मंगलवार, 30 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

ध्रुवका वर पाकर घर लौटना

यस्य प्रसन्नो भगवान् गुणैर्मैत्र्यादिभिर्हरिः ।
तस्मै नमन्ति भूतानि निम्नमाप इव स्वयम् ॥ ४७ ॥
उत्तमश्च ध्रुवश्चोभौ अन्योन्यं प्रेमविह्वलौ ।
अङ्‌गसङ्‌गाद् उत्पुलकौ अस्रौघं मुहुरूहतुः ॥ ४८ ॥
सुनीतिरस्य जननी प्राणेभ्योऽपि प्रियं सुतम् ।
उपगुह्य जहावाधिं तदङ्‌गस्पर्शनिर्वृता ॥ ४९ ॥
पयः स्तनाभ्यां सुस्राव नेत्रजैः सलिलैः शिवैः ।
तदाभिषिच्यमानाभ्यां वीर वीरसुवो मुहुः ॥ ५० ॥
तां शशंसुर्जना राज्ञीं दिष्ट्या ते पुत्र आर्तिहा ।
प्रतिलब्धश्चिरं नष्टो रक्षिता मण्डलं भुवः ॥ ५१ ॥
अभ्यर्चितस्त्वया नूनं भगवान् प्रणतार्तिहा ।
यदनुध्यायिनो धीरा मृत्युं जिग्युः सुदुर्जयम् ॥ ५२ ॥

जिस प्रकार जल स्वयं ही नीचेकी ओर बहने लगता है—उसी प्रकार मैत्री आदि गुणोंके कारण जिसपर श्रीभगवान्‌ प्रसन्न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं ॥ ४७ ॥ इधर उत्तम और ध्रुव दोनों ही प्रेमसे विह्वल होकर मिले। एक-दूसरे के अङ्गों का स्पर्श पाकर उन दोनों के ही शरीर में रोमाञ्च हो आया तथा नेत्रों से बार-बार आसुओंकी धारा बहने लगी ॥ ४८ ॥ ध्रुवकी माता सुनीति अपने प्राणोंसे भी प्यारे पुत्रको गले लगाकर सारा सन्ताप भूल गयी। उसके सुकुमार अङ्गोंके स्पर्शसे उसे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ ॥ ४९ ॥ वीरवर विदुरजी ! वीरमाता सुनीतिके स्तन उसके नेत्रोंसे झरते हुए मङ्गलमय आनन्दाश्रुओंसे भीग गये और उनसे बार-बार दूध बहने लगा ॥ ५० ॥ उस समय पुरवासी लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे, ‘महारानी जी ! आपका लाल बहुत दिनोंसे खोया हुआ था; सौभाग्यवश अब वह लौट आया, यह हम सबका दु:ख दूर करनेवाला है। बहुत दिनोंतक भूमण्डलकी रक्षा करेगा ॥ ५१ ॥ आपने अवश्य ही शरणागतभयभञ्जन श्रीहरिकी उपासना की है। उनका निरन्तर ध्यान करनेवाले धीर पुरुष परम दुर्जय मृत्युको भी जीत लेते हैं’ ॥ ५२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

ध्रुवका वर पाकर घर लौटना

मैत्रेय उवाच -
न वै मुकुन्दस्य पदारविन्दयो
     रजोजुषस्तात भवादृशा जनाः ।
वाञ्छन्ति तद्दास्यमृतेऽर्थमात्मनो
     यदृच्छया लब्धमनःसमृद्धयः ॥ ३६ ॥
आकर्ण्यात्मजमायान्तं सम्परेत्य यथाऽऽगतम् ।
राजा न श्रद्दधे भद्रं अभद्रस्य कुतो मम ॥ ३७ ॥
श्रद्धाय वाक्यं देवर्षेः हर्षवेगेन धर्षितः ।
वार्ताहर्तुरतिप्रीतो हारं प्रादान्महाधनम् ॥ ३८ ॥
सदश्वं रथमारुह्य कार्तस्वरपरिष्कृतम् ।
ब्राह्मणैः कुलवृद्धैश्च पर्यस्तोऽमात्यबन्धुभिः ॥ ३९ ॥
शङ्‌खदुन्दुभिनादेन ब्रह्मघोषेण वेणुभिः ।
निश्चक्राम पुरात् तूर्णं आत्मजाभीक्षणोत्सुकः ॥ ४० ॥
सुनीतिः सुरुचिश्चास्य महिष्यौ रुक्मभूषिते ।
आरुह्य शिबिकां सार्धं उत्तमेनाभिजग्मतुः ॥ ४१ ॥
तं दृष्ट्वोपवनाभ्याश आयान्तं तरसा रथात् ।
अवरुह्य नृपस्तूर्णं आसाद्य प्रेमविह्वलः ॥ ४२ ॥
परिरेभेऽङ्‌गजं दोर्भ्यां दीर्घोत्कण्ठमनाः श्वसन् ।
विष्वक्सेनाङ्‌घ्रिसंस्पर्श हताशेषाघबन्धनम् ॥ ४३ ॥
अथाजिघ्रन् मुहुर्मूर्ध्नि शीतैर्नयनवारिभिः ।
स्नापयामास तनयं जातोद्दाममनोरथः ॥ ४४ ॥
अभिवन्द्य पितुः पादौ आशीर्भिश्चाभिमन्त्रितः ।
ननाम मातरौ शीर्ष्णा सत्कृतः सज्जनाग्रणीः ॥ ४५ ॥
सुरुचिस्तं समुत्थाप्य पादावनतमर्भकम् ।
परिष्वज्याह जीवेति बाष्पगद्गतदया गिरा ॥ ४६ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—तात ! तुम्हारी तरह जो लोग श्रीमुकुन्दपादारविन्द-मकरन्दके ही मधुकर हैं—जो निरन्तर प्रभुकी चरण-रजका ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने-आप आयी हुई सभी परिस्थितियोंमें सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान्‌से उनकी सेवाके सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते ॥ ३६ ॥
इधर जब राजा उत्तानपादने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो उन्हें इस बातपर वैसे ही विश्वास नहीं हुआ जैसे कोई किसीके यमलोकसे लौटनेकी बातपर विश्वास न करे। उन्होंने यह सोचा कि ‘मुझ अभागे का ऐसा भाग्य कहाँ’ ॥ ३७ ॥ परन्तु फिर उन्हें देवर्षि नारदकी बात याद आ गयी। इससे उनका इस बातमें विश्वास हुआ और वे आनन्दके वेगसे अधीर हो उठे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह समाचार लानेवालेको एक बहुमूल्य हार दिया ॥ ३८ ॥ राजा उत्तानपादने पुत्रका मुख देखनेके लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राह्मण, कुल के बड़े-बूढ़े, मन्त्री और बन्धुजनोंको साथ लिया तथा एक बढिय़ा घोड़ोंवाले सुवर्णजटित रथपर सवार होकर वे झटपट नगरके बाहर आये। उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शङ्ख, दुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेकों माङ्गलिक बाजे बजते जाते थे ॥ ३९-४० ॥ उनकी दोनों रानियाँ सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित हो राजकुमार उत्तमके साथ पालकियोंपर चढक़र चल रही थीं ॥ ४१ ॥ ध्रुवजी उपवनके पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथसे उतर पड़े। पुत्रको देखनेके लिये वे बहुत दिनोंसे उत्कण्ठित हो रहे थे। उन्होंने झटपट आगे बढक़र प्रेमातुर हो, लंबीलंबी साँसें लेते हुए, ध्रुवको भुजाओं में भर लिया। अब ये पहलेके ध्रुव नहीं थे, प्रभुके परमपुनीत पादपद्मों का स्पर्श होनेसे इनके समस्त पाप-बन्धन कट गये थे ॥ ४२-४३ ॥ राजा उत्तानपादकी एक बहुत बड़ी कामना पूर्ण हो गयी। उन्होंने बार-बार पुत्रका सिर सूँघा और आनन्द तथा प्रेमके कारण निकलनेवाले ठंडे-ठंडे [*] आँसुओंसे उन्हें नहला दिया ॥ ४४ ॥
तदनन्तर सज्जनोंमें अग्रगण्य ध्रुवजीने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर, कुशल-प्रश्रादिसे सम्मानित हो दोनों माताओंको प्रणाम किया ॥ ४५ ॥ छोटी माता सुरुचिने अपने चरणोंपर झुके हुए बालक ध्रुवको उठाकर हृदयसे लगा लिया और अश्रुगद्गद वाणीसे ‘चिरञ्जीवी रहो’ ऐसा आशीर्वाद दिया ॥ ४६ ॥ 
......................................................
[*] आनन्द या प्रेमके कारण आँसू आते हैं वे ठंडे हुआ करते हैं और शोकके आँसू गरम होते हैं।

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सोमवार, 29 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

ध्रुवका वर पाकर घर लौटना

विदुर उवाच -
सुदुर्लभं यत्परमं पदं हरेः
     मायाविनस्तत् चरणार्चनार्जितम् ।
लब्ध्वाप्यसिद्धार्थमिवैकजन्मना
     कथं स्वमात्मानममन्यतार्थवित् ॥ २८ ॥

मैत्रेय उवाच -
मातुः सपत्न्याव वाग्बाणैः हृदि विद्धस्तु तान् स्मरन् ।
नैच्छन्मुक्तिपतेर्मुक्तिं तस्मात् तापमुपेयिवान् ॥ २९ ॥

ध्रुव उवाच –
समाधिना नैकभवेन यत्पदं
     विदुः सनन्दादय ऊर्ध्वरेतसः ।
मासैरहं षड्‌भिरमुष्य पादयोः
     छायामुपेत्यापगतः पृथङ्‌मतिः ॥ ३० ॥
अहो बत ममानात्म्यं मन्दभाग्यस्य पश्यत ।
भवच्छिदः पादमूलं गत्वा याचे यदन्तवत् ॥ ३१ ॥
मतिर्विदूषिता देवैः पतद्‌भिः असहिष्णुभिः ।
यो नारदवचस्तथ्यं नाग्राहिषमसत्तमः ॥ ३२ ॥
दैवीं मायामुपाश्रित्य प्रसुप्त इव भिन्नदृक् ।
तप्ये द्वितीयेऽप्यसति भ्रातृभ्रातृव्यहृद्रुजा ॥ ३३ ॥
मयैतत्प्रार्थितं व्यर्थं चिकित्सेव गतायुषि ।
प्रसाद्य जगदात्मानं तपसा दुष्प्रसादनम् ।
भवच्छिदमयाचेऽहं भवं भाग्यविवर्जितः ॥ ३४ ॥
स्वाराज्यं यच्छतो मौढ्यान् मानो मे भिक्षितो बत ।
ईश्वरात्क्षीणपुण्येन फलीकारानिवाधनः ॥ ३५ ॥

विदुरजीने पूछा—ब्रह्मन् ! मायापति श्रीहरिका परमपद तो अत्यन्त दुर्लभ है और मिलता भी उनके चरणकमलोंकी उपासनासे ही है। ध्रुवजी भी सारासार का पूर्ण विवेक रखते थे; फिर एक ही जन्ममें उस परमपदको पा लेनेपर भी उन्होंने अपनेको अकृतार्थ क्यों समझा ? ॥ २८ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—ध्रुवजीका हृदय अपनी सौतेली माताके वाग्बाणों से बिंध गया था तथा वर माँगनेके समय भी उन्हें उनका स्मरण बना हुआ था; इसीसे उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरिसे मुक्ति नहीं माँगी। अब जब भगवद्दर्शन से वह मनोमालिन्य दूर हो गया तो उन्हें अपनी इस भूलके लिये पश्चात्ताप हुआ ॥ २९ ॥
ध्रुवजी मन-ही-मन कहने लगे—अहो ! सनकादि ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन्हें समाधिद्वारा अनेकों जन्मोंमें प्राप्त कर पाते हैं, उन भगवच्चरणों की छायाको मैंने छ: महीने में ही पा लिया, किन्तु चित्तमें दूसरी वासना रहनेके कारण मैं फिर उनसे दूर हो गया ॥ ३० ॥ अहो ! मुझ मन्दभाग्यकी मूर्खता तो देखो, मैंने संसार-पाशको काटनेवाले प्रभुके पादपद्मोंमें पहुँचकर भी उनसे नाशवान् वस्तुकी ही याचना की ॥ ३१ ॥ देवताओंको स्वर्गभोगके पश्चात् फिर नीचे गिरना होता है, इसलिये वे मेरी भगवत्प्राप्तिरूप उच्च स्थितिको सहन नहीं कर सके; अत: उन्होंने ही मेरी बुद्धिको नष्ट कर दिया। तभी तो मुझ दुष्टने नारदजीकी यथार्थ बात भी स्वीकार नहीं की ॥ ३२ ॥ यद्यपि संसारमें आत्माके सिवा दूसरा कोई भी नहीं है; तथापि सोया हुआ मनुष्य जैसे स्वप्नमें अपने ही कल्पना किये हुए व्याघ्रादिसे डरता है, उसी प्रकार मैंने भी भगवान्‌की मायासे मोहित होकर भाईको ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेषरूप हार्दिक रोगसे जलने लगा ॥ ३३ ॥ जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है; उन्हीं विश्वात्मा श्रीहरिको तपस्याद्वारा प्रसन्न करके मैंने जो कुछ माँगा है, वह सब व्यर्थ है; ठीक उसी तरह, जैसे गतायु पुरुषके लिये चिकित्सा व्यर्थ होती है। ओह ! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार-बन्धनका नाश करनेवाले प्रभुसे मैंने संसार ही माँगा ॥ ३४ ॥ मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ ! जिस प्रकार कोई कँगला किसी चक्रवर्ती सम्राट्को प्रसन्न करके उससे तुषसहित चावलोंकी कनी माँगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्मानन्द प्रदान करनेवाले श्रीहरिसे मूर्खतावश व्यर्थका अभिमान बढ़ानेवाले उच्चपदादि ही माँगे हैं ॥ ३५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ध्रुवका वर पाकर घर लौटना

भुक्त्वा चेहाशिषः सत्या अन्ते मां संस्मरिष्यसि ॥ २४ ॥
ततो गन्तासि मत्स्थानं सर्वलोकनमस्कृतम् ।
उपरिष्टादृषिभ्यस्त्वं यतो नावर्तते गतः ॥ २५ ॥

मैत्रेय उवाच –

इत्यर्चितः स भगवान् अतिदिश्यात्मनः पदम् ।
बालस्य पश्यतो धाम स्वं अगाद् गरुडध्वजः ॥ २६ ॥
सोऽपि सङ्‌कल्पजं विष्णोः पादसेवोपसादितम् ।
प्राप्य सङ्‌कल्पनिर्वाणं नातिप्रीतोऽभ्यगात्पुरम् ॥ २७ ॥

