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बुधवार, 26 जून 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०७)
मंगलवार, 25 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सातवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
सातवाँ
अध्याय ( पोस्ट 01 )
ब्रह्माजी
के द्वारा गौओं, गोवत्सों एवं
गोप-बालकों का हरण
अथान्यच्छ्रुणु
राजेन्द्र श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
कौमारे क्रीडनश्चेदं पौगण्डे कीर्तनं यथा ॥ १ ॥
श्रीकृष्णोऽघमुखान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सवत्सपान् ।
यमुनापुलिनं गत्वा प्राहेदं हर्षवर्धनम् ॥ २ ॥
अहोऽतिरम्यं पुलिनं प्रियं कोमलवालुकम् ।
शरत्प्रफुल्लपद्मानां परागैः परिपूरितम् ॥ ३ ॥
वायुना त्रिविधाख्येन सुगन्धेन सुगन्धितम् ।
मधुपध्वनिसंयुक्तं कुंजद्रुमलताकुलम् ॥ ४ ॥
अत्रोपविश्य गोपाला दिनैकप्रहरे गते ।
भोजनस्यापि समयं तस्मात्कुरुत भोजनम् ॥ ५ ॥
अत्र भोजनयोग्या भूर्दृश्यते मृदुवालुका ।
वत्सकाः सलिलं पीत्वा ते चरिष्यन्ति शाद्वलम् ॥ ६ ॥
इति कृष्णवचः श्रुत्वा तथेत्याहुश्च बालकाः ।
प्रकर्तुं भोजनं सर्वे ह्युपविष्टाः सरित्तटे ॥ ७ ॥
अथ केचित्बालकाश्च येषां पार्श्वे न भोजनम् ।
ते तु कृष्णस्य कर्णान्तेजगदुर्दीनया गिरा ॥ ८ ॥
वयं तु किं करिष्यामोऽस्मत्पार्श्वे न तु भोजनम् ।
नन्दग्रामन्तु दूरं हि गच्छामो वत्सकैर्वयम् ॥ ९ ॥
इति श्रुत्वा हरिः प्राह मा शोकं कुरुत प्रियाः ।
अहं दास्यामि सर्वेषां प्रयत्नेनापि भोजनम् ॥ १० ॥
तस्मान्मद्वाक्यनिरताः सर्वे भवत बालकाः ।
इति कृष्णस्य वचनात्कृष्णपार्श्वे च ते स्थिताः ।
मुक्त्वा शिक्यानि सर्वेऽन्ये बुभुजुः कृष्णसंयुताः ॥ ११ ॥
चकार कृष्णः किल राजमंडलीं
गोपालबालैः पुरतः प्रपूरितैः ।
अनेकवर्णैर्वसनैः प्रकल्पितै-
र्मध्ये स्थितो पीतपटेन भूषितं ॥ १२
॥
रेजे ततः सो वरगोपदारकै-
र्यथामरेशो ह्यमरैश्च सर्वतः ।
पुनर्यथाम्भोरुहकोमलै-
र्मध्ये तु वैदेह सुवर्णकर्णिका ॥ १३
॥
कुसुमैरङ्कुरैः केचित्पल्लवैश्च दलैः फलैः ।
कृष्णस्तु कवलं भुक्त्वा सर्वान् पश्यन्निदं जगौ ॥ १५ ॥
अन्यान्निदर्शयन् स्वादु नाहं जानामि वै सखे ।
तथेत्युक्त्वा स बालश्च नीत्वाऽन्यान् कवलान् ददौ ॥ १६ ॥
भुक्त्वा ते कथयामासुः प्रहसन्तः परस्परम् ।
पुनस्तत्रापि सुबलो हरये कवलं ददौ ॥ १७ ॥
कृष्णस्तु कवलं किंचिद्भुक्त्वा तत्र जहास ह ।
ये भुक्तकवला बालास्ते सर्वे जहसुः स्फुटम् ॥ १८ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजेन्द्र ! अब भगवान् श्रीकृष्ण की अन्य लीला सुनिये। यह लीला उनके
बाल्यकाल की है, तथापि उनके पौगण्डावस्था की
प्राप्तिके बाद प्रकाशित हुई। श्रीकृष्ण गोवत्स एवं गोप-बालकों की मृत्युके समान
(भयंकर) अघासुरके मुखसे रक्षा करनेके उपरान्त उनका आनन्द बढ़ाने की इच्छा से
यमुनातटपर जाकर बोले— 'प्रिय सखाओ! अहा, यह कोमल वालुकामय तट बहुत ही सुन्दर है ! शरद् ऋतुमें खिले हुए कमलोंके
परागसे पूर्ण है ।। १-३ ॥
