बुधवार, 3 जुलाई 2019

दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा (पोस्ट 01)

श्रीराम जय राम जय जय राम !
श्रीराम जय राम जय जय राम !!

दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा (पोस्ट 01)

“दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा । रावन नाम बीर बरिबंडा ।।
भूप अनुज अरि मर्दन नामा ।भयउ सो कुँभकरन बल धामा ।।
सचिव जो रहा धर्म रूचि जासू । भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू ।।“

(वही राजा [प्रताप भानु] परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ । उसके दस सिर बीस भुजाएं थी और वह बड़ा ही प्रचण्ड शूर वीर था । अरिमर्दन नामक जो राजा का छोटा भाई था वह बल का धाम कुम्भकरण हुआ । उसका (राजा प्रतापु भानु का) जो मन्त्री था, जिसका नाम धर्मरूचि था, वह रावण का सौतेला(बिमात्र) छोटा भाई हुआ)

“श्रीरामचरितमानस कल्प वाले रावण और कुम्भकर्ण सहोदर भ्राता थे | विभीषण जी रावण के सौतेले भाई थे | अत: मानसकल्प वाली कथा, वाल्मीकीय और अध्यात्म आदि रामायणों से भिन्न कल्प की है | इन रामायणों के रावण,कुम्भकर्ण और विभीषण सहोदर भ्राता थे | महाभारत वनपर्व में जिस रावण की कथा मार्कंडेय मुनि ने युधिष्ठिर जी से कही है उसका भी विभीषण सौतेला भाई था | कथा इस प्रकार है-- पुलस्त्यजी ब्रह्मा के परमप्रिय मानस पुत्र थे | पुलस्त्य जी की स्त्रीका नाम ‘गौ’ था; उससे वैश्रवण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ | वैश्रवण, पिता को छोड़कर पितामह ब्रह्माजी की सेवा में रहने लगा | इससे पुलस्त्यजी को बहुत क्रोध आ गया और उन्होंने (वैश्रवण को दण्ड देने के लिए) अपने-आपको ही दूसरे शरीर से प्रकट किया | इसप्रकार अपने आधे शरीर से रूपान्तर धारणकर पुलस्त्यजी विश्रवा नाम से विख्यात हुए | विश्रवाजी वैश्रवण पर सदा कुपित रहा करते थे | किन्तु ब्रह्माजी उन पर प्रसन्न थे, इसलिए उन्होंने उसे अमरत्व प्रदान किया, समस्त धन का स्वामी और लोकपाल बनाया, महादेव जी से उनकी मित्रता करादी और नलकूबर नामक पुत्र प्रदान किया | साथ ही ब्रह्माजी ने उनको राक्षसों से भरी लंका का आधिपत्य और इच्छानुसार विचरने वाला पुष्पकविमान दिया तथा यक्षों का स्वामी बनाकर उन्हें ‘राजराज’ की उपाधि भी दी |

कुबेर (वैश्रवण) जी पिता के दर्शन को प्राय: जाया करते थे | विश्रवा मुनि उन्हें कुपित दृष्टि से देखने लगे | कुबेर को जब मालूम हुआ कि मेरे पिता मुझसे रुष्ट हैं तब उन्होंने उनको प्रसन्न करने के लिए पुष्पोत्कटा, राका, और मालिनी नाम की परम सुन्दरी तथा नृत्यगान में निपुण तीन निशाचर कन्याएं उनकी सेवा में नियुक्त कर दीं | तीनों अपना-अपना स्वार्थ भी चाहती थीं, इससे तीनों लाग-डाँट से विश्रवा मुनि को सन्तुष्ट करने में लग गईं | मुनि ने सेवा से प्रसन्न होकर तीनों को लोकपालों के सदृश पराक्रमी पुत्र होने का वरदान दिया |

शेष आगामी पोस्ट में .....
----गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “मानस-पीयूष” खण्ड २ (पुस्तक कोड ८८) से |


श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

नीयमानां भयोद्विग्नां रुदतीं कुररीमिव
यदृच्छयागतस्तत्र देवर्षिर्ददृशे पथि ||||
प्राह नैनां सुरपते नेतुमर्हस्यनागसम्
मुञ्च मुञ्च महाभाग सतीं परपरिग्रहम् ||||