(श्रीहरि, ध्रुव से कह रहे हैं) यज्ञ मेरी प्रिय मूर्ति है, तू अनेकों बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञोंके द्वारा मेरा यजन करेगा तथा यहाँ उत्तम-उत्तम भोग भोगकर अन्तमें मेरा ही स्मरण करेगा ॥ २४ ॥ इससे तू अन्तमें सम्पूर्ण लोकोंके वन्दनीय और सप्तर्षियोंसे भी ऊपर मेरे निज धामको जायगा, जहाँ पहुँच जानेपर फिर संसारमें लौटकर नहीं आना होता है ॥ २५ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—बालक ध्रुवसे इस प्रकार पूजित हो और उसे अपना पद प्रदानकर भगवान्‌ श्रीगरुडध्वज उसके देखते-देखते अपने लोक को चले गये ॥ २६ ॥ प्रभु की चरणसेवा से सङ्कल्पित वस्तु प्राप्त हो जानेके कारण यद्यपि ध्रुवजीका सङ्कल्प तो निवृत्त हो गया, किन्तु उनका चित्त विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। फिर वे अपने नगरको लौट गये ॥ २७ ॥

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रविवार, 28 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ध्रुवका वर पाकर घर लौटना

मैत्रेय उवाच -

अथाभिष्टुत एवं वै सत्सङ्‌कल्पेन धीमता ।
भृत्यानुरक्तो भगवान् प्रतिनन्द्येदमब्रवीत् ॥ १८ ॥

श्रीभगवानुवाच –

वेदाहं ते व्यवसितं हृदि राजन्यबालक ।
तत्प्रयच्छामि भद्रं ते दुरापं अपि सुव्रत ॥ १९ ॥
नान्यैरधिष्ठितं भद्र यद्भ्रा जिष्णु ध्रुवक्षिति ।
यत्र ग्रहर्क्षताराणां ज्योतिषां चक्रमाहितम् ॥ २० ॥
मेढ्यां गोचक्रवत्स्थास्नु परस्तात्कल्पवासिनाम् ।
धर्मोऽग्निः कश्यपः शुक्रो मुनयो ये वनौकसः ।
चरन्ति दक्षिणीकृत्य भ्रमन्तो यत्सतारकाः ॥ २१ ॥
प्रस्थिते तु वनं पित्रा दत्त्वा गां धर्मसंश्रयः ।
षट्त्रिंशद्‌ वर्षसाहस्रं रक्षिताव्याहतेन्द्रियः ॥ २२ ॥
त्वद्भ्रा तर्युत्तमे नष्टे मृगयायां तु तन्मनाः ।
अन्वेषन्ती वनं माता दावाग्निं सा प्रवेक्ष्यति ॥ २३ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जब शुभ सङ्कल्पवाले मतिमान् ध्रुवजीने इस प्रकार स्तुति की तब भक्तवत्सल भगवान्‌ उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे ॥ १८ ॥
श्रीभगवान्‌ने कहा—उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजकुमार ! मैं तेरे हृदयका सङ्कल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पदका प्राप्त होना बहुत कठिन है, तो भी मैं तुझे वह देता हूँ। तेरा कल्याण हो ॥ १९ ॥
भद्र ! जिस तेजोमय अविनाशी लोकको आजतक किसीने प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागणरूप ज्योतिश्चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है जिस प्रकार मेढीके [*] चारों ओर दँवरीके बैल घूमते रहते हैं। अवान्तर कल्पपर्यन्त रहनेवाले अन्य लोकोंका नाश हो जानेपर भी जो स्थिर रहता है तथा तारागणके सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ ॥ २०-२१ ॥ यहाँ भी जब तेरे पिता तुझे राजसिंहासन देकर वनको चले जायँगे; तब तू छत्तीस हजार वर्षतक धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करेगा। तेरी इन्द्रियोंकी शक्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी ॥ २२ ॥ आगे चलकर किसी समय तेरा भाई उत्तम शिकार खेलता हुआ मारा जायगा, तब उसकी माता सुरुचि पुत्र-प्रेममें पागल होकर उसे वनमें खोजती हुई दावानलमें प्रवेश कर जायगी ॥ २३ ॥ 

……………………………………………
[*1] कटी हुई फसल धान, गेहूँ आदिको कुचलनेके लिये घुमाये जानेवाले बैल जिस खम्भेमें बँधे रहते हैं, उसका नाम मेढी है।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ध्रुवका वर पाकर घर लौटना

त्वं नित्यमुक्तपरिशुद्धविबुद्ध आत्मा
     कूटस्थ आदिपुरुषो भगवान् त्र्यधीशः ।
यद्बुनद्ध्यवस्थितिमखण्डितया स्वदृष्ट्या
     द्रष्टा स्थितावधिमखो व्यतिरिक्त आस्से ॥ १५ ॥
यस्मिन् विरुद्धगतयो ह्यनिशं पतन्ति
     विद्यादयो विविधशक्तय आनुपूर्व्यात् ।
तद्ब्र्ह्म विश्वभवमेकमनन्तमाद्यम्
     आनन्दमात्रमविकारमहं प्रपद्ये ॥ १६ ॥
सत्याशिषो हि भगवन् तव पादपद्मम्
     आशीस्तथानुभजतः पुरुषार्थमूर्तेः ।
अप्येवमर्य भगवान्परिपाति दीनान्
     वाश्रेव वत्सकमनुग्रहकातरोऽस्मान् ॥ १७ ॥

(ध्रुवजी श्रीहरि की स्तुति कर रहे हैं) प्रभो ! आप अपनी अखण्ड चिन्मयी दृष्टिसे बुद्धिकी सभी अवस्थाओंके साक्षी हैं तथा नित्य- मुक्त शुद्धसत्त्वमय, सर्वज्ञ, परमात्मस्वरूप, निर्विकार, आदिपुरुष, षडैश्वर्य-सम्पन्न एवं तीनों गुणोंके अधीश्वर हैं। आप जीवसे सर्वथा भिन्न हैं तथा संसारकी स्थितिके लिये यज्ञाधिष्ठाता विष्णुरूपसे विराजमान हैं ॥ १५ ॥ आपसे ही विद्या-अविद्या आदि विरुद्ध गतियोंवाली अनेकों शक्तियाँ धारावाहिक रूप से निरन्तर प्रकट होती रहती हैं। आप जगत् के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपकी शरण हूँ ॥ १६ ॥
भगवन् ! आप परमानन्दमूर्ति हैं—जो लोग ऐसा समझकर निष्कामभावसे आपका निरन्तर भजन करते हैं, उनके लिये राज्यादि भोगों की अपेक्षा आपके चरणकमलों की प्राप्ति ही भजन का सच्चा फल है। स्वामिन् ! यद्यपि बात ऐसी ही है, तो भी गौ जैसे अपने तुरंत के जन्में हुए बछड़े को दूध पिलाती और व्याघ्रादि से बचाती रहती है, उसी प्रकार आप भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये निरन्तर विकल रहनेके कारण हम-जैसे सकाम जीवोंकी भी कामना पूर्ण करके उनकी संसार- भयसे रक्षा करते रहते हैं ॥ १७ ॥

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शनिवार, 27 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ध्रुवका वर पाकर घर लौटना

भक्तिं मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसङ्‌गो
     भूयादनन्त महतां अमलाशयानाम् ।
येनाञ्जसोल्बणमुरुव्यसनं भवाब्धिं
     नेष्ये भवद्गुनणकथामृतपानमत्तः ॥ ११ ॥
ते न स्मरन्त्यतितरां प्रियमीश मर्त्यं
     ये चान्वदः सुतसुहृद्गृमहवित्तदाराः ।
ये त्वब्जनाभ भवदीयपदारविन्द
     सौगन्ध्यलुब्धहृदयेषु कृतप्रसङ्‌गाः ॥ १२ ॥
तिर्यङ्‌नगद्विजसरीसृपदेवदैत्य
     मर्त्यादिभिः परिचितं सदसद्विशेषम् ।
रूपं स्थविष्ठमज ते महदाद्यनेकं
     नातः परं परम वेद्मि न यत्र वादः ॥ १३ ॥
कल्पान्त एतदखिलं जठरेण गृह्णन्
     शेते पुमान् स्वदृगनन्तसखस्तदङ्‌के ।
यन्नाभिसिन्धुरुहकाञ्चन लोकपद्म
     गर्भे द्युमान्भगवते प्रणतोऽस्मि तस्मै ॥ १४ ॥

(ध्रुवजी श्रीहरि की स्तुति कर रहे हैं) अनन्त परमात्मन् ! मुझे तो आप उन विशुद्धहृदय महात्मा भक्तोंका सङ्ग दीजिये, जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है; उनके सङ्गमें मैं आपके गुणों और लीलाओंकी कथा-सुधाको पी-पीकर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही इस अनेक प्रकारके दु:खोंसे पूर्ण भयङ्कर संसारसागरके उस पार पहुँच जाऊँगा ॥ ११ ॥ कमलनाभ प्रभो ! जिनका चित्त आपके चरणकमलकी सुगन्धमें लुभाया हुआ है, उन महानुभावोंका जो लोग सङ्ग करते हैं—वे अपने इस अत्यन्त प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र, मित्र, गृह और स्त्री आदिकी सुधि भी नहीं करते ॥ १२ ॥ अजन्मा परमेश्वर ! मैं तो पशु, वृक्ष, पर्वत, पक्षी, सरीसृप (सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु), देवता, दैत्य और मनुष्य आदिसे परिपूर्ण तथा महदादि अनेकों कारणोंसे सम्पादित आपके इस सदसदात्मक स्थूल विश्वरूपको ही जानता हूँ; इससे परे जो आपका परम स्वरूप है, जिसमें वाणीकी गति नहीं है, उसका मुझे पता नहीं है ॥ १३ ॥
भगवन् ! कल्पका अन्त होनेपर योगनिद्रामें स्थित जो परमपुरुष इस सम्पूर्ण विश्वको अपने उदरमें लीन करके शेषजीके साथ उन्हींकी गोदमें शयन करते हैं तथा जिनके नाभि-समुद्रसे प्रकट हुए सर्वलोकमय सुवर्णवर्ण कमलसे परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, वे भगवान्‌ आप ही हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ॥ १४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

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ध्रुवका वर पाकर घर लौटना

ध्रुव उवाच –

योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां
     संजीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना ।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्
     प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ॥ ६ ॥
एकस्त्वमेव भगवन् इदमात्मशक्त्या
     मायाख्ययोरुगुणया महदाद्यशेषम् ।
सृष्ट्वानुविश्य पुरुषस्तदसद्गु्णेषु
     नानेव दारुषु विभावसुवद्विभासि ॥ ७ ॥
त्वद्दत्तया वयुनयेदमचष्ट विश्वं
     सुप्तप्रबुद्ध इव नाथ भवत्प्रपन्नः ।
तस्यापवर्ग्यशरणं तव पादमूलं
     विस्मर्यते कृतविदा कथमार्तबन्धो ॥ ८ ॥
नूनं विमुष्टमतयस्तव मायया ते
     ये त्वां भवाप्ययविमोक्षणमन्यहेतोः ।
अर्चन्ति कल्पकतरुं कुणपोपभोग्यम्
     इच्छन्ति यत्स्पर्शजं निरयेऽपि नॄणाम् ॥ ९ ॥
या निर्वृतिस्तनुभृतां तव पादपद्म
     ध्यानाद्भृवज्जनकथाश्रवणेन वा स्यात् ।
सा ब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्
     किं त्वन्तकासिलुलितात्पततां विमानात् ॥ १० ॥

ध्रुवजीने कहा—प्रभो ! आप सर्वशक्तिसम्पन्न हैं; आप ही मेरे अन्त:करणमें प्रवेशकर अपने तेजसे मेरी इस सोयी हुई वाणीको सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणोंको भी चेतनता देते हैं। मैं आप अन्तर्यामी भगवान्‌को प्रणाम करता हूँ ॥ ६ ॥ भगवन् ! आप एक ही हैं, परन्तु अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्तिसे इस महदादि सम्पूर्ण प्रपञ्चको रचकर अन्तर्यामीरूपसे उसमें प्रवेश कर जाते हैं और फिर इसके इन्द्रियादि असत् गुणोंमें उनके अधिष्ठातृ-देवताओंके रूपमें स्थित होकर अनेकरूप भासते हैं—ठीक वैसे ही जैसे तरह-तरहकी लकडिय़ोंमें प्रकट हुई आग अपनी उपाधियोंके अनुसार भिन्न-भिन्न रूपोंमें भासती है ॥ ७ ॥ नाथ ! सृष्टिके आरम्भमें ब्रह्माजीने भी आपकी शरण लेकर आपके दिये हुए ज्ञानके प्रभावसे ही इस जगत्को सोकर उठे हुए पुरुषके समान देखा था। दीनबन्धो ! उन्हीं आपके चरणतलका मुक्त पुरुष भी आश्रय लेते हैं, कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हें कैसे भूल सकता है ॥ ८ ॥ प्रभो ! इन शवतुल्य शरीरोंके द्वारा भोगा जानेवाला, इन्द्रिय और विषयोंके संसर्गसे उत्पन्न सुख तो मनुष्योंको नरकमें भी मिल सकता है। जो लोग इस विषयसुखके लिये लालायित रहते हैं और जो जन्म-मरणके बन्धनसे छुड़ा देनेवाले कल्पतरुस्वरूप आपकी उपासना भगवत्-प्राप्तिके सिवा किसी अन्य उद्देश्यसे करते हैं, उनकी बुद्धि अवश्य ही आपकी मायाके द्वारा ठगी गयी है ॥ ९ ॥ नाथ ! आपके चरणकमलोंका ध्यान करनेसे और आपके भक्तोंके पवित्र चरित्र सुननेसे प्राणियोंको जो आनन्द प्राप्त होता है, वह निजानन्दस्वरूप ब्रह्ममें भी नहीं मिल सकता। फिर जिन्हें कालकी तलवार काटे डालती है उन स्वर्गीय विमानोंसे गिरने- वाले पुरुषोंको तो वह सुख मिल ही कैसे सकता है ॥ १० ॥

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शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ध्रुवका वर पाकर घर लौटना