शीतल,
मन्द एवं सुगन्धित - त्रिविध वायुसे सौरभित है। यह तटभूमि भौंरों की
गुञ्जार से युक्त एवं कुञ्ज और वृक्षलताओं से सुशोभित है । गोप-बालको ! दिनका एक
पहर बीत गया है। भोजन का समय भी हो गया है । अतएव इस स्थान पर बैठकर भोजन कर लो ।।
४-५ ॥
कोमल
वालुकावाली यह भूमि भोजन करने के उपयुक्त दीख रही है। बछड़े भी यहाँ जल पीकर
हरी-हरी घास चरते रहेंगे।' गोप-बालकों ने श्रीकृष्ण
की यह बात सुनकर कहा— 'ऐसा ही हो' और
वे सब-के-सब भोजन करनेके लिये यमुनातटपर बैठ गये ।। ६-७ ॥
इसके
उपरान्त जिनके पास भोजन-सामग्री नहीं थी, उन
बालकों ने श्रीकृष्ण के कान में दीन-वाणी से कहा- 'हमलोगों के
पास भोजन के लिये कुछ नहीं है, हम लोग क्या करें ? नन्दगाँव यहाँसे बहुत दूर है, अतः हमलोग बछड़ों को
लेकर चले जाते हैं।' यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले- 'प्रिय सखाओ ! शोक मत करो। मैं सबको यत्नपूर्वक (आग्रहके साथ) भोजन कराऊँगा
। इसलिये तुम सब मेरी बातपर भरोसा करके निश्चिन्त हो जाओ।' श्रीकृष्ण
की यह उक्ति सुनकर वे लोग उनके निकट ही बैठ गये। अन्य बालक (अपने-अपने) छीकों को
खोलकर श्रीकृष्ण के साथ भोजन करने लगे ॥ ८- ११ ॥
श्रीकृष्ण
ने गोप-बालकों के साथ, जिनकी उनके सामने
भीड़ लगी हुई थी, एक राजसभा का आयोजन किया। समस्त गोप-बालक
उनको घेरकर बैठ गये । ये लोग अनेक रंगोंके वस्त्र पहने हुए थे और श्रीकृष्ण पीला
वस्त्र धारण करके उनके बीचमें बैठ गये । विदेह ! उस समय गोप-बालकोंसे घिरे हुए
श्रीकृष्णकी शोभा देवताओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रके समान अथवा पँखुड़ियोंसे
घिरी हुई स्वर्णिम कमलकी कर्णिका (केसरयुक्त भीतरी भाग) के समान हो रही थी ।। १२-१३ ॥
कोई
बालक कुसुमों, कोई अङ्कुरों, कोई पल्लवों, कोई पत्तों, कोई फलों, कोई अपने हाथों, कोई
पत्थरों और कोई छीकों को ही पात्र बनाकर भोजन करने लगे। उनमेंसे
एक बालकने शीघ्रतासे कौर उठाकर श्रीकृष्ण- के मुखमें दे दिया। श्रीकृष्णने भी उस ग्रासका
भोग लगाकर सबकी ओर देखते हुए कहा- 'भैया ! अन्य बालकोंको अपनी-अपनी स्वादिष्ट सामग्री
चखाओ। मैं स्वादके बारेमें नहीं जानता।' बालकोंने 'ऐसा ही हो' कहकर अन्यान्य बालकों को भोजन के ग्रास ले जाकर दिये। वे भी उन ग्रासोंको
खाकर एक दूसरेकी हँसी करते हुए उसी प्रकार बोल उठे। सुबलने पुनः हरिके मुखमें ग्रास
दिया, परंतु श्रीकृष्ण उस कौर में से थोड़ा-सा
खाकर हँसने लगे। इस प्रकार जिस-जिसने कौर खाया, वे सभी जोरसे हँसने लगे ।। १४-१८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०६)
सोमवार, 24 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) छठा अध्याय ( पोस्ट 02 )
# श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
छठा अध्याय ( पोस्ट 02 )
अघासुर का उद्धार और
उसके पूर्वजन्म का परिचय
कोऽयं
दैत्यः पूर्वकाले श्रीकृष्णे लीनतां गतः ।
अहो वैरानुबन्धेन शीघ्रं दैत्यो हरिं गतः ॥ ९ ॥
श्रीनारद उवाच -
शंखासुरसुतो राजन् अघो नाम महाबलः ।
