रविवार, 7 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

अधोक्षजालम्भमिहाशुभात्मनः
शरीरिणः संसृतिचक्रशातनम्
तद्ब्रह्मनिर्वाणसुखं विदुर्बुधा-
स्ततो भजध्वं हृदये हृदीश्वरम् ||३७||
कोऽतिप्रयासोऽसुरबालका हरे-
रुपासने स्वे हृदि छिद्र वत्सतः
स्वस्यात्मनः सख्युरशेषदेहिनां
सामान्यतः किं विषयोपपादनैः ||३८||

इस अशुभ संसार के दलदल में फँसकर अशुभमय हो जानेवाले जीव के लिये भगवान्‌ की यह प्राप्ति संसार के चक्कर को मिटा देनेवाली है। इसी वस्तुको कोई विद्वान् ब्रह्म और कोई निर्वाण-सुख के रूपमें पहचानते हैं। इसलिये मित्रो ! तुमलोग अपने-अपने हृदय में हृदयेश्वर भगवान्‌ का भजन करो ॥ ३७ ॥ असुरकुमारो ! अपने हृदयमें ही आकाशके समान नित्य विराजमान भगवान्‌ का भजन करने में कौन-सा विशेष परिश्रम है। वे समानरूपसे समस्त प्राणियों के अत्यन्त प्रेमी मित्र हैं; और तो क्या, अपने आत्मा ही हैं । उनको छोडक़र भोगसामग्री इकट्ठी करने के लिये भटकनाराम ! राम ! कितनी मूर्खता है ॥ ३८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शनिवार, 6 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

निशम्य कर्माणि गुणानतुल्या-
न्वीर्याणि लीलातनुभिः कृतानि
यदातिहर्षोत्पुलकाश्रुगद्गदं
प्रोत्कण्ठ उद्गायति रौति नृत्यति ||३४||
यदा ग्रहग्रस्त इव क्वचिद्धसत्या
क्रन्दते ध्यायति वन्दते जनम्
मुहुः श्वसन्वक्ति हरे जगत्पते
नारायणेत्यात्ममतिर्गतत्रपः ||३५||
तदा पुमान्मुक्तसमस्तबन्धन-
स्तद्भावभावानुकृताशयाकृतिः
निर्दग्धबीजानुशयो महीयसा
भक्तिप्रयोगेण समेत्यधोक्षजम् ||३६||

जब भगवान्‌ के लीलाशरीरों से किये हुए अद्भुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रोंको श्रवण करके अत्यन्त आनन्द के उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओं के मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह सङ्कोच छोडक़र जोर-जोर से गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागल की तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की वन्दना करने लगता है; जब वह भगवान्‌ में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी साँस खींचता है और सङ्कोच छोडक़र हरे ! जगत्पते !! नारायण’ !!! कहकर पुकारने लगता हैतब भक्तियोग के महान् प्रभाव से उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भाव की ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकारभगवन्मय हो जाता है। उस समय उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान्‌ को प्राप्त कर लेता है ॥ ३४३६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

हरिः सर्वेषु भूतेषु भगवानास्त ईश्वरः
इति भूतानि मनसा कामैस्तैः साधु मानयेत् ||३२||
एवं निर्जितषड्वर्गैः क्रियते भक्तिरीश्वरे
वासुदेवे भगवति यया संलभ्यते रतिः ||३३||

सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरि समस्त प्राणियों में विराजमान हैंऐसी भावना से यथाशक्ति सभी प्राणियों की इच्छा पूर्ण करे और हृदय से उनका सम्मान करे ॥ ३२ ॥ काम,क्रोध,लोभ, मोह,मद और मत्सरइन छ: शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जो लोग इस प्रकार भगवान्‌ की साधन-भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्तिके द्वारा भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति हो जाती है ॥ ३३ ॥

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शुक्रवार, 5 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