मैत्रेय उवाच –

ते एवमुत्सन्नभया उरुक्रमे
     कृतावनामाः प्रययुस्त्रिविष्टपम् ।
सहस्रशीर्षापि ततो गरुत्मता
     मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः ॥ १ ॥
स वै धिया योगविपाकतीव्रया
     हृत्पद्मकोशे स्फुरितं तडित्प्रभम् ।
तिरोहितं सहसैवोपलक्ष्य
     बहिःस्थितं तदवस्थं ददर्श ॥ २ ॥
तद्दर्शनेनागतसाध्वसः क्षितौ
     अवन्दताङ्‌गं विनमय्य दण्डवत् ।
दृग्भ्यां प्रपश्यन् प्रपिबन्निवार्भकः
     चुम्बन्निवास्येन भुजैरिवाश्लिषन् ॥ ३ ॥
स तं विवक्षन्तमतद्विदं हरिः
     ज्ञात्वास्य सर्वस्य च हृद्यवस्थितः ।
कृताञ्जलिं ब्रह्ममयेन कम्बुना
     पस्पर्श बालं कृपया कपोले ॥ ४ ॥
स वै तदैव प्रतिपादितां गिरं
     दैवीं परिज्ञातपरात्मनिर्णयः ।
तं भक्तिभावोऽभ्यगृणादसत्वरं
     परिश्रुतोरुश्रवसं ध्रुवक्षितिः ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! भगवान्‌के इस प्रकार आश्वासन देनेसे देवताओंका भय जाता रहा और वे उन्हें प्रणाम करके स्वर्गलोकको चले गये। तदनन्तर विराट्स्वरूप भगवान्‌ गरुड पर चढ़- कर अपने भक्तको देखनेके लिये मधुवनमें आये ॥ १ ॥ उस समय ध्रुवजी तीव्र योगाभ्याससे एकाग्र हुई बुद्धिके द्वारा भगवान्‌की बिजलीके समान देदीप्यमान जिस मूर्तिका अपने हृदयकमल में ध्यान कर रहे थे, वह सहसा विलीन हो गयी। इससे घबराकर उन्होंने ज्यों ही नेत्र खोले कि भगवान्‌के उसी रूपको बाहर अपने सामने खड़ा देखा ॥ २ ॥ प्रभुका दर्शन पाकर बालक ध्रुवको बड़ा कुतूहल हुआ, वे प्रेममें अधीर हो गये। उन्होंने पृथ्वीपर दण्डके समान लोटकर उन्हें प्रणाम किया। फिर वे इस प्रकार प्रेमभरी दृष्टिसे उनकी ओर देखने लगे मानो नेत्रोंसे उन्हें पी जायँगे, मुखसे चूम लेंगे और भुजाओं में कस लेंगे ॥ ३ ॥ वे हाथ जोड़े प्रभुके सामने खड़े थे, और उनकी स्तुति करना चाहते थे परन्तु किस प्रकार करें—यह नहीं जानते थे। सर्वान्तर्यामी हरि उनके मनकी बात जान गये; उन्होंने कृपापूर्वक अपने वेदमय शङ्खको उनके गालसे छुआ दिया ॥ ४ ॥ ध्रुवजी भविष्यमें अविचल पद प्राप्त करनेवाले थे। इस समय शङ्खका स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्यवाणी प्राप्त हो गयी और जीव तथा ब्रह्मके स्वरूपका भी निश्चय हो गया। वे अत्यन्त भक्तिभावसे धैर्यपूर्वक विश्वविख्यात कीर्तिमान् श्रीहरिकी स्तुति करने लगे ॥ ५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०९)

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

ध्रुवका वन-गमन

नारद उवाच -
मा मा शुचः स्वतनयं देवगुप्तं विशाम्पते ।
तत्प्रभावं अविज्ञाय प्रावृङ्‌क्ते यद्यशो जगत् । ॥ ६८ ॥
सुदुष्करं कर्म कृत्वा लोकपालैरपि प्रभुः ।
ऐष्यत्यचिरतो राजन् यशो विपुलयंस्तव । ॥ ६९ ॥

मैत्रेय उवाच -
इति देवर्षिणा प्रोक्तं विश्रुत्य जगतीपतिः ।
राजलक्ष्मीमनादृत्य पुत्रं एवान्वचिन्तयत् ॥ ७० ॥
तत्राभिषिक्तः प्रयतः तां उपोष्य विभावरीम् ।
समाहितः पर्यचर दृष्यादेशेन पूरुषम् ॥ ७१ ॥
त्रिरात्रान्ते त्रिरात्रान्ते कपित्थबदराशनः ।
आत्मवृत्त्यनुसारेण मासं निन्येऽर्चयन् हरिम् ॥ ७२ ॥
द्वितीयं च तथा मासं षष्ठे षष्ठेऽर्भको दिने ।
तृणपर्णादिभिः शीर्णैः कृतान्नोऽभ्यर्चयन् विभुम् ॥ ७३ ॥
तृतीयं चानयन् मासं नवमे नवमेऽहनि ।
अब्भक्ष उत्तमश्लोकं उपाधावत्समाधिना ॥ ७४ ॥
चतुर्थमपि वै मासं द्वादशे द्वादशेऽहनि ।
वायुभक्षो जितश्वासो ध्यायन् देवमधारयत् ॥ ७५ ॥
पञ्चमे मास्यनुप्राप्ते जितश्वासो नृपात्मजः ।
ध्यायन् ब्रह्म पदैकेन तस्थौ स्थाणुरिवाचलः ॥ ७६ ॥
सर्वतो मन आकृष्य हृदि भूतेन्द्रियाशयम् ।
ध्यायन् भगवतो रूपं नाद्राक्षीत् किंचनापरम् ॥ ७७ ॥
आधारं महदादीनां प्रधानपुरुषेश्वरम् ।
ब्रह्म धारयमाणस्य त्रयो लोकाश्चकम्पिरे ॥ ७८ ॥
यदैकपादेन स पार्थिवार्भकः
     तस्थौ तदङ्‌गुष्ठनिपीडिता मही ।
ननाम तत्रार्धमिभेन्द्रधिष्ठिता
     तरीव सव्येतरतः पदे पदे ॥ ७९ ॥
तस्मिन् अभिध्यायति विश्वमात्मनो
     द्वारं निरुध्यासमनन्यया धिया ।
लोका निरुच्छ्वासनिपीडिता भृशं
     सलोकपालाः शरणं ययुर्हरिम् ॥ ८० ॥

देवा ऊचुः -
नैवं विदामो भगवन् प्राणरोधं
     चराचरस्याखिलसत्त्वधाम्नः ।
विधेहि तन्नो वृजिनाद्विमोक्षं
     प्राप्ता वयं त्वां शरणं शरण्यम् ॥ ८१ ॥

श्रीभगवानुवाच -
मा भैष्ट बालं तपसो दुरत्ययान्
     निवर्तयिष्ये प्रतियात स्वधाम ।
यतो हि वः प्राणनिरोध आसीत्
     औत्तानपादिर्मयि सङ्‌गतात्मा ॥ ८२ ॥

श्रीनारदजीने (राजा उत्तानपाद को)  कहा—राजन् ! तुम अपने बालककी चिन्ता मत करो। उसके रक्षक भगवान्‌ हैं। तुम्हें उसके प्रभावका पता नहीं है, उसका यश सारे जगत् में  फैल रहा है ॥ ६८ ॥ वह बालक बड़ा समर्थ है। जिस कामको बड़े-बड़े लोकपाल भी नहीं कर सके, उसे पूरा करके वह शीघ्र ही तुम्हारे पास लौट आयेगा। उसके कारण तुम्हारा यश भी बहुत बढ़ेगा ॥ ६९ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—देवर्षि नारदजी की बात सुनकर महाराज उत्तानपाद राजपाट की ओर से उदासीन होकर निरन्तर पुत्र की ही चिन्तामें रहने लगे ॥ ७० ॥ इधर ध्रुवजीने मधुवन में पहुँचकर यमुनाजीमें स्नान किया और उस रात पवित्रतापूर्वक उपवास करके श्रीनारदजीके उपदेशानुसार एकाग्रचित्तसे परमपुरुष श्रीनारायणकी उपासना आरम्भ कर दी ॥ ७१ ॥ उन्होंने तीन-तीन रात्रिके अन्तरसे शरीरनिर्वाहके लिये केवल कैथ और बेरके फल खाकर श्रीहरिकी उपासना करते हुए एक मास व्यतीत किया ॥ ७२ ॥ दूसरे महीनेमें उन्होंने छ:-छ: दिनके पीछे सूखे घास और पत्ते खाकर भगवान्‌का भजन किया ॥ ७३ ॥ तीसरा महीना नौ-नौ दिनपर केवल जल पीकर समाधियोगके द्वारा श्रीहरिकी आराधना करते हुए बिताया ॥ ७४ ॥ चौथे महीनेमें उन्होंने श्वासको जीतकर बारह-बारह दिनके बाद केवल वायु पीकर ध्यानयोगद्वारा भगवान्‌की आराधनाकी ॥ ७५ ॥ पाँचवाँ मास लगनेपर राजकुमार ध्रुव श्वासको जीतकर परब्रह्मका चिन्तन करते हुए एक पैरसे खंभेके समान निश्चल भावसे खड़े हो गये ॥ ७६ ॥ उस समय उन्होंने शब्दादि विषय और इन्द्रियोंके नियामक अपने मनको सब ओरसे खींच लिया तथा हृदयस्थित हरिके स्वरूपका चिन्तन करते हुए चित्तको किसी दूसरी ओर न जाने दिया ॥ ७७ ॥ जिस समय उन्होंने महदादि सम्पूर्ण तत्त्वोंके आधार तथा प्रकृति और पुरुषके भी अधीश्वर परब्रह्मकी धारणा की, उस समय (उनके तेजको न सह सकनेके कारण) तीनों लोक काँप उठे ॥ ७८ ॥ जब राजकुमार ध्रुव एक पैरसे खड़े हुए, तब उनके अँगूठेसे दबकर आधी पृथ्वी इस प्रकार झुक गयी, जैसे किसी गजराजके चढ़ जानेपर नाव पद-पदपर दायीं-बायीं ओर डगमगाने लगती है ॥ ७९ ॥ ध्रुवजी अपने इन्द्रियद्वार तथा प्राणोंको रोककर अनन्यबुद्धिसे विश्वात्मा श्रीहरिका ध्यान करने लगे। इस प्रकार उनकी समष्टि प्राणसे अभिन्नता हो जानेके कारण सभी जीवोंका श्वासप्रश्वास रुक गया। इससे समस्त लोक और लोकपालोंको बड़ी पीड़ा हुई और वे सब घबराकर श्रीहरिकी शरणमें गये ॥ ८० ॥
देवताओंने कहा—भगवन् ! समस्त स्थावर-जङ्गम जीवों के शरीरों का प्राण एक साथ ही रुक गया है—ऐसा तो हमने पहले कभी अनुभव नहीं किया। आप शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले हैं, अपनी शरणमें आये हुए हमलोगोंको इस दु:खसे छुड़ाइये ॥ ८१ ॥
श्रीभगवान्‌ ने कहा—देवताओ ! तुम डरो मत। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने अपने चित्त को मुझ विश्वात्मा में लीन कर दिया है, इस समय मेरे साथ उसकी अभेद-धारणा सिद्ध हो गयी है, इसीसे उसके प्राणनिरोधसे तुम सबका प्राण भी रुक गया है। अब तुम अपने-अपने लोकों को जाओ, मैं उस बालक को इस दुष्कर तपसे निवृत्त कर दूँगा ॥ ८२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवचरिते अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

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गुरुवार, 25 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०८)

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

ध्रुवका वन-गमन

पद्भ्यां  नखमणिश्रेण्या विलसद्भ्यांय समर्चताम् ।
हृत्पद्मकर्णिकाधिष्ण्यं आक्रम्यात् मन्यवस्थितम् ॥ ५० ॥
स्मयमानं अभिध्यायेत् सानुरागावलोकनम् ।
नियतेनैकभूतेन मनसा वरदर्षभम् ॥ ५१ ॥
एवं भगवतो रूपं सुभद्रं ध्यायतो मनः ।
निर्वृत्या परया तूर्णं सम्पन्नं न निवर्तते ॥ ५२ ॥
जपश्च परमो गुह्यः श्रूयतां मे नृपात्मज ।
यं सप्तरात्रं प्रपठन् पुमान् पश्यति खेचरान् ॥ ५३ ॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
मन्त्रेणानेन देवस्य कुर्याद् द्रव्यमयीं बुधः ।
सपर्यां विविधैर्द्रव्यैः देशकालविभागवित् ॥ ५४ ॥
सलिलैः शुचिभिर्माल्यैः वन्यैर्मूलफलादिभिः ।
शस्ताङ्‌कुरांशुकैश्चार्चेत् तुलस्या प्रियया प्रभुम् ॥ ५५ ॥
लब्ध्वा द्रव्यमयीमर्चां क्षित्यम्ब्वादिषु वार्चयेत् ।
आभृतात्मा मुनिः शान्तो यतवाङ्‌मितवन्यभुक् ॥ ५६ ॥
स्वेच्छावतारचरितैः अचिन्त्यनिजमायया ।
करिष्यति उत्तमश्लोकः तद् ध्यायेद् हृदयङ्‌गमम् ॥ ५७ ॥
परिचर्या भगवतो यावत्यः पूर्वसेविताः ।
ता मंत्रहृदयेनैव प्रयुञ्ज्यान् मंत्रमूर्तये ॥ ५८ ॥

(श्रीनारदजी,ध्रुव से कह रहे हैं कि) जो लोग प्रभुका मानस-पूजन करते हैं, उनके अन्त:करणमें वे हृदयकमलकी कर्णिका पर अपने नख-मणिमण्डित मनोहर पादारविन्दोंको स्थापित करके विराजते हैं ॥ ५० ॥ इस प्रकार धारणा करते-करते जब चित्त स्थिर और एकाग्र हो जाय, तब उन वरदायक प्रभुका मन-ही-मन इस प्रकार ध्यान करे कि वे मेरी ओर अनुरागभरी दृष्टिसे निहारते हुए मन्द-मन्द मुसकरा रहे हैं ॥ ५१ ॥ भगवान्‌की मङ्गलमयी मूर्तिका इस प्रकार निरन्तर ध्यान करनेसे मन शीघ्र ही परमानन्दमें डूबकर तल्लीन हो जाता है और फिर वहाँसे लौटता नहीं ॥ ५२ ॥
राजकुमार ! इस ध्यानके साथ जिस परम गुह्य मन्त्रका जप करना चाहिये, वह भी बतलाता हूँ—सुन। इसका सात रात जप करनेसे मनुष्य आकाशमें विचरनेवाले सिद्धोंका दर्शन कर सकता है ॥ ५३ ॥ वह मन्त्र है—‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’। किस देश और किस कालमें कौन वस्तु उपयोगी है—इसका विचार करके बुद्धिमान् पुरुषको इस मन्त्रके द्वारा तरह-तरहकी सामग्रियोंसे भगवान्‌की द्रव्यमयी पूजा करनी चाहिये ॥ ५४ ॥ प्रभुका पूजन विशुद्ध जल, पुष्पमाला, जंगली मूल और फलादि, पूजामें विहित दूर्वादि अङ्कुर, वनमें ही प्राप्त होनेवाले वल्कल वस्त्र और उनकी प्रेयसी तुलसीसे करना चाहिये ॥ ५५ ॥ यदि शिला आदिकी मूर्ति मिल सके तो उसमें, नहीं तो पृथ्वी या जल आदिमें ही भगवान्‌की पूजा करे। सर्वदा संयतचित्त, मननशील, शान्त और मौन रहे तथा जंगली फल-मूलादिका परिमित आहार करे ॥ ५६ ॥ इसके सिवा पुण्यकीर्ति श्रीहरि अपनी अनिर्वचनीया मायाके द्वारा अपनी ही इच्छासे अवतार लेकर जो-जो मनोहर चरित्र करनेवाले हैं, उनका मन-ही-मन चिन्तन करता रहे ॥ ५७ ॥ प्रभुकी पूजाके लिये जिन-जिन उपचारोंका विधान किया गया है, उन्हें मन्त्रमूर्ति श्रीहरिको द्वादशाक्षर मन्त्रके द्वारा ही अर्पण करे ॥ ५८ ॥

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बुधवार, 24 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ध्रुवका वन-गमन

