शनिवार, 8 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

नित्य आत्माव्ययः शुद्धः सर्वगः सर्ववित्परः ।
धत्तेऽसावात्मनो लिङ्गं मायया विसृजन् गुणान् ॥ २२॥
यथाम्भसा प्रचलता तरवोऽपि चला इव ।
चक्षुषा भ्राम्यमाणेन दृश्यते चलतीव भूः ॥ २३॥
एवं गुणैर्भ्राम्यमाणे मनस्यविकलः पुमान् ।
याति तत्साम्यतां भद्रे ह्यलिङ्गो लिङ्गवानिव ॥ २४॥
एष आत्मविपर्यासो ह्यलिङ्गे लिङ्गभावना ।
एष प्रियाप्रियैर्योगो वियोगः कर्मसंसृतिः ॥ २५॥

वास्तव में आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, सर्वगत, सर्वज्ञ और देह-इन्द्रिय आदि से पृथक् है। वह अपनी अविद्या से ही देह आदि की सृष्टि करके भोगों के साधन सूक्ष्मशरीर को स्वीकार करता है ॥ २२ ॥ जैसे हिलते हुए पानी के साथ उस में प्रतिबिम्बित होनेवाले वृक्ष भी हिलते-से जान पड़ते हैं और घुमायी जाती हुई आँख के साथ सारी पृथ्वी ही घूमती-सी दिखायी देती है, कल्याणी ! वैसे ही विषयों के कारण मन भटकने लगता है और वास्तव में निर्विकार होनेपर भी उसीके समान आत्मा भी भटकता हुआ-सा जान पड़ता है। उसका स्थूल और सूक्ष्मशरीरों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह सम्बन्धी-सा जान पड़ता है ॥ २३-२४ ॥ सब प्रकार से शरीररहित आत्मा को शरीर समझ लेनायही तो अज्ञान है। इसी से प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुओं का मिलना और बिछुडऩा होता है । इसी से कर्मों के साथ सम्बन्ध हो जाने के कारण संसार में भटकना पड़ता है ॥२५॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

हिरण्यकशिपुर्भ्रातुः सम्परेतस्य दुःखितः ।
कृत्वा कटोदकादीनि भ्रातृपुत्रानसान्त्वयत् ॥ १७॥
शकुनिं शम्बरं धृष्टिं भूतसन्तापनं वृकम् ।
कालनाभं महानाभं हरिश्मश्रुमथोत्कचम् ॥ १८॥
तन्मातरं रुषाभानुं दितिं च जननीं गिरा ।
श्लक्ष्णया देशकालज्ञ इदमाह जनेश्वर ॥ १९॥

श्रीहिरण्यकशिपुरुवाच
अम्बाम्ब हे वधूः पुत्रा वीरं मार्हथ शोचितुम् ।
रिपोरभिमुखे श्लाघ्यः शूराणां वध ईप्सितः ॥ २०॥
भूतानामिह संवासः प्रपायामिव सुव्रते ।
दैवेनैकत्र नीतानामुन्नीतानां स्वकर्मभिः ॥ २१॥

युधिष्ठिर ! भाई की मृत्यु से हिरण्यकशिपु को बड़ा दु:ख हुआ था। जब उसने उसकी अन्त्येष्टि क्रियासे छुट्टी पा ली, तब शकुनि, शम्बर, धृष्ट, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु और उत्कच अपने इन भतीजों को सान्त्वना दी ॥ १७-१८ ॥ उनकी माता रुषाभानु को और अपनी माता दिति को देश-काल के अनुसार मधुर वाणीसे समझाते हुए कहा ॥ १९ ॥
हिरण्यकशिपु ने कहामेरी प्यारी माँ, बहू और पुत्रो ! तुम्हें वीर हिरण्याक्ष के लिये किसी प्रकार का शोक नहीं करना चाहिये। वीर पुरुष तो ऐसा चाहते ही हैं कि लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के सामने उसके दाँत खट्टे करके प्राण त्याग करें; वीरों के लिये ऐसी ही मृत्यु श्लाघनीय होती है ॥ २० ॥ देवि ! जैसे प्याऊ पर बहुत-से लोग इकट्ठे हो जाते हैं, परंतु उनका मिलना-जुलना थोड़ी देरके लिये ही होता हैवैसे ही अपने कर्मों के फेर से दैववश जीव भी मिलते और बिछुड़ते हैं ॥ २१ ॥