श्रीइन्द्र उवाच
आस्तेऽस्या जठरे वीर्यमविषह्यं सुरद्विषः
आस्यतां यावत्प्रसवं मोक्ष्येऽर्थपदवीं गतः ||||

श्रीनारद उवाच
अयं निष्किल्बिषः साक्षान्महाभागवतो महान्
त्वया न प्राप्स्यते संस्थामनन्तानुचरो बली ||१०||
इत्युक्तस्तां विहायेन्द्रो देवर्षेर्मानयन्वचः
अनन्तप्रियभक्त्यैनां परिक्रम्य दिवं ययौ ||११||

(प्रह्लादजी कह रहे हैं) मेरी मा भय से घबराकर कुररी पक्षी की भाँति रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे । दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्ग में मेरी मा को देख लिया ॥ ७ ॥ उन्होंने कहा—‘देवराज ! यह निरपराध है। इसे ले जाना उचित नहीं । महाभाग ! इस सती-साध्वी परनारी का तिरस्कार मत करो। इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो !॥८॥
इन्द्रने कहाइसके पेट में देवद्रोही हिरण्यकशिपु का अत्यन्त प्रभावशाली वीर्य है । प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जानेपर उसे मारकर मैं इसे छोड़ दूँगा ॥ ९ ॥
नारदजी ने कहा—‘इसके गर्भ में भगवान्‌ का साक्षात् परम प्रेमी भक्त और सेवक,अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है। तुम में उस को मारने की शक्ति नहीं है॥ १० ॥ देवर्षि नारद की यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्र ने मेरी माता को छोड़ दिया । और फिर इसके गर्भ में भगवद्भक्त है, इस भाव से उन्होंने मेरी माता की प्रदक्षिणा की तथा अपने लोक में चले गये ॥११॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





मंगलवार, 2 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

श्रीनारद उवाच
एवं दैत्यसुतैः पृष्टो महाभागवतोऽसुरः
उवाच तान्स्मयमानः स्मरन्मदनुभाषितम् ||||

श्रीप्रह्लाद उवाच
पितरि प्रस्थितेऽस्माकं तपसे मन्दराचलम्
युद्धोद्यमं परं चक्रुर्विबुधा दानवान्प्रति ||||
पिपीलिकैरहिरिव दिष्ट्या लोकोपतापनः
पापेन पापोऽभक्षीति वदन्तो वासवादयः ||||
तेषामतिबलोद्योगं निशम्यासुरयूथपाः
वध्यमानाः सुरैर्भीता दुद्रुवुः सर्वतो दिशम् ||||
कलत्रपुत्रवित्ताप्तान्गृहान्पशुपरिच्छदान्
नावेक्ष्यमाणास्त्वरिताः सर्वे प्राणपरीप्सवः ||||
व्यलुम्पन्राजशिबिरममरा जयकाङ्क्षिणः
इन्द्रस्तु राजमहिषीं मातरं मम चाग्रहीत् ||||

नारदजी कहते हैंयुधिष्ठिर ! जब दैत्यबालकों ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान्‌ के परम प्रेमी भक्त प्रह्लाद जी को मेरी बात का स्मरण हो आया । कुछ मुसकराते हुए उन्होंने उनसे कहा ॥ १ ॥
प्रह्लादजी ने कहाजब हमारे पिता जी तपस्या करने के लिये मन्दराचलपर चले गये, तब इन्द्रादि देवताओं ने दानवों से युद्ध करने का बहुत बड़ा उद्योग किया ॥ २ ॥ वे इस प्रकार कहने लगे कि जैसे चींटियाँ साँप को चाट जाती हैं, वैसे ही लोगों को सताने वाले पापी हिरण्यकशिपु को उसका पाप ही खा गया ॥ ३ ॥ जब दैत्य सेनापतियों को देवताओं की भारी तैयारी का पता चला, तब उनका साहस जाता रहा । वे उनका सामना नहीं कर सके। मार खाकर स्त्री, पुत्र,मित्र, गुरुजन,महल,पशु और साज-सामान की कुछ भी चिन्ता न करके वे अपने प्राण बचाने के लिये बड़ी जल्दी में सब-के-सब इधर-उधर भाग गये ॥ ४-५ ॥ अपनी जीत चाहने वाले देवताओं ने राजमहल में लूट-खसोट मचा दी। यहाँतक कि इन्द्र ने राजरानी मेरी माता कयाधू को भी बन्दी बना लिया ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




