गुरुवार, 4 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

अष्टौ प्रकृतयः प्रोक्तास्त्रय एव हि तद्गुणाः
विकाराः षोडशाचार्यैः पुमानेकः समन्वयात् ||२२||
देहस्तु सर्वसङ्घातो जगत्तस्थुरिति द्विधा
अत्रैव मृग्यः पुरुषो नेति नेतीत्यतत्त्यजन् ||२३||
अन्वयव्यतिरेकेण विवेकेनोशतात्मना
स्वर्गस्थानसमाम्नायैर्विमृशद्भिरसत्वरैः ||२४||

आचार्यों ने मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चतन्मात्राएँइन आठ तत्त्वों को प्रकृति बतलाया है। उनके तीन गुण हैंसत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलहदस इन्द्रियाँ, एक मन और पञ्चमहाभूत । इन सब में एक पुरुषतत्त्व अनुगत है ॥ २२ ॥ इन सब का समुदाय ही देह है । यह दो प्रकार का हैस्थावर और जङ्गम । इसी में अन्त:करण, इन्द्रिय आदि अनात्मवस्तुओं का यह आत्मा नहीं है’—इस प्रकार बाध करते हुए आत्माको ढूँढऩा चाहिये ॥ २३ ॥ आत्मा सब में अनुगत है, परंतु है वह सब से पृथक्। इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से धीरे-धीरे संसार की उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलयपर विचार करना चाहिये। उतावली नहीं करनी चाहिये ॥ २४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा (पोस्ट 02)

श्रीराम जय राम जय जय राम !
श्रीराम जय राम जय जय राम !!

दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा (पोस्ट 02)

पुष्पोत्कटा के दो पुत्र हुए –रावण और कुम्भकर्ण | मालिनी से एक पुत्र विभीषण हुआ | राका के गर्भ से खर और शूर्पणखा हुए | यथा—

‘पुष्पोत्कटायां जज्ञाते द्वौ पुत्रौ राक्षसेश्वरौ |
कुम्भकर्ण दशग्रीवौ बलेनाऽप्रतिमौ भुवि ||
मालिनी जनयामास पुत्रमेकं विभीषण् |
राकायां मिथुनं जज्ञे खर:शूर्पणखा तथा ||’
.................(महाभारत वनपर्व अध्याय २७५|७-८)

रावण के दस सिर जन्मजात थे | इसी से उसका नाम प्रथम दशग्रीव था | रावण नाम तो कैलास के नीचे दबने पर हुआ | रावण का अर्थ है रुलाने वाला ..(वाल्मी० ७|१६ देखिये)
वाल्मीकीय के रावणजन्म की कथा तथा उसकी माता का नाम इससे भिन्न है | कथा इस प्रकार है कि विष्णु भगवान् के भय से सुमाली परिवारसहित रसातल में रहने लगा | एकबार जब वह अपनी कुमारी कन्या कैकसी सहित मर्त्यलोक में विचर रहा था, उसी समय कुबेरजी पिता विश्रवा के दर्शनों को जा रहे थे | उनका देवताओं और अग्नि के समान तेज देखकर वह रसातल को लौट आया और राक्षसों की वृद्धि का उपाय सोचकर उसने अपनी कन्या कैकसी से कहा कि तू पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा मुनि को स्वयं जाकर वर | इससे कुबेर के समान तेजस्वी पुत्र तुझे प्राप्त होंगे | पिता की आज्ञा मान कैकसी बिश्रवा मुनि के पास गयी | सायंकाल का समय था | वे अग्निहोत्र कर रहे थे | दारुण प्रदोष काल का उसने विचार न कर वहां जाकर उनके समीप खड़ी हो गयी | उसे देखकर उन्होंने पूछा कि तुम कौन हो और क्यों आई हो ? उसने उत्तर दिया कि आप तप: प्रभाव से मेरे मन की बात जान सकते हैं | मैं केवल इतना बताये देती हूँ कि मैं केवल अपने पिता की आज्ञा से आयी हूँ और मेरा नाम कैकसी है |

विश्रवा मुनि ध्यान द्वारा सब जानकर उससे कहा की तू दारुण समय में आयी है, इससे तेरे पुत्र बड़े क्रूर कर्म करने वाले और भयंकर आकृति के होंगे | यह सुनकर उसने प्रार्थना की कि आप—ऐसे ब्रह्मवादी से मुझे ऐसे पुत्र न होने चाहिए | आप मुझपर कृपा करें | मुनि ने कहा—‘अच्छा, तेरा पिछ्ला पुत्र वंशानुकूल धर्मात्मा होगा |’