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शुक्रवार, 7 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

विष्णुर्द्विजक्रियामूलो यज्ञो धर्ममयः पुमान् ।
देवर्षिपितृभूतानां धर्मस्य च परायणम् ॥ ११॥
यत्र यत्र द्विजा गावो वेदा वर्णाश्रमक्रियाः ।
तं तं जनपदं यात सन्दीपयत वृश्चत ॥ १२॥
इति ते भर्तृनिर्देशमादाय शिरसादृताः ।
तथा प्रजानां कदनं विदधुः कदनप्रियाः ॥ १३॥
पुरग्रामव्रजोद्यान क्षेत्रारामाश्रमाकरान् ।
खेटखर्वटघोषांश्च ददहुः पत्तनानि च ॥ १४॥
केचित्खनित्रैर्बिभिदुः सेतुप्राकारगोपुरान् ।
आजीव्यांश्चिच्छिदुर्वृक्षान् केचित्परशुपाणयः ।
प्रादहन् शरणान्येके प्रजानां ज्वलितोल्मुकैः ॥ १५॥
एवं विप्रकृते लोके दैत्येन्द्रानुचरैर्मुहुः ।
दिवं देवाः परित्यज्य भुवि चेरुरलक्षिताः ॥ १६॥

विष्णु की जड़ है द्विजातियोंका धर्म-कर्म; क्योंकि यज्ञ और धर्म ही उसके स्वरूप हैं। देवता, ऋषि, पितर, समस्त प्राणी और धर्मका वही परम आश्रय है ॥११॥ जहाँ-जहाँ ब्राह्मण, गाय, वेद, वर्णाश्रम और धर्म-कर्म हों, उन-उन देशों में तुम लोग जाओ, उन्हें जला दो,उजाड़ डालो॥१२॥ दैत्य तो स्वभाव से ही लोगों को सताकर सुखी होते हैं। दैत्यराज हिरण्यकशिपु की आज्ञा उन्होंने बड़े आदर से सिर झुकाकर स्वीकार की और उसी के अनुसार जनता का नाश करने लगे ॥ १३ ॥ उन्होंने नगर, गाँव, गौओं के रहनेके स्थान, बगीचे, खेत, टहलने के स्थान, ऋषियोंके आश्रम, रत्न आदि की खानें, किसानों की बस्तियाँ, तराई के गाँव,अहीरों की बस्तियाँ और व्यापार के केन्द्र बड़े-बड़े नगर जला डाले ॥ १४ ॥ कुछ दैत्यों ने खोदने के शस्त्रों से बड़े-बड़े पुल, परकोटे और नगर के फाटकों को तोड़-फोड़ डाला तथा दूसरों ने कुल्हाडिय़ों से फले-फूले, हरे-भरे पेड़ काट डाले। कुछ दैत्योंने जलती हुई लकडिय़ों से लोगों के घर जला दिये ॥ १५ ॥ इस प्रकार दैत्यों ने निरीह प्रजाका बड़ा उत्पीडऩ किया। उस समय देवतालोग स्वर्ग छोडक़र छिपे रूपसे पृथ्वी में विचरण करते थे ॥ १६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

तस्य त्यक्तस्वभावस्य घृणेर्मायावनौकसः ।
भजन्तं भजमानस्य बालस्येवास्थिरात्मनः ॥ ७॥
मच्छूलभिन्नग्रीवस्य भूरिणा रुधिरेण वै ।
असृक्प्रियं तर्पयिष्ये भ्रातरं मे गतव्यथः ॥ ८॥
तस्मिन् कूटेऽहिते नष्टे कृत्तमूले वनस्पतौ ।
विटपा इव शुष्यन्ति विष्णुप्राणा दिवौकसः ॥ ९॥
तावद्यात भुवं यूयं ब्रह्मक्षत्रसमेधिताम् ।
सूदयध्वं तपोयज्ञ स्वाध्यायव्रतदानिनः ॥ १० ॥