दो बड़ी भूलें

||श्रीहरि:||

दो बड़ी भूलें 

श्री भगवान् का भजन करना चाहिये । एक क्षण के लिये भी भगवान् की विस्मृति नहीं होनी चाहिये । जीवन के प्रत्येक क्षण की प्रत्येक चेष्टा की धारा भगवान् की तरफ ही बहनी चाहिये । भगवान् के सिवा और कोई भी लक्ष्य नहीं होना चाहिये । तथा लक्ष्य की विस्मृति किसी समय नहीं होनी चाहिये । मनुष्य जिस काम से बार-बार तकलीफ उठाता है, बार-बार उसी को करता है-यह उसकी बड़ी भूल है । विषयों में बार-बार दुःख का अनुभव होता है; फिर भी लोग विषयों के पीछे ही भटकते हैं, सोचते हैं, मौका आनेपर भजन करेंगे । मौका आता है, बार-बार आता है । मनुष्य-जीवन भी तो एक मौका ही है, परन्तु इस मौके को हम हाथ से खो देते हैं । न करनेयोग्य कष्टदायक काम को पुनः-पुनः करना और करनेयोग्य भजन का मौका खो देना-यही दो बहुत बड़ी भूलें हैं । सावधानी के साथ सबको इन दोनों भूलों का त्याग करना चाहिये ।

'लोक-परलोक-सुधार' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 353, पृष्ठ-संख्या- ६३, गीताप्रेस गोरखपुर


नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०६)

।। श्रीहरिः ।।

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०६)

‘कल्याण’ में एक लेख आया था‒एक गाँवमें रहनेवाले स्त्री-पुरुष थे । गँवार थे बिलकुल । पढ़े-लिखे नहीं थे । वे मालासे जप करते तो एक पावभर उड़दके दाने अपने पास रख लेते । एक माला पूरी होनेपर एक दाना अलग रख देते । ऐसे दाने पूरे होनेपर कहते कि मैंने पावभर भजन किया है । स्त्री कहती कि मैंने आधा सेर भजन किया, आधा सेर माला भजन किया । उनके यही संख्या थी । तो किसी तरह भगवान्‌का नाम जपे । अधिक-से-अधिक सेर, दो सेर भजन करो । यह भी भजन करनेका तरीका है । जब आप लग जाओगे तो तरीका समझमें आ जायगा ।

जैसे सरकार इतना कानून बनाती है फिर भी सोच करके कुछ-न-कुछ रास्ता निकाल ही लेते हो । भजनकी लगन होगी तो क्या रास्ता नहीं निकलेगा । लगन होगी तो निकाल लोगे । सरकार तो कानूनोंमें जकड़नेकी कमी नहीं रखती; फिर भी आप उससे निकलनेकी कमी नहीं रखते । कैसे-न-कैसे निकल ही जाते हैं । तो संसारसे निकलो भाई । यह तो फँसनेकी रीति है ।

भगवान्‌के ध्यानमें घबराहट नहीं होती, ध्यानमें तो आनन्द आता है, प्रसन्नता होती है; पर जबरदस्ती मन लगानेसे थोड़ी घबराहट होती है तो कोई हर्ज नहीं । भगवान्‌से कहो‒‘हे नाथ ! मन नहीं लगता ।’ कहते ही रहो,कहते ही रहो । एक सज्जनने कहा था‒कहते ही रहो ‘व्यापारीको ग्राहकके अगाड़ी और भक्तको भगवान्‌के अगाड़ी रोते ही रहना चाहिये कि क्या करें बिक्री नहीं होती, क्या करें पैदा नहीं होती ।’ ऐसे भक्तको भगवान्‌के अगाड़ी ‘क्या करें, महाराज ! भजन नहीं होता है, हे नाथ ! मन नहीं लगता है ।’ ऐसे रोते ही रहना चाहिये । ग्राहकके अगाड़ी रोनेसे बिक्री होगी या नहीं होगी, इसका पता नहीं, पर भगवान्‌के अगाड़ी रोनेसे काम जरूर होगा । यह रोना एकदम सार्थक है ।

