बुधवार, 7 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

तृष्णया भववाहिन्या योग्यैः कामैरपूर्यया
कर्माणि कार्यमाणोऽहं नानायोनिषु योजितः ॥ २३ ॥
यदृच्छया लोकमिमं प्रापितः कर्मभिर्भ्रमन्
स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं तिरश्चां पुनरस्य च ॥ २४ ॥
तत्रापि दम्पतीनां च सुखायान्यापनुत्तये
कर्माणि कुर्वतां दृष्ट्वा निवृत्तोऽस्मि विपर्ययम् ॥ २५ ॥

(दत्तात्रेयजी कह रहे हैं) प्रह्लादजी ! तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पूरी नहीं होती। उसी के कारण जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णा ने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके कारण न जाने कितनी योनियोंमें मुझे डाला ॥ २३ ॥ कर्मोंके कारण अनेकों योनियोंमें भटकते-भटकते दैववश मुझे यह मनुष्ययोनि मिली है, जो स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानवदेहकी भी प्राप्तिका द्वार हैइसमें पुण्य करें तो स्वर्ग, पाप करें तो पशु-पक्षी आदिकी योनि, निवृत्त हो जायँ तो मोक्ष और दोनों प्रकारके कर्म किये जायँ तो फिर मनुष्य-योनिकी ही प्राप्ति हो सकती है ॥ २४ ॥ परंतु मैं देखता हूँ कि संसारके स्त्री-पुरुष कर्म तो करते हैं सुखकी प्राप्ति और दु:खकी निवृत्तिके लिये, किन्तु उसका फल उलटा होता ही हैवे और भी दु:खमें पड़ जाते हैं। इसीलिये मैं कर्मोंसे उपरत हो गया हूँ ॥ २५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

श्रीनारद उवाच

स इत्थं दैत्यपतिना परिपृष्टो महामुनिः
स्मयमानस्तमभ्याह तद्वागमृतयन्त्रितः ॥ १९ ॥

श्रीब्राह्मण उवाच

वेदेदमसुरश्रेष्ठ भवान्नन्वार्यसम्मतः
ईहोपरमयोर्नॄणां पदान्यध्यात्मचक्षुषा ॥ २० ॥
यस्य नारायणो देवो भगवान्हृद्गतः सदा
भक्त्या केवलयाज्ञानं धुनोति ध्वान्तमर्कवत् ॥ २१ ॥
तथापि ब्रूमहे प्रश्नांस्तव राजन्यथाश्रुतम्
सम्भाषणीयो हि भवानात्मनः शुद्धिमिच्छता ॥ २२ ॥


नारदजी कहते हैं—धर्मराज ! जब प्रह्लादजीने महामुनि दत्तात्रेयजीसे इस प्रकार प्रश्न किया, तब वे उनकी अमृतमयी वाणीके वशीभूत हो मुसकराते हुए बोले ॥ १९ ॥
दत्तात्रेयजीने कहा—दैत्यराज ! सभी श्रेष्ठ पुरुष तुम्हारा सम्मान करते हैं। मनुष्योंको कर्मोंकी प्रवृत्ति और उनकी निवृत्तिका क्या फल मिलता है, यह बात तुम अपनी ज्ञानदृष्टिसे जानते ही हो ॥ २० ॥ तुम्हारी अनन्य भक्तिके कारण देवाधिदेव भगवान्‌ नारायण सदा तुम्हारे हृदयमें विराजमान रहते हैं और जैसे सूर्य अन्धकारको नष्ट कर देते हैं, वैसे ही वे तुम्हारे अज्ञानको नष्ट करते रहते हैं ॥ २१ ॥ तो भी प्रह्लाद ! मैंने जैसा कुछ जाना है, उसके अनुसार मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ। क्योंकि आत्मशुद्धि के अभिलाषियों को तुम्हारा सम्मान अवश्य करना चाहिये ॥ २२ ॥

