नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
के
वा भुवि चिकित्सन्ते रोगार्तान् मृगपक्षिणः ।
श्वापदानि
दरिद्रांश्च प्रायो नार्ता भवन्ति ते ॥ ३३ ॥
इस पृथ्वीपर
मृग,
पक्षी, हिंसक पशु और दरिद्र मनुष्योंको जब रोग
सताता है, तब कौन उनकी चिकित्सा करने जाते हैं ? किंतु प्राय: उन्हें रोग होता ही नहीं है ॥ ३३ ॥
घोरानपि
दुराधर्षान् नृपतीनुग्रतेजसः ।
आक्रम्याददते
रोगाः पशून् पशुगणा इव ॥ ३४ ॥
परन्तु
बड़े-बड़े पशु जैसे छोटे पशुओंपर आक्रमण करके उन्हें दबा देते हैं, उसी प्रकार प्रचण्ड तेजवाले, घोर एवं दुर्धर्ष
राजाओं पर भी बहुत-से रोग आक्रमण करके उन्हें अपने वश में कर लेते हैं ॥ ३४ ॥
इति
लोकमनाक्रन्दं मोहशोकपरिप्लुतम् ।
स्त्रोतसा
सहसाऽक्षिप्तं ह्रियमाणं बलीयसा ॥ ३५ ॥
इस प्रकार सब
लोग भवसागरके प्रबल प्रवाहमें सहसा पड़कर इधर-उधर बहते हुए मोह और शोकमें डूब रहे
हैं और आर्तनादतक नहीं कर पाते हैं ॥ ३५ ॥
न
धनेन न राज्येन नोग्रेण तपसा तथा।
स्वभावमतिवर्तन्ते
ये नियुक्ताः शरीरिणः ॥ ३६ ॥
विधाताके
द्वारा कर्मफल- भोगमें नियुक्त हुए देहधारी मनुष्य धन, राज्य तथा कठोर तपस्याके प्रभावसे प्रकृतिका उल्लंघन नहीं कर सकते ॥ ३६ ॥
न
म्रियेरन् न जीर्येरन् सर्वे स्युः सर्वकामिनः ।
नाप्रियं
प्रति पश्येयुरुत्थानस्य फले सति ॥ ३७ ॥
यदि प्रयत्न का
फल अपने हाथ में होता तो मनुष्य न तो बूढ़े होते और न मरते ही। सबकी समस्त कामनाएँ
पूरी हो जातीं और किसीको अप्रिय नहीं देखना पड़ता ॥ ३७ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से