सोमवार, 31 जुलाई 2023

नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 07)

 



नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें  परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय

 

के वा भुवि चिकित्सन्ते रोगार्तान् मृगपक्षिणः ।

श्वापदानि दरिद्रांश्च प्रायो नार्ता भवन्ति ते ॥ ३३ ॥

 

इस पृथ्वीपर मृग, पक्षी, हिंसक पशु और दरिद्र मनुष्योंको जब रोग सताता है, तब कौन उनकी चिकित्सा करने जाते हैं ? किंतु प्राय: उन्हें रोग होता ही नहीं है ॥ ३३ ॥

 

घोरानपि दुराधर्षान् नृपतीनुग्रतेजसः ।

आक्रम्याददते रोगाः पशून् पशुगणा इव ॥ ३४ ॥

 

परन्तु बड़े-बड़े पशु जैसे छोटे पशुओंपर आक्रमण करके उन्हें दबा देते हैं, उसी प्रकार प्रचण्ड तेजवाले, घोर एवं दुर्धर्ष राजाओं पर भी बहुत-से रोग आक्रमण करके उन्हें अपने वश में कर लेते हैं ॥ ३४ ॥

 

इति लोकमनाक्रन्दं मोहशोकपरिप्लुतम् ।

स्त्रोतसा सहसाऽक्षिप्तं ह्रियमाणं बलीयसा ॥ ३५ ॥

 

इस प्रकार सब लोग भवसागरके प्रबल प्रवाहमें सहसा पड़कर इधर-उधर बहते हुए मोह और शोकमें डूब रहे हैं और आर्तनादतक नहीं कर पाते हैं ॥ ३५ ॥

 

न धनेन न राज्येन नोग्रेण तपसा तथा।

स्वभावमतिवर्तन्ते ये नियुक्ताः शरीरिणः ॥ ३६ ॥

 

विधाताके द्वारा कर्मफल- भोगमें नियुक्त हुए देहधारी मनुष्य धन, राज्य तथा कठोर तपस्याके प्रभावसे प्रकृतिका उल्लंघन नहीं कर सकते ॥ ३६ ॥

 

न म्रियेरन् न जीर्येरन् सर्वे स्युः सर्वकामिनः ।

नाप्रियं प्रति पश्येयुरुत्थानस्य फले सति ॥ ३७ ॥

 

यदि प्रयत्न का फल अपने हाथ में होता तो मनुष्य न तो बूढ़े होते और न मरते ही। सबकी समस्त कामनाएँ पूरी हो जातीं और किसीको अप्रिय नहीं देखना पड़ता ॥ ३७ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 

 



नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 06)

 



नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें  परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय

 

स तस्य सहजातस्य सप्तमीं नवमीं दशाम् ।

प्राप्नुवन्ति ततः पञ्च न भवन्ति गतायुषः ॥ २८ ॥  

 

अनादिकाल से साथ उत्पन्न होनेवाले शरीर के साथ जीवात्मा अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है । इस शरीर की गर्भवास, जन्म, बाल्य, कौमार, पौगण्ड, यौवन, वृद्धत्व, जरा, प्राणरोध और नाश- ये दस दशाएँ होती हैं । इनमेंसे सातवीं और नवीं दशा को भी शरीरगत पाँचों भूत ही प्राप्त होते हैं, आत्मा नहीं । आयु समाप्त होनेपर शरीरकी नवीं दशामें पहुँचनेपर ये पाँच भूत नहीं रहते । अर्थात् दसवीं दशाको प्राप्त हो जाते हैं ॥ २८ ॥

 

नाभ्युत्थाने मनुष्याणां योगाः स्युर्नात्र संशयः ।

व्याधिभिश्च विमथ्यन्ते व्याधैः क्षुद्रमृगा इव ॥ २९ ॥

 