मैत्रेय उवाच -
इत्युदाहृतमाकर्ण्य भगवान् नारदस्तदा ।
प्रीतः प्रत्याह तं बालं सद्वाक्यं अनुकम्पया ॥ ३९ ॥

नारद उवाच -
जनन्याभिहितः पन्थाः स वै निःश्रेयसस्य ते ।
भगवान् वासुदेवस्तं भज तं प्रवणात्मना ॥ ४० ॥
धर्मार्थकाममोक्षाख्यं य इच्छेत् श्रेय आत्मनः ।
एकं ह्येव हरेस्तत्र कारणं पादसेवनम् ॥ ४१ ॥
तत्तात गच्छ भद्रं ते यमुनायास्तटं शुचि ।
पुण्यं मधुवनं यत्र सान्निध्यं नित्यदा हरेः ॥ ४२ ॥
स्नात्वानुसवनं तस्मिन् कालिन्द्याः सलिले शिवे ।
कृत्वोचितानि निवसन् आत्मनः कल्पितासनः ॥ ४३ ॥
प्राणायामेन त्रिवृता प्राणेन्द्रियमनोमलम् ।
शनैर्व्युदस्याभिध्यायेन् मनसा गुरुणा गुरुम् ॥ ४४ ॥
प्रसादाभिमुखं शश्वत् प्रसन्नवदनेक्षणम् ।
सुनासं सुभ्रुवं चारु कपोलं सुरसुन्दरम् ॥ ४५ ॥
तरुणं रमणीयाङ्‌गं अरुणोष्ठेक्षणाधरम् ।
प्रणताश्रयणं नृम्णं शरण्यं करुणार्णवम् ॥ ४६ ॥
श्रीवत्साङ्‌कं घनश्यामं पुरुषं वनमालिनम् ।
शङ्‌खचक्रगदापद्मैः अभिव्यक्तचतुर्भुजम् ॥ ४७ ॥
किरीटिनं कुण्डलिनं केयूरवलयान्वितम् ।
कौस्तुभाभरणग्रीवं पीतकौशेयवाससम् ॥ ४८ ॥
काञ्चीकलापपर्यस्तं लसत्काञ्चन नूपुरम् ।
दर्शनीयतमं शान्तं मनोनयनवर्धनम् ॥ ४९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—ध्रुवकी बात सुनकर भगवान्‌ नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और उसपर कृपा करके इस प्रकार सदुपदेश देने लगे ॥ ३९ ॥
श्रीनारदजीने कहा—बेटा ! तेरी माता सुनीति ने तुझे जो कुछ बताया है, वही तेरे लिये परम कल्याणका मार्ग है। भगवान्‌ वासुदेव ही वह उपाय हैं, इसलिये तू चित्त लगाकर उन्हींका भजन कर ॥ ४० ॥ जिस पुरुषको अपने लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थकी अभिलाषा हो, उसके लिये उनकी प्राप्तिका उपाय एकमात्र श्रीहरिके चरणोंका सेवन ही है ॥ ४१ ॥ बेटा ! तेरा कल्याण होगा, अब तू श्रीयमुनाजी के तटवर्ती परम पवित्र मधुवन को जा। वहाँ श्रीहरि का नित्य- निवास है ॥ ४२ ॥ वहाँ श्रीकालिन्दी के निर्मल जलमें तीनों समय स्नान करके नित्यकर्मसे निवृत्त हो यथाविधि आसन बिछाकर स्थिरभाव से बैठना ॥ ४३ ॥ फिर रेचक, पूरक और कुम्भक—तीन प्रकारके प्राणायामसे धीरे-धीरे प्राण, मन और इन्द्रियके दोषोंको दूरकर धैर्ययुक्त मनसे परमगुरु श्रीभगवान्‌का इस प्रकार ध्यान करना ॥ ४४ ॥
भगवान्‌के नेत्र और मुख निरन्तर प्रसन्न रहते हैं; उन्हें देखनेसे ऐसा मालूम होता है कि वे प्रसन्नतापूर्वक भक्तको वर देनेके लिये उद्यत हैं। उनकी नासिका, भौंहें और कपोल बड़े ही सुहावने हैं; वे सभी देवताओंमें परम सुन्दर हैं ॥ ४५ ॥ उनकी तरुण अवस्था है; सभी अङ्ग बड़े सुडौल हैं; लाल-लाल होठ और रतनारे नेत्र हैं। वे प्रणतजनोंको आश्रय देनेवाले, अपार सुखदायक,शरणागतवत्सल और दयाके समुद्र हैं ॥ ४६ ॥ उनके वक्ष:स्थलमें श्रीवत्सका चिह्न है; उनका शरीर सजल जलधरके समान श्यामवर्ण है; वे परम पुरुष श्यामसुन्दर गलेमें वनमाला धारण किये हुए हैं और उनकी चार भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म सुशोभित हैं ॥ ४७ ॥ उनके अङ्ग-प्रत्यङ्ग किरीट, कुण्डल, केयूर और कङ्कणादि आभूषणोंसे विभूषित हैं; गला कौस्तुभमणिकी भी शोभा बढ़ा रहा है तथा शरीरमें रेशमी पीताम्बर है ॥ ४८ ॥ उनके कटिप्रदेशमें काञ्चनकी करधनी और चरणोंमें सुवर्णमय नूपुर (पैजनी) सुशोभित हैं। भगवान्‌का स्वरूप बड़ा ही दर्शनीय, शान्त तथा मन और नयनोंको आनन्दित करनेवाला है ॥ ४९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ध्रुवका वन-गमन

नारद उवाच -
नाधुनाप्यवमानं ते सम्मानं वापि पुत्रक ।
लक्षयामः कुमारस्य सक्तस्य क्रीडनादिषु ॥ २७ ॥
विकल्पे विद्यमानेऽपि न ह्यसन्तोषहेतवः ।
पुंसो मोहमृते भिन्ना यल्लोके निजकर्मभिः ॥ २८ ॥
परितुष्येत् ततस्तात तावन्मात्रेण पूरुषः ।
दैवोपसादितं यावद् वीक्ष्येश्वरगतिं बुधः ॥ २९ ॥
अथ मात्रोपदिष्टेन योगेनावरुरुत्ससि ।
यत्प्रसादं स वै पुंसां दुराराध्यो मतो मम ॥ ३० ॥
मुनयः पदवीं यस्य निःसङ्‌गेनोरुजन्मभिः ।
न विदुर्मृगयन्तोऽपि तीव्रयोगसमाधिना ॥ ३१ ॥
अतो निवर्ततामेष निर्बन्धस्तव निष्फलः ।
यतिष्यति भवान् काले श्रेयसां समुपस्थिते ॥ ३२ ॥
यस्य यद् दैवविहितं स तेन सुखदुःखयोः ।
आत्मानं तोषयन् देही तमसः पारमृच्छति ॥ ३३ ॥
गुणाधिकान्मुदं लिप्सेद् अनुक्रोशं गुणाधमात् ।
मैत्रीं समानादन्विच्छेत् न तापैरभिभूयते ॥ ३४ ॥

ध्रुव उवाच -
सोऽयं शमो भगवता सुखदुःखहतात्मनाम् ।
दर्शितः कृपया पुंसां दुर्दर्शोऽस्मद्विधैस्तु यः ॥ ३५ ॥
अथापि मेऽविनीतस्य क्षात्त्रं घोरमुपेयुषः ।
सुरुच्या दुर्वचोबाणैः न भिन्ने श्रयते हृदि ॥ ३६ ॥
पदं त्रिभुवनोत्कृष्टं जिगीषोः साधु वर्त्म मे ।
ब्रूहि अस्मत् पितृभिर्ब्रह्मन् अन्यैरप्यनधिष्ठितम् ॥ ३७ ॥
नूनं भवान् भगवतो योऽङ्‌गजः परमेष्ठिनः ।
वितुदन्नटते वीणां हिताय जगतोऽर्कवत् ॥ ३८ ॥

तत्पश्चात् नारदजीने ध्रुवसे कहा—बेटा ! अभी तो तू बच्चा है, खेल-कूदमें ही मस्त रहता है; हम नहीं समझते कि इस उम्रमें किसी बातसे तेरा सम्मान या अपमान हो सकता है ॥ २७ ॥ यदि तुझे मानापमान का विचार ही हो, तो बेटा ! असलमें मनुष्यके असन्तोषका कारण मोहके सिवा और कुछ नहीं है। संसार में मनुष्य अपने कर्मानुसार ही मान-अपमान या सुख-दु:ख आदि को प्राप्त होता है ॥ २८ ॥ तात ! भगवान्‌ की गति बड़ी विचित्र है ! इसलिये उसपर विचार करके बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि दैववश उसे जैसी भी परिस्थितिका सामना करना पड़े, उसीमें सन्तुष्ट रहे ॥ २९ ॥ अब, माताके उपदेशसे तू योगसाधन द्वारा जिन भगवान्‌ की कृपा प्राप्त करने चला है— मेरे विचारसे साधारण पुरुषों के लिये उन्हें प्रसन्न करना बहुत ही कठिन है ॥ ३० ॥ योगीलोग अनेकों जन्मोंतक अनासक्त रहकर समाधियोग के द्वारा बड़ी-बड़ी कठोर साधनाएँ करते रहते हैं, परन्तु भगवान्‌ के मार्गका पता नहीं पाते ॥ ३१ ॥ इसलिये तू यह व्यर्थका हठ छोड़ दे और घर लौट जा; बड़ा होनेपर जब परमार्थ-साधनका समय आवे, तब उसके लिये प्रयत्न कर लेना ॥ ३२ ॥ विधाताके विधानके अनुसार सुख-दु:ख जो कुछ भी प्राप्त हो, उसीमें चित्तको सन्तुष्ट रखना चाहिये। यों करनेवाला पुरुष मोहमय संसारसे पार हो जाता है ॥ ३३ ॥ मनुष्यको चाहिये कि अपनेसे अधिक गुणवान्को देखकर प्रसन्न हो; जो कम गुणवाला हो, उसपर दया करे और जो अपने समान गुणवाला हो, उससे मित्रताका भाव रखे। यों करनेसे उसे दु:ख कभी नहीं दबा सकते ॥ ३४ ॥
ध्रुवने कहा—भगवन् ! सुख-दु:खसे जिनका चित्त चञ्चल हो जाता है, उन लोगोंके लिये आपने कृपा करके शान्तिका यह बहुत अच्छा उपाय बतलाया। परन्तु मुझ-जैसे अज्ञानियोंकी दृष्टि यहाँतक नहीं पहुँच पाती ॥ ३५ ॥ इसके सिवा, मुझे घोर क्षत्रियस्वभाव प्राप्त हुआ है, अतएव मुझमें विनयका प्राय: अभाव है; सुरुचिने अपने कटुवचनरूपी बाणोंसे मेरे हृदयको विदीर्ण कर डाला है; इसलिये उसमें आपका यह उपदेश नहीं ठहर पाता ॥ ३६ ॥ ब्रह्मन् ! मैं उस पदपर अधिकार करना चाहता हूँ, जो त्रिलोकीमें सबसे श्रेष्ठ है तथा जिसपर मेरे बाप-दादे और दूसरे कोई भी आरूढ़ नहीं हो सके हैं। आप मुझे उसीकी प्राप्तिका कोई अच्छा-सा मार्ग बतलाइये ॥ ३७ ॥ आप भगवान्‌ ब्रह्माजीके पुत्र हैं और संसारके कल्याणके लिये ही वीणा बजाते सूर्यकी भाँति त्रिलोकीमें विचरा करते हैं ॥ ३८ ॥

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मंगलवार, 23 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ध्रुवका वन-गमन

यस्याङ्‌घ्रिपद्मं परिचर्य विश्व
     विभावनायात्तगुणाभिपत्तेः ।
अजोऽध्यतिष्ठत्खलु पारमेष्ठ्यं
     पदं जितात्मश्वसनाभिवन्द्यम् ॥ २० ॥
तथा मनुर्वो भगवान्पितामहो
     यमेकमत्या पुरुदक्षिणैर्मखैः ।
इष्ट्वाभिपेदे दुरवापमन्यतो
     भौमं सुखं दिव्यमथापवर्ग्यम् ॥ २१ ॥
तमेव वत्साश्रय भृत्यवत्सलं
     मुमुक्षुभिर्मृग्यपदाब्जपद्धतिम् ।
अनन्यभावे निजधर्मभाविते
     मनस्यवस्थाप्य भजस्व पूरुषम् ॥ २२ ॥
नान्यं ततः पद्मपलाशलोचनाद्
     दुःखच्छिदं ते मृगयामि कञ्चन ।
यो मृग्यते हस्तगृहीतपद्मया
     श्रियेतरैरङ्‌ग विमृग्यमाणया ॥ २३ ॥

मैत्रेय उवाच -
एवं सञ्जल्पितं मातुः आकर्ण्यार्थागमं वचः ।
सन्नियम्यात्मनाऽऽत्मानं निश्चक्राम पितुः पुरात् ॥ २४ ॥
नारदस्तदुपाकर्ण्य ज्ञात्वा तस्य चिकीर्षितम् ।
स्पृष्ट्वा मूर्धन्यघघ्नेन पाणिना प्राह विस्मितः ॥ २५ ॥
अहो तेजः क्षत्रियाणां मानभङ्‌गममृष्यताम् ।
बालोऽप्ययं हृदा धत्ते यत्समातुरसद्वचः ॥ २६ ॥

(सुनीति,बेटे ध्रुव से कह रही हैं कि )संसारका पालन करनेके लिये सत्त्वगुणको अङ्गीकार करनेवाले उन श्रीहरिके चरणोंकी आराधना करनेसे ही तेरे परदादा श्रीब्रह्माजीको वह सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त हुआ है, जो मन और प्राणोंको जीतनेवाले मुनियोंके द्वारा भी वन्दनीय है ॥ २० ॥ इसी प्रकार तेरे दादा स्वायम्भुव मनुने भी बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञोंके द्वारा अनन्यभावसे उन्हीं भगवान्‌की आराधना की थी; तभी उन्हें दूसरोंके लिये अति दुर्लभ लौकिक, अलौकिक तथा मोक्षसुखकी प्राप्ति हुई ॥ २१ ॥ ‘बेटा ! तू भी उन भक्तवत्सल श्रीभगवान्‌का ही आश्रय ले। जन्म-मृत्युके चक्रसे छूटनेकी इच्छा करनेवाले मुमुक्षुलोग निरन्तर उन्हींके चरणकमलोंके मार्गकी खोज किया करते हैं। तू स्वधर्मपालनसे पवित्र हुए अपने चित्तमें श्रीपुरुषोत्तम भगवान्‌को बैठा ले तथा अन्य सबका चिन्तन छोडक़र केवल उन्हींका भजन कर ॥ २२ ॥ बेटा ! उन कमल-दल-लोचन श्रीहरिको छोडक़र मुझे तो तेरे दु:खको दूर करनेवाला और कोई दिखायी नहीं देता। देख, जिन्हें प्रसन्न करनेके लिये ब्रह्मा आदि अन्य सब देवता ढूँढ़ते रहते हैं, वे श्रीलक्ष्मीजी भी दीपककी भाँति हाथमें कमल लिये निरन्तर उन्हीं श्रीहरिकी खोज किया करती हैं’ ॥ २३ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—माता सुनीतिने जो वचन कहे, वे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्तिका मार्ग दिखलानेवाले थे। अत: उन्हें सुनकर ध्रुवने बुद्धिद्वारा अपने चित्तका समाधान किया। इसके बाद वे पिताके नगरसे निकल पड़े ॥ २४ ॥ यह सब समाचार सुनकर और ध्रुव क्या करना चाहता है, इस बातको जानकर नारदजी वहाँ आये। उन्होंने ध्रुवके मस्तकपर अपना पापनाशक कर-कमल फेरते हुए मन-ही-मन विस्मित होकर कहा ॥ २५ ॥ ‘अहो ! क्षत्रियोंका कैसा अद्भुत तेज है, वे थोड़ा-सा भी मान-भङ्ग नहीं सह सकते। देखो, अभी तो यह नन्हा-सा बच्चा है; तो भी इसके हृदयमें सौतेली माताके कटु वचन घर कर गये हैं’ ॥ २६ ॥