कैकसी के गर्भ से क्रमश: रावण, कुम्भकर्ण, शूर्पणखा उत्पन्न हुए | सबसे पीछे विभीषण हुए |...(वाल्मी०७|९|१-३५)

प्राय: यही कथा अध्यात्मरामायण में है |...(अ०रा० ७|१|४५-५९) | पद्मपुराण-पातालखण्ड में श्री अगस्त्यजी ने श्रीराम दरबार में जो कथा कही है उसमें की ‘कैकसी’ विद्युन्माली दैत्य की कन्या थी | उस कैकसी के ही रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण पुत्र हुए |

यों भी कहा जाता है की रूद्रयामलतंत्र और पद्मपुराण में लिखा है कि कैकसी को रतिदान की स्वीकृति दे मुनि ध्यान में लीन होगये | ध्यान छूटने पर पूछा—उसने कहा कि दस बार मुझे रतिधर्म हुआ है , इससे आशीर्वाद दिया की प्रथम पुत्र दस सिरवाला होगा और ‘केसी’ से कहा कि तेरे एक पुत्र होगा जो बड़ा ज्ञानी और हरिभक्त होगा | रावण, कुम्भकर्ण और शूर्पणखा ‘कैकसी’ से हुए और विभीषण ‘केसी’ से हुए | ...(वीर)”

----गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “मानस-पीयूष” खण्ड २ (पुस्तक कोड ८८) से |


श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

जन्माद्याः षडिमे भावा दृष्टा देहस्य नात्मनः
फलानामिव वृक्षस्य कालेनेश्वरमूर्तिना ||१८|
आत्मा नित्योऽव्ययः शुद्ध एकः क्षेत्रज्ञ आश्रयः
अविक्रियः स्वदृघेतुर्व्यापकोऽसङ्ग्यनावृतः ||१९||
एतैर्द्वादशभिर्विद्वानात्मनो लक्षणैः परैः
अहं ममेत्यसद्भावं देहादौ मोहजं त्यजेत् ||२०||
स्वर्णं यथा ग्रावसु हेमकारः क्षेत्रेषु योगैस्तदभिज्ञ आप्नुयात्
क्षेत्रेषु देहेषु तथात्मयोगैरध्यात्मविद्ब्रह्मगतिं लभेत ||२१||

(प्रह्लादजी कह रहे हैं) जैसे ईश्वरमूर्ति काल की प्रेरणा से वृक्षों के फल लगते,ठहरते,बढ़ते,पकते, क्षीण होते और नष्ट हो जाते हैंवैसे ही जन्म, अस्तित्व की अनुभूति, वृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाशये छ: भाव-विकार शरीर में ही देखे जाते हैं,आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है ॥१८॥ आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयं-प्रकाश, सब का कारण, व्यापक, असङ्ग तथा आवरणरहित है ॥ १९ ॥ ये बारह आत्मा के उत्कृष्ट लक्षण हैं। इनके द्वारा आत्मतत्त्व को जाननेवाले पुरुष को चाहिये कि शरीर आदि में अज्ञान के कारण जो मैंऔर मेरेका झूठा भाव हो रहा है, उसे छोड़ दे ॥ २० ॥ जिस प्रकार सुवर्ण की खानों में पत्थर में मिले हुए सुवर्ण को उसके निकालने की विधि जानने वाला स्वर्णकार उन विधियों से उसे प्राप्त कर लेता है, वैसे ही अध्यात्मतत्त्व को जाननेवाला पुरुष आत्मप्राप्ति के उपायोंद्वारा अपने शरीररूप क्षेत्रमें ही ब्रह्मपदका साक्षात्कार कर लेता है ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