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मंगलवार, 6 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्
प्रह्रादस्य च संवादं मुनेराजगरस्य च ॥ ११ ॥
तं शयानं धरोपस्थे कावेर्यां सह्यसानुनि
रजस्वलैस्तनूदेशैर्निगूढामलतेजसम् ॥ १२ ॥
ददर्श लोकान्विचरन्लोकतत्त्वविवित्सया
वृतोऽमात्यैः कतिपयैः प्रह्रादो भगवत्प्रियः ॥ १३ ॥
कर्मणाकृतिभिर्वाचा लिङ्गैर्वर्णाश्रमादिभिः
न विदन्ति जना यं वै सोऽसाविति न वेति च ॥ १४ ॥
तं नत्वाभ्यर्च्य विधिवत्पादयोः शिरसा स्पृशन्
विवित्सुरिदमप्राक्षीन्महाभागवतोऽसुरः ॥ १५ ॥
बिभर्षि कायं पीवानं सोद्यमो भोगवान्यथा
वित्तं चैवोद्यमवतां भोगो वित्तवतामिह
भोगिनां खलु देहोऽयं पीवा भवति नान्यथा ॥ १६ ॥
न ते शयानस्य निरुद्यमस्य ब्रह्मन्नु हार्थो यत एव भोगः
अभोगिनोऽयं तव विप्र देहः पीवा यतस्तद्वद नः क्षमं चेत् ॥ १७ ॥
कविः कल्पो निपुणदृक्चित्रप्रियकथः समः
लोकस्य कुर्वतः कर्म शेषे तद्वीक्षितापि वा ॥ १८ ॥

युधिष्ठिर ! इस विषय में महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं। वह है दत्तात्रेय मुनि और भक्तराज प्रह्लाद का संवाद ॥ ११ ॥ एक बार भगवान्‌ के परम प्रेमी प्रह्लाद जी कुछ मन्त्रियों के साथ लोगों के हृदयकी बात जाननेकी इच्छासे लोकोंमें विचरण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि सह्य पर्वतकी तलहटीमें कावेरी नदीके तटपर पृथ्वीपर ही एक मुनि पड़े हुए हैं। उनके शरीरकी निर्मल ज्योति अङ्गोंके धूलि-धूसरित होनेके कारण ढकी हुई थी ॥ १२-१३ ॥ उनके कर्म, आकार, वाणी और वर्ण-आश्रम आदिके चिह्नोंसे लोग यह नहीं समझ सकते थे कि वे कोई सिद्ध पुरुष हैं या नहीं ॥ १४ ॥ भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादजीने अपने सिरसे उनके चरणोंका स्पर्श करके प्रणाम किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके जाननेकी इच्छासे यह प्रश्र किया ॥ १५ ॥ भगवन् ! आपका शरीर उद्योगी और भोगी पुरुषोंके समान हृष्ट-पुष्ट है। संसारका यह नियम है कि उद्योग करनेवालोंको धन मिलता है, धनवालोंको ही भोग प्राप्त होता है और भोगियोंका ही शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है। और कोई दूसरा कारण तो हो नहीं सकता ॥ १६ ॥ भगवन् ! आप कोई उद्योग तो करते नहीं, यों ही पड़े रहते हैं। इसलिये आपके पास धन है नहीं। फिर आपको भोग कहाँसे प्राप्त होंगे ? ब्राह्मणदेवता ! बिना भोगके ही आपका यह शरीर इतना हृष्ट-पुष्ट कैसे है ? यदि हमारे सुननेयोग्य हो, तो अवश्य बतलाइये ॥ १७ ॥ आप विद्वान्, समर्थ और चतुर हैं। आपकी बातें बड़ी अद्भुत और प्रिय होती हैं। ऐसी अवस्थामें आप सारे संसारको कर्म करते हुए देखकर भी समभावसे पड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है ?’ ॥ १८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

श्रीनारद उवाच
कल्पस्त्वेवं परिव्रज्य देहमात्रावशेषितः
ग्रामैकरात्रविधिना निरपेक्षश्चरेन्महीम् ॥ १ ॥
बिभृयाद्यद्यसौ वासः कौपीनाच्छादनं परम्
त्यक्तं न लिङ्गाद्दण्डादेरन्यत्किञ्चिदनापदि ॥ २ ॥
एक एव चरेद्भिक्षुरात्मारामोऽनपाश्रयः
सर्वभूतसुहृच्छान्तो नारायणपरायणः ॥ ३ ॥
पश्येदात्मन्यदो विश्वं परे सदसतोऽव्यये
आत्मानं च परं ब्रह्म सर्वत्र सदसन्मये ॥ ४ ॥
सुप्तिप्रबोधयोः सन्धावात्मनो गतिमात्मदृक्
पश्यन्बन्धं च मोक्षं च मायामात्रं न वस्तुतः ॥ ५ ॥
नाभिनन्देद्ध्रुवं मृत्युमध्रुवं वास्य जीवितम्
कालं परं प्रतीक्षेत भूतानां प्रभवाप्ययम् ॥ ६ ॥
नासच्छास्त्रेषु सज्जेत नोपजीवेत जीविकाम्
वादवादांस्त्यजेत्तर्कान्पक्षं कंच न संश्रयेत् ॥ ७ ॥
न शिष्याननुबध्नीत ग्रन्थान्नैवाभ्यसेद्बहून्
न व्याख्यामुपयुञ्जीत नारम्भानारभेत्क्वचित् ॥ ८ ॥
न यतेराश्रमः प्रायो धर्महेतुर्महात्मनः
शान्तस्य समचित्तस्य बिभृयादुत वा त्यजेत् ॥ ९ ॥
अव्यक्तलिङ्गो व्यक्तार्थो मनीष्युन्मत्तबालवत्
कविर्मूकवदात्मानं स दृष्ट्या दर्शयेन्नृणाम् ॥ १० ॥

नारदजी कहते हैंधर्मराज ! यदि वानप्रस्थीमें ब्रह्मविचारका सामर्थ्य हो, तो शरीरके अतिरिक्त और सब कुछ छोडक़र वह संन्यास ले ले; तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान और समय की अपेक्षा न रखकर एक गाँवमें एक ही रात ठहरनेका नियम लेकर पृथ्वीपर विचरण करे ॥ १ ॥ यदि वह वस्त्र पहने तो केवल कौपीन, जिससे उसके गुप्त अङ्ग ढक जायँ। और जबतक कोई आपत्ति न आवे, तबतक दण्ड तथा अपने आश्रमके चिह्नोंके सिवा अपनी त्यागी हुई किसी भी वस्तुको ग्रहण न करे ॥ २ ॥ संन्यासीको चाहिये कि वह समस्त प्राणियोंका हितैषी हो, शान्त रहे, भगवत्परायण रहे और किसीका आश्रय न लेकर अपने-आपमें ही रमे एवं अकेला ही विचरे ॥ ३ ॥ इस सम्पूर्ण विश्वको कार्य और कारणसे अतीत परमात्मामें अध्यस्त जाने और कार्य-कारणस्वरूप इस जगत् में  ब्रह्मस्वरूप अपने आत्माको परिपूर्ण देखे ॥ ४ ॥ आत्मदर्शी संन्यासी सुषुप्ति और जागरणकी सन्धिमें अपने स्वरूपका अनुभव करे और बन्धन तथा मोक्ष दोनों ही केवल माया हैं, वस्तुत: कुछ नहींऐसा समझे ॥ ५ ॥ न तो शरीरकी अवश्य होनेवाली मृत्युका अभिनन्दन करे और न अनिश्चित जीवनका। केवल समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और नाशके कारण कालकी प्रतीक्षा करता रहे ॥ ६ ॥ असत्यअनात्मवस्तुका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंसे प्रीति न करे। अपने जीवन-निर्वाहके लिये कोई जीविका न करे, केवल वाद-विवादके लिये कोई तर्क न करे और संसारमें किसीका पक्ष न ले ॥ ७ ॥ शिष्य-मण्डली न जुटावे, बहुत-से ग्रन्थोंका अभ्यास न करे, व्याख्यान न दे और बड़े-बड़े कामोंका आरम्भ न करे ॥ ८ ॥ शान्त, समदर्शी एवं महात्मा संन्यासीके लिये किसी आश्रमका बन्धन धर्मका कारण नहीं है। वह अपने आश्रमके चिह्नोंको धारण करे, चाहे छोड़ दे ॥ ९ ॥ उसके पास कोई आश्रमका चिह्न न हो, परंतु वह आत्मानुसन्धान में मग्न हो। हो तो अत्यन्त विचारशील, परंतु जान पड़े पागल और बालककी तरह। वह अत्यन्त प्रतिभाशील होनेपर भी साधारण मनुष्योंकी दृष्टिसे ऐसा जान पड़े मानो कोई गूँगा है ॥ १० ॥

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सोमवार, 5 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ-आश्रमोंके नियम

यदाकल्पः स्वक्रियायां व्याधिभिर्जरयाथवा ।
आन्वीक्षिक्यां वा विद्यायां कुर्यादनशनादिकम् ॥ २३ ॥
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य सन्न्यस्याहं ममात्मताम् ।
कारणेषु न्यसेत् सम्यक् संघातं तु यथार्हतः ॥ २४ ॥
खे खानि वायौ निश्वासान् तजःसूष्माणमात्मवान् ।
अप्स्वसृक्श्लेष्मपूयानि क्षितौ शेषं यथोद्‍भवम् ॥ २५ ॥
वाचमग्नौ सवक्तव्यां इन्द्रे शिल्पं करावपि ।
पदानि गत्या वयसि रत्योपस्थं प्रजापतौ ॥ २६ ॥
मृत्यौ पायुं विसर्गं च यथास्थानं विनिर्दिशेत् ।
दिक्षु श्रोत्रं सनादेन स्पर्शेनाध्यात्मनि त्वचम् ॥ २७ ॥
रूपाणि चक्षुषा राजन् ज्योतिष्यभिनिवेशयेत् ।
अप्सु प्रचेतसा जिह्वां घ्रेयैर्घ्राणं क्षितौ न्यसेत् ॥ २८ ॥
मनो मनोरथैश्चन्द्रे बुद्धिं बोध्यैः कवौ परे ।
कर्माण्यध्यात्मना रुद्रे यदहं ममताक्रिया ।
सत्त्वेन चित्तं क्षेत्रज्ञे गुणैर्वैकारिकं परे ॥ २९ ॥
अप्सु क्षितिमपो ज्योतिषि अदो वायौ नभस्यमुम् ।
कूटस्थे तच्च महति तदव्यक्तेऽक्षरे च तत् ॥ ३० ॥
इत्यक्षरतयाऽऽत्मानं चिन्मात्रमवशेषितम् ।
ज्ञात्वाद्वयोऽथ विरमेद् दग्धयोनिरिवानलः ॥ ३१ ॥