युवातिसुन्दरः साक्षात् कामदेव इवापरः ॥ १० ॥
अष्टावक्रं मुनिं यान्तं विरूपं मलयाचले ।
दृष्ट्वा जहास तमघः कुरूपोऽयमिति ब्रुवन् ॥ ११ ॥
तं शशाप महादुष्टं त्वं सर्पो भव दुर्मते ।
कुरूपो वक्रगा जातिः सर्पाणां भूमिमंडले ॥ १२ ॥
तत्पादयोर्निपतितं दैत्यं दीनं गतस्मयम् ।
दृष्ट्वा प्रसन्नः स मुनिर्वरं तस्मै ददौ पुनः ॥ १३ ॥
अष्टावक्र उवाच -
कोटिकन्दर्पलावण्यः श्रीकृष्णस्तु तवोदरे ।
यदाऽऽगच्छेत्सर्परूपात्तदा मुक्तिर्भविष्यति ॥ १४ ॥
राजा
बोले- देवर्षे ! यह दैत्य पूर्वकालमें कौन जो इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णमें विलीन
हुआ ?
अहो ! कितने आश्चर्यकी बात है कि वह दैत्य वैर बाँधनेके कारण शीघ्र
ही श्रीहरिको प्राप्त हुआ ॥ ९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! शङ्खासुर के एक पुत्र था, जो 'अघ' नामसे विख्यात था। महाबली अघ युवावस्थामें
अत्यन्त सुन्दर होनेके कारण साक्षात् दूसरे कामदेव सा जान पड़ता था। एक दिन
मलयाचलपर जाते हुए अष्टावक्र मुनिको देखकर अघासुर जोर- जोर से हँसने लगा और बोला- 'यह कैसा कुरूप है !' ।। १०-११॥
उस
महादुष्टको शाप देते हुए मुनिने कहा— 'दुर्मते
! तू सर्प हो जा; क्योंकि भूमण्डलपर सर्पों की ही जाति कुरूप
एवं कुटिल गतिसे चलनेवाली होती है।' ज्यों- ही उसने यह सुना,
उस दैत्यका सारा अभिमान गल गया और वह दीनभावसे मुनिके चरणोंमें गिर
पड़ा। उसे इस अवस्थामें देखकर मुनि प्रसन्न हो गये और पुनः उसे वर देते हुए बोले-
॥ १२ - १३॥
अष्टावक्र
ने कहा -करोड़ों कंदर्पोंसे भी अधिक लावण्यशाली भगवान् श्रीकृष्ण जब तुम्हारे
उदरमें प्रवेश करेंगे, तब इस सर्परूपसे
तुम्हें छुटकारा मिल जायगा ॥ १४ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'अघासुरका मोक्ष' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०५)
रविवार, 23 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) छठा अध्याय ( पोस्ट 01 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
छठा
अध्याय ( पोस्ट 01 )
अघासुर
का उद्धार और उसके पूर्वजन्म का परिचय
एकदा
बालकैः साकं गोवत्सांश्चारयन् हरिः ।
कालिन्दीनिकटे रम्ये बालक्रीडां चकार ह ॥ १ ॥
अघासुरो नाम महान् दैत्यस्तत्र स्थितोऽभवत् ।
क्रोशदीर्घं वपुः कृत्वा प्रसार्य मुखमंडलम् ॥ २ ॥
दूराद्यं पर्वताकारं वीक्ष्य वृन्दावने वने ।
गोपा जग्मुर्मुखे तस्य वत्सैः कृत्वांजलिध्वनिम् ॥ ३ ॥
तद्रक्षार्थं च सबलः तन्मुखे प्राविशद्धरिः ।
निगीर्णेषु सवत्सेषु बालेषु त्वहिरूपिणा ॥ ४ ॥
हाशब्दोऽभूत्सुराणां तु दैत्यानां हर्ष एव हि ।
कृष्णो वपुः स्वं वैराजं ततानाघोदरे ततः ॥ ५ ॥
तस्य संरोधगाः प्राणाः शिरोप् भित्वा विनिर्गताः ।
तन्मुखान्निर्गतः कृष्णो बालैर्वत्सैश्च मैथिल ॥ ६ ॥
सवत्सकान् शिशून् दृष्ट्वा जीवयामास माधवः ।
तज्ज्योतिः श्रीघनश्यामे लीनं जातं तडिद्यथा ॥ ७ ॥
तदैव ववृषुर्देवा पुष्पवर्षाणि पार्थिव ।