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सोमवार, 22 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ध्रुवका वन-गमन

मैत्रेय उवाच -
मातुः सपत्न्याःा स दुरुक्तिविद्धः
     श्वसन् रुषा दण्डहतो यथाहिः ।
हित्वा मिषन्तं पितरं सन्नवाचं
     जगाम मातुः प्ररुदन् सकाशम् ॥ १४ ॥
तं निःश्वसन्तं स्फुरिताधरोष्ठं
     सुनीतिरुत्सङ्‌ग उदूह्य बालम् ।
निशम्य तत्पौरमुखान्नितान्तं
     सा विव्यथे यद्गधदितं सपत्न्या् ॥ १५ ॥
सोत्सृज्य धैर्यं विललाप शोक
     दावाग्निना दावलतेव बाला ।
वाक्यं सपत्न्याः  स्मरती सरोज
     श्रिया दृशा बाष्पकलामुवाह ॥ १६ ॥
दीर्घं श्वसन्ती वृजिनस्य पारं
     अपश्यती बालकमाह बाला ।
मामङ्‌गलं तात परेषु मंस्था
     भुङ्‌क्ते जनो यत्परदुःखदस्तत् ॥ १७ ॥
सत्यं सुरुच्याभिहितं भवान्मे
     यद् दुर्भगाया उदरे गृहीतः ।
स्तन्येन वृद्धश्च विलज्जते यां
     भार्येति वा वोढुमिडस्पतिर्माम् ॥ १८ ॥
आतिष्ठ तत्तात विमत्सरस्त्वं
     उक्तं समात्रापि यदव्यलीकम् ।
आराधयाधोक्षजपादपद्मं
     यदीच्छसेऽध्यासनमुत्तमो यथा ॥ १९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जिस प्रकार डंडे की चोट खाकर साँप फुँफकार मारने लगता है, उसी प्रकार अपनी सौतेली माँके कठोर वचनोंसे घायल होकर ध्रुव क्रोधके मारे लंबी-लंबी साँस लेने लगा। उसके पिता चुपचाप यह सब देखते रहे, मुँहसे एक शब्द भी नहीं बोले। तब पिताको छोडक़र ध्रुव रोता हुआ अपनी माताके पास आया ॥ १४ ॥ उसके दोनों होठ फडक़ रहे थे और वह सिसक-सिसककर रो रहा था। सुनीति ने बेटे को गोदमें उठा लिया और जब महलके दूसरे लोगोंसे अपनी सौत सुरुचिकी कही हुई बातें सुनीं, तब उसे भी बड़ा दु:ख हुआ ॥ १५ ॥ उसका धीरज टूट गया। वह दावानलसे जली हुई बेलके समान शोकसे सन्तप्त होकर मुरझा गयी तथा विलाप करने लगी। सौतकी बातें याद आनेसे उसके कमल-सरीखे नेत्रोंमें आँसू भर आये ॥ १६ ॥ उस बेचारीको अपने दु:खपारावार का कहीं अन्त ही नहीं दिखायी देता था। उसने गहरी साँस लेकर ध्रुवसे कहा, ‘बेटा ! तू दूसरोंके लिये किसी प्रकारके अमङ्गल की कामना मत कर। जो मनुष्य दूसरोंको दु:ख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है ॥ १७ ॥ सुरुचिने जो कुछ कहा है, ठीक ही है; क्योंकि महाराजको मुझे ‘पत्नी’ तो क्या, ‘दासी’ स्वीकार करनेमें भी लज्जा आती है। तूने मुझ मन्दभागिनीके गर्भसे ही जन्म लिया है और मेरे ही दूधसे तू पला है ॥ १८ ॥ बेटा ! सुरुचिने तेरी सौतेली माँ होनेपर भी बात बिलकुल ठीक कही है; अत: यदि राजकुमार उत्तमके समान राजसिंहासनपर बैठना चाहता है तो द्वेषभाव छोडक़र उसीका पालन कर। बस, श्रीअधोक्षज भगवान्‌के चरणकमलोंकी आराधनामें लग जा ॥ १९ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ध्रुवका वन-गमन

प्रियव्रतोत्तानपादौ शतरूपापतेः सुतौ ।
वासुदेवस्य कलया रक्षायां जगतः स्थितौ ॥ ७ ॥
जाये उत्तानपादस्य सुनीतिः सुरुचिस्तयोः ।
सुरुचिः प्रेयसी पत्युः नेतरा यत्सुतो ध्रुवः ॥ ८ ॥
एकदा सुरुचेः पुत्रं अङ्‌कमारोप्य लालयन् ।
उत्तमं नारुरुक्षन्तं ध्रुवं राजाभ्यनन्दत ॥ ९ ॥
तथा चिकीर्षमाणं तं सपत्न्या स्तनयं ध्रुवम् ।
सुरुचिः शृण्वतो राज्ञः सेर्ष्यमाहातिगर्विता ॥ १० ॥
न वत्स नृपतेर्धिष्ण्यं भवान् आरोढुमर्हति ।
न गृहीतो मया यत्त्वं कुक्षौ अपि नृपात्मजः ॥ ११ ॥
बालोऽसि बत नात्मानं अन्यस्त्रीगर्भसम्भृतम् ।
नूनं वेद भवान् यस्य दुर्लभेऽर्थे मनोरथः ॥ १२ ॥
तपसाऽऽराध्य पुरुषं तस्यैवानुग्रहेण मे ।
गर्भे त्वं साधयात्मानं यदीच्छसि नृपासनम् ॥ १३ ॥

महारानी शतरूपा और उनके पति स्वायम्भुव मनुसे प्रियव्रत और उत्तानपाद—ये दो पुत्र हुए। भगवान्‌ वासुदेवकी कलासे उत्पन्न होनेके कारण ये दोनों संसारकी रक्षामें तत्पर रहते थे ॥ ७ ॥ उत्तानपादके सुनीति और सुरुचि नामकी दो पत्नियाँ थीं। उनमें सुरुचि राजाको अधिक प्रिय थी; सुनीति, जिसका पुत्र ध्रुव था, उन्हें वैसी प्रिय नहीं थी ॥ ८ ॥
एक दिन राजा उत्तानपाद सुरुचिके पुत्र उत्तमको गोदमें बिठाकर प्यार कर रहे थे। उसी समय ध्रुवने भी गोदमें बैठना चाहा, परन्तु राजाने उसका स्वागत नहीं किया ॥ ९ ॥ उस समय घमण्डसे भरी हुई सुरुचिने अपनी सौतके पुत्र ध्रुवको महाराजकी गोदमें आनेका यत्न करते देख उनके सामने ही उससे डाहभरे शब्दोंमें कहा ॥ १० ॥ ‘बच्चे ! तू राजसिंहासनपर बैठनेका अधिकारी नहीं है। तू भी राजाका ही बेटा है, इससे क्या हुआ; तुझको मैंने तो अपनी कोखमें नहीं धारण किया ॥ ११ ॥ तू अभी नादान है, तुझे पता नहीं है कि तूने किसी दूसरी स्त्रीके गर्भसे जन्म लिया है; तभी तो ऐसे दुर्लभ विषयकी इच्छा कर रहा है ॥ १२ ॥ यदि तुझे राजसिंहासनकी इच्छा है तो तपस्या करके परम पुरुष श्रीनारायणकी आराधना कर और उनकी कृपासे मेरे गर्भमें आकर जन्म ले’ ॥ १३ ॥

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रविवार, 21 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ध्रुवका वन-गमन

मैत्रेय उवाच -

सनकाद्या नारदश्च ऋभुर्हंसोऽरुणिर्यतिः ।
नैते गृहान् ब्रह्मसुता ह्यावसउ ऊर्ध्वरेतसः ॥ १ ॥
मृषाधर्मस्य भार्यासीद् दम्भं मायां च शत्रुहन् ।
असूत मिथुनं तत्तु निर्‌ऋतिर्जगृहेऽप्रजः ॥ २ ॥
तयोः समभवल्लोभो निकृतिश्च महामते ।
ताभ्यां क्रोधश्च हिंसा च यद्दुरुक्तिः स्वसा कलिः ॥ ३ ॥
दुरुक्तौ कलिराधत्त भयं मृत्युं च सत्तम ।
तयोश्च मिथुनं जज्ञे यातना निरयस्तथा ॥ ४ ॥
सङ्‌ग्रहेण मयाऽऽख्यातः प्रतिसर्गस्तवानघ ।
त्रिः श्रुत्वैतत्पुमान् पुण्यं विधुनोत्यात्मनो मलम् ॥ ५ ॥
अथातः कीर्तये वंशं पुण्यकीर्तेः कुरूद्वह ।
स्वायम्भुवस्यापि मनोः हरेरंशांशजन्मनः ॥ ६ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—शत्रुसूदन विदुरजी ! सनकादि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि और यति— ब्रह्माजीके इन नैष्ठिक ब्रह्मचारी पुत्रोंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश नहीं किया (अत: उनके कोई सन्तान नहीं हुई)। अधर्म भी ब्रह्माजीका ही पुत्र था, उसकी पत्नीका नाम था मृषा। उसके दम्भ नामक पुत्र और माया नामकी कन्या हुई। उन दोनोंको निर्ऋति ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी ॥ १-२ ॥ दम्भ और मायासे लोभ और निकृति (शठता) का जन्म हुआ, उनसे क्रोध और हिंसा तथा उनसे कलि (कलह) और उसकी बहिन दुरुक्ति (गाली) उत्पन्न हुए ॥ ३ ॥ साधुशिरोमणे ! फिर दुरुक्तिसे कलिने भय और मृत्युको उत्पन्न किया तथा उन दोनोंके संयोगसे यातना और निरय (नरक) का जोड़ा उत्पन्न हुआ ॥ ४ ॥ निष्पाप विदुरजी ! इस प्रकार मैंने संक्षेपसे तुम्हें प्रलयका कारणरूप यह अधर्मका वंश सुनाया। यह अधर्मका त्याग कराकर पुण्य-सम्पादनमें हेतु बनता है; अतएव इसका वर्णन तीन बार सुनकर मनुष्य अपने मनकी मलिनता दूर कर देता है ॥ ५ ॥ कुरुनन्दन ! अब मैं श्रीहरिके अंश (ब्रह्माजी) के अंशसे उत्पन्न हुए पवित्रकीर्ति महाराज स्वायम्भुव मनुके पुत्रोंके वंशका वर्णन करता हूँ ॥ ६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

मैत्रेय उवाच -
एवं भगवतादिष्टः प्रजापतिपतिर्हरिम् ।
अर्चित्वा क्रतुना स्वेन देवान् उभयतोऽयजत् ॥ ५५ ॥
रुद्रं च स्वेन भागेन ह्युपाधावत्समाहितः ।
कर्मणोदवसानेन सोमपानितरानपि ।
उदवस्य सहर्त्विग्भिः सस्नाववभृथं ततः ॥ ५६ ॥
तस्मा अप्यनुभावेन स्वेनैवावाप्तराधसे ।
धर्म एव मतिं दत्त्वा त्रिदशास्ते दिवं ययुः ॥ ५७ ॥
एवं दाक्षायणी हित्वा सती पूर्वकलेवरम् ।
जज्ञे हिमवतः क्षेत्रे मेनायामिति शुश्रुम ॥ ५८ ॥
तमेव दयितं भूय आवृङ्‌क्ते पतिमम्बिका ।
अनन्यभावैकगतिं शक्तिः सुप्तेव पूरुषम् ॥ ५९ ॥
एतद्भभगवतः शम्भोः कर्म दक्षाध्वरद्रुहः ।
श्रुतं भागवतात् शिष्याद् उद्धवान्मे बृहस्पतेः । ॥ ६० ॥
इदं पवित्रं परमीशचेष्टितं
     यशस्यमायुष्यमघौघमर्षणम् ।
यो नित्यदाऽऽकर्ण्य नरोऽनुकीर्तयेद्
     धुनोत्यघं कौरव भक्तिभावतः । ॥ ६१ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—भगवान्‌के इस प्रकार आज्ञा देनेपर प्रजापतियोंके नायक दक्षने उनका त्रिकपाल-यज्ञके द्वारा पूजन करके फिर अङ्गभूत और प्रधान दोनों प्रकारके यज्ञोंसे अन्य सब देवताओंका अर्चन किया ॥ ५५ ॥ फिर एकाग्रचित्त हो भगवान्‌ शङ्करका यज्ञशेषरूप उनके भागसे यजन किया तथा समाप्तिमें किये जानेवाले उदवसान नामक कर्मसे अन्य सोमपायी एवं दूसरे देवताओंका यजन कर यज्ञका उपसंहार किया और अन्तमें ऋत्विजोंके सहित अवभृथ-स्नान किया ॥ ५६ ॥ फिर जिन्हें अपने पुरुषार्थसे ही सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त थीं, उन दक्षप्रजापति को ‘तुम्हारी सदा धर्ममें बुद्धि रहे’ ऐसा आशीर्वाद देकर सब देवता स्वर्गलोकको चले गये ॥ ५७ ॥
विदुरजी ! सुना है कि दक्षसुता सतीजीने इस प्रकार अपना पूर्वशरीर त्यागकर फिर हिमालयकी पत्नी मेनाके गर्भसे जन्म लिया था ॥ ५८ ॥ जिस प्रकार प्रलयकालमें लीन हुई शक्ति सृष्टिके आरम्भमें फिर ईश्वरका ही आश्रय लेती है, उसी प्रकार अनन्यपरायणा श्रीअम्बिकाजीने उस जन्ममें भी अपने एकमात्र आश्रय और प्रियतम भगवान्‌ शङ्करको ही वरण किया ॥ ५९ ॥ विदुरजी ! दक्ष-यज्ञका विध्वंस करनेवाले भगवान्‌ शिवका यह चरित्र मैंने बृहस्पतिजीके शिष्य परम भागवत उद्धवजीके मुखसे सुना था ॥ ६० ॥ कुरुनन्दन ! श्रीमहादेवजीका यह पावन चरित्र यश और आयुको बढ़ानेवाला तथा पापपुञ्जको नष्ट करनेवाला है। जो पुरुष भक्तिभावसे इसका नित्यप्रति श्रवण और कीर्तन करता है, वह अपनी पापराशिका नाश कर देता है ॥ ६१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे दक्षयज्ञसंधान सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