सच्ची लगन आपको बतायेगी कि हमारे भगवान् हैं और हम भगवान्‌के हैं । यह सच्चा सम्बन्ध जोड लें । उसीकी प्राप्ति करना हमारा खास ध्येय है, खास लक्ष्य है । यह एक बन जायगा तो दूजी बातें आ जायँगी । बिना सीखे ही याद आ जायँगी, भगवान्‌की कृपासे याद आ जायेंगी ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०९)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

श्रीदैत्यपुत्रा ऊचुः

प्रह्लाद त्वं वयं चापि नर्तेऽन्यं विद्महे गुरुम् ।
एताभ्यां गुरुपुत्राभ्यां बालानामपि हीश्वरौ ॥ २९ ॥
बालस्यान्तःपुरस्थस्य महत्सङ्‌गो दुरन्वयः ।
छिन्धि नः संशयं सौम्य स्यात् चेत् विश्रम्भकारणम् ॥ ३० ॥

प्रह्लादजी के सहपाठियों ने पूछाप्रह्लादजी ! इन दोनों गुरुपुत्रों को छोडक़र और किसी गुरु को तो न तुम जानते हो और न हम । ये ही हम सब बालकों के शासक हैं ॥ २९ ॥ तुम एक तो अभी छोटी अवस्था के हो और दूसरे जन्म से ही महल में अपनी माँ के पास रहे हो । तुम्हारा महात्मा नारदजी से मिलना कुछ असङ्गत-सा जान पड़ता है । प्रियवर ! यदि इस विषय में  विश्वास दिलाने वाली कोई बात हो तो तुम उसे कहकर हमारी शङ्का मिटा दो ॥ ३० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते षष्ठोऽध्यायः॥६॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




सोमवार, 1 जुलाई 2019

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०५)


।। श्रीहरिः ।।

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०५)

कई भाई कह देते हैं, हम तो खाली राम-राम करते हैं । ऐसा मत समझो । यह राम-नाम खाली नहीं होता है ? जिस नाम को शंकर जपते हैं, सनकादिक जपते हैं, नारद जी जपते हैं, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, संत-महात्मा जपते हैं, वह नाम मेरे को मिल गया, यह तो मेरा भाग्य ही खुल गया है । ऐसे उसका आदर करो । जहाँ कथा मिल जाय, उसका आदर करो । भगवान्‌ के भक्त मिल जायँ उनका आदर करो । भगवान्‌ की लीला सुननेको मिल जाय, तो प्रसन्न हो जाओ कि यह तो भगवान्‌ ने बड़ी कृपा कर दी । भगवान् मानो हाथ पकड़कर मेरे को अपनी तरफ खींच रहे हैं । भगवान् मेरे सिरपर हाथ रखकर कहते हैं‒‘बेटा ! आ जा ।’ ऐसे मेरेको बुला रहे हैं । भगवान् बुला रहे हैं‒इसकी यही पहचान है कि मेरेको सुननेके लिये भगवान्‌की कथा मिल गयी । भगवान्‌की चर्चा मिल गयी । भगवान्‌ का पद मिल गया । भगवत्सम्बन्धी पुस्तक मिल गयी । भगवान्‌ का नाम देखनेमें आ गया ।

मालाके बिना अगर नाम-जप होता हो तो माला की जरूरत नहीं । परन्तु माला के बिना भूल बहुत ज्यादा होती हो तो माला जरूर रखनी चाहिये । माला से भगवान्‌ की याद में मदद मिलती है ।

“माला मनसे लड़ पड़ी, तूँ नहि विसरे मोय ।
बिना शस्त्रके सूरमा लड़ता देख्या न कोय ॥“