तत्रोपायसहस्राणामयं भगवतोदितः
यदीश्वरे भगवति यथा यैरञ्जसा रतिः ||२९||
गुरुशुश्रूषया भक्त्या सर्वलब्धार्पणेन च
सङ्गेन साधुभक्तानामीश्वराराधनेन च ||३०||
श्रद्धया तत्कथायां च कीर्तनैर्गुणकर्मणाम्
तत्पादाम्बुरुहध्यानात्तल्लिङ्गेक्षार्हणादिभिः ||३१||

यों तो इन त्रिगुणात्मक कर्मों की जड़ उखाड़ फेंकने के लिये अथवा बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह बंद कर देने के लिये सहस्रों साधन हैं; परंतु जिस उपाय से और जैसे सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाय, वही उपाय सर्वश्रेष्ठ है । यह बात स्वयं भगवान्‌ ने कही है    ॥ २९ ॥ गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा, अपने को जो कुछ मिले वह सब प्रेम से भगवान्‌- को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओं का सत्सङ्ग, भगवान्‌ की आराधना, उनकी कथा- वार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओं का कीर्तन, उनके चरणकमलों का ध्यान और उनके मन्दिर- मूर्ति आदि का दर्शन-पूजन आदि साधनों से भगवान्‌ में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है ॥ ३०-३१ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

बुद्धेर्जागरणं स्वप्नः सुषुप्तिरिति वृत्तयः
ता येनैवानुभूयन्ते सोऽध्यक्षः पुरुषः परः ||२५||
एभिस्त्रिवर्णैः पर्यस्तैर्बुद्धिभेदैः क्रियोद्भवैः
स्वरूपमात्मनो बुध्येद्गन्धैर्वायुमिवान्वयात् ||२६||
एतद्द्वारो हि संसारो गुणकर्मनिबन्धनः
अज्ञानमूलोऽपार्थोऽपि पुंसः स्वप्न इवार्प्यते ||२७||
तस्माद्भवद्भिः कर्तव्यं कर्मणां त्रिगुणात्मनाम्
बीजनिर्हरणं योगः प्रवाहोपरमो धियः ||२८||

जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्तिये तीनों बुद्धिकी वृत्तियाँ हैं । इन वृत्तियों का जिसके द्वारा अनुभव होता हैवही सबसे अतीत, सबका साक्षी परमात्मा है ॥ २५ ॥ जैसे गन्ध से उसके आश्रय वायु का ज्ञान होता है, वैसे ही बुद्धि की इन कर्मजन्य एवं बदलनेवाली तीनों अवस्थाओं के द्वारा इनमें साक्षीरूप से अनुगत आत्मा को जाने ॥ २६ ॥ गुणों और कर्मों के कारण होनेवाला जन्म-मृत्यु का यह चक्र आत्मा को शरीर और प्रकृति से पृथक् न करने के कारण ही है। यह अज्ञानमूलक एवं मिथ्या है । फिर भी स्वप्न के समान जीव को इसकी प्रतीति हो रही है ॥ २७ ॥ इसलिये तुम लोगों को सब से पहले इन गुणों के अनुसार होने वाले कर्मों का बीज ही नष्ट कर देना चाहिये । इससे बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह निवृत्त हो जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में योग या परमात्मा से मिलन कहते हैं ॥ २८ ॥

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गुरुवार, 4 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

अष्टौ प्रकृतयः प्रोक्तास्त्रय एव हि तद्गुणाः
विकाराः षोडशाचार्यैः पुमानेकः समन्वयात् ||२२||
देहस्तु सर्वसङ्घातो जगत्तस्थुरिति द्विधा
अत्रैव मृग्यः पुरुषो नेति नेतीत्यतत्त्यजन् ||२३||
अन्वयव्यतिरेकेण विवेकेनोशतात्मना
स्वर्गस्थानसमाम्नायैर्विमृशद्भिरसत्वरैः ||२४||

