॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
वाराह अवतार की कथा
मैत्रेय उवाच ।
यदा स्वभार्यया सार्धं जातः स्वायम्भुवो मनुः ।
प्राञ्जलिः प्रणतश्चेदं वेदगर्भमभाषत ॥ ६ ॥
त्वमेकः सर्वभूतानां जन्मकृत् वृत्तिदः पिता ।
तथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन वा भवेत् ॥ ७ ॥
तद्विधेहि नमस्तुभ्यं कर्मस्वीड्यात्मशक्तिषु ।
यत्कृत्वेह यशो विष्वक् अमुत्र च भवेद्ग्तिः ॥ ८ ॥
ब्रह्मोवाच
प्रीतस्तुभ्यमहं तात स्वस्ति स्ताद्वां क्षितीश्वर ।
यन्निर्व्यलीकेन हृदा शाधि मेत्यात्मनार्पितम् ॥ ९ ॥
एतावत्यात्मजैर्वीर कार्या ह्यपचितिर्गुरौ ।
शक्त्याप्रमत्तैर्गृह्येत सादरं गतमत्सरैः ॥ १० ॥
स त्वमस्यामपत्यानि सदृशान्यात्मनो गुणैः ।
उत्पाद्य शास धर्मेण गां यज्ञैः पुरुषं यज ॥ ११ ॥
परं शुश्रूषणं मह्यं स्यात्प्रजारक्षया नृप ।
भगवांस्ते प्रजाभर्तुः हृषीकेशोऽनुतुष्यति ॥ १२ ॥
येषां न तुष्टो भगवान् यज्ञलिङ्गो जनार्दनः ।
तेषां श्रमो ह्यपार्थाय यदात्मा नादृतः स्वयम् ॥ १३ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले—जब अपनी भार्या शतरूपाके साथ स्वायम्भुव मनुका जन्म हुआ, तब उन्होंने बड़ी नम्रतासे हाथ जोडक़र श्रीब्रह्माजीसे कहा— ॥ ६ ॥ ‘भगवन् ! एकमात्र आप ही समस्त जीवोंके जन्मदाता और जीविका प्रदान करनेवाले पिता हैं। तथापि हम आपकी सन्तान ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे आपकी सेवा बन सके ? ॥ ७ ॥ पूज्यपाद ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हमसे हो सकने योग्य किसी ऐसे कार्यके लिये हमें आज्ञा दीजिये, जिससे इस लोकमें हमारी सर्वत्र कीर्ति हो और परलोकमें सद्गति प्राप्त हो सके’ ॥ ८ ॥
श्रीब्रह्माजीने (स्वायम्भुव मनुको) कहा —तात ! पृथ्वीपते ! तुम दोनोंका कल्याण हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ; क्योंकि तुमने निष्कपट भावसे ‘मुझे आज्ञा दीजिये’ यों कहकर मुझे आत्मसमर्पण किया है ॥ ९ ॥ वीर ! पुत्रोंको अपने पिताकी इसी रूपमें पूजा करनी चाहिये। उन्हें उचित है कि दूसरोंके प्रति ईर्ष्या का भाव न रखकर जहाँतक बने, उनकी आज्ञाका आदरपूर्वक सावधानीसे पालन करें ॥ १० ॥ तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती सन्तति उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करो और यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करो ॥ ११ ॥ राजन् ! प्रजापालन से मेरी बड़ी सेवा होगी और तुम्हें प्रजा का पालन करते देखकर भगवान् श्रीहरि भी तुमसे प्रसन्न होंगे। जिनपर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान् प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है; क्योंकि वे तो एक प्रकार से अपने आत्मा का ही अनादर करते हैं ॥ १२-१३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --