॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट१५)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
सर्वेषामपि
भूतानां हरिरात्मेश्वरः प्रियः
भूतैर्महद्भिः
स्वकृतैः कृतानां जीवसंज्ञितः ||४९||
देवोऽसुरो
मनुष्यो वा यक्षो गन्धर्व एव वा
भजन्मुकुन्दचरणं
स्वस्तिमान्स्याद्यथा वयम् ||५०||
नालं
द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वासुरात्मजाः
प्रीणनाय
मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता ||५१||
न
दानं न तपो नेज्या न शौचं न व्रतानि च
प्रीयतेऽमलया
भक्त्या हरिरन्यद्विडम्बनम् ||५२||
ततो
हरौ भगवति भक्तिं कुरुत दानवाः
आत्मौपम्येन
सर्वत्र सर्वभूतात्मनीश्वरे ||५३||
भगवान्
श्रीहरि समस्त प्राणियोंके ईश्वर, आत्मा और परम प्रियतम हैं। वे
अपने ही बनाये हुए पञ्चभूत और सूक्ष्मभूत आदिके द्वारा निर्मित शरीरोंमें जीवके
नामसे कहे जाते हैं ॥ ४९ ॥ देवता, दैत्य, मनुष्य यक्ष अथवा गन्धर्व—कोई भी क्यों न हो—जो भगवान्के चरणकमलोंका सेवन करता है, वह हमारे ही
समान कल्याणका भाजन होता है ॥ ५० ॥
दैत्यबालको
! भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना,
सदाचार और विविध ज्ञानों से सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक
शौच और बड़े-बड़े व्रतोंका अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान् केवल निष्काम
प्रेम-भक्तिसे ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बनामात्र हैं ॥ ५१-५२ ॥ इसलिये
दानव-बन्धुओ ! समस्त प्राणियोंको अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान्की भक्ति करो ॥ ५३
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से