बिना शस्त्रके लड़ाई किससे करें ! यह माला शस्त्र है भगवान्‌ को याद करनेका ! भगवान्‌ की बार-बार याद आवे, इस वास्ते भगवान्‌ की याद के लिये माला की बड़ी जरूरत है ।
निरन्तर जप होता है तो माला की कोई जरूरत नहीं, फिर भी माला फेरनी चाहिये, माला फेरने की आवश्यकता है ।

दूसरी आवश्यकता है‒जितना नियम है उतना पूरा हो जाय, उसमें कमी न रह जाय उसके लिये माला है । माला लेने से एक दोष भी आता है । वह यह है कि आज इतना जप पूरा हो गया, बस अब रख दो माला । ऐसा नहीं करना चाहिये । भगवद्भजनमें कभी संतोष न करे । कभी पूरा न माने । धन कमाने में पूरा नहीं मानते । पाँच रुपये रोजाना पैदा होते हैं जिस दुकान में, उस दुकान में सुबह के समय में पचास रुपये पैदा हो गये तो भी दिनभर दुकान खुली रखेंगे । अब दस गुणी पैदा हो गयी तो भी दुकान बंद नहीं करेंगे । परन्तु भगवान्‌ का भजन, नियम पूरा हो जाय तो पुस्तक भी समेट कर रख देंगे, माला भी समेट कर रख देंगे; क्योंकि आज तो नित्य-नियम हो गया । यह बड़ी गलती होती है । माला से यह गलती न हो जाय कहीं कि इतनी माला हो गयी, अब बंद करो । इसमें तो लोभ लगना चाहिये कि माला छोडूँ ही नहीं, ज्यादा-से-ज्यादा करता रहूँ ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०८)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

धर्मार्थकाम इति योऽभिहितस्त्रिवर्ग
     ईक्षा त्रयी नयदमौ विविधा च वार्ता ।
मन्ये तदेतदखिलं निगमस्य सत्यं
     स्वात्मार्पणं स्वसुहृदः परमस्य पुंसः ॥ २६ ॥
ज्ञानं तदेतदमलं दुरवापमाह
     नारायणो नरसखः किल नारदाय ।
एकान्तिनां भगवतः तदकिञ्चनानां
     पादारविन्द रजसाऽऽप्लुतदेहिनां स्यात् ॥ २७ ॥
श्रुतं एतन्मया पूर्वं ज्ञानं विज्ञानसंयुतम् ।
धर्मं भागवतं शुद्धं नारदाद् देवदर्शनात् ॥ २८ ॥

यों शास्त्रों में धर्म,अर्थ और कामइन तीनों पुरुषार्थों का भी वर्णन है । आत्मविद्या,कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविका के विविध साधनये सभी वेदों के प्रतिपाद्य विषय हैं; परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान्‌ श्रीहरि को आत्मसमर्पण करने में सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ । अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं ॥ २६ ॥ यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगोंको बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है। इसे पहले नर- नारायण ने नारदजी को उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगों को प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने भगवान्‌ के अनन्यप्रेमी एवं अकिञ्चन भक्तों के चरणकमलों की धूलि से अपने शरीर को नहला लिया है ॥ २७ ॥ यह विज्ञानसहित ज्ञान विशुद्ध भागवतधर्म है। इसे मैंने भगवान्‌ का दर्शन कराने वाले देवर्षि नारदजी के मुँहसे ही पहले-पहल सुना था ॥ २८ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०४)

।। श्रीहरिः ।।

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०४)

सन्तोंने भगवान्‌से भक्ति माँगी है । अच्छे-अच्छे महात्मा पुरुषोंने भगवान्‌के चरणोंका प्रेम माँगा है‒

“जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ॥“

भगवान् शंकर माँगते हैं‒

“बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥“

तो उनके कौन-सी कमी रह गयी ? पर यह माँगना सकाम नहीं है । तीर्थ, दान आदि के जितने पुण्य हैं, उन सब का एक फल माँगे कि भगवान्‌ के चरणों में प्रीति हो जाय । हे नाथ ! आपके चरणों में प्रेम हो जाय, आकर्षण हो जाय । भगवान् हमें प्यारे लगें, मीठे लगें । यह कामना करो । यह कामना सांसारिक नहीं है ।