(हिरण्यकशिपु दैत्यो और दानवो से कह रहा है) यह विष्णु पहले तो बड़ा शुद्ध और निष्पक्ष था । परंतु अब माया से वराह आदि रूप धारण करने लगा है और अपने स्वभाव से च्युत हो गया है। बच्चे की तरह जो उसकी सेवा करे, उसी की ओर हो जाता है। उसका चित्त स्थिर नहीं है ॥७॥ अब मैं अपने इस शूल से उसका गला काट डालूँगा और उसके खूनकी धारा से अपने रुधिरप्रेमी भाई का तर्पण करूँगा। तब कहीं मेरे हृदयकी पीड़ा शान्त होगी ॥ ८ ॥ उस मायावी शत्रुके नष्ट होनेपर, पेडक़ी जड़ कट जानेपर डालियों की तरह सब देवता अपने-आप सूख जायँगे। क्योंकि उनका जीवन तो विष्णु ही है ॥ ९ ॥ इसलिये तुमलोग इसी समय पृथ्वीपर जाओ। आजकल वहाँ ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी बहुत बढ़ती हो गयी है। वहाँ जो लोग तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और दानादि शुभ कर्म कर रहें हों, उन सबको मार डालो ॥ १० ॥

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गुरुवार, 6 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

श्रीनारद उवाच

भ्रातर्येवं विनिहते हरिणा क्रोडमूर्तिना ।
हिरण्यकशिपू राजन् पर्यतप्यद्रुषा शुचा ॥ १॥
आह चेदं रुषा पूर्णः सन्दष्टदशनच्छदः ।
कोपोज्ज्वलद्भ्यां चक्षुर्भ्यां निरीक्षन् धूम्रमम्बरम् ॥ २॥
करालदंष्ट्रोग्रदृष्ट्या दुष्प्रेक्ष्यभ्रुकुटीमुखः ।
शूलमुद्यम्य सदसि दानवानिदमब्रवीत् ॥ ३॥
भो भो दानवदैतेया द्विमूर्धंस्त्र्यक्ष शम्बर ।
शतबाहो हयग्रीव नमुचे पाक इल्वल ॥ ४ ॥
विप्रचित्ते मम वचः पुलोमन् शकुनादयः ।
शृणुतानन्तरं सर्वे क्रियतामाशु मा चिरम् ॥ ५॥
सपत्नैर्घातितः क्षुद्रैर्भ्राता मे दयितः सुहृत् ।
पार्ष्णिग्राहेण हरिणा समेनाप्युपधावनैः ॥ ६॥

नारदजीने कहायुधिष्ठिर ! जब भगवान्‌ ने वराहावतार धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला, तब भाई के इस प्रकार मारे जाने पर हिरण्यकशिपु रोष से जल-भुन गया और शोक से सन्तप्त हो उठा ॥ १ ॥ वह क्रोध से काँपता हुआ अपने दाँतों से बार-बार होठ चबाने लगा । क्रोध से दहकती हुई आँखों की आग के धूएँ से धूमिल हुए आकाश की ओर देखता हुआ वह कहने लगा ॥ २ ॥ उस समय विकराल दाढ़ों, आग उगलनेवाली उग्र दृष्टि और चढ़ी हुई भौंहों के कारण उसका मुँह देखा न जाता था। भरी सभा में त्रिशूल उठाकर उसने द्विमूर्धा, त्र्यक्ष, शम्बर, शतबाहु, हयग्रीव, नमुचि, पाक, इल्वल, विप्रचित्ति, पुलोमा और शकुन आदिको सम्बोधन करके कहा—‘दैत्यो और दानवो ! तुम सब लोग मेरी बात सुनो और उसके बाद जैसे मैं कहता हूँ, वैसे करो ॥ ३५ ॥ तुम्हें यह ज्ञात है कि मेरे क्षुद्र शत्रुओं ने मेरे परम प्यारे और हितैषी भाई को विष्णु से मरवा डाला है। यद्यपि वह देवता और दैत्य दोनोंके प्रति समान है, तथापि दौड़-धूप और अनुनय-विनय करके देवताओं ने उसे अपने पक्षमें कर लिया है ॥ ६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट११)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट११)