बुधवार, 3 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

ततो मे मातरमृषिः समानीय निजाश्रमे
आश्वास्येहोष्यतां वत्से यावत्ते भर्तुरागमः ||१२||
तथेत्यवात्सीद्देवर्षेरन्तिके साकुतोभया
यावद्दैत्यपतिर्घोरात्तपसो न न्यवर्तत ||१३||
ऋषिं पर्यचरत्तत्र भक्त्या परमया सती
अन्तर्वत्नी स्वगर्भस्य क्षेमायेच्छाप्रसूतये ||१४||
ऋषिः कारुणिकस्तस्याः प्रादादुभयमीश्वरः
धर्मस्य तत्त्वं ज्ञानं च मामप्युद्दिश्य निर्मलम् ||१५||
तत्तु कालस्य दीर्घत्वात्स्त्रीत्वान्मातुस्तिरोदधे
ऋषिणानुगृहीतं मां नाधुनाप्यजहात्स्मृतिः ||१६||
भवतामपि भूयान्मे यदि श्रद्दधते वचः
वैशारदी धीः श्रद्धातः स्त्रीबालानां च मे यथा ||१७||

(प्रह्लादजी कह रहे हैं) इसके बाद देवर्षि नारदजी मेरी माता को अपने आश्रमपर लिवा गये और उसे समझा-बुझाकर कहा कि—‘बेटी ! जबतक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तबतक तुम यहीं रहो॥ १२ ॥ जो आज्ञाकहकर वह निर्भयता से देवर्षि नारद के आश्रमपर ही रहने लगी और तबतक रही, जबतक मेरे पिता घोर तपस्या से लौटकर नहीं आये ॥ १३ ॥ मेरी गर्भवती माता मुझ गर्भस्थ शिशु की मङ्गलकामना से और इच्छित समयपर (अर्थात् मेरे पिता के लौटने के बाद) सन्तान उत्पन्न करने की कामना से बड़े प्रेम तथा भक्ति के साथ नारदजी की सेवा-शुश्रूषा करती रही ॥ १४ ॥
देवर्षि नारदजी बड़े दयालु और सर्वसमर्थ हैं। उन्होंने मेरी माँ को भागवतधर्म का रहस्य और विशुद्ध ज्ञानदोनों का उपदेश किया। उपदेश करते समय उनकी दृष्टि मुझपर भी थी ॥ १५ ॥ बहुत समय बीत जाने के कारण और स्त्री होने के कारण भी मेरी माता को तो अब उस ज्ञान की स्मृति नहीं रही, परंतु देवर्षि की विशेष कृपा होने के कारण मुझे उसकी विस्मृति नहीं हुई ॥१६॥ यदि तुमलोग मेरी इस बातपर श्रद्धा करो तो तुम्हें भी वह ज्ञान हो सकता है। क्योंकि श्रद्धा से स्त्री और बालकों की बुद्धि भी मेरे ही समान शुद्ध हो सकती है ॥ १७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





कल्याण तो स्वाभाविक है, पर लोगों ने इसे हौआ बना दिया है

!!ॐ श्रीपरमात्मने नमः!! 

१- कल्याण तो स्वाभाविक है, पर लोगों ने इसे हौआ बना दिया है । मुक्ति में मनुष्यमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है । मनुष्यमात्र विवेकवान है । मनुष्यमात्र में जानने, करने और मानने की शक्ति है ।

स्वरूप का बोध होनेपर ब्रह्म का ज्ञान हो जायगा, पर ईश्वर का ज्ञान नहीं होगा । जो ईश्वर को नहीं जान सके, उन्होंने ईश्वर को कल्पित मान लिया ! तत्त्वज्ञान होनेपर भी प्रेम शेष रह जायेगा । वह प्रेम ईश्वर की कृपा से होगा । बढ़ने-घटनेवाली चीज तो जड़ होती है, पर प्रेम तो बढ़ता-ही-बढ़ता रहता है ।

२- भगवान की बात तत्त्वज्ञान से विलक्षण है―

'तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन । जानहिं भगत भगत उर चंदन ।। 

(मानस, अयोध्या० १२७ । २) 

भगवान मिलें तो भेड़-बकरी चरानेवाले को मिल जायँ, अन्यथा षट्शास्त्रों के पण्डित को भी नहीं मिलें ! विश्वास हो तो उनकी प्राप्ति बहुत सुगम है । नाशवान में विश्वास होनेसे ही कठिनता है ।

― परमश्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी

('सागर के मोती' पुस्तक से)


दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा (पोस्ट 01)

श्रीराम जय राम जय जय राम !
श्रीराम जय राम जय जय राम !!

दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा (पोस्ट 01)

“दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा । रावन नाम बीर बरिबंडा ।।
भूप अनुज अरि मर्दन नामा ।भयउ सो कुँभकरन बल धामा ।।
सचिव जो रहा धर्म रूचि जासू । भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू ।।“

(वही राजा [प्रताप भानु] परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ । उसके दस सिर बीस भुजाएं थी और वह बड़ा ही प्रचण्ड शूर वीर था । अरिमर्दन नामक जो राजा का छोटा भाई था वह बल का धाम कुम्भकरण हुआ । उसका (राजा प्रतापु भानु का) जो मन्त्री था, जिसका नाम धर्मरूचि था, वह रावण का सौतेला(बिमात्र) छोटा भाई हुआ)

“श्रीरामचरितमानस कल्प वाले रावण और कुम्भकर्ण सहोदर भ्राता थे | विभीषण जी रावण के सौतेले भाई थे | अत: मानसकल्प वाली कथा, वाल्मीकीय और अध्यात्म आदि रामायणों से भिन्न कल्प की है | इन रामायणों के रावण,कुम्भकर्ण और विभीषण सहोदर भ्राता थे | महाभारत वनपर्व में जिस रावण की कथा मार्कंडेय मुनि ने युधिष्ठिर जी से कही है उसका भी विभीषण सौतेला भाई था | कथा इस प्रकार है-- पुलस्त्यजी ब्रह्मा के परमप्रिय मानस पुत्र थे | पुलस्त्य जी की स्त्रीका नाम ‘गौ’ था; उससे वैश्रवण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ | वैश्रवण, पिता को छोड़कर पितामह ब्रह्माजी की सेवा में रहने लगा | इससे पुलस्त्यजी को बहुत क्रोध आ गया और उन्होंने (वैश्रवण को दण्ड देने के लिए) अपने-आपको ही दूसरे शरीर से प्रकट किया | इसप्रकार अपने आधे शरीर से रूपान्तर धारणकर पुलस्त्यजी विश्रवा नाम से विख्यात हुए | विश्रवाजी वैश्रवण पर सदा कुपित रहा करते थे | किन्तु ब्रह्माजी उन पर प्रसन्न थे, इसलिए उन्होंने उसे अमरत्व प्रदान किया, समस्त धन का स्वामी और लोकपाल बनाया, महादेव जी से उनकी मित्रता करादी और नलकूबर नामक पुत्र प्रदान किया | साथ ही ब्रह्माजी ने उनको राक्षसों से भरी लंका का आधिपत्य और इच्छानुसार विचरने वाला पुष्पकविमान दिया तथा यक्षों का स्वामी बनाकर उन्हें ‘राजराज’ की उपाधि भी दी |

कुबेर (वैश्रवण) जी पिता के दर्शन को प्राय: जाया करते थे | विश्रवा मुनि उन्हें कुपित दृष्टि से देखने लगे | कुबेर को जब मालूम हुआ कि मेरे पिता मुझसे रुष्ट हैं तब उन्होंने उनको प्रसन्न करने के लिए पुष्पोत्कटा, राका, और मालिनी नाम की परम सुन्दरी तथा नृत्यगान में निपुण तीन निशाचर कन्याएं उनकी सेवा में नियुक्त कर दीं | तीनों अपना-अपना स्वार्थ भी चाहती थीं, इससे तीनों लाग-डाँट से विश्रवा मुनि को सन्तुष्ट करने में लग गईं | मुनि ने सेवा से प्रसन्न होकर तीनों को लोकपालों के सदृश पराक्रमी पुत्र होने का वरदान दिया |

शेष आगामी पोस्ट में .....
----गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “मानस-पीयूष” खण्ड २ (पुस्तक कोड ८८) से |


श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

नीयमानां भयोद्विग्नां रुदतीं कुररीमिव
यदृच्छयागतस्तत्र देवर्षिर्ददृशे पथि ||||
प्राह नैनां सुरपते नेतुमर्हस्यनागसम्
मुञ्च मुञ्च महाभाग सतीं परपरिग्रहम् ||||

श्रीइन्द्र उवाच
आस्तेऽस्या जठरे वीर्यमविषह्यं सुरद्विषः
आस्यतां यावत्प्रसवं मोक्ष्येऽर्थपदवीं गतः ||||