भगवान्‌ का नाम लेते हुए आनन्द मनाओ, प्रसन्न हो जाओ कि मुख में भगवान्‌ का नाम आ गया, हम तो निहाल हो गये ! आज तो भगवान्‌ ने विशेष कृपा कर दी, जो नाम मुख में आ गया । नहीं तो मेरे-जैसे के लिये भगवान्‌ का नाम कहाँ ? जिनके याद करने मात्र से मंगल हो जाय ऐसे जिस नाम को भगवान् शंकर जपते हैं‒

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती ।
सादर जपहु अनंग आराती ॥

वह नाम मिल जाय हमारे को । कलियुगी तो हम जीव और राम-नाम मिल जाय तो बस मौज हो गयी, भगवान्‌ ने विशेष ही कृपा कर दी । ऐसी सम्मति मिल गयी, हमारे को भगवान्‌ की याद आ गयी । भगवान्‌ की बात सुनने को मिली है; भगवान्‌की चर्चा मिली है, भगवान्‌ का नाम मिला है,भगवान्‌ की तरफ वृत्ति हो गयी है‒ऐसे समझकर खूब आनन्द मनावें, खूब खुशी मनावें, प्रसन्नता मनावें ।

एक बात और विलक्षण है ! उस पर आप ध्यान दें । बहुत ही लाभकी बात है, (६) जब कभी भगवान् अचानक याद आ जाये भगवान्‌ का नाम अचानक याद आ जाय,भगवान्‌ की लीला अचानक याद आ जाय, उस समय यह समझे कि भगवान् मेरे को याद करते हैं । भगवान्‌ ने अभी मेरे को याद किया है । नहीं तो मैंने उद्योग ही नहीं किया, फिर अचानक ही भगवान् कैसे याद आये ? ऐसा समझकर प्रसन्न हो जाओ कि मैं तो निहाल हो गया । मेरे को भगवान्‌ ने याद कर लिया । अब और काम पीछे करेंगे । अब तो भगवान्‌ में ही लग जाना है; क्योंकि भगवान् याद करते हैं,ऐसा मौका कहाँ पड़ा है ? ऐसे लग जाओ तो बहुत ज्यादा भक्ति है । जब अंगद रवाना हुए और उनको पहुँचाने हनुमान्‌ जी गये तो अंगद ने कहा‒‘बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि’ याद कराते रहना रामजी को । तात्पर्य जिस समय अचानक भगवान् याद आते हैं, उस समय को खूब मूल्यवान् समझकर तत्परता से लग जाओ । इस प्रकार छः बातें हो गयीं ।

“गुप्त अकाम निरन्तर, ध्यान-सहित सानन्द ।
आदर जुत जप से तुरत, पावत परमानन्द ॥“

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

केवलानुभवानन्द स्वरूपः परमेश्वरः ।
माययान्तर्हितैश्वर्य ईयते गुणसर्गया ॥ २३ ॥
तस्मात्सर्वेषु भूतेषु दयां कुरुत सौहृदम् ।
आसुरं भावमुन्मुच्य यया तुष्यत्यधोक्षजः ॥ २४ ॥
तुष्टे च तत्र किमलभ्यमनन्त आद्ये
     किं तैर्गुणव्यतिकरादिह ये स्वसिद्धाः ।
धर्मादयः किमगुणेन च काङ्‌क्षितेन
     सारंजुषां चरणयोरुपगायतां नः ॥ २५ ॥

वे (भगवान) केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करनेवाली माया के द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं ॥ २३ ॥ इसलिये तुमलोग अपने दैत्यपने का, आसुरी सम्पत्ति का त्याग करके समस्त प्राणियों पर दया करो। प्रेमसे उनकी भलाई करो। इसी से भगवान्‌ प्रसन्न होते हैं ॥ २४ ॥ आदिनारायण अनन्त भगवान्‌ के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है,जो नहीं मिल जाती ? लोक और परलोक के लिये जिन धर्म, अर्थ आदि की आवश्यकता बतलायी जाती हैवे तो गुणों के परिणाम से बिना प्रयास के स्वयं ही मिलनेवाले हैं । जब हम श्रीभगवान्‌ के चरणामृत का सेवन करने और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने में लगे हैं, तब हमें मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है ॥ २५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...