एवं श्रुत्वा मुनेर्वाक्यं मैथिलो वाक्यमब्रवीत् ॥ ८ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! एक दिन असुर ने जब बछड़ों और ग्वाल-बालों को निगल ग्वाल-बालों के
साथ बछड़े चराते हुए श्रीहरि कालिन्दीके निकट किसी रमणीय स्थानपर बालोचित खेल
खेलने लगे। उसी समय अघासुर नामक महान् दैत्य एक कोस लंबा शरीर धारण करके भीषण
मुखको फैलाये वहाँ मार्गमें स्थित हो गया। दूरसे ऐसा जान पड़ता था,
मानो कोई पर्वत खड़ा हो। वृन्दावन में उसे देखकर सब ग्वाल-बाल ताली
बजाते हुए बछड़ोंके साथ उसके मुँह में घुस गये ।। १-३ ॥
उन
सबकी रक्षा के लिये बलराम सहित श्रीकृष्ण भी अघासुरके मुखमें प्रविष्ट हो गये। उस
सर्परूपधारी ने जब बछड़ों और ग्वाल-बालों को निगल लिया,
तब देवताओं में हाहाकार मच गया; किंतु
दैत्योंके मनमें हर्ष ही हुआ। उस समय श्रीकृष्णने अघासुरके उदरमें अपने विराट्
स्वरूपको बढ़ाना आरम्भ किया ।। ४-५ ॥
इससे
अवरुद्ध हुए अघासुर- के प्राण उसका मस्तक फोड़कर बाहर निकल गये । मिथिलेश्वर! फिर
बालकों और बछड़ों के साथ श्रीकृष्ण अघासुर के मुखसे बाहर निकले । जो बछड़े और बालक
मर गये थे, उन्हें माधव ने अपनी कृपा-
दृष्टिसे देखकर जीवित कर दिया। अघासुर की जीवन- ज्योति श्यामघन में विद्युत् की
भाँति श्रीघनश्याम में विलीन हो गयी । राजन् ! उसी समय देवताओंने पुष्पवर्षा की।
देवर्षि नारदके मुखसे यह वृत्तान्त सुनकर मिथिलेश्वर बहुलाश्व ने कहा ॥६-८॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
शनिवार, 22 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पाँचवाँ
अध्याय ( पोस्ट 04 )
वकासुरका
उद्धार
उत्कल उवाच -
न जाने ते तपश्चंडं मुने मां पाहि जाजले ।
साधुनां भवतां संगं मोक्षद्वारं परं विदुः ॥ ३६ ॥
मित्रे शत्रौ समा मानेऽपमाने हेमलोष्टयोः ।
सुखे दुःखसमा ये वै त्वादृशाः साधवश्च ते ॥ ३७ ॥
किं किं न जातं महतां दर्शनात्कौ मुने नृणाम् ।
पारमेष्ठ्यं च साम्राज्यमैन्द्रयोगपदं लभेत् ॥ ३८ ॥
जाजले मुनिशार्दूल त्रैवर्ग्यं किमभूज्जनैः ।
साधूनां कृपया साक्षात्पूर्णं ब्रह्मापि लभ्यते ॥ ३९ ॥
श्रीनारद उवाच -
तदा प्रसन्नः स मुनिर्जाजलिस्तमुवाच ह ।
वर्षषष्टिसहस्राणि तपस्तप्तं च येन वै ॥ ४० ॥
वैवस्वतान्तरे प्राप्ते ह्यष्टाविंशतिमे युगे ।
द्वापरान्ते भारतेऽपि माथुरे व्रजमंडले ॥ ४१ ॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
वृंदावने गवां वत्सान् चारयन् विचरिष्यति ॥ ४२ ॥
तदा तन्मयतां कृष्णे यास्यसि त्वं न संशयः
हिरण्याक्षादयो दैत्या वैरेणापि परं गताः ॥ ४३ ॥
इत्थं बकासुरो दैत्य उत्कलो जाजलेर्वरात् ।
श्रीकृष्णे लीनतां प्राप्तः सत्सम्गात्किं न जायते ॥ ४४ ॥
उत्कल
बोला - मुने! मैं आपके प्रचण्ड तपोबलको नहीं जानता था । जाजलिजी ! मेरी रक्षा
कीजिये । आप जैसे साधु-महात्माओंका सङ्ग तो उत्तम मोक्षका द्वार माना गया है। जो
शत्रु और मित्र में, मान और अपमान में,
सुवर्ण और मिट्टी के ढेले में तथा सुख और दुःख में भी समभाव रखते
हैं, वे आप जैसे महात्मा ही सच्चे साधु हैं ।। ३६-३७ ॥
मुने!
