॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
विधर्मः
परधर्मश्च आभास उपमा छलः
अधर्मशाखाः
पञ्चेमा धर्मज्ञोऽधर्मवत्त्यजेत् ॥ १२ ॥
धर्मबाधो
विधर्मः स्यात्परधर्मोऽन्यचोदितः
उपधर्मस्तु
पाखण्डो दम्भो वा शब्दभिच्छलः ॥ १३ ॥
यस्त्विच्छया
कृतः पुम्भिराभासो ह्याश्रमात्पृथक्
स्वभावविहितो
धर्मः कस्य नेष्टः प्रशान्तये ॥ १४ ॥
धर्मार्थमपि
नेहेत यात्रार्थं वाधनो धनम्
अनीहानीहमानस्य
महाहेरिव वृत्तिदा ॥ १५ ॥
सन्तुष्टस्य
निरीहस्य स्वात्मारामस्य यत्सुखम्
कुतस्तत्कामलोभेन
धावतोऽर्थेहया दिशः ॥ १६ ॥
सदा
सन्तुष्टमनसः सर्वाः शिवमया दिशः
शर्कराकण्टकादिभ्यो
यथोपानत्पदः शिवम् ॥ १७ ॥
अधर्मकी
पाँच शाखाएँ हैं—विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल। धर्मज्ञ पुरुष अधर्मके समान ही इनका भी त्याग कर दे ॥ १२ ॥
जिस कार्यको धर्मबुद्धिसे करनेपर भी अपने धर्ममें बाधा पड़े, वह ‘विधर्म’ है। किसी अन्यके
द्वारा अन्य पुरुषके लिये उपदेश किया हुआ धर्म ‘परधर्म’
है। पाखण्ड या दम्भका नाम ‘उपधर्म’ अथवा ‘उपमा’ है। शास्त्रके
वचनोंका दूसरे प्रकारका अर्थ कर देना ‘छल’ है ॥ १३ ॥ मनुष्य अपने आश्रमके विपरीत स्वेच्छासे जिसे धर्म मान लेता है,
वह ‘आभास’ है। अपने-अपने
स्वभावके अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म हैं, वे भला किसे
शान्ति नहीं देते ॥ १४ ॥
धर्मात्मा
पुरुष निर्धन होनेपर भी धर्मके लिये अथवा शरीर-निर्वाहके लिये धन प्राप्त करनेकी
चेष्टा न करे। क्योंकि जैसे बिना किसी प्रकारकी चेष्टा किये अजगरकी जीविका चलती ही
है,
वैसे ही निवृत्तिपरायण पुरुषकी निवृत्ति ही उसकी जीविकाका निर्वाह
कर देती है ॥ १५ ॥ जो सुख अपनी आत्मामें रमण करनेवाले निष्ङ्क्षक्रय सन्तोषी
पुरुषको मिलता है, वह उस मनुष्यको भला कैसे मिल सकता है,
जो कामना और लोभसे धनके लिये हाय-हाय करता हुआ इधर-उधर दौड़ता फिरता
है ॥ १६ ॥ जैसे पैरोंमें जूता पहनकर चलनेवालेको कंकड़ और काँटोंसे कोई डर नहीं
होता—वैसे ही जिसके मनमें सन्तोष है, उसके
लिये सर्वदा और सब कहीं सुख-ही-सुख है, दु:ख है ही नहीं ॥ १७
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से