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शनिवार, 20 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

मैत्रेय उवाच -
इति दक्षः कविर्यज्ञं भद्र रुद्राभिमर्शितम् ।
कीर्त्यमाने हृषीकेशे सन्निन्ये यज्ञभावने ॥ ४८ ॥
भगवान् स्वेन भागेन सर्वात्मा सर्वभागभुक् ।
दक्षं बभाष आभाष्य प्रीयमाण इवानघ ॥ ४९ ॥

श्रीभगवानुवाच -
अहं ब्रह्मा च शर्वश्च जगतः कारणं परम् ।
आत्मेश्वर उपद्रष्टा स्वयं दृगविशेषणः ॥ ५० ॥
आत्ममायां समाविश्य सोऽहं गुणमयीं द्विज ।
सृजन् रक्षन् हरन् विश्वं दध्रे संज्ञां क्रियोचिताम् ॥ ५१ ॥
तस्मिन् ब्रह्मण्यद्वितीये केवले परमात्मनि ।
ब्रह्मरुद्रौ च भूतानि भेदेनाज्ञोऽनुपश्यति ॥ ५२ ॥
यथा पुमान्न स्वाङ्‌गेषु शिरःपाण्यादिषु क्वचित् ।
पारक्यबुद्धिं कुरुते एवं भूतेषु मत्परः ॥ ५३ ॥
त्रयाणां एकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम् ।
सर्वभूतात्मनां ब्रह्मन् स शान्तिं अधिगच्छति ॥ ५४ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—भैया विदुर ! जब इस प्रकार सब लोग यज्ञरक्षक भगवान्‌ हृषीकेशकी स्तुति करने लगे, तब परम चतुर दक्षने रुद्रपार्षद वीरभद्रके ध्वंस किये हुए यज्ञको फिर आरम्भ कर दिया ॥ ४८ ॥ सर्वान्तर्यामी श्रीहरि यों तो सभीके भागोंके भोक्ता हैं; तथापि त्रिकपाल-पुरोडाशरूप अपने भागसे और भी प्रसन्न होकर उन्होंने दक्षको सम्बोधन करके कहा ॥ ४९ ॥
श्रीभगवान्‌ने कहा—जगत् का परम कारण मैं ही ब्रह्मा और महादेव हूँ; मैं सबका आत्मा, ईश्वर और साक्षी हूँ तथा स्वयम्प्रकाश और उपाधिशून्य हूँ ॥ ५० ॥ विप्रवर ! अपनी त्रिगुणात्मिका मायाको स्वीकार करके मैं ही जगत् की रचना, पालन और संहार करता रहता हूँ और मैंने ही उन कर्मोंके अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और शङ्कर—ये नाम धारण किये हैं ॥ ५१ ॥ ऐसा जो भेदरहित विशुद्ध परब्रह्मस्वरूप मैं हूँ, उसीमें अज्ञानी पुरुष ब्रह्मा, रुद्र तथा अन्य समस्त जीवोंको विभिन्न रूपसे देखता है ॥ ५२ ॥ जिस प्रकार मनुष्य अपने सिर, हाथ आदि अङ्गोंमें ‘ये मुझसे भिन्न हैं’ ऐसी बुद्धि कभी नहीं करता, उसी प्रकार मेरा भक्त प्राणिमात्रको मुझसे भिन्न नहीं देखता ॥ ५३ ॥ ब्रह्मन् ! हम—ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर—तीनों स्वरूपत: एक ही हैं और हम ही सम्पूर्ण जीवरूप हैं; अत: जो हममें कुछ भी भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है ॥ ५४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

अग्निरुवाच -
यत्तेजसाहं सुसमिद्धतेजा
     हव्यं वहे स्वध्वर आज्यसिक्तम् ।
तं यज्ञियं पञ्चविधं च पञ्चभिः
     स्विष्टं यजुर्भिः प्रणतोऽस्मि यज्ञम् ॥ ४१ ॥

देवा ऊचुः -
पुरा कल्पापाये स्वकृतमुदरीकृत्य विकृतं
     त्वमेवाद्यस्तस्मिन् सलिल उरगेन्द्राधिशयने ।
पुमान् शेषे सिद्धैर्हृदि विमृशिताध्यात्मपदविः
     स एवाद्याक्ष्णोर्यः पथि चरसि भृत्यानवसि नः ॥ ४२ ॥

गन्धर्वा ऊचुः -
अंशांशास्ते देव मरीच्यादय एते
     ब्रह्मेन्द्राद्या देवगणा रुद्रपुरोगाः ।
क्रीडाभाण्डं विश्वमिदं यस्य विभूमन्
     तस्मै नित्यं नाथ नमस्ते करवाम ॥ ४३ ॥

विद्याधरा ऊचुः -
त्वन्माययार्थमभिपद्य कलेवरेऽस्मिन्
     कृत्वा ममाहमिति दुर्मतिरुत्पथैः स्वैः ।
क्षिप्तोऽप्यसद्विषयलालस आत्ममोहं
     युष्मत्कथामृतनिषेवक उद्व्युदस्येत् ॥ ४४ ॥

ब्राह्मणा ऊचुः -
त्वं क्रतुस्त्वं हविस्त्वं हुताशः स्वयं
     त्वं हि मंत्रः समिद् दर्भपात्राणि च ।
त्वं सदस्यर्त्विजो दम्पती देवता
     अग्निहोत्रं स्वधा सोम आज्यं पशुः ॥ ४५ ॥
त्वं पुरा गां रसाया महासूकरो
     दंष्ट्रया पद्मिनीं वारणेन्द्रो यथा ।
स्तूयमानो नदन् लीलया योगिभिः
     व्युज्जहर्थ त्रयीगात्र यज्ञक्रतुः ॥ ४६ ॥
स प्रसीद त्वमस्माकं आकाङ्‌क्षतां
     दर्शनं ते परिभ्रष्टसत्कर्मणाम् ।
कीर्त्यमाने नृभिर्नाम्नि यज्ञेश ते
     यज्ञविघ्नाः क्षयं यान्ति तस्मै नमः ॥ ४७ ॥

(श्रीहरि को) अग्निदेव ने कहा—भगवन् ! आपके ही तेजसे प्रज्वलित होकर मैं श्रेष्ठ यज्ञोंमें देवताओंके पास घृतमिश्रित हवि पहुँचाता हूँ। आप साक्षात् यज्ञपुरुष एवं यज्ञकी रक्षा करनेवाले हैं। अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और पशु-सोम—ये पाँच प्रकारके यज्ञ आपके ही स्वरूप हैं तथा ‘आश्रावय’, ‘अस्तु श्रौषट्’, ‘यजे’, ‘ये यजामहे’ और ‘वषट्’—इन पाँच प्रकारके यजुर्मन्त्रोंसे आपका ही पूजन होता है। मैं आपको प्रणाम करता हूँ ॥ ४१ ॥
देवताओंने कहा—देव ! आप आदिपुरुष हैं। पूर्वकल्पका अन्त होनेपर अपने कार्यरूप इस प्रपञ्चको उदरमें लीनकर आपने ही प्रलयकालीन जलके भीतर शेषनागकी उत्तम शय्यापर शयन किया था। आपके आध्यात्मिक स्वरूपका जनलोकादिवासी सिद्धगण भी अपने हृदयमें चिन्तन करते हैं। अहो ! वही आप आज हमारे नेत्रोंके विषय होकर अपने भक्तोंकी रक्षा कर रहे हैं ॥ ४२ ॥
गन्धर्वोंने कहा—देव ! मरीचि आदि ऋषि और ये ब्रह्मा, इन्द्र तथा रुद्रादि देवतागण आपके अंशके भी अंश हैं। महत्तम ! यह सम्पूर्ण विश्व आपके खेलकी सामग्री है। नाथ ! ऐसे आपको हम सर्वदा प्रणाम करते हैं ॥ ४३ ॥
विद्याधरोंने कहा—प्रभो ! परम पुरुषार्थकी प्राप्तिके साधनरूप इस मानवदेहको पाकर भी जीव आपकी मायासे मोहित होकर इसमें मैं-मेरेपनका अभिमान कर लेता है। फिर वह दुर्बुद्धि अपने आत्मीयोंसे तिरस्कृत होनेपर भी असत् विषयोंकी ही लालसा करता रहता है। किन्तु ऐसी अवस्थामें भी जो आपके कथामृतका सेवन करता है, वह इस अन्त:करणके मोहको सर्वथा त्याग देता है ॥ ४४ ॥
ब्राह्मणोंने कहा—भगवन् ! आप ही यज्ञ हैं, आप ही हवि हैं, आप ही अग्रि हैं, स्वयं आप ही मन्त्र हैं; आप ही समिधा, कुशा और यज्ञपात्र हैं तथा आप ही सदस्य, ऋत्विज्, यजमान एवं उसकी धर्मपत्नी, देवता, अग्रिहोत्र, स्वधा, सोमरस, घृत और पशु हैं ॥ ४५ ॥ वेदमूर्ते ! यज्ञ और उसका सङ्कल्प दोनों आप ही हैं। पूर्वकालमें आप ही अति विशाल वराहरूप धारणकर रसातलमें डूबी हुई पृथ्वीको लीलासे ही अपनी दाढ़ोंपर उठाकर इस प्रकार निकाल लाये थे, जैसे कोई गजराज कमलिनीको उठा लाये। उस समय आप धीरे-धीरे गरज रहे थे और योगिगण आपका यह अलौकिक पुरुषार्थ देखकर आपकी स्तुति करते जाते थे ॥ ४६ ॥ यज्ञेश्वर ! जब लोग आपके नामका कीर्तन करते हैं, तब यज्ञके सारे विघ्न नष्ट हो जाते हैं। हमारा यह यज्ञस्वरूप सत्कर्म नष्ट हो गया था, अत: हम आपके दर्शनोंकी इच्छा कर रहे थे। अब आप हमपर प्रसन्न होइये। आपको नमस्कार है ॥ ४७ ॥

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शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

सिद्धा ऊचुः -
अयं त्वत्कथामृष्टपीयूषनद्यां
     मनोवारणः क्लेशदावाग्निदग्धः ।
तृषार्तोऽवगाढो न सस्मार दावं
     न निष्क्रामति ब्रह्मसम्पन्नवन्नः ॥ ३५ ॥

यजमान्युवाच -
स्वागतं ते प्रसीदेश तुभ्यं नमः
     श्रीनिवास श्रिया कान्तया त्राहि नः ।
त्वामृतेऽधीश नाङ्‌गैर्मखः शोभते
     शीर्षहीनः कबन्धो यथा पुरुषः ॥ ३६ ॥

लोकपाला ऊचुः -
दृष्टः किं नो दृग्भिरसद्ग्राहैस्त्वं
     प्रत्यग्द्रष्टा दृश्यते येन विश्वम् ।
माया ह्येषा भवदीया हि भूमन्
     यस्त्वं षष्ठः पञ्चभिर्भासि भूतैः ॥ ३७ ॥

योगेश्वरा ऊचुः -
प्रेयान्न तेऽन्योऽस्त्यमुतस्त्वयि प्रभो
     विश्वात्मनीक्षेन्न पृथग्य आत्मनः ।
अथापि भक्त्येश तयोपधावतां
     अनन्यवृत्त्यानुगृहाण वत्सल ॥ ३८ ॥
जगदुद्भकवस्थितिलयेषु दैवतो
     बहुभिद्यमानगुणयाऽऽत्ममायया ।
रचितात्मभेदमतये स्वसंस्थया
     विनिवर्तितभ्रमगुणात्मने नमः ॥ ३९ ॥

ब्रह्मोवाच -
नमस्ते श्रितसत्त्वाय धर्मादीनां च सूतये ।
निर्गुणाय च यत्काष्ठां नाहं वेदापरेऽपि च ॥ ४० ॥

(श्रीहरि को) सिद्धोंने कहा—प्रभो ! यह हमारा मनरूप हाथी नाना प्रकारके क्लेशरूप दावानलसे दग्ध एवं अत्यन्त तृषित होकर आपकी कथारूप विशुद्ध अमृतमयी सरितामें घुसकर गोता लगाये बैठा है। वहाँ ब्रह्मानन्दमें लीन-सा हो जानेके कारण उसे न तो संसाररूप दावानलका ही स्मरण है और न वह उस नदीसे बाहर ही निकलता है ॥ ३५ ॥
यजमानपत्नीने कहा—सर्वसमर्थ परमेश्वर ! आपका स्वागत है। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप मुझपर प्रसन्न होइये। लक्ष्मीपते ! अपनी प्रिया लक्ष्मीजीके सहित आप हमारी रक्षा कीजिये। यज्ञेश्वर ! जिस प्रकार सिरके बिना मनुष्यका धड़ अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार अन्य अङ्गोंसे पूर्ण होनेपर भी आपके बिना यज्ञकी शोभा नहीं होती ॥ ३६ ॥
लोकपालोंने कहा—अनन्त परमात्मन् ! आप समस्त अन्त:करणोंके साक्षी हैं, यह सारा जगत् आपके ही द्वारा देखा जाता है। तो क्या मायिक पदार्थोंको ग्रहण करनेवाली हमारी इन नेत्र आदि इन्द्रियोंसे कभी आप प्रत्यक्ष हो सके हैं ? वस्तुत: आप हैं तो पञ्चभूतोंसे पृथक्; फिर भी पाञ्चभौतिक शरीरोंके साथ जो आपका सम्बन्ध प्रतीत होता है, यह आपकी माया ही है ॥ ३७ ॥
योगेश्वरोंने कहा—प्रभो ! जो पुरुष सम्पूर्ण विश्वके आत्मा आपमें और अपनेमें कोई भेद नहीं देखता, उससे अधिक प्यारा आपको कोई नहीं है। तथापि भक्तवत्सल ! जो लोग आपमें स्वामिभाव रखकर अनन्य भक्तिसे आपकी सेवा करते हैं, उनपर भी आप कृपा कीजिये ॥ ३८ ॥ जीवोंके अदृष्टवश जिसके सत्त्वादि गुणोंमें बड़ी विभिन्नता आ जाती है, उस अपनी मायाके द्वारा जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके लिये ब्रह्मादि विभिन्न रूप धारण करके आप भेदबुद्धि पैदा कर देते हैं; किन्तु अपनी स्वरूप-स्थितिसे आप उस भेदज्ञान और उसके कारण सत्त्वादि गुणोंसे सर्वथा दूर हैं। ऐसे आपको हमारा नमस्कार है ॥ ३९ ॥
ब्रह्मस्वरूप वेदने कहा—आप ही धर्मादिकी उत्पत्तिके लिये शुद्ध सत्त्वको स्वीकार करते हैं, साथ ही आप निर्गुण भी हैं। अतएव आपका तत्त्व न तो मैं जानता हूँ और न ब्रह्मादि कोई और ही जानते हैं; आपको नमस्कार है ॥ ४० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