इस भूतलपर महात्माओं के दर्शनसे मनुष्योंका कौन-कौन मनोरथ नहीं पूरा हुआ ?
ब्रह्मपद, इन्द्रपद, सम्राट्का पद तथा
योगसिद्धि – सब कुछ संतों की कृपासे सुलभ हो सकते हैं। मुनिश्रेष्ठ जाजले ! आप
जैसे महात्माओं से लोगों को धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति
हुई तो क्या हुई ? साधुपुरुषों की कृपा से तो साक्षात्
पूर्णब्रह्म परमात्मा भी मिल जाता है ।। ३८-३९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- नरेश्वर ! उस समय उत्कलकी विनययुक्त बात सुनकर वे जाजलि मुनि प्रसन्न हो
गये। इन्होंने साठ हजार वर्षोंतक तपस्या की थी। उन्होंने उत्कलसे कहा ॥ ४० ॥
जाजलि
बोले- वैवस्वत मन्वन्तर प्राप्त होने पर जब अट्ठाईसवें द्वापर का अन्तिम समय बीतता
होगा,
उस समय भारतवर्ष के माथुर जनपद में स्थित व्रजमण्डल के भीतर
साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावन में गोवत्स चराते हुए विचरेंगे।
उन्हीं दिनों तुम भगवान् श्रीकृष्णमें लीन हो जाओगे, इसमें
संशय नहीं है। हिरण्याक्ष आदि दैत्य भगवान् के प्रति वैरभाव रखनेपर भी उनके परमपद को
प्राप्त हो गये हैं ॥ ४१-४३॥
श्रीनारदजी
कहते हैं - इस प्रकार बकासुरके रूपमें परिणत हुआ उत्कल दैत्य जाजलिके वरदानसे
भगवान् श्रीकृष्णमें लयको प्राप्त हुआ। संतोंके सङ्गसे क्या नहीं सुलभ हो सकता ?
॥ ४४ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'वकासुरका मोक्ष' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०४)
शुक्रवार, 21 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पाँचवाँ
अध्याय ( पोस्ट 03 )
वकासुरका
उद्धार
तदा
मृतस्य दैतस्य ज्योतिः कृष्णे समाविशत् ।
देवता ववृषुः पुष्पैः जयारावैः समन्विताः ॥ २५ ॥
गोपाला विस्मिताः सर्वे कृष्णं संश्लिष्य सर्वतः ।
ऊचुस्त्वं कुशलीभूतो मुक्तो मृत्युमुखात्सखे ॥ २६ ॥
एवं कृष्णो बकं हत्वा सबलो बालकैः सह ।
गोवत्सैर्हर्षितो गायन्नाययौ राजमंदिरे ॥ २७ ॥
परिपूर्णतमस्यास्य श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
जगुर्गृहे गता बालाः श्रुत्वेदं तेऽतिविस्मिताः ॥ २८ ॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
कोऽयं दैत्यः पूर्वकाले कस्मात्केन बकोऽभवत् ।
पूर्णब्रह्मणि सर्वेशे श्रीकृष्णे लीनतां गतः ॥ २९ ॥
श्रीनारद उवाच -
हयग्रीवसुतो दैत्य उत्कलो नाम हे नृप ।
रणेऽमरान् विनिर्जित्य शक्रछत्रं जहार ह ॥ ३० ॥
तथा नृणां नृपाणां च राज्यं हृत्वा महाबलः ।
चकार वर्षाणि शतं राज्यं सर्वविभूतिमत् ॥ ३१ ॥
एकदा विचरन् दैत्यः सिंधुसागरसंगमे ।
जाजलेर्मुनिसिद्धस्य पर्णशालासमीपतः ॥ ३२ ॥
