॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥
२९॥
कोई इस शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता
(अनुभव करता) है और वैसे ही दूसरा कोई इसका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य
कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है और इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता अर्थात् यह दुर्विज्ञेय
है।
व्याख्या—
यह शरीरी इतना विलक्षण है कि इसका
अनुभव भी आश्चर्यजनक होता है, वर्णन
भी आश्चर्यजनक होता है और इसका वर्णन सुनना भी आश्चर्यजनक होता है । परन्तु शरीरी का अनुभव सुननेमात्र से अर्थात्
अभ्याससे नहीं होता, प्रत्युत
स्वीकार करने से होता है । इसका उपाय है-
चुप होना, शान्त होना, कुछ
न करना ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)