आचार्यों ने मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चतन्मात्राएँइन आठ तत्त्वों को प्रकृति बतलाया है। उनके तीन गुण हैंसत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलहदस इन्द्रियाँ, एक मन और पञ्चमहाभूत । इन सब में एक पुरुषतत्त्व अनुगत है ॥ २२ ॥ इन सब का समुदाय ही देह है । यह दो प्रकार का हैस्थावर और जङ्गम । इसी में अन्त:करण, इन्द्रिय आदि अनात्मवस्तुओं का यह आत्मा नहीं है’—इस प्रकार बाध करते हुए आत्माको ढूँढऩा चाहिये ॥ २३ ॥ आत्मा सब में अनुगत है, परंतु है वह सब से पृथक्। इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से धीरे-धीरे संसार की उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलयपर विचार करना चाहिये। उतावली नहीं करनी चाहिये ॥ २४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा (पोस्ट 02)

श्रीराम जय राम जय जय राम !
श्रीराम जय राम जय जय राम !!

दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा (पोस्ट 02)

पुष्पोत्कटा के दो पुत्र हुए –रावण और कुम्भकर्ण | मालिनी से एक पुत्र विभीषण हुआ | राका के गर्भ से खर और शूर्पणखा हुए | यथा—

‘पुष्पोत्कटायां जज्ञाते द्वौ पुत्रौ राक्षसेश्वरौ |
कुम्भकर्ण दशग्रीवौ बलेनाऽप्रतिमौ भुवि ||
मालिनी जनयामास पुत्रमेकं विभीषण् |
राकायां मिथुनं जज्ञे खर:शूर्पणखा तथा ||’
.................(महाभारत वनपर्व अध्याय २७५|७-८)

रावण के दस सिर जन्मजात थे | इसी से उसका नाम प्रथम दशग्रीव था | रावण नाम तो कैलास के नीचे दबने पर हुआ | रावण का अर्थ है रुलाने वाला ..(वाल्मी० ७|१६ देखिये)
वाल्मीकीय के रावणजन्म की कथा तथा उसकी माता का नाम इससे भिन्न है | कथा इस प्रकार है कि विष्णु भगवान् के भय से सुमाली परिवारसहित रसातल में रहने लगा | एकबार जब वह अपनी कुमारी कन्या कैकसी सहित मर्त्यलोक में विचर रहा था, उसी समय कुबेरजी पिता विश्रवा के दर्शनों को जा रहे थे | उनका देवताओं और अग्नि के समान तेज देखकर वह रसातल को लौट आया और राक्षसों की वृद्धि का उपाय सोचकर उसने अपनी कन्या कैकसी से कहा कि तू पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा मुनि को स्वयं जाकर वर | इससे कुबेर के समान तेजस्वी पुत्र तुझे प्राप्त होंगे | पिता की आज्ञा मान कैकसी बिश्रवा मुनि के पास गयी | सायंकाल का समय था | वे अग्निहोत्र कर रहे थे | दारुण प्रदोष काल का उसने विचार न कर वहां जाकर उनके समीप खड़ी हो गयी | उसे देखकर उन्होंने पूछा कि तुम कौन हो और क्यों आई हो ? उसने उत्तर दिया कि आप तप: प्रभाव से मेरे मन की बात जान सकते हैं | मैं केवल इतना बताये देती हूँ कि मैं केवल अपने पिता की आज्ञा से आयी हूँ और मेरा नाम कैकसी है |

विश्रवा मुनि ध्यान द्वारा सब जानकर उससे कहा की तू दारुण समय में आयी है, इससे तेरे पुत्र बड़े क्रूर कर्म करने वाले और भयंकर आकृति के होंगे | यह सुनकर उसने प्रार्थना की कि आप—ऐसे ब्रह्मवादी से मुझे ऐसे पुत्र न होने चाहिए | आप मुझपर कृपा करें | मुनि ने कहा—‘अच्छा, तेरा पिछ्ला पुत्र वंशानुकूल धर्मात्मा होगा |’

कैकसी के गर्भ से क्रमश: रावण, कुम्भकर्ण, शूर्पणखा उत्पन्न हुए | सबसे पीछे विभीषण हुए |...(वाल्मी०७|९|१-३५)