जले निक्षिप्य बडिशं मीनानाकर्षयन् मुहुः ।
निषेधितोऽपि मुनिना नामन्यत स दुर्मतिः ॥ ३३ ॥
तस्मै शापं ददौ सिद्धो जाजलिर्मुनिसत्तमः ।
बकवत्त्वं झषानत्सि त्वं बको भव दुर्मते ॥ ३४ ॥
तत्क्षणाद्बकरूपोऽभूद्भ्रष्टतेजा गतस्मयः ।
पतितः पादयोस्तस्य नत्वा प्राह कृतांजलिः ॥ ३५ ॥
उस
समय मृत्यु को प्राप्त हुए दैत्य की देह से एक ज्योति निकली और श्रीकृष्ण में समा
गयी । फिर तो देवता जय-जयकार करते हुए दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे । तब समस्त
ग्वाल-बाल आश्चर्यचकित हो, सब ओर से आकर
श्रीकृष्ण से लिपट गये और बोले- 'सखे ! आज तो तुम मौत के मुख
से कुशलपूर्वक निकल आये' ।। २५-२६ ॥
इस
प्रकार वकासुर को मारने के पश्चात् बछड़ों को आगे करके श्रीकृष्ण बलराम और
ग्वाल-बालों के साथ गीत गाते हुए सहर्ष राजभवनमें लौट आये । परिपूर्णतम परमात्मा
श्रीकृष्णके इस पराक्रमपूर्ण चरित्र का घर लौटे हुए ग्वाल-बालोंने विस्तारपूर्वक
वर्णन किया। उसे सुनकर समस्त गोप अत्यन्त विस्मित हुए ।। २७-२८ ।।
बहुलाश्वने
पूछा- देवर्षे ! यह वकासुर पूर्वकालमें कौन था और किस कारणसे उसको बगुलेका शरीर
प्राप्त हुआ था ? वह पूर्णब्रह्म
सर्वेश्वर श्रीकृष्णमें लीन हुआ, यह कितने सौभाग्य- की बात
है ! ॥ २९ ॥
श्रीनारदजीने
कहा- नरेश्वर ! 'हयग्रीव' नामक दैत्यके एक पुत्र था, जो 'उत्कल' नाम से प्रसिद्ध हुआ । उसने समराङ्गण में
देवताओं को परास्त करके देवराज इन्द्र के छत्र को छीन लिया था । उस महाबली दैत्य ने
और भी बहुत-से मनुष्यों तथा नरेशों की राज्य-सम्पत्ति का अपहरण करके सौ वर्षों- तक
सर्ववैभवसम्पन्न राज्य का उपभोग किया ।। ३०-३१ ॥
एक
दिन इधर-उधर विचरता हुआ दैत्य उत्कल गङ्गा- सागरसंगम पर सिद्ध मुनि जाजलिकी
पर्णशालाके समीप गया और पानी में बंसी डालकर बारंबार मछलियों को पकड़ने लगा ।
यद्यपि मुनि ने मना किया, तथापि उस दुर्बुद्धि ने
उनकी बात नहीं मानी। मुनिश्रेष्ठ जाजलि सिद्ध महात्मा थे, उन्होंने
उत्कल को शाप देते हुए कहा- 'दुर्मते ! तू बगुले की भाँति
मछली पकड़ता और खाता है, इसलिये बगुला ही हो जा।' फिर क्या था ? उत्कल उसी क्षण बगुले के रूप में
परिणत हो गया। तेजोभ्रष्ट हो जानेके कारण उसका सारा गर्व गल गया। उसने हाथ जोड़कर
मुनिको प्रणाम किया और उनके दोनों चरणों में पड़कर कहा ॥३२-३५॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०३)
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)
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शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय परीक्षित् और वज्रनाभ का समागम , शाण्डिल...