जैसे व्याध छोटे मृगोंको कष्ट पहुँचाते हैं, उसी प्रकार जब नाना प्रकार के रोग मनुष्यों को मथ डालते हैं, तब उनमें उठने-बैठने की भी शक्ति नहीं रह जाती, इसमें संशय नहीं है॥ २९ ॥

 

व्याधिभिर्मथ्यमानानां त्यजतां विपुलं धनम्।

वेदनां नापकर्षन्ति यतमानाश्चिकित्सकाः ॥ ३० ॥

 

रोगों से पीड़ित हुए मनुष्य वैद्यों को बहुत-सा धन देते हैं और वैद्यलोग रोग दूर करने की बहुत चेष्टा करते हैं तो भी उन रोगियों की पीड़ा दूर नहीं कर पाते हैं ॥ ३० ॥

 

ते चातिनिपुणा वैद्याः कुशलाः सम्भृतौषधाः ।

व्याधिभिः परिकृष्यन्ते मृगा व्याधैरिवार्दिताः ॥ ३१ ॥

 

बहुत-सी ओषधियोंका संग्रह करनेवाले चिकित्सामें कुशल चतुर वैद्य भी व्याधोंके मारे हुए मृगोंकी भाँति रोगोंके शिकार हो जाते हैं ॥ ३१ ॥

 

ते पिबन्तः कषायांश्च सर्पींषि विविधानि च ।

दृश्यन्ते जरया भग्ना नगा नागैरिवोत्तमैः ॥ ३२ ॥

 

बड़े-बड़े हाथी जैसे वृक्षोंको झुका देते हैं, वैसे ही वे तरह- तरहके काढ़े और नाना प्रकारके घी पीते रहते हैं तो भी वृद्धावस्था उनकी कमर टेढ़ी कर देती है; यह देखा जाता है ॥ ३२ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



रविवार, 30 जुलाई 2023

नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 05)

 



नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें  परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय

 

शीघ्रं परशरीराणि च्छिन्नबीजं शरीरिणम् ।

प्राणिनं प्राणसंरोधे मांसश्लेष्मविवेष्टितम् ॥ २१ ॥

 

जिसका स्थूल शरीर क्षीण हो गया है तथा जो कफ और मांसमय शरीर से घिरा हुआ है, उस देहधारी प्राणी को मृत्यु के बाद शीघ्र ही दूसरे शरीर उपलब्ध हो जाते हैं ॥ २१ ॥

 

निर्दग्धं परदेहेऽपि परदेहं चलाचलम् ।

विनश्यन्तं विनाशान्ते नावि नावमिवाहितम्॥ २२॥

 

जैसे एक नौका भग्न होनेपर उसपर बैठे हुए लोगों को उतारने के लिये दूसरी नाव प्रस्तुत रहती है, उसी प्रकार एक शरीर से मृत्यु को प्राप्त होते हुए जीवको लक्ष्य करके मृत्यु के बाद उसके कर्मफल- भोगके लिये दूसरा नाशवान् शरीर उपस्थित कर दिया जाता है ॥ २२ ॥

 

सङ्गत्या जठरे न्यस्तं रेतोबिन्दुमचेतनम्।

केन यत्नेन जीवन्तं गर्भं त्वमिह पश्यसि ॥ २३॥

 

शुकदेव ! पुरुष स्त्रीके साथ समागम करके उसके उदरमें जिस अचेतन शुक्रबिन्दुको स्थापित करता है, वही गर्भरूप में परिणत होता है। फिर वह गर्भ किस यत्न से यहाँ जीवित रहता है, क्या तुम कभी इसपर विचार करते हो ? ॥ २३ ॥

 

अन्नपानानि जीर्यन्ते यत्र भक्षाश्च भक्षिताः ।

तस्मिन्नेवोदरे गर्भः किं नान्नमिव जीर्यते ॥ २४ ॥

 

जहाँ खाये हुए अन्न और जल पच जाते हैं तथा सभी तरह के भक्ष्य पदार्थ जीर्ण हो जाते हैं, उसी पेट में पड़ा हुआ गर्भ अन्न के समान क्यों नहीं पच जाता है ? ॥ २४ ॥