नारद-युधिष्ठिर-संवाद और जय-विजय की कथा

ततस्तौ राक्षसौ जातौ केशिन्यां विश्रवःसुतौ
रावणः कुम्भकर्णश्च सर्वलोकोपतापनौ ||४३||
तत्रापि राघवो भूत्वा न्यहनच्छापमुक्तये
रामवीर्यं श्रोष्यसि त्वं मार्कण्डेयमुखात्प्रभो ||४४||
तावत्र क्षत्रियौ जातौ मातृष्वस्रात्मजौ तव
अधुना शापनिर्मुक्तौ कृष्णचक्रहतांहसौ ||४५||
वैरानुबन्धतीव्रेण ध्यानेनाच्युतसात्मताम्
नीतौ पुनर्हरेः पार्श्वं जग्मतुर्विष्णुपार्षदौ ||४६||

श्रीयुधिष्ठिर उवाच
विद्वेषो दयिते पुत्रे कथमासीन्महात्मनि
ब्रूहि मे भगवन्येन प्रह्लादस्याच्युतात्मता ||४७|

युधिष्ठिर ! वे ही दोनों विश्रवा मुनिके द्वारा केशिनी (कैकसी) के गर्भ से राक्षसों के रूपमें पैदा हुए। उनका नाम था रावण और कुम्भकर्ण। उनके उत्पातोंसे सब लोकों में आग-सी लग गयी थी ॥ ४३ ॥ उस समय भी भगवान्‌ ने उन्हें शाप से छुड़ाने के लिये रामरूप से उनका वध किया। युधिष्ठिर ! मार्कण्डेय मुनि के मुख से तुम भगवान्‌ श्रीरामका चरित्र सुनोगे ॥ ४४ ॥ वे ही दोनों जय-विजय इस जन्ममें तुम्हारी मौसीके लडक़े शिशुपाल और दन्तवक्त्रके रूपमें क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हुए थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णके चक्रका स्पर्श प्राप्त हो जानेसे उनके सारे पाप नष्ट हो गये और वे सनकादिके शापसे मुक्त हो गये ॥ ४५ ॥ वैरभाव के कारण निरन्तर ही वे भगवान्‌ श्रीकृष्णका चिन्तन किया करते थे। उसी तीव्र तन्मयता के फलस्वरूप वे भगवान्‌को प्राप्त हो गये और पुन: उनके पार्षद होकर उन्हींके समीप चले गये ॥ ४६ ॥
युधिष्ठिरजीने पूछाभगवन् ! हिरण्यकशिपु ने अपने स्नेहभाजन पुत्र प्रह्लाद से इतना द्वेष क्यों किया ? फिर प्रह्लाद तो महात्मा थे ! साथ ही यह भी बतलाइये कि किस साधन से प्रह्लाद भगवन्मय हो गये ॥ ४७ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरितोपक्रमे प्रथमोऽध्यायः

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बुधवार, 5 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट१०)

नारद-युधिष्ठिर-संवाद और जय-विजय की कथा

जज्ञाते तौ दितेः पुत्रौ दैत्यदानववन्दितौ
हिरण्यकशिपुर्ज्येष्ठो हिरण्याक्षोऽनुजस्ततः ||३९||
हतो हिरण्यकशिपुर्हरिणा सिंहरूपिणा
हिरण्याक्षो धरोद्धारे बिभ्रता शौकरं वपुः ||४०||
हिरण्यकशिपुः पुत्रं प्रह्लादं केशवप्रियम्
जिघांसुरकरोन्नाना यातना मृत्युहेतवे ||४१||
तं सर्वभूतात्मभूतं प्रशान्तं समदर्शनम्
भगवत्तेजसा स्पृष्टं नाशक्नोद्धन्तुमुद्यमैः ||४२||