रुद्र उवाच -
तव वरद वराङ्‌घ्रावाशिषेहाखिलार्थे
     ह्यपि मुनिभिरसक्तैरादरेणार्हणीये ।
यदि रचितधियं माविद्यलोकोऽपविद्धं
     जपति न गणये तत्त्वत्परानुग्रहेण ॥ २९ ॥

भृगुरुवाच -
यन्मायया गहनयापहृतात्मबोधा
     ब्रह्मादयस्तनुभृतस्तमसि स्वपन्तः ।
नात्मन्श्रितं तव विदन्त्यधुनापि तत्त्वं
     सोऽयं प्रसीदतु भवान्प्रणतात्मबन्धुः ॥ ३० ॥

ब्रह्मोवाच -
नैतत्स्वरूपं भवतोऽसौ पदार्थ
     भेदग्रहैः पुरुषो यावदीक्षेत् ।
ज्ञानस्य चार्थस्य गुणस्य चाश्रयो
     मायामयाद् व्यतिरिक्तो मतस्त्वम् ॥ ३१ ॥

इन्द्र उवाच -
इदमप्यच्युत विश्वभावनं
     वपुरानन्दकरं मनोदृशाम् ।
सुरविद्विट्क्षपणैरुदायुधैः
     भुजदण्डैरुपपन्नमष्टभिः ॥ ३२ ॥

पत्न्य् ऊचुः -
यज्ञोऽयं तव यजनाय केन सृष्टो
     विध्वस्तः पशुपतिनाद्य दक्षकोपात् ।
तं नस्त्वं शवशयनाभशान्तमेधं
     यज्ञात्मन्नलिनरुचा दृशा पुनीहि ॥ ३३ ॥

ऋषय ऊचुः -
अनन्वितं ते भगवन् विचेष्टितं
     यदात्मना चरसि हि कर्म नाज्यसे ।
विभूतये यत उपसेदुरीश्वरीं
     न मन्यते स्वयमनुवर्ततीं भवान् ॥ ३४ ॥

(श्रीहरि को) रुद्रने कहा—वरदायक प्रभो ! आपके उत्तम चरण इस संसारमें सकाम पुरुषोंको सम्पूर्ण पुरुषार्थोंकी प्राप्ति करानेवाले हैं; और जिन्हें किसी भी वस्तुकी कामना नहीं है, वे निष्काम मुनिजन भी उनका आदरपूर्वक पूजन करते हैं। उनमें चित्त लगा रहनेके कारण यदि अज्ञानी लोग मुझे आचरण भ्रष्ट कहते हैं, तो कहें; आपके परम अनुग्रहसे मैं उनके कहने-सुननेका कोई विचार नहीं करता ॥ २९ ॥
भृगुजीने कहा—आपकी गहन मायासे आत्मज्ञान लुप्त हो जानेके कारण जो अज्ञान-निद्रामें सोये हुए हैं, वे ब्रह्मादि देहधारी आत्मज्ञानमें उपयोगी आपके तत्त्वको अभीतक नहीं जान सके। ऐसे होनेपर भी आप अपने शरणागत भक्तोंके तो आत्मा और सुहृद् हैं; अत: आप मुझपर प्रसन्न होइये ॥ ३० ॥
ब्रह्माजीने कहा—प्रभो ! पृथक्-पृथक् पदार्थोंको जाननेवाली इन्द्रियोंके द्वारा पुरुष जो कुछ देखता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि आप ज्ञान, शब्दादि विषय और श्रोत्रादि इन्द्रियोंके अधिष्ठान हैं—ये सब आपमें अध्यस्त हैं। अतएव आप इस मायामय प्रपञ्चसे सर्वथा अलग हैं ॥ ३१ ॥
इन्द्रने कहा—अच्युत ! आपका यह जगत्को प्रकाशित करनेवाला रूप देवद्रोहियोंका संहार करनेवाली आठ भुजाओंसे सुशोभित है, जिनमें आप सदा ही नाना प्रकारके आयुध धारण किये रहते हैं। यह रूप हमारे मन और नेत्रोंको परम आनन्द देनेवाला है ॥ ३२ ॥
याज्ञिकोंकी पत्नियोंने कहा—भगवन् ! ब्रह्माजीने आपके पूजनके लिये ही इस यज्ञकी रचना की थी; परन्तु दक्षपर कुपित होनेके कारण इसे भगवान्‌ पशुपतिने अब नष्ट कर दिया है। यज्ञमूर्ते ! श्मशानभूमि के समान उत्सवहीन हुए हमारे उस यज्ञको आप नील कमलकी-सी कान्तिवाले अपने नेत्रोंसे निहारकर पवित्र कीजिये ॥ ३३ ॥
ऋषियोंने कहा—भगवन् ! आपकी लीला बड़ी ही अनोखी है; क्योंकि आप कर्म करते हुए भी उनसे निर्लेप रहते हैं। दूसरे लोग वैभवकी भूखसे जिन लक्ष्मीजीकी उपासना करते हैं, वे स्वयं आपकी सेवामें लगी रहती हैं;तो भी आप उनका मान नहीं करते, उनसे नि:स्पृह रहते हैं ॥ ३४ ॥

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गुरुवार, 18 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

तमुपागतमालक्ष्य सर्वे सुरगणादयः ।
प्रणेमुः सहसोत्थाय ब्रह्मेन्द्रत्र्यक्षनायकाः ॥ २२ ॥
तत्तेजसा हतरुचः सन्नजिह्वाः ससाध्वसाः ।
मूर्ध्ना धृताञ्जलिपुटा उपतस्थुरधोक्षजम् ॥ २३ ॥
अप्यर्वाग्वृत्तयो यस्य महि त्वात्मभुवादयः ।
यथामति गृणन्ति स्म कृतानुग्रहविग्रहम् ॥ २४ ॥
दक्षो गृहीतार्हणसादनोत्तमं
     यज्ञेश्वरं विश्वसृजां परं गुरुम् ।
सुनन्दनन्दाद्यनुगैर्वृतं मुदा
     गृणन्प्रपेदे प्रयतः कृताञ्जलिः ॥ २५ ॥

दक्ष उवाच -
शुद्धं स्वधाम्न्युपरताखिलबुद्ध्यवस्थं
     चिन्मात्रमेकमभयं प्रतिषिध्य मायाम् ।
तिष्ठन् तयैव पुरुषत्वमुपेत्य तस्याम्
     आस्ते भवानपरिशुद्ध इवात्मतंत्र ॥ २६ ॥
ऋत्विज ऊचुः -
तत्त्वं न ते वयमनञ्जन रुद्रशापात्
     कर्मण्यवग्रहधियो भगवन् विदामः ।
धर्मोपलक्षणमिदं त्रिवृदध्वराख्यं
     ज्ञातं यदर्थमधिदैवमदो व्यवस्थाः ॥ २७ ॥

सदस्या ऊचुः -
उत्पत्त्यध्वन्यशरण उरुक्लेशदुर्गेऽन्तकोग्र
     व्यालान्विष्टे विषयमृगतृष्यात्मगेहोरुभारः ।
द्वन्द्वश्वभ्रे खलमृगभये शोकदावेऽज्ञसार्थः
     पादौकस्ते शरणद कदा याति कामोपसृष्टः ॥ २८ ॥

भगवान्‌ पधारे हैं—यह देखकर इन्द्र, ब्रह्मा और महादेवजी आदि देवेश्वरोंसहित समस्त देवता, गन्धर्व और ऋषि आदि ने सहसा खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया ॥ २२ ॥ उनके तेजसे सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी, जिह्वा लडख़ड़ाने लगी, वे सब-के-सब सकपका गये और मस्तकपर अञ्जलि बाँधकर भगवान्‌ के सामने खड़े हो गये ॥ २३ ॥ यद्यपि भगवान्‌ की महिमा तक ब्रह्मा आदि की मति भी नहीं पहुँच पाती, तो भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये दिव्यरूपमें प्रकट हुए श्रीहरिकी वे अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार स्तुति करने लगे ॥ २४ ॥ सबसे पहले प्रजापति दक्ष एक उत्तम पात्रमें पूजाकी सामग्री ले नन्द-सुनन्दादि पार्षदोंसे घिरे हुए, प्रजापतियोंके परम गुरु भगवान्‌ यज्ञेश्वरके पास गये और अति आनन्दित हो विनीतभावसे हाथ जोडक़र प्रार्थना करते प्रभुके शरणापन्न हुए ॥ २५ ॥
दक्षने कहा—भगवन् ! अपने स्वरूपमें आप बुद्धिकी जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओंसे रहित, शुद्ध, चिन्मय, भेदरहित, अतएव निर्भय हैं। आप मायाका तिरस्कार करके स्वतन्त्ररूपसे विराजमान हैं; तथापि जब मायासे ही जीवभावको स्वीकारकर उसी मायामें स्थित हो जाते हैं, तब अज्ञानी-से दीखने लगते हैं ॥ २६ ॥
ऋत्विजोंने कहा—उपाधिरहित प्रभो ! भगवान्‌ रुद्रके प्रधान अनुचर नन्दीश्वरके शापके कारण हमारी बुद्धि केवल कर्मकाण्डमें ही फँसी हुई है, अतएव हम आपके तत्त्वको नहीं जानते। जिसके लिये ‘इस कर्मका यही देवता है’ ऐसी व्यवस्था की गयी है—उस धर्मप्रवृत्तिके प्रयोजक, वेदत्रयीसे प्रतिपादित यज्ञको ही हम आपका स्वरूप समझते हैं ॥ २७ ॥
सदस्योंने कहा—जीवोंको आश्रय देनेवाले प्रभो ! जो अनेक प्रकारके क्लेशोंके कारण अत्यन्त दुर्गम है, जिसमें कालरूप भयङ्कर सर्प ताक में बैठा हुआ है, द्वन्द्वरूप अनेकों गढ़े हैं, दुर्जनरूप जंगली जीवोंका भय है तथा शोकरूप दावानल धधक रहा है—ऐसे, विश्राम-स्थलसे रहित संसारमार्गमें जो अज्ञानी जीव कामनाओंसे पीडि़त होकर विषयरूप मृगतृष्णाजलके लिये ही देह-गेहका भारी बोझा सिरपर लिये जा रहे हैं, वे भला आपके चरणकमलोंकी शरणमें कब आने लगे ॥ २८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

मैत्रेय उवाच -
क्षमाप्यैवं स मीढ्वांसं ब्रह्मणा चानुमंत्रितः ।
कर्म सन्तानयामास सोपाध्यायर्त्विगादिभिः ॥ १६ ॥
वैष्णवं यज्ञसन्तत्यै त्रिकपालं द्विजोत्तमाः ।
पुरोडाशं निरवपन् वीरसंसर्गशुद्धये ॥ १७ ॥
अध्वर्युणाऽऽत्त हविषा यजमानो विशाम्पते ।
धिया विशुद्धया दध्यौ तथा प्रादुरभूत् हरिः ॥ १८ ॥
तदा स्वप्रभया तेषां द्योतयन्त्या दिशो दश ।
मुष्णन् तेज उपानीतः तार्क्ष्येण स्तोत्रवाजिना ॥ १९ ॥
श्यामो हिरण्यरशनोऽर्ककिरीटजुष्टो
     नीलालक भ्रमरमण्डितकुण्डलास्यः ।
शङ्‌खाब्जचक्रशरचापगदासिचर्म
     व्यग्रैर्हिरण्मयभुजैः इव कर्णिकारः ॥ २० ॥
वक्षस्यधिश्रितवधूर्वनमाल्युदार
     हासावलोककलया रमयंश्च विश्वम् ।
पार्श्वभ्रमद्व्यजन चामरराजहंसः
     श्वेतातपत्रशशिनोपरि रज्यमानः ॥ २१ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—आशुतोष शङ्कर से इस प्रकार अपना अपराध क्षमा कराकर दक्ष ने ब्रह्माजीके कहनेपर उपाध्याय, ऋत्विज् आदिकी सहायतासे यज्ञकार्य आरम्भ किया ॥ १६ ॥ तब ब्राह्मणोंने यज्ञ सम्पन्न करनेके उद्देश्यसे रुद्रगण-सम्बन्धी भूत-पिशाचोंके संसर्गजनित दोषकी शान्तिके लिये तीन पात्रोंमें विष्णुभगवान्‌ के लिये तैयार किये हुए पुरोडाश नामक चरु का हवन किया ॥ १७ ॥ विदुरजी ! उस हविको हाथमें लेकर खड़े हुए अध्वर्युके साथ यजमान दक्ष ने ज्यों ही विशुद्ध चित्तसे श्रीहरिका ध्यान किया, त्यों ही सहसा भगवान्‌ वहाँ प्रकट हो गये ॥ १८ ॥ ‘बृहत्’ एवं ‘रथन्तर’ नामक साम-स्तोत्र जिनके पंख हैं, उन गरुडजीके द्वारा समीप लाये हुए भगवान्‌ ने दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई अपनी अङ्गकान्ति से सब देवताओं का तेज हर लिया—उनके सामने सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी ॥ १९ ॥ उनका श्याम वर्ण था, कमरमें सुवर्णकी करधनी तथा पीताम्बर सुशोभित थे। सिरपर सूर्यके समान देदीप्यमान मुकुट था, मुखकमल भौंरोंके समान नीली अलकावली और कान्तिमय कुण्डलोंसे शोभायमान था, उनके सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित आठ भुजाएँ थीं, जो भक्तोंकी रक्षाके लिये सदा उद्यत रहती हैं। आठों भुजाओंमें वे शङ्ख, पद्म, चक्र, बाण, धनुष, गदा, खड्ग और ढाल लिये हुए थे तथा इन सब आयुधोंके कारण वे फूले हुए कनेर के वृक्षके समान जान पड़ते थे ॥ २० ॥ प्रभुके हृदयमें श्रीवत्सका चिह्न था और सुन्दर वनमाला सुशोभित थी। वे अपने उदार हास और लीलामय कटाक्षसे सारे संसारको आनन्द- मग्र कर रहे थे। पार्षदगण दोनों ओर राजहंसके समान सफेद पंखे और चँवर डुला रहे थे। भगवान्‌के मस्तकपर चन्द्रमाके समान शुभ्र छत्र शोभा दे रहा था ॥ २१ ॥

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बुधवार, 17 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

मैत्रेय उवाच -
तदा सर्वाणि भूतानि श्रुत्वा मीढुष्टमोदितम् ।
परितुष्टात्मभिस्तात साधु साध्वित्यथाब्रुवन् ॥ ६ ॥
ततो मीढ्वांसमामन्त्र्य शुनासीराः सहर्षिभिः ।
भूयस्तद् देवयजनं समीढ्वद्वेधसो ययुः ॥ ७ ॥
विधाय कार्त्स्न्येन च तद् यदाह भगवान्भवः ।
सन्दधुः कस्य कायेन सवनीयपशोः शिरः ॥ ८ ॥
सन्धीयमाने शिरसि दक्षो रुद्राभिवीक्षितः ।
सद्यः सुप्त इवोत्तस्थौ ददृशे चाग्रतो मृडम् ॥ ९ ॥
तदा वृषध्वजद्वेष कलिलात्मा प्रजापतिः ।
शिवावलोकाद् अभवत् शरद्ध्रद इवामलः ॥ १० ॥
भवस्तवाय कृतधीः नाशक्नोत् अनुरागतः ।
औत्कण्ठ्याद् बाष्पकलया संपरेतां सुतां स्मरन् ॥ ११ ॥
कृच्छ्रात्संस्तभ्य च मनः प्रेमविह्वलितः सुधीः ।
शशंस निर्व्यलीकेन भावेनेशं प्रजापतिः ॥ १२ ॥

