृदयमें, नेत्रमार्गमें बसे रहें और बुलाये हुए-से तत्काल चित्तमें आकर स्थित हो जायँ । जिन्होंने कमर में पीताम्बर बाँध रखा है, जिनके सिर पर मोरपंख का मुकुट सुशोभित है और गर्दन झुकी हुई है, जिनके हाथ में बाँसुरी और लकुटी है तथा कानोंमें रत्नमय कुण्डल झलमला रहे हैं, उन पटुतर नटवेषधारी श्रीहरिका मैं भजन करता हूँ। आदिदेव श्रीहरि केवल भक्तिसे ही वशमें होते हैं निश्चय ही इसमें गोपियाँ सदा प्रमाणभूत हैं, जिन्होंने न तो कभी सांख्य का विचार किया योग का अनुष्ठान; केवल प्रेमसे ही वे भगवान्‌ के स्वरूप को प्राप्त हो गयीं ॥। ११ – १४ ॥


इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'देवाङ्गनास्वरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट१२)

उद्धव और विदुर की भेंट

अहो पृथापि ध्रियतेऽर्भकार्थे
    राजर्षिवर्येण विनापि तेन ।
यस्त्वेकवीरोऽधिरथो विजिग्ये
    धनुर्द्वितीयः ककुभश्चतस्रः ॥ ४० ॥
सौम्यानुशोचे तमधःपतन्तं
    भ्रात्रे परेताय विदुद्रुहे यः ।
निर्यापितो येन सुहृत्स्वपुर्या
    अहं स्वपुत्रान् समनुव्रतेन ॥ ४१ ॥
सोऽहं हरेर्मर्त्यविडम्बनेन
    दृशो नृणां चालयतो विधातुः ।
नान्योपलक्ष्यः पदवीं प्रसादात्
    चरामि पश्यन् गतविस्मयोऽत्र ॥ ४२ ॥

(विदुरजी उद्धवजी से कहरहे हैं) अहो ! बेचारी कुन्ती तो राजर्षिश्रेष्ठ पाण्डु के वियोग में मृतप्राय-सी होकर भी इन बालकों के लिये ही प्राण धारण किये हुए है। रथियों में श्रेष्ठ महाराज पाण्डु ऐसे अनुपम वीर थे कि उन्होंने केवल एक धनुष लेकर ही अकेले चारों दिशाओं को जीत लिया था ॥ ४० ॥ सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! मुझे तो अध:पतन की ओर जानेवाले उन धृतराष्ट्र के लिये बार-बार शोक होता है, जिन्होंने पाण्डवों के रूप में अपने परलोकवासी भाई पाण्डु से ही द्रोह किया तथा अपने पुत्रोंकी हाँ-में-हाँ मिलाकर अपने हितचिन्तक मुझको भी नगरसे निकलवा दिया ॥ ४१ ॥ किंतु भाई ! मुझे इसका कुछ भी खेद अथवा आश्चर्य नहीं है। जगद्विधाता भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करके लोगों की मनोवृत्तियों को भ्रमित कर देते हैं । मैं तो उन्हींकी  कृपा से उनकी महिमा को देखता हुआ दूसरों की दृष्टि से दूर रहकर सानन्द विचर रहा हूँ ॥ ४२ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

दिव्यादिव्य, त्रिगुणवृत्तिमयी भूतल-गोपियोंका वर्णन तथा श्रीराधासहित गोपियोंकी श्रीकृष्णके साथ होली