 

गर्भे मूत्रपुरीषाणां स्वभावनियता गतिः ।

धारणे वा विसर्गे वा न कर्ता विद्यते वशः ॥ २५

स्त्रवन्ति ह्युदराद् गर्भा जायमानास्तथा परे ।

आगमेन तथान्येषां विनाश उपपद्यते ॥ २६ ॥

 

गर्भ में मल और मूत्र के धारण करने या त्याग में कोई स्वभावनियत गति है; किंतु कोई स्वाधीन कर्ता नहीं है । कुछ गर्भ माता के पेट से गिर जाते हैं, कुछ जन्म लेते हैं और कितनों की ही जन्म लेने के बाद मृत्यु हो जाती है ॥ २५-२६॥

 

एतस्माद् योनिसम्बन्धाद् यो जीवन् परिमुच्यते ।

प्रजां च लभते काञ्चित् पुनर्द्वन्द्वेषु सज्जति ॥ २७ ॥

 

इस योनि – सम्बन्ध से कोई सकुशल जीता हुआ बाहर निकल आता है, तब कोई सन्तान को प्राप्त होता है और पुनः परस्पर के सम्बन्ध में संलग्न हो जाता है ॥ २७ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 04)

 



नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें  परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय

 

केषाञ्चित् पुत्रकामानामनुसन्तानमिच्छताम् ।

सिद्धौ प्रयतमानानां न चाण्डमुपजायते॥ १६॥

 

कुछ लोग पुत्र की इच्छा रखते हैं और उस पुत्र के भी सन्तान चाहते हैं तथा इसकी सिद्धि के लिये सब प्रकार से प्रयत्न करते हैं तो भी उनके एक अंडा भी उत्पन्न नहीं होता ॥ १६ ॥

 

गर्भाच्चोद्विजमानानां क्रुद्धादाशीविषादिव ।

आयुष्माञ्जायते पुत्रः कथं प्रेत इवाभवत्॥१७॥

 

बहुत-से मनुष्य बच्चा पैदा होने से उसी तरह डरते हैं, जैसे क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प से लोग भयभीत रहते हैं, तथापि उनके यहाँ दीर्घजीवी पुत्र उत्पन्न होता है और क्या मजाल कि वह कभी किसी तरह रोग आदि से मृतकतुल्य हो सके ॥ १७ ॥

 

देवानिष्ट्वा तपस्तप्त्वा कृपणैः पुत्रगृद्धिभिः ।

दश मासान् परिधृता जायन्ते कुलपांसनाः ॥ १८ ॥

 

पुत्र की अभिलाषा रखनेवाले दीन स्त्री-पुरुषोंद्वारा देवताओं की पूजा और तपस्या करके दस मास तक गर्भ धारण किया जाता है, तथापि उनके कुलांगार पुत्र उत्पन्न होते हैं ॥ १८ ॥

 

अपरे धनधान्यानि भोगांश्च पितृसञ्चितान् ।

विपुलानभिजायन्ते लब्धास्तैरेव मङ्गलैः॥१९॥

 

तथा बहुत से ऐसे हैं, जो आमोद-प्रमोदमें ही जन्म धारण करके पिताके सञ्चित किये हुए अपार धनधान्य एवं विपुल भोगोंके अधिकारी होते हैं ॥ १९ ॥

 

अन्योन्यं समभिप्रेत्य मैथुनस्य समागमे ।

उपद्रव इवाविष्टो योनिं गर्भः प्रपद्यते ॥ २० ॥

 

पति-पत्नी की पारस्परिक इच्छा के अनुसार मैथुन के लिये जब उनका समागम होता है, उस समय किसी उपद्रव के समान गर्भ योनि में प्रवेश करता है ॥ २०॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



शनिवार, 29 जुलाई 2023

नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 03)

 



नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें  परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय

 