वानप्रस्थी पुरुष जब रोग अथवा बुढ़ापे के कारण अपने कर्म पूरे न कर सके और वेदान्त- विचार करने की भी सामर्थ्य न रहे, तब उसे अनशन आदि व्रत करने चाहिये ॥ २३ ॥ अनशन के पूर्व ही वह अपने आहवनीय आदि अग्नियों को अपनी आत्मा में लीन कर ले। मैंपनऔर मेरेपनका त्याग करके शरीरको उसके कारण भूत तत्त्वों में यथायोग्य भलीभाँति लीन करे ॥ २४ ॥ जितेन्द्रिय पुरुष अपने शरीरके छिद्राकाशोंको आकाशमें, प्राणोंको वायुमें, गरमीको अग्रिमें, रक्त, कफ, पीब आदि जलीय तत्त्वोंको जलमें और हड्डी आदि ठोस वस्तुओंको पृथ्वीमें लीन करे ॥ २५ ॥ इसी प्रकार वाणी और उसके कर्म भाषणको उसके अधिष्ठातृ-देवता अग्रिमें, हाथ और उसके द्वारा होनेवाले कला-कौशलको इन्द्रमें, चरण और उसकी गतिको कालस्वरूप विष्णुमें, रति और उपस्थको प्रजापतिमें एवं पायु और मलोत्सर्गको उनके आश्रयके अनुसार मृत्युमें लीन कर दे। श्रोत्र और उसके द्वारा सुने जानेवाले शब्दको दिशाओंमें, स्पर्श और त्वचाको वायुमें, नेत्रसहित रूपको ज्योतिमें, मधुर आदि रसके सहित[*] रसनेन्द्रियको जलमें और युधिष्ठिर ! घ्राणेन्द्रिय एवं उसके द्वारा सूँघे जानेवाले गन्धको पृथ्वीमें लीन कर दे ॥ २६२८ ॥ मनोरथोंके साथ मनको चन्द्रमामें, समझमें आनेवाले पदार्थोंके सहित बुद्धिको ब्रह्मामें तथा अहंता और ममतारूप क्रिया करनेवाले अहंकारको उसके कर्मोंके साथ रुद्रमें लीन कर दे। इसी प्रकार चेतना-सहित चित्तको क्षेत्रज्ञ (जीव)में और गुणोंके कारण विकारी-से प्रतीत होनेवाले जीवको परब्रह्ममें लीन कर दे ॥ २९ ॥ साथ ही पृथ्वीका जलमें, जलका अग्रिमें, अग्रिका वायुमें, वायुका आकाशमें, आकाशका अहंकारमें, अहंकारका महत्तत्त्वमें, महत्तत्त्वका अव्यक्तमें और अव्यक्तका अविनाशी परमात्मामें लय कर दे ॥ ३० ॥ इस प्रकार अविनाशी परमात्माके रूपमें अवशिष्ट जो चिद्वस्तु है, वह आत्मा है, वह मैं हूँयह जानकर अद्वितीय भावमें स्थित हो जाय। जैसे अपने आश्रय काष्ठादि के भस्म हो जानेपर अग्रि शान्त होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, वैसे ही वह भी उपरत हो जाय ॥ ३१ ॥
.......................................................................
[*] यहाँ मूलमें प्रचेतसापद है, जिसका अर्थ वरुणके सहितहोता है। वरुण रसनेन्द्रियके अधिष्ठाता हैं। श्रीधरस्वामीने भी इसी मतको स्वीकार किया है। परंतु इस प्रसङ्गमें सर्वत्र इन्द्रिय और उसके विषयका अधिष्ठातृदेवमें लय करना बताया गया है, फिर रसनेन्द्रियके लिये ही नया क्रम युक्तियुक्त नहीं जँचता। इसलिये यहाँ श्रीविश्वनाथ चक्रवर्तीके मतानुसार प्रचेतसापदका (प्रकृष्टं चेतो यत्र स प्रचेतो मधुरादिरसस्तेन’—जिसकी ओर चित्त अधिक आकृष्ट हो, वह मधुरादि रस प्रचेतस्है, उसके सहित) इस विग्रहके अनुसार प्रस्तुत अर्थ किया गया है और यही युक्तियुक्त मालूम होता है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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जय विश्वनाथ !


जय विश्वनाथ !

तस्मै नमः परमकारणकारणाय
दीप्तोज्ज्वलज्ज्वलितपिङ्गललोचनाय ।
नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय
ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नमः शिवाय ॥


(जो कारण के भी परम कारण हैं, (अग्निशिखा के समान) अति देदीप्यमान उज्ज्वल और पिंगल नेत्रोंवाले हैं, सर्पराजों के हार-कुण्डलादि से भूषित हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्रादि को भी वर देनेवाले हैं, उन श्रीशंकर को नमस्कार करता हूँ)



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ-आश्रमोंके नियम

वानप्रस्थस्य वक्ष्यामि नियमान् मुनिसम्मतान् ।
यानास्थाय मुनिर्गच्छेद् ऋषिलोकमुहाञ्जसा ॥ १७ ॥
न कृष्टपच्यमश्नीयाद् अकृष्टं चाप्यकालतः ।
अग्निपक्वमथामं वा अर्कपक्वमुताहरेत् ॥ १८ ॥
वन्यैश्चरुपुरोडाशान् निर्वपेत्कालचोदितान् ।
लब्धे नवे नवेऽन्नाद्ये पुराणं च परित्यजेत् ॥ १९ ॥
अग्न्यर्थमेव शरणं उटजं वाद्रिकन्दरम् ।
श्रयेत हिमवाय्वग्नि वर्षार्कातपषाट् स्वयम् ॥ २० ॥
केशरोमनखश्मश्रु मलानि जटिलो दधत् ।
कमण्डल्वजिने दण्ड वल्कलाग्निपरिच्छदान् ॥ २१ ॥
चरेद् वने द्वादशाब्दान् अष्टौ वा चतुरो मुनिः ।
द्वावेकं वा यथा बुद्धिः न विपद्येत कृच्छ्रतः ॥ २२ ॥