श्रीनारद उवाच
अयं निष्किल्बिषः साक्षान्महाभागवतो महान्
त्वया न प्राप्स्यते संस्थामनन्तानुचरो बली ||१०||
इत्युक्तस्तां विहायेन्द्रो देवर्षेर्मानयन्वचः
अनन्तप्रियभक्त्यैनां परिक्रम्य दिवं ययौ ||११||

(प्रह्लादजी कह रहे हैं) मेरी मा भय से घबराकर कुररी पक्षी की भाँति रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे । दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्ग में मेरी मा को देख लिया ॥ ७ ॥ उन्होंने कहा—‘देवराज ! यह निरपराध है। इसे ले जाना उचित नहीं । महाभाग ! इस सती-साध्वी परनारी का तिरस्कार मत करो। इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो !॥८॥
इन्द्रने कहाइसके पेट में देवद्रोही हिरण्यकशिपु का अत्यन्त प्रभावशाली वीर्य है । प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जानेपर उसे मारकर मैं इसे छोड़ दूँगा ॥ ९ ॥
नारदजी ने कहा—‘इसके गर्भ में भगवान्‌ का साक्षात् परम प्रेमी भक्त और सेवक,अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है। तुम में उस को मारने की शक्ति नहीं है॥ १० ॥ देवर्षि नारद की यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्र ने मेरी माता को छोड़ दिया । और फिर इसके गर्भ में भगवद्भक्त है, इस भाव से उन्होंने मेरी माता की प्रदक्षिणा की तथा अपने लोक में चले गये ॥११॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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मंगलवार, 2 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

श्रीनारद उवाच
एवं दैत्यसुतैः पृष्टो महाभागवतोऽसुरः
उवाच तान्स्मयमानः स्मरन्मदनुभाषितम् ||||

श्रीप्रह्लाद उवाच
पितरि प्रस्थितेऽस्माकं तपसे मन्दराचलम्
युद्धोद्यमं परं चक्रुर्विबुधा दानवान्प्रति ||||
पिपीलिकैरहिरिव दिष्ट्या लोकोपतापनः
पापेन पापोऽभक्षीति वदन्तो वासवादयः ||||
तेषामतिबलोद्योगं निशम्यासुरयूथपाः
वध्यमानाः सुरैर्भीता दुद्रुवुः सर्वतो दिशम् ||||
कलत्रपुत्रवित्ताप्तान्गृहान्पशुपरिच्छदान्
नावेक्ष्यमाणास्त्वरिताः सर्वे प्राणपरीप्सवः ||||
व्यलुम्पन्राजशिबिरममरा जयकाङ्क्षिणः
इन्द्रस्तु राजमहिषीं मातरं मम चाग्रहीत् ||||

नारदजी कहते हैंयुधिष्ठिर ! जब दैत्यबालकों ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान्‌ के परम प्रेमी भक्त प्रह्लाद जी को मेरी बात का स्मरण हो आया । कुछ मुसकराते हुए उन्होंने उनसे कहा ॥ १ ॥
प्रह्लादजी ने कहाजब हमारे पिता जी तपस्या करने के लिये मन्दराचलपर चले गये, तब इन्द्रादि देवताओं ने दानवों से युद्ध करने का बहुत बड़ा उद्योग किया ॥ २ ॥ वे इस प्रकार कहने लगे कि जैसे चींटियाँ साँप को चाट जाती हैं, वैसे ही लोगों को सताने वाले पापी हिरण्यकशिपु को उसका पाप ही खा गया ॥ ३ ॥ जब दैत्य सेनापतियों को देवताओं की भारी तैयारी का पता चला, तब उनका साहस जाता रहा । वे उनका सामना नहीं कर सके। मार खाकर स्त्री, पुत्र,मित्र, गुरुजन,महल,पशु और साज-सामान की कुछ भी चिन्ता न करके वे अपने प्राण बचाने के लिये बड़ी जल्दी में सब-के-सब इधर-उधर भाग गये ॥ ४-५ ॥ अपनी जीत चाहने वाले देवताओं ने राजमहल में लूट-खसोट मचा दी। यहाँतक कि इन्द्र ने राजरानी मेरी माता कयाधू को भी बन्दी बना लिया ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