संयताश्च हि दक्षाश्च मतिमन्तश्च मानवाः ।

दृश्यन्ते निष्फलाः सन्तः प्रहीणाः सर्वकर्मभिः ॥ १० ॥

 

बड़े-बड़े संयमी, बुद्धिमान् और चतुर मनुष्य भी समस्त कर्मोंसे  श्रान्त होकर असफल होते देखे जाते हैं ॥ १० ॥

 

अपरे बालिशाः सन्तो निर्गुणाः पुरुषाधमाः ।

आशीर्भिरप्यसंयुक्ता दृश्यन्ते सर्वकामिनः ॥ ११ ॥

 

किंतु दूसरे मूर्ख, गुणहीन और अधम मनुष्य भी किसी का आशीर्वाद न मिलने पर भी सम्पूर्ण कामनाओं से सम्पन्न दिखायी देते हैं ॥ ११ ॥

 

भूतानामपरः कश्चिद्धिंसायां सततोत्थितः ।

वञ्चनायां च लोकस्य स सुखेष्वेव जीर्यते ॥ १२ ॥

 

कोई-कोई मनुष्य तो सदा प्राणियोंकी हिंसामें ही लगा रहता है और सब लोगोंको धोखा दिया करता है तो भी वह सुख ही भोगते-भोगते बूढ़ा होता है ॥ १२ ॥

 

अचेष्टमानमासीनं श्रीः कञ्चिदुपतिष्ठते ।

कश्चित् कर्मानुसृत्यान्यो न प्राप्यमधिगच्छति ॥ १३॥

 

कितने ही ऐसे हैं, जो कोई काम न करके चुपचाप बैठे रहते हैं, फिर भी लक्ष्मी उनके पास अपने-आप पहुँच जाती है और कुछ लोग काम करके भी अपनी प्राप्य वस्तु को उपलब्ध नहीं कर पाते ॥ १३॥

 

अपराधं समाचक्ष्व पुरुषस्य स्वभावतः ।

शुक्रमन्यत्र सम्भूतं पुनरन्यत्र गच्छति ॥ १४ ॥

 

इसमें स्वभावतः पुरुष का ही अपराध (प्रारब्ध - दोष) समझो । वीर्य अन्यत्र उत्पन्न होता है और सन्तानोत्पादन के लिये अन्यत्र जाता है ॥ १४ ॥

 

तस्य योनौ प्रयुक्तस्य गर्भो भवति वा न वा ।

आम्रपुष्पोपमा यस्य निवृत्तिरुपलभ्यते ॥ १५ ॥

 

कभी तो वह योनिमें पहुँचकर गर्भ धारण कराने में समर्थ होता है और कभी नहीं होता तथा कभी-कभी आम के बौर के समान वह व्यर्थ ही झर जाता है ॥ १५ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 

 



नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 02)

 



नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें  परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय

 

व्यत्ययो ह्ययमत्यन्तं पक्षयोः शुक्लकृष्णयोः ।

जातान् मर्त्याञ्जरयति निमेषान् नावतिष्ठते ॥ ६ ॥

 

शुक्ल और कृष्ण - दोनों पक्षों का निरन्तर होनेवाला यह परिवर्तन मनुष्यों को जराजीर्ण कर रहा है। यह कुछ क्षणके लिये भी विश्राम नहीं लेता है॥६॥

 

सुखदुःखानि आदित्यो भूतानामजरो जरयत्यसौ ।

ह्यस्तमभ्येति पुनः पुनरुदेति च॥७॥

 

सूर्य प्रतिदिन अस्त होते और फिर उदय लेते हैं । वे स्वयं अजर होकर भी प्रतिदिन प्राणियोंके सुख और दुःखको जीर्ण करते रहते हैं ॥ ७ ॥

 

अदृष्टपूर्वानादाय भावानपरिशङ्कितान्।

इष्टानिष्टान् मनुष्याणामस्तं गच्छन्ति रात्रयः ॥ ८ ॥

 