श्रीनारद उवाच -
अथ मानवती राधा मानं त्यक्त्वा समुत्थिता ।
 सखीसंघैः परिवृता प्रकर्तुं होलिकोत्सवम् ॥ १३ ॥
 श्रीखण्डागुरुकस्तूरीहरिद्राकुंकुमद्रवैः ।
 पूरिताभिर्दृतीभिश्च संयुक्तास्ता व्रजांगनाः ॥ १४ ॥
 रक्तहस्ताः पीतवस्त्राः कूजन् नूपुरमेखलाः ।
 गायंत्यो होलिकागीतीः गालीभिर्हास्यसंधिभिः ॥ १५ ॥
 आबीरारुणचूर्णानां मुष्टिभिस्ता इतस्ततः ।
 कुर्वंत्यश्चारुणं भूमिं दिगन्तं चांबरं तथा ॥ १६ ॥
 कोटिशः कोटिशस्तत्र स्फुरंत्याबीरमुष्टयः ।
 सुगंधारुणचूर्णानां कोटिशः कोटिशस्तथा ॥ १७ ॥
 सर्वतो जगृहुः कृष्णं कराभ्यां व्रजगोपिकाः ।
 यथा मेघं च दामिन्यः संध्यायां श्रावणस्य च ॥ १८ ॥
 तन्मुखं च विलिम्पन्त्योऽथाबीरारुणमुष्टिभिः ।
 कुंकुमाक्तदृतीभिस्तं आर्द्रीचक्रुर्विधानतः ॥ १९ ॥
 भगवनपि तत्रैव यावतीर्व्रजयोषितः ।
 धृत्वा रूपाणि तावंति विजहार नृपेश्वर ॥ २० ॥
 राधया शुशुभे तत्र होलिकाया महोत्सवे ।
 वर्षासंध्याक्षणे कृष्णः सौदामिन्या घनो यथा ॥ २१ ॥
 कृष्णोऽपि तद्धस्तकृताक्तनेत्रो
     दत्वा स्वकीयं नवमुत्तरीयम् ।
 ताभ्यो ययौ नन्दगृहं परेशो
     देवेषु वर्षत्सु च पुष्पवर्षम् ॥ २२ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब मानवती राधा मान छोड़कर उठीं और सखियोंके समूहसे घिरकर होलीका उत्सव मनानेके लिये निकलीं । चन्दन, अगर, कस्तूरी, हल्दी तथा केसरके घोलसे भरी हुई डोलचियाँ लिये वे बहुसंख्यक व्रजाङ्गनाएँ एक साथ होकर चलीं ॥ १-१४

रँगे हुए लाल-लाल हाथ, वासन्ती रंगके पीले वस्त्र, बजते हुए नूपुरोंसे युक्त पैर तथा झनकारती हुई करधनीसे सुशोभित कटिप्रदेश बड़ी मनोहर शोभा थी उन गोपाङ्गनाओंकी । वे हास्ययुक्त गालियोंसे सुशोभित होलीके गीत गा रही थीं। अबीर, गुलालके चूर्ण मुट्ठियोंमें ले-लेकर इधर-उधर फेंकती हुई वे व्रजाङ्गनाएँ भूमि, आकाश और वस्त्रको लाल किये देती थीं। वहाँ अबीरकी करोड़ों मुट्ठियाँ एक साथ उड़ती थीं। सुगन्धित गुलालके चूर्ण भी कोटि-कोटि हांथोंसे बिखेरे जाते थे । १ - १७ ॥

इसी समय व्रजगोपियोंने श्रीकृष्णको चारों ओरसे घेर लिया, मानो सावनकी साँझमें विद्युन्मालाओंने मेघको सब ओरसे अवरुद्ध कर लिया हो। पहले तो उनके मुँहपर खूब अबीर और गुलाल पोत दिया, फिर सारे अङ्गोंपर अबीर-गुलाल बरसाये तथा केसरयुक्त रंग से भरी डोलचियों द्वारा उन्हें विधिपूर्वक भिगोया । नृपेश्वर ! वहाँ जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण करके भगवान् भी उनके साथ विहार करते रहे। वहाँ होलिका महोत्सव में श्रीकृष्ण श्रीराधाके साथ वैसी ही शोभा पाते थे, जैसे वर्षाकालकी संध्या-वेलामें विद्युन्माला के साथ मेघ सुशोभित होता है। श्रीराधा ने श्रीकृष्ण के नेत्रों में काजल लगा दिया। श्रीकृष्णने भी अपना नया उत्तरीय (दुपट्टा) गोपियोंको उपहार में दे दिया । फिर वे परमेश्वर श्रीनन्दभवन को लौट गये। उस समय समस्त देवता उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ १८-२२ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें होलिकोत्सवके प्रसङ्गमें 'दिव्यादिव्य- त्रिगुणवृत्तिमयी भूतल-गोपियोंका उपाख्यान' नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥


शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०२) विदुरजी का प्रश्न  और मैत्रेयजी का सृष्टिक्रम ...