दक्ष उवाच -
भूयाननुग्रह अहो भवता कृतो मे
     दण्डस्त्वया मयि भृतो यदपि प्रलब्धः ।
न ब्रह्मबन्धुषु च वां भगवन् अवज्ञा
     तुभ्यं हरेश्च कुत एव धृतव्रतेषु ॥ १३ ॥
विद्यातपो व्रतधरान् मुखतः स्म विप्रान् ।
     ब्रह्माऽऽत्मतत्त्वमवितुं प्रथमं त्वमस्राक् ।
तद्ब्रापह्मणान् परम सर्वविपत्सु पासि ।
     पालः पशूनिव विभो प्रगृहीतदण्डः ॥ १४ ॥
योऽसौ मयाविदिततत्त्वदृशा सभायां
     क्षिप्तो दुरुक्तिविशिखैर्विगणय्य तन्माम् ।
अर्वाक् पतन्तमर्हत्तमनिन्दयापाद्
     दृष्ट्याऽऽर्द्रया स भगवान् स्वकृतेन तुष्येत् ॥ १५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—वत्स विदुर ! तब भगवान्‌ शङ्कर के वचन सुनकर सब लोग प्रसन्न चित्तसे ‘धन्य ! धन्य !’ कहने लगे ॥ ६ ॥ फिर सभी देवता और ऋषियोंने महादेवजीसे दक्षकी यज्ञशाला- में पधारनेकी प्रार्थना की और तब वे उन्हें तथा ब्रह्माजीको साथ लेकर वहाँ गये ॥ ७ ॥ वहाँ जैसा-जैसा भगवान्‌ शङ्कर ने कहा था, उसी प्रकार सब कार्य करके उन्होंने दक्षकी धड़ से यज्ञपशु का सिर जोड़ दिया ॥ ८ ॥ सिर जुड़ जाने पर रुद्र-देव की दृष्टि पड़ते ही दक्ष तत्काल सोकर जागने के समान जी उठे और अपने सामने भगवान्‌ शिवको देखा ॥ ९ ॥ दक्ष का शङ्करद्रोह की कालिमा से कलुषित हृदय उनका दर्शन करने से शरत्कालीन सरोवरके समान स्वच्छ हो गया ॥ १० ॥ उन्होंने महादेवजीकी स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी मरी हुई बेटी सतीका स्मरण हो आनेसे स्नेह और उत्कण्ठाके कारण उनके नेत्रोंमें आँसू भर आये। उनके मुखसे शब्द न निकल सका ॥ ११ ॥ प्रेमसे विह्वल, परम बुद्धिमान् प्रजापतिने जैसे-तैसे अपने हृदयके आवेगको रोककर विशुद्धभावसे भगवान्‌ शिवकी स्तुति करनी आरम्भ की ॥ १२ ॥
दक्षने कहा—भगवन् ! मैंने आपका अपराध किया था, किन्तु आपने उसके बदलेमें मुझे दण्डके द्वारा शिक्षा देकर बड़ा ही अनुग्रह किया है। अहो ! आप और श्रीहरि तो आचारहीन, नाममात्रके ब्राह्मणोंकी भी उपेक्षा नहीं करते—फिर हम-जैसे यज्ञ-यागादि करनेवालोंको क्यों भूलेंगे ॥ १३ ॥ विभो ! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्त्वकी रक्षाके लिये अपने मुखसे विद्या, तप और व्रतादिके धारण करनेवाले ब्राह्मणोंको उत्पन्न किया था। जैसे चरवाहा लाठी लेकर गौओंकी रक्षा करता है, उसी प्रकार आप उन ब्राह्मणोंकी सब विपत्तियोंसे रक्षा करते हैं ॥ १४ ॥ मैं आपके तत्त्वको नहीं जानता था, इसीसे मैंने भरी सभामें आपको अपने वाग्बाणोंसे बेधा था। किन्तु आपने मेरे उस अपराधका कोई विचार नहीं किया। मैं तो आप-जैसे पूज्यतम महानुभावोंका अपराध करनेके कारण नरकादि नीच लोकोंमें गिरनेवाला था, परन्तु आपने अपनी करुणाभरी दृष्टिसे मुझे उबार लिया। अब भी आपको प्रसन्न करनेयोग्य मुझमें कोई गुण नहीं है; बस, आप अपने ही उदारतापूर्ण बर्तावसे मुझपर प्रसन्न हों ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

मैत्रेय उवाच -
इत्यजेनानुनीतेन भवेन परितुष्यता ।
अभ्यधायि महाबाहो प्रहस्य श्रूयतामिति ॥ १ ॥

महादेव उवाच -
नाघं प्रजेश बालानां वर्णये नानुचिन्तये ।
देवमायाभिभूतानां दण्डस्तत्र धृतो मया ॥ २ ॥
प्रजापतेर्दग्धशीर्ष्णो भवत्वजमुखं शिरः ।
मित्रस्य चक्षुषेक्षेत भागं स्वं बर्हिषो भगः ॥ ३ ॥
पूषा तु यजमानस्य दद्‌भिर्जक्षतु पिष्टभुक् ।
देवाः प्रकृतसर्वाङ्‌गा ये मे उच्छेषणं ददुः ॥ ४ ॥
बाहुभ्यां अश्विनोः पूष्णो हस्ताभ्यां कृतबाहवः ।
भवन्तु अध्वर्यवश्चान्ये बस्तश्मश्रुर्भृगुर्भवेत् ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—महाबाहो विदुरजी ! ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भगवान्‌ शङ्करने प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए कहा—सुनिये ॥ १ ॥
श्रीमहादेवजीने कहा—‘प्रजापते ! भगवान्‌की मायासे मोहित हुए दक्ष-जैसे नासमझों के अपराधकी न तो मैं चर्चा करता हूँ और न याद ही। मैंने तो केवल सावधान करनेके लिये ही उन्हें थोड़ा-सा दण्ड दे दिया ॥ २ ॥ दक्षप्रजापति का सिर जल गया है, इसलिये उनके बकरे का सिर लगा दिया जाय; भगदेव मित्रदेवता के नेत्रों से अपना यज्ञभाग देखें ॥ ३ ॥ पूषा पिसा हुआ अन्न खानेवाले हैं, वे उसे यजमानके दाँतोंसे भक्षण करें तथा अन्य सब देवताओंके अङ्ग-प्रत्यङ्ग भी स्वस्थ हो जायँ; क्योंकि उन्होंने यज्ञसे बचे हुए पदार्थोंको मेरा भाग निश्चित किया है ॥ ४ ॥ अध्वर्यु आदि याज्ञिकों में से जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमारकी भुजाओंसे और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषाके हाथोंसे काम करें तथा भृगुजीके बकरेकी-सी दाढ़ी-मूँछ हो जाय’ ॥ ५ ॥

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मंगलवार, 16 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना

ब्रह्मोवाच -
जाने त्वामीशं विश्वस्य जगतो योनिबीजयोः ।
शक्तेः शिवस्य च परं यत्तद्ब्रह्मा निरन्तरम् ॥ ४२ ॥
त्वमेव भगवन् एतत् शिवशक्त्योः स्वरूपयोः ।
विश्वं सृजसि पास्यत्सि क्रीडन् ऊर्णपटो यथा ॥ ४३ ॥
त्वमेव धर्मार्थदुघाभिपत्तये
     दक्षेण सूत्रेण ससर्जिथाध्वरम् ।
त्वयैव लोकेऽवसिताश्च सेतवो
     यान्ब्राह्मणाः श्रद्दधते धृतव्रताः ॥ ४४ ॥
त्वं कर्मणां मङ्‌गल मङ्‌गलानां
     कर्तुः स्वलोकं तनुषे स्वः परं वा ।
अमङ्‌गलानां च तमिस्रमुल्बणं
     विपर्ययः केन तदेव कस्यचित् ॥ ४५ ॥
न वै सतां त्वत् चरणार्पितात्मनां
     भूतेषु सर्वेष्वभिपश्यतां तव ।
भूतानि चात्मन्यपृथग्दिदृक्षतां
     प्रायेण रोषोऽभिभवेद्यथा पशुम् ॥ ४६ ॥
पृथग्धियः कर्मदृशो दुराशयाः
     परोदयेनार्पितहृद्रुजोऽनिशम् ।
परान् दुरुक्तैर्वितुदन्त्यरुन्तुदाः
     तान्मावधीद् दैववधान् भवद्विधः ॥ ४७ ॥
यस्मिन्यदा पुष्करनाभमायया
     दुरन्तया स्पृष्टधियः पृथग्दृशः ।
कुर्वन्ति तत्र ह्यनुकम्पया कृपां
     न साधवो दैवबलात्कृते क्रमम् ॥ ४८ ॥
भवांस्तु पुंसः परमस्य मायया
     दुरन्तयास्पृष्टमतिः समस्तदृक् ।
तया हतात्मस्वनुकर्मचेतः
     स्वनुग्रहं कर्तुमिहार्हसि प्रभो ॥ ४९ ॥
कुर्वध्वरस्योद्धरणं हतस्य भोः
     त्वयासमाप्तस्य मनो प्रजापतेः ।
न यत्र भागं तव भागिनो ददुः
     कुयाजिनो येन मखो निनीयते ॥ ५० ॥
जीवताद् यजमानोऽयं प्रपद्येताक्षिणी भगः ।
भृगोः श्मश्रूणि रोहन्तु पूष्णो दन्ताश्च पूर्ववत् ॥ ५१ ॥
देवानां भग्नगात्राणां ऋत्विजां चायुधाश्मभिः ।
भवतानुगृहीतानां आशु मन्योऽस्त्वनातुरम् ॥ ५२ ॥
एष ते रुद्र भागोऽस्तु यदुच्छिष्टोऽध्वरस्य वै ।
यज्ञस्ते रुद्र भागेन कल्पतां अद्य यज्ञहन् ॥ ५३ ॥

श्रीब्रह्माजीने (शङ्कर जी से) कहा—देव ! मैं जानता हूँ, आप सम्पूर्ण जगत् के  स्वामी हैं; क्योंकि विश्वकी योनि शक्ति (प्रकृति) और उसके बीज शिव (पुरुष)-से परे जो एकरस परब्रह्म है, वह आप ही हैं ॥ ४२ ॥ भगवन् ! आप मकड़ीके समान ही अपने स्वरूपभूत शिव-शक्तिके रूपमें क्रीडा करते हुए लीलासे ही संसारकी रचना, पालन और संहार करते रहते हैं ॥ ४३ ॥ आपने ही धर्म और अर्थकी प्राप्ति करानेवाले वेदकी रक्षाके लिये दक्षको निमित्त बनाकर यज्ञको प्रकट किया है। आपकी ही बाँधी हुई ये वर्णाश्रमकी मर्यादाएँ हैं, जिनका नियमनिष्ठ ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं ॥ ४४ ॥ मङ्गलमय महेश्वर ! आप शुभ कर्म करनेवालोंको स्वर्गलोक अथवा मोक्षपद प्रदान करते हैं तथा पापकर्म करनेवालोंको घोर नरकोंमें डालते हैं। फिर भी किसी- किसी व्यक्तिके लिये इन कर्मोंका फल उलटा कैसे हो जाता है ? ॥ ४५ ॥
जो महानुभाव आपके चरणोंमें अपनेको समर्पित कर देते हैं, जो समस्त प्राणियोंमें आपकी ही झाँकी करते हैं और समस्त जीवोंको अभेददृष्टिसे आत्मामें ही देखते हैं, वे पशुओंके समान प्राय: क्रोधके अधीन नहीं होते ॥ ४६ ॥ जो लोग भेदबुद्धि होनेके कारण कर्मोंमें ही आसक्त हैं, जिनकी नीयत अच्छी नहीं है, दूसरोंकी उन्नति देखकर जिनका चित्त रात-दिन कुढ़ा करता है और जो मर्मभेदी अज्ञानी अपने दुर्वचनोंसे दूसरोंका चित्त दुखाया करते हैं, आप-जैसे महापुरुषोंके लिये उन्हें भी मारना उचित नहीं है; क्योंकि वे बेचारे तो विधाताके ही मारे हुए हैं ॥ ४७ ॥ देवदेव ! भगवान्‌ कमलनाभकी प्रबल मायासे मोहित हो जानेके कारण यदि किसी पुरुषकी कभी किसी स्थानमें भेदबुद्धि होती है, तो भी साधु पुरुष अपने परदु:खकातर स्वभावके कारण उसपर कृपा ही करते हैं; दैववश जो कुछ हो जाता है, वे उसे रोकनेका प्रयत्न नहीं करते ॥ ४८ ॥
प्रभो ! आप सर्वज्ञ हैं, परम पुरुष भगवान्‌की दुस्तर मायाने आपकी बुद्धिका स्पर्श भी नहीं किया है। अत: जिनका चित्त उसके वशीभूत होकर कर्ममार्गमें आसक्त हो रहा है, उनके द्वारा अपराध बन जाय, तो भी उनपर आपको कृपा ही करनी चाहिये ॥ ४९ ॥ भगवन् ! आप सबके मूल हैं। आप ही सम्पूर्ण यज्ञोंको पूर्ण करनेवाले हैं। यज्ञभाग पानेका भी आपको पूरा अधिकार है। फिर भी इस दक्षयज्ञके बुद्धिहीन याजकोंने आपको यज्ञभाग नहीं दिया। इसीसे यह आपके द्वारा विध्वस्त हुआ। अब आप इस अपूर्ण यज्ञका पुनरुद्धार करनेकी कृपा करें ॥ ५० ॥ प्रभो ! ऐसा कीजिये, जिससे यजमान दक्ष फिर जी उठे, भगदेवताको नेत्र मिल जायँ, भृगुजीके दाढ़ी-मूँछ आ जायँ और पूषाके पहलेके ही समान दाँत निकल आयें ॥ ५१ ॥ रुद्रदेव ! अस्त्र-शस्त्र और पत्थरोंकी बौछारसे जिन देवता और ऋत्विजोंके अङ्ग-प्रत्यङ्ग घायल हो गये हैं, आपकी कृपासे वे फिर ठीक हो जायँ ॥ ५२ ॥ यज्ञ सम्पूर्ण होनेपर जो कुछ शेष रहे, वह सब आपका भाग होगा। यज्ञविध्वंसक ! आज यह यज्ञ आपके ही भागसे पूर्ण हो ॥ ५३ ॥

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[1] तर्जनीको अंगूठेसे जोडक़र अन्य अंगुलियोंको आपसमें मिलाकर फैला देनेसे जो बन्ध सिद्ध होता है, उसे ‘तर्कमुद्रा’ कहते हैं। इसका नाम ‘ज्ञानमुद्रा’ भी है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे रुद्रसान्त्वनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बाईसवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५) महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश भ्रश्यत्यनु स्मृतिश्च...