ये रात्रियाँ मनुष्योंके लिये कितनी ही अपूर्व तथा असम्भावित प्रिय-अप्रिय घटनाएँ लिये आती और चली जाती हैं ॥ ८ ॥

 

योऽयमिच्छेद् यथाकामं कामानां तदवाप्नुयात् ।

यदि स्यान्न पराधीनं पुरुषस्य क्रियाफलम् ॥ ९ ॥

 

यदि जीव के किये हुए कर्मों का फल पराधीन न होता तो जो जिस वस्तुकी इच्छा करता, वह अपनी उसी कामना को रुचि के अनुसार प्राप्त कर लेता ॥ ९॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



शुक्रवार, 28 जुलाई 2023

नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 01)

 


 

नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें  परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय

 

नारद उवाच

 

सुखदुःखविपर्यासो यदा समनुपद्यते ।

नैनं प्रज्ञा सुनीतं वा त्रायते नापि पौरुषम् ॥ १ ॥

 

नारदजी कहते हैं— शुकदेव ! जब मनुष्य सुखको दुःख और दुःखको सुख समझने लगता है, उस समय बुद्धि, उत्तम नीति और पुरुषार्थ भी उसकी रक्षा नहीं कर पाते ॥ १ ॥

 

स्वभावाद् यत्नमातिष्ठेद् यत्नवान् नावसीदति ।

जरामरणरोगेभ्यः प्रियमात्मानमुद्धरेत् ॥ २ ॥

 

अतः मनुष्यको स्वभावतः ज्ञानप्राप्तिके लिये यत्न करना चाहिये; क्योंकि यत्न करनेवाला पुरुष कभी दुःखमें नहीं पड़ता । आत्मा सबसे बढ़कर प्रिय है; अतः जरा, मृत्यु और रोगोंके कष्टसे उसका उद्धार करे ॥ २ ॥

 

रुजन्ति हि शरीराणि रोगाः शारीरमानसाः ।

सायका इव तीक्ष्णाग्राः प्रयुक्ता दृढधन्विभिः ॥ ३ ॥

 

शारीरिक और मानसिक रोग सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले वीर पुरुषोंके छोड़े हुए तीक्ष्ण बाणोंके समान शरीरको पीड़ा देते हैं ॥ ३ ॥

 

व्यथितस्य विधित्साभिस्ताम्यतो जीवितैषिणः ।

अवशस्य विनाशाय शरीरमपकृष्यते ॥ ४ ॥

 

तृष्णासे व्यथित, दुःखी एवं विवश होकर जीनेकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यका शरीर विनाशकी ओर ही खिंचता चला जाता है ॥ ४ ॥

 

स्त्रवन्ति न निवर्तन्ते स्त्रोतांसि सरितामिव ।

आयुरादाय मर्त्यानां रात्र्यहानि पुनः पुनः ॥ ५ ॥

 

जैसे नदियों का प्रवाह आगे की ओर ही बढ़ता चला जाता है, पीछे की ओर नहीं लौटता, उसी प्रकार रात और दिन भी मनुष्यों की आयु का अपहरण करते हुए बारम्बार आते और बीतते चले जाते हैं ॥ ५ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से



नारद गीता दूसरा अध्याय (पोस्ट 05)

 



 शुकदेव को नारदजी का सदाचार और अध्यात्मविषयक उपदेश

 

शब्दे स्पर्शे च रूपे च गन्धेषु च रसेषु च ।

नोपभोगात् परं किञ्चिद् धनिनो वाधनस्य च ॥ २६ ॥

 

धनी हो या निर्धन, सब को उपभोगकाल में ही शब्द, स्पर्श, रूप, गन्ध और उत्तम रस आदि विषयों में किंचित् सुख की प्रतीति होती है, उपभोग के पश्चात् नहीं ॥ २६ ॥

 