युधिष्ठिर ! वे ही दोनों दिति के पुत्र हुए। उनमें बड़े का नाम हिरण्यकशिपु था और उससे छोटे का हिरण्याक्ष। दैत्य और दानवोंके समाजमें यही दोनों सर्वश्रेष्ठ थे ॥ ३९ ॥ विष्णुभगवान्‌ ने नृसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकशिपु को और पृथ्वी का उद्धार करनेके समय वराहावतार ग्रहण करके हिरण्याक्ष को मारा ॥ ४० ॥ हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवत्प्रेमी होनेके कारण मार डालना चाहा और इसके लिये उन्हें बहुत-सी यातनाएँ दीं ॥ ४१ ॥ परंतु प्रह्लाद सर्वात्मा भगवान्‌ के परम प्रिय हो चुके थे, समदर्शी हो चुके थे। उनके हृदयमें अटल शान्ति थी। भगवान्‌ के प्रभाव से वे सुरक्षित थे। इसलिये तरह-तरह से चेष्टा करनेपर भी हिरण्यकशिपु उनको मार डालनेमें समर्थ न हुआ ॥ ४२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०९)

नारद-युधिष्ठिर-संवाद और जय-विजय की कथा

श्रीयुधिष्ठिर उवाच
कीदृशः कस्य वा शापो हरिदासाभिमर्शनः
अश्रद्धेय इवाभाति हरेरेकान्तिनां भवः ||३३||
देहेन्द्रि यासुहीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम्
देहसम्बन्धसम्बद्धमेतदाख्यातुमर्हसि ||३४||

श्रीनारद उवाच
एकदा ब्रह्मणः पुत्रा विष्णुलोकं यदृच्छया
सनन्दनादयो जग्मुश्चरन्तो भुवनत्रयम् ||३५||
पञ्चषड्ढायनार्भाभाः पूर्वेषामपि पूर्वजाः
दिग्वाससः शिशून्मत्वा द्वाःस्थौ तान्प्रत्यषेधताम् ||३६||
अशपन्कुपिता एवं युवां वासं न चार्हथः
रजस्तमोभ्यां रहिते पादमूले मधुद्विषः
पापिष्ठामासुरीं योनिं बालिशौ यातमाश्वतः ||३७||
एवं शप्तौ स्वभवनात्पतन्तौ तौ कृपालुभिः
प्रोक्तौ पुनर्जन्मभिर्वां त्रिभिर्लोकाय कल्पताम् ||३८||

राजा युधिष्ठिरने पूछानारदजी ! भगवान्‌ के पार्षदों को भी प्रभावित करनेवाला वह शाप किसने दिया था तथा वह कैसा था ? भगवान्‌ के अनन्य प्रेमी फिर जन्म-मृत्युमय संसार में आयें, यह बात तो कुछ अविश्वसनीय-सी मालूम पड़ती है ॥ ३३ ॥ वैकुण्ठ के रहनेवाले लोग प्राकृत शरीर, इन्द्रिय और प्राणोंसे रहित होते हैं। उनका प्राकृत शरीरसे सम्बन्ध किस प्रकार हुआ, यह बात आप अवश्य सुनाइये ॥ ३४ ॥
नारदजीने कहाएक दिन ब्रह्मा के मानसपुत्र सनकादि ऋषि तीनों लोकोंमें स्वच्छन्द विचरण करते हुए वैकुण्ठमें जा पहुँचे ॥ ३५ ॥ यों तो वे सबसे प्राचीन हैं, परंतु जान पड़ते हैं ऐसे मानों पाँच-छ: बरसके बच्चे हों। वस्त्र भी नहीं पहनते। उन्हें साधारण बालक समझकर द्वारपालोंने उनको भीतर जानेसे रोक दिया ॥ ३६ ॥ इसपर वे क्रोधित-से हो गये और उन्होंने द्वारपालोंको यह शाप दिया कि मूर्खो ! भगवान्‌ विष्णुके चरण तो रजोगुण और तमोगुणसे रहित हैं। तुम दोनों इनके समीप निवास करनेयोग्य नहीं हो। इसलिये शीघ्र ही तुम यहाँसे पापमयी असुरयोनि में जाओ॥ ३७ ॥ उनके इस प्रकार शाप देते ही जब वे वैकुण्ठ से नीचे गिरने लगे, तब उन कृपालु महात्माओं ने कहा—‘अच्छा तीन जन्मोंमें इस शापको भोगकर तुमलोग फिर इसी वैकुण्ठमें आ जाना॥ ३८ ॥