(नारदजी कह रहे हैं) अब मैं ऋषियों के मतानुसार वानप्रस्थ-आश्रम के नियम बतलाता हूँ। इनका आचरण करनेसे वानप्रस्थ-आश्रमीको अनायास ही ऋषियोंके लोक महर्लोककी प्राप्ति हो जाती है ॥ १७ ॥ वानप्रस्थ-आश्रमीको जोती हुई भूमिमें उत्पन्न होनेवाले चावल, गेहूँ आदि अन्न नहीं खाने चाहिये। बिना जोते पैदा हुआ अन्न भी यदि असमयमें पका हो, तो उसे भी न खाना चाहिये। आगसे पकाया हुआ या कच्चा अन्न भी न खाय। केवल सूर्यके तापसे पके हुए कन्द, मूल, फल आदिका ही सेवन करे ॥ १८ ॥ जंगलोंमें अपने-आप पैदा हुए धान्योंसे नित्य-नैमित्तिक चरु और पुरोडाशका हवन करे। जब नये-नये अन्न, फल, फूल आदि मिलने लगें, तब पहलेके इकट्ठेकिये हुए अन्नका परित्याग कर दे ॥ १९ ॥ अग्निहोत्र के अग्नि की रक्षाके लिये ही घर, पर्णकुटी अथवा पहाडक़ी गुफाका आश्रय ले। स्वयं शीत, वायु, अग्नि, वर्षा और घामका सहन करे ॥ २० ॥ सिरपर जटा धारण करे और केश, रोम, नख एवं दाढ़ी-मूँछ न कटवाये तथा मैलको भी शरीरसे अलग न करे। कमण्डलु, मृगचर्म, दण्ड, वल्कल-वस्त्र और अग्रिहोत्रकी सामग्रियोंको अपने पास रखे ॥ २१ ॥ विचारवान् पुरुषको चाहिये कि बारह, आठ, चार, दो या एक वर्षतक वानप्रस्थ-आश्रमके नियमोंका पालन करे। ध्यान रहे कि कहीं अधिक तपस्याका क्लेश सहन करनेसे बुद्धि बिगड़ न जाय ॥ २२ ॥

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रविवार, 4 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ-आश्रमोंके नियम

अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेष्वधोक्षजम् ।
भूतैः स्वधामभिः पश्येद् अप्रविष्टं प्रविष्टवत् ॥ १५ ॥
एवं विधो ब्रह्मचारी वानप्रस्थो यतिर्गृही ।
चरन्विदितविज्ञानः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ १६ ॥

यद्यपि भगवान्‌ स्वरूपत: सर्वत्र एकरस स्थित हैं, अतएव उनका कहीं प्रवेश करना या निकलना नहीं हो सकताफिर भी अग्नि, गुरु, आत्मा और समस्त प्राणियोंमें अपने आश्रित जीवोंके साथ वे विशेषरूपसे विराजमान हैं। इसलिये उनपर सदा दृष्टि जमी रहनी चाहिये ॥ १५ ॥ इस प्रकार आचरण करनेवाला ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, संन्यासी अथवा गृहस्थ विज्ञानसम्पन्न होकर परब्रह्मतत्त्व का अनुभव प्राप्त कर लेता है ॥ १६ ॥

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श्रीभगवान्‌ के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है !!



ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

इस मनुष्य-जन्म में श्रीभगवान्‌ के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है । क्योंकि भगवान्‌ समस्त प्राणियोंके स्वामी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हैं ॥ भाइयो ! इन्द्रियों से जो सुख भोगा जाता है, वह तोजीव चाहे जिस योनि में रहेप्रारब्ध के अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकार का प्रयत्न किये, निवारण करनेपर भी दु:ख मिलता है ॥ इसलिये सांसारिक सुख के उद्देश्य से प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है । क्योंकि स्वयं मिलनेवाली वस्तुके  लिये परिश्रम करना आयु और शक्ति को व्यर्थ गँवाना है । जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान्‌ के परम कल्याण-स्वरूप चरणकमलों की प्राप्ति नहीं होती ॥ ४ ॥

…..श्रीमद्भागवत  7/6/2-4



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ-आश्रमोंके नियम

केशप्रसाधनोन्मर्द स्नपनाभ्यञ्जनादिकम् ।
गुरुस्त्रीभिर्युवतिभिः कारयेन्नात्मनो युवा ॥ ८ ॥
नन्वग्निः प्रमदा नाम घृतकुम्भसमः पुमान् ।
सुतामपि रहो जह्याद् अन्यदा यावदर्थकृत् ॥ ९ ॥
कल्पयित्वाऽऽत्मना यावद् आभासमिदमीश्वरः ।
द्वैतं तावन्न विरमेत् ततो ह्यस्य विपर्ययः ॥ १० ॥
एतत् सर्वं गृहस्थस्य समाम्नातं यतेरपि ।
गुरुवृत्तिर्विकल्पेन गृहस्थस्यर्तुगामिनः ॥ ११ ॥
अञ्जनाभ्यञ्जनोन्मर्द त्र्यवलेखामिषं मधु ।
स्रग् गन्धलेपालंकारान् त्यजेयुर्ये बृहद्व्रताः ॥ १२ ॥
उषित्वैवं गुरुकुले द्विजोऽधीत्यावबुध्य च ।
त्रयीं साङ्‌गोपनिषदं यावदर्थं यथाबलम् ॥ १३ ॥
दत्त्वा वरमनुज्ञातो गुरोः कामं यदीश्वरः ।
गृहं वनं वा प्रविशेत् प्रव्रजेत् तत्र वा वसेत् ॥ १४ ॥

युवक ब्रह्मचारी युवती गुरुपत्नियोंसे बाल सुलझवाना, शरीर मलवाना, स्नान करवाना, उबटन लगवाना इत्यादि कार्य न करावे ॥ ८ ॥ स्त्रियाँ आगके समान हैं और पुरुष घीके घड़ेके समान। एकान्तमें तो अपनी कन्याके साथ भी न रहना चाहिये। जब वह एकान्तमें न हो, तब भी आवश्यकताके अनुसार ही उसके पास रहना चाहिये ॥ ९ ॥ जबतक यह जीव आत्मसाक्षात्कारके द्वारा इन देह और इन्द्रियोंको प्रतीतिमात्र निश्चय करके स्वतन्त्र नहीं हो जाता, तबतक मैं पुरुष हूँ और यह स्त्री है’—यह द्वैत नहीं मिटता। और तबतक यह भी निश्चित है कि ऐसे पुरुष यदि स्त्रीके संसर्गमें रहेंगे, तो उनकी उनमें भोग्यबुद्धि हो ही जायगी ॥ १० ॥
ये सब शील-रक्षादि गुण गृहस्थके लिये और संन्यासीके लिये भी विहित हैं। गृहस्थके लिये गुरुकुलमें रहकर गुरुकी सेवा-शुश्रूषा वैकल्पिक है, क्योंकि ऋतुगमनके कारण उसे वहाँसे अलग भी होना पड़ता है ॥ ११ ॥ जो ब्रह्मचर्यका व्रत धारण करें, उन्हें चाहिये कि वे सुरमा या तेल न लगावें। उबटन न मलें। स्त्रियोंके चित्र न बनावें। मांस और मद्यसे कोई सम्बन्ध न रखें। फूलोंके हार, इत्र-फुलेल, चन्दन और आभूषणोंका त्याग कर दें ॥ १२ ॥ इस प्रकार गुरुकुलमें निवास करके द्विजातिको अपनी शक्ति और आवश्यकताके अनुसार वेद, उनके अङ्गशिक्षा, कल्प आदि और उपनिषदोंका अध्ययन तथा ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ॥ १३ ॥ फिर यदि सामथ्र्य हो तो गुरुको मुँहमाँगी दक्षिणा देनी चाहिये। इसके बाद उनकी आज्ञासे गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यास-आश्रममें प्रवेश करे या आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए उसी आश्रममें रहे ॥ १४ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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