प्राक्सम्प्रयोगाद् भूतानां नास्ति दुःखं परायणम् ।

विप्रयोगात् तु सर्वस्य न शोचेत् प्रकृतिस्थितः ॥ २७ ॥

 

प्राणियों के एक- दूसरे से संयोग होने के पहले कोई दुःख नहीं रहता । जब संयोग के बाद वियोग होता है, तभी सबको दुःख हुआ करता है । अत: अपने स्वरूपमें स्थित विवेकी पुरुष को किसी के वियोग में कभी भी शोक नहीं करना चाहिये ॥ २७ ॥

 

धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत् पाणिपादं च चक्षुषा ।

चक्षुः श्रोत्रे च मनसा मनो वाचं च विद्यया ॥ २८ ॥

 

मनुष्य को चाहिये कि वह धैर्य के द्वारा शिश्न और उदर की, नेत्र के द्वारा हाथ और पैर की, मन के द्वारा आँख और कान की तथा सद्विद्या के द्वारा मन और वाणी की रक्षा करे ॥ २८ ॥

 

प्रणयं प्रतिसंहृत्य संस्तुतेष्वितरेषु च।

विचरेदसमुन्नद्धः स सुखी स च पण्डितः ॥ २९ ॥

 

जो पूजनीय तथा अन्य मनुष्योंमें आसक्तिको हटाकर विनीतभावसे विचरण करता है, वही सुखी और वही विद्वान् है ॥ २९ ॥

 

अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः ।

आत्मनैव सहायेन यश्चरेत् स सुखी भवेत् ॥ ३० ॥

 

जो अध्यात्मविद्या में अनुरक्त, कामनाशून्य तथा भोगासक्ति से दूर है, जो अकेला ही विचरण करता है, वह सुखी होता है ॥ ३० ॥

 

॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारदगीतायां द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से

 



गुरुवार, 27 जुलाई 2023

नारद गीता दूसरा अध्याय (पोस्ट 04)

 



शुकदेव को नारदजी का सदाचार और अध्यात्मविषयक उपदेश

 

सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः ।

संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितम् ॥ २० ॥

 

संग्रह का अन्त है विनाश । ऊँचे चढ़ने का अन्त है नीचे गिरना । संयोग का अन्त है वियोग और जीवन का अन्त है मरण ॥ २० ॥

 

अन्तो नास्ति पिपासायास्तुष्टिस्तु परमं सुखम्।

तस्मात् सन्तोषमेवेह धनं पश्यन्ति पण्डिताः ॥ २१ ॥

 

तृष्णा का कभी अन्त नहीं होता । सन्तोष ही परम सुख है, अतः पण्डितजन इस लोक में सन्तोष को ही उत्तम धन समझते हैं ॥ २१ ॥  

 

निमेषमात्रमपि हि वयो गच्छन्न तिष्ठति ।

स्वशरीरेष्वनित्येषु नित्यं किमनुचिन्तयेत् ॥ २२ ॥

 

आयु निरन्तर बीती जा रही है । वह पलभर भी ठहरती नहीं है। जब अपना शरीर ही अनित्य है, तब इस संसारकी किस वस्तुको नित्य समझा जाय ॥ २२ ॥

 

भूतेषु भावं सञ्चिन्त्य ये बुद्ध्वा मनसः परम् ।

न शोचन्ति गताध्वानः पश्यन्तः परमां गतिम् ॥ २३ ॥

 

जो मनुष्य सब प्राणियों के भीतर मन से परे परमात्मा की स्थिति जानकर उन्हीं का चिन्तन करते हैं, वे संसार - यात्रा समाप्त होने पर परमपद का साक्षात्कार करते हुए शोक के पार हो जाते हैं ॥ २३ ॥

 

सञ्चिन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम् ।

व्याघ्रः पशुमिवासाद्य मृत्युरादाय गच्छति ॥ २४ ॥

 