दो बड़ी भूलें

||श्रीहरि:||

दो बड़ी भूलें 

श्री भगवान् का भजन करना चाहिये । एक क्षण के लिये भी भगवान् की विस्मृति नहीं होनी चाहिये । जीवन के प्रत्येक क्षण की प्रत्येक चेष्टा की धारा भगवान् की तरफ ही बहनी चाहिये । भगवान् के सिवा और कोई भी लक्ष्य नहीं होना चाहिये । तथा लक्ष्य की विस्मृति किसी समय नहीं होनी चाहिये । मनुष्य जिस काम से बार-बार तकलीफ उठाता है, बार-बार उसी को करता है-यह उसकी बड़ी भूल है । विषयों में बार-बार दुःख का अनुभव होता है; फिर भी लोग विषयों के पीछे ही भटकते हैं, सोचते हैं, मौका आनेपर भजन करेंगे । मौका आता है, बार-बार आता है । मनुष्य-जीवन भी तो एक मौका ही है, परन्तु इस मौके को हम हाथ से खो देते हैं । न करनेयोग्य कष्टदायक काम को पुनः-पुनः करना और करनेयोग्य भजन का मौका खो देना-यही दो बहुत बड़ी भूलें हैं । सावधानी के साथ सबको इन दोनों भूलों का त्याग करना चाहिये ।

'लोक-परलोक-सुधार' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 353, पृष्ठ-संख्या- ६३, गीताप्रेस गोरखपुर


नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०६)

।। श्रीहरिः ।।

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०६)

‘कल्याण’ में एक लेख आया था‒एक गाँवमें रहनेवाले स्त्री-पुरुष थे । गँवार थे बिलकुल । पढ़े-लिखे नहीं थे । वे मालासे जप करते तो एक पावभर उड़दके दाने अपने पास रख लेते । एक माला पूरी होनेपर एक दाना अलग रख देते । ऐसे दाने पूरे होनेपर कहते कि मैंने पावभर भजन किया है । स्त्री कहती कि मैंने आधा सेर भजन किया, आधा सेर माला भजन किया । उनके यही संख्या थी । तो किसी तरह भगवान्‌का नाम जपे । अधिक-से-अधिक सेर, दो सेर भजन करो । यह भी भजन करनेका तरीका है । जब आप लग जाओगे तो तरीका समझमें आ जायगा ।

जैसे सरकार इतना कानून बनाती है फिर भी सोच करके कुछ-न-कुछ रास्ता निकाल ही लेते हो । भजनकी लगन होगी तो क्या रास्ता नहीं निकलेगा । लगन होगी तो निकाल लोगे । सरकार तो कानूनोंमें जकड़नेकी कमी नहीं रखती; फिर भी आप उससे निकलनेकी कमी नहीं रखते । कैसे-न-कैसे निकल ही जाते हैं । तो संसारसे निकलो भाई । यह तो फँसनेकी रीति है ।

भगवान्‌के ध्यानमें घबराहट नहीं होती, ध्यानमें तो आनन्द आता है, प्रसन्नता होती है; पर जबरदस्ती मन लगानेसे थोड़ी घबराहट होती है तो कोई हर्ज नहीं । भगवान्‌से कहो‒‘हे नाथ ! मन नहीं लगता ।’ कहते ही रहो,कहते ही रहो । एक सज्जनने कहा था‒कहते ही रहो ‘व्यापारीको ग्राहकके अगाड़ी और भक्तको भगवान्‌के अगाड़ी रोते ही रहना चाहिये कि क्या करें बिक्री नहीं होती, क्या करें पैदा नहीं होती ।’ ऐसे भक्तको भगवान्‌के अगाड़ी ‘क्या करें, महाराज ! भजन नहीं होता है, हे नाथ ! मन नहीं लगता है ।’ ऐसे रोते ही रहना चाहिये । ग्राहकके अगाड़ी रोनेसे बिक्री होगी या नहीं होगी, इसका पता नहीं, पर भगवान्‌के अगाड़ी रोनेसे काम जरूर होगा । यह रोना एकदम सार्थक है ।

सच्ची लगन आपको बतायेगी कि हमारे भगवान् हैं और हम भगवान्‌के हैं । यह सच्चा सम्बन्ध जोड लें । उसीकी प्राप्ति करना हमारा खास ध्येय है, खास लक्ष्य है । यह एक बन जायगा तो दूजी बातें आ जायँगी । बिना सीखे ही याद आ जायँगी, भगवान्‌की कृपासे याद आ जायेंगी ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...