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मंगलवार, 4 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

नारद-युधिष्ठिर-संवाद और जय-विजय की कथा

गोप्यः कामाद्भयात्कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः
सम्बन्धाद्वृष्णयः स्नेहाद्यूयं भक्त्या वयं विभो ||३०||
कतमोऽपि न वेनः स्यात्पञ्चानां पुरुषं प्रति
तस्मात्केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत् ||३१||
मातृष्वस्रेयो वश्चैद्यो दन्तवक्रश्च पाण्डव
पार्षदप्रवरौ विष्णोर्विप्रशापात्पदच्युतौ ||३२||

महाराज ! गोपियों ने भगवान्‌ से मिलन के तीव्र काम अर्थात् प्रेम से, कंस ने भय से, शिशुपाल-दन्तवक्त्र आदि राजाओं ने द्वेषसे, यदुवंशियोंने परिवार के सम्बन्ध से, तुमलोगों ने स्नेह से और हमलोगों ने भक्ति से अपने मन को भगवान्‌ में लगाया है ॥ ३० ॥ भक्तोंके अतिरिक्त जो पाँच प्रकारके भगवान्‌ का चिन्तन करने वाले हैं, उनमेंसे राजा वेनकी तो किसीमें भी गणना नहीं होती (क्योंकि उसने किसी भी प्रकारसे भगवान्‌ में मन नहीं लगाया था )। सारांश यह कि चाहे जैसे हो, अपना मन भगवान्‌ श्रीकृष्णमें तन्मय कर देना चाहिये ॥ ३१ ॥ महाराज ! फिर तुम्हारे मौसेरे भाई शिशुपाल और दन्तवक्त्र दोनों ही विष्णुभगवान्‌के मुख्य पार्षद थे। ब्राह्मणोंके शापसे इन दोनोंको अपने पदसे च्युत होना पड़ा था ॥ ३२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

नारद-युधिष्ठिर-संवाद और जय-विजय की कथा

यथा वैरानुबन्धेन मर्त्यस्तन्मयतामियात्
न तथा भक्तियोगेन इति मे निश्चिता मतिः ||२६||
कीटः पेशस्कृता रुद्धः कुड्यायां तमनुस्मरन्
संरम्भभययोगेन विन्दते तत्स्वरूपताम् ||२७||
एवं कृष्णे भगवति मायामनुज ईश्वरे
वैरेण पूतपाप्मानस्तमापुरनुचिन्तया ||२८||
कामाद्द्वेषाद्भयात्स्नेहाद्यथा भक्त्येश्वरे मनः
आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गताः ||२९||

(श्रीशुकदेवजी कह रहे हैं) युधिष्ठिर ! मेरा तो ऐसा दृढ़ निश्चय है कि मनुष्य वैरभाव से भगवान्‌ में जितना तन्मय हो जाता है, उतना भक्तियोग से नहीं होता ॥ २६ ॥ भृङ्गी कीड़े को लाकर भीत पर अपने छिद्र में बंद कर देता है और वह भय तथा उद्वेग से भृङ्गी का चिन्तन करते-करते उसके-जैसा ही हो जाता है ॥ २७ ॥ यही बात भगवान्‌ श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी है। लीला के द्वारा मनुष्य मालूम पड़ते हुए ये सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ ही तो हैं। इनसे वैर करनेवाले भी इनका चिन्तन करते-करते पापरहित होकर इन्हींको प्राप्त हो गये ॥ २८ ॥ एक नहीं, अनेकों मनुष्य काम से, द्वेष से, भय से और स्नेह से अपने मन को भगवान्‌ में लगाकर एवं अपने सारे पाप धोकर उसी प्रकार भगवान्‌ को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्ति से ॥२९॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति स त्...