जैसे जंगल में नयी-नयी घास की खोज में विचरते हुए अतृप्त पशु को सहसा व्याघ्र आकर दबोच लेता है, उसी प्रकार भोगों की खोज में लगे हुए अतृप्त मनुष्यको मृत्यु उठा ले जाती है ॥ २४ ॥

 

तथाप्युपायं सम्पश्येद् दुःखस्य परिमोक्षणम् ।

अशोचन् नारभेच्चैव मुक्तश्चाव्यसनी भवेत् ॥ २५ ॥

 

तथापि सब को दुःखसे छूटने का उपाय अवश्य सोचना चाहिये । जो शोक छोड़कर साधन आरम्भ करता है और किसी व्यसन में आसक्त नहीं होता, वह निश्चय ही दु:खों से मुक्त हो जाता है ॥ २५ ॥

 

......शेष आगामी पोस्ट में

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नारद गीता दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)

 



 

शुकदेव को नारदजी का सदाचार और अध्यात्मविषयक उपदेश

 

अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसञ्चयः ।

आरोग्यं प्रियसंवासो गृध्येत् तत्र न पण्डितः ॥ १४ ॥

 

रूप, यौवन, जीवन, धन-संग्रह, आरोग्य तथा प्रियजनोंका सहवास—ये सब अनित्य हैं। विद्वान् पुरुषको इनमें आसक्त नहीं होना चाहिये ॥ १४ ॥

 

न जानपदिकं दुःखमेकः शोचितुमर्हति ।

अशोचन् प्रतिकुर्वीत यदि पश्येदुपक्रमम् ॥ १५ ॥

 

सारे देशपर आये हुए संकट के लिये किसी एक व्यक्ति को शोक करना उचित नहीं है। यदि उस संकट को टालने का कोई उपाय दिखलायी दे तो शोक छोड़कर उसे ही करना चाहिये ॥ १५ ॥

 

सुखाद् बहुतरं दुःखं जीविते नात्र संशयः ।

स्निग्धत्वं चेन्द्रियार्थेषु मोहान्मरणमप्रियम् ॥ १६ ॥

 

इसमें संदेह नहीं कि जीवनमें सुखकी अपेक्षा दुःख ही अधिक होता है। किंतु सभीको मोहवश विषयोंके प्रति अनुराग होता है और मृत्यु अप्रिय लगती है ॥ १६ ॥

 

परित्यजति यो दुःखं सुखं वाप्युभयं नरः ।

अभ्येति ब्रह्म सोऽत्यन्तं न तं शोचन्ति पण्डिताः ॥ १७ ॥

 

जो मनुष्य सुख और दुःख दोनोंकी ही चिन्ता छोड़ देता है, वह अक्षय ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है । विद्वान् पुरुष उसके लिये शोक नहीं करते हैं ॥१७॥

 

त्यज्यन्ते दुःखमर्था हि पालने न च ते सुखाः ।

दुःखेन चाधिगम्यन्ते नाशमेषां न चिन्तयेत् ॥ १८ ॥

 

धन खर्च करते समय बड़ा दुःख होता है। उसकी रक्षामें भी सुख नहीं है और उसकी प्राप्ति भी बड़े कष्टसे होती है, अतः धनको प्रत्येक अवस्थामें दु:खदायक समझकर उसके नष्ट होनेपर चिन्ता नहीं करनी चाहिये ॥ १८ ॥

 

अन्यामन्यां धनावस्थां प्राप्य वैशेषिकीं नराः ।

अतृप्ता यान्ति विध्वंसं सन्तोषं यान्ति पण्डिताः ॥ १९ ॥

 

मनुष्य धन का संग्रह करते-करते पहले की अपेक्षा ऊँची धन- सम्पन्न स्थिति को प्राप्त होकर भी कभी तृप्त नहीं होते । वे और अधिक की आशा लिये हुए ही मर जाते है; किंतु विद्वान् पुरुष सदा सन्तुष्ट रहते हैं (वे धनकी तृष्णा में नहीं पड़ते) ॥ १९ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०८) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन काल...