प्राय: यही कथा अध्यात्मरामायण में है |...(अ०रा० ७|१|४५-५९) | पद्मपुराण-पातालखण्ड में श्री अगस्त्यजी ने श्रीराम दरबार में जो कथा कही है उसमें की ‘कैकसी’ विद्युन्माली दैत्य की कन्या थी | उस कैकसी के ही रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण पुत्र हुए |

यों भी कहा जाता है की रूद्रयामलतंत्र और पद्मपुराण में लिखा है कि कैकसी को रतिदान की स्वीकृति दे मुनि ध्यान में लीन होगये | ध्यान छूटने पर पूछा—उसने कहा कि दस बार मुझे रतिधर्म हुआ है , इससे आशीर्वाद दिया की प्रथम पुत्र दस सिरवाला होगा और ‘केसी’ से कहा कि तेरे एक पुत्र होगा जो बड़ा ज्ञानी और हरिभक्त होगा | रावण, कुम्भकर्ण और शूर्पणखा ‘कैकसी’ से हुए और विभीषण ‘केसी’ से हुए | ...(वीर)”

----गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “मानस-पीयूष” खण्ड २ (पुस्तक कोड ८८) से |


श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

जन्माद्याः षडिमे भावा दृष्टा देहस्य नात्मनः
फलानामिव वृक्षस्य कालेनेश्वरमूर्तिना ||१८|
आत्मा नित्योऽव्ययः शुद्ध एकः क्षेत्रज्ञ आश्रयः
अविक्रियः स्वदृघेतुर्व्यापकोऽसङ्ग्यनावृतः ||१९||
एतैर्द्वादशभिर्विद्वानात्मनो लक्षणैः परैः
अहं ममेत्यसद्भावं देहादौ मोहजं त्यजेत् ||२०||
स्वर्णं यथा ग्रावसु हेमकारः क्षेत्रेषु योगैस्तदभिज्ञ आप्नुयात्
क्षेत्रेषु देहेषु तथात्मयोगैरध्यात्मविद्ब्रह्मगतिं लभेत ||२१||

(प्रह्लादजी कह रहे हैं) जैसे ईश्वरमूर्ति काल की प्रेरणा से वृक्षों के फल लगते,ठहरते,बढ़ते,पकते, क्षीण होते और नष्ट हो जाते हैंवैसे ही जन्म, अस्तित्व की अनुभूति, वृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाशये छ: भाव-विकार शरीर में ही देखे जाते हैं,आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है ॥१८॥ आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयं-प्रकाश, सब का कारण, व्यापक, असङ्ग तथा आवरणरहित है ॥ १९ ॥ ये बारह आत्मा के उत्कृष्ट लक्षण हैं। इनके द्वारा आत्मतत्त्व को जाननेवाले पुरुष को चाहिये कि शरीर आदि में अज्ञान के कारण जो मैंऔर मेरेका झूठा भाव हो रहा है, उसे छोड़ दे ॥ २० ॥ जिस प्रकार सुवर्ण की खानों में पत्थर में मिले हुए सुवर्ण को उसके निकालने की विधि जानने वाला स्वर्णकार उन विधियों से उसे प्राप्त कर लेता है, वैसे ही अध्यात्मतत्त्व को जाननेवाला पुरुष आत्मप्राप्ति के उपायोंद्वारा अपने शरीररूप क्षेत्रमें ही ब्रह्मपदका साक्षात्कार कर लेता है ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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बुधवार, 3 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

ततो मे मातरमृषिः समानीय निजाश्रमे
आश्वास्येहोष्यतां वत्से यावत्ते भर्तुरागमः ||१२||
तथेत्यवात्सीद्देवर्षेरन्तिके साकुतोभया
यावद्दैत्यपतिर्घोरात्तपसो न न्यवर्तत ||१३||
ऋषिं पर्यचरत्तत्र भक्त्या परमया सती
अन्तर्वत्नी स्वगर्भस्य क्षेमायेच्छाप्रसूतये ||१४||
ऋषिः कारुणिकस्तस्याः प्रादादुभयमीश्वरः
धर्मस्य तत्त्वं ज्ञानं च मामप्युद्दिश्य निर्मलम् ||१५||
तत्तु कालस्य दीर्घत्वात्स्त्रीत्वान्मातुस्तिरोदधे
ऋषिणानुगृहीतं मां नाधुनाप्यजहात्स्मृतिः ||१६||
भवतामपि भूयान्मे यदि श्रद्दधते वचः
वैशारदी धीः श्रद्धातः स्त्रीबालानां च मे यथा ||१७||

(प्रह्लादजी कह रहे हैं) इसके बाद देवर्षि नारदजी मेरी माता को अपने आश्रमपर लिवा गये और उसे समझा-बुझाकर कहा कि—‘बेटी ! जबतक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तबतक तुम यहीं रहो॥ १२ ॥ जो आज्ञाकहकर वह निर्भयता से देवर्षि नारद के आश्रमपर ही रहने लगी और तबतक रही, जबतक मेरे पिता घोर तपस्या से लौटकर नहीं आये ॥ १३ ॥ मेरी गर्भवती माता मुझ गर्भस्थ शिशु की मङ्गलकामना से और इच्छित समयपर (अर्थात् मेरे पिता के लौटने के बाद) सन्तान उत्पन्न करने की कामना से बड़े प्रेम तथा भक्ति के साथ नारदजी की सेवा-शुश्रूषा करती रही ॥ १४ ॥
देवर्षि नारदजी बड़े दयालु और सर्वसमर्थ हैं। उन्होंने मेरी माँ को भागवतधर्म का रहस्य और विशुद्ध ज्ञानदोनों का उपदेश किया। उपदेश करते समय उनकी दृष्टि मुझपर भी थी ॥ १५ ॥ बहुत समय बीत जाने के कारण और स्त्री होने के कारण भी मेरी माता को तो अब उस ज्ञान की स्मृति नहीं रही, परंतु देवर्षि की विशेष कृपा होने के कारण मुझे उसकी विस्मृति नहीं हुई ॥१६॥ यदि तुमलोग मेरी इस बातपर श्रद्धा करो तो तुम्हें भी वह ज्ञान हो सकता है। क्योंकि श्रद्धा से स्त्री और बालकों की बुद्धि भी मेरे ही समान शुद्ध हो सकती है ॥ १७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





कल्याण तो स्वाभाविक है, पर लोगों ने इसे हौआ बना दिया है

!!ॐ श्रीपरमात्मने नमः!! 

१- कल्याण तो स्वाभाविक है, पर लोगों ने इसे हौआ बना दिया है । मुक्ति में मनुष्यमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है । मनुष्यमात्र विवेकवान है । मनुष्यमात्र में जानने, करने और मानने की शक्ति है ।

स्वरूप का बोध होनेपर ब्रह्म का ज्ञान हो जायगा, पर ईश्वर का ज्ञान नहीं होगा । जो ईश्वर को नहीं जान सके, उन्होंने ईश्वर को कल्पित मान लिया ! तत्त्वज्ञान होनेपर भी प्रेम शेष रह जायेगा । वह प्रेम ईश्वर की कृपा से होगा । बढ़ने-घटनेवाली चीज तो जड़ होती है, पर प्रेम तो बढ़ता-ही-बढ़ता रहता है ।

२- भगवान की बात तत्त्वज्ञान से विलक्षण है―

'तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन । जानहिं भगत भगत उर चंदन ।। 

(मानस, अयोध्या० १२७ । २) 

भगवान मिलें तो भेड़-बकरी चरानेवाले को मिल जायँ, अन्यथा षट्शास्त्रों के पण्डित को भी नहीं मिलें ! विश्वास हो तो उनकी प्राप्ति बहुत सुगम है । नाशवान में विश्वास होनेसे ही कठिनता है ।

― परमश्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी

('सागर के मोती' पुस्तक से)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...