शनिवार, 14 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

श्रीभगवानुवाच -

हन्त ब्रह्मन् अहो शम्भो हे देवा मम भाषितम् ।
श्रृणुतावहिताः सर्वे श्रेयो वः स्याद् यथा सुराः ॥ १८ ॥
यात दानवदैतेयैः तावत् सन्धिर्विधीयताम् ।
कालेनानुगृहीतैस्तैः यावद् वो भव आत्मनः ॥ १९ ॥
अरयोऽपि हि सन्धेयाः सति कार्यार्थगौरवे ।
अहिमूषिकवद् देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतैः ॥ २० ॥
अमृतोत्पादने यत्‍नः क्रियतां अविलम्बितम् ।
यस्य पीतस्य वै जन्तुः मृत्युग्रस्तोऽमरो भवेत् ॥ २१ ॥
क्षिप्त्वा क्षीरोदधौ सर्वा वीरुत्तृणलतौषधीः ।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम् ॥ २२ ॥
सहायेन मया देवा निर्मन्थध्वमतन्द्रिताः ।
क्लेशभाजो भविष्यन्ति दैत्या यूयं फलग्रहाः ॥ २३ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहाब्रह्मा, शङ्कर और देवताओ ! तुमलोग सावधान होकर मेरी सलाह सुनो। तुम्हारे कल्याण का यही उपाय है ॥ १८ ॥ इस समय असुरों पर कालकी कृपा है। इसलिये जब तक तुम्हारे अभ्युदय और उन्नतिका समय नहीं आता, तबतक तुम दैत्य और दानवों के पास जाकर उनसे सन्धि कर लो ॥ १९ ॥ देवताओ ! कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओंसे भी मेल-मिलाप कर लेना चाहिये। यह बात अवश्य है कि काम बन जानेपर उनके साथ साँप और चूहेवाला बर्ताव कर सकते हैं [*] ॥२०॥ तुमलोग बिना विलम्बके अमृत निकालनेका प्रयत्न करो। उसे पी लेनेपर मरनेवाला प्राणी भी अमर हो जाता है ॥ २१ ॥ पहले क्षीरसागरमें सब प्रकारके घास, तिनके, लताएँ और ओषधियाँ डाल दो। फिर तुमलोग मन्दराचलकी मथानी और वासुकि नागकी नेती बनाकर मेरी सहायतासे समुद्रका मन्थन करो। अब आलस्य और प्रमादका समय नहीं है। देवताओ ! विश्वास रखोदैत्योंको तो मिलेगा केवल श्रम और क्लेश, परंतु फल मिलेगा तुम्हीं लोगोंको ॥ २२-२३ ॥
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[*] किसी मदारी की पिटारी में साँप तो पहले से था ही, संयोगवश उसमें एक चूहा भी जा घुसा। चूहे के भयभीत होनेपर साँपने उसे प्रेम से समझाया कि तुम पिटारी में छेद कर दो, फिर हम दोनों भाग निकलेंगे। पहले तो साँप की इस बातपर चूहे को विश्वास न हुआ, परंतु पीछे उसने पिटारी में छेद कर दिया। इस प्रकार काम बन जाने पर साँप चूहे को निगल गया और पिटारी से निकल भागा।

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

श्रीशुक उवाच

एवं विरिञ्चादिभिरीडितस्तद्
     विज्ञाय तेषां हृदयं तथैव ।
जगाद जीमूतगभीरया गिरा
     बद्धाञ्जलीन् संवृतसर्वकारकान् ॥ १६ ॥
एक एवेश्वरस्तस्मिन् सुरकार्ये सुरेश्वरः ।
विहर्तुकामस्तानाह समुद्रोन्मथनादिभिः ॥ १७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंब्रह्मा आदि देवताओं ने इस प्रकार स्तुति करके अपनी सारी इन्द्रियाँ रोक लीं और सब बड़ी सावधानी के साथ हाथ जोडक़र खड़े हो गये। उनकी स्तुति सुनकर और उसी प्रकार उनके हृदय की बात जानकर भगवान्‌ मेघ के समान गम्भीर वाणी से बोले ॥ १६ ॥ परीक्षित्‌ ! समस्त देवताओंके तथा जगत् के एकमात्र स्वामी भगवान्‌ अकेले ही उनका सब कार्य करने में समर्थ थे, फिर भी समुद्र-मन्थन आदि लीलाओंके द्वारा विहार करनेकी इच्छासे वे देवताओं को सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगे ॥ १७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

स त्वं विधत्स्वाखिललोकपाला
     वयं यदर्थास्तव पादमूलम् ।
समागतास्ते बहिरन्तरात्मन्
     किं वान्यविज्ञाप्यमशेषसाक्षिणः ॥ १४ ॥
अहं गिरित्रश्च सुरादयो ये
     दक्षादयोऽग्नेरिव केतवस्ते ।
किं वा विदामेश पृथग्विभाता
     विधत्स्व शं नो द्विजदेवमंत्रम् ॥ १५ ॥

आप ही हमारे बाहर और भीतर के आत्मा हैं। हम सब लोकपाल जिस उद्देश्य से आपके चरणों की शरणमें आये हैं, उसे आप कृपा करके पूर्ण कीजिये। आप सबके साक्षी हैं, अत: इस विषय में हम लोग आपसे और क्या निवेदन करें ॥ १४ ॥ प्रभो ! मैं शङ्कर जी, अन्य देवता, ऋषि और दक्ष आदि प्रजापतिसब-के-सब अग्नि से  अलग हुई चिनगारी की तरह आपके ही अंश हैं और अपनेको आपसे अलग मानते हैं। ऐसी स्थितिमें प्रभो ! हमलोग समझ ही क्या सकते हैं। ब्राह्मण और देवताओंके कल्याणके लिये जो कुछ करना आवश्यक हो, उसका आदेश आप ही दीजिये और आप वैसा स्वयं कर भी लीजिये ॥ १५ ॥

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गुरुवार, 12 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

यथाग्निमेधस्यमृतं च गोषु
     भुव्यन्नमम्बूद्यमने च वृत्तिम् ।
योगैर्मनुष्या अधियन्ति हि त्वां
     गुणेषु बुद्ध्या कवयो वदन्ति ॥ १२ ॥
तं त्वां वयं नाथ समुज्जिहानं
     सरोजनाभातिचिरेप्सितार्थम् ।
दृष्ट्वा गता निर्वृतमद्य सर्वे
     गजा दवार्ता इव गाङ्‌गमम्भः ॥ १३ ॥

जैसे मनुष्य युक्तिके द्वारा लकड़ीसे आग, गौसे अमृतके समान दूध, पृथ्वीसे अन्न तथा जल और व्यापारसे अपनी आजीविका प्राप्त कर लेते हैंवैसे ही विवेकी पुरुष भी अपनी शुद्ध बुद्धिसे भक्तियोग, ज्ञानयोग आदिके द्वारा आपको इन विषयोंमें ही प्राप्त कर लेते हैं और अपनी अनुभूतिके अनुसार आपका वर्णन भी करते हैं ॥ १२ ॥ कमलनाभ ! जिस प्रकार दावाग्नि से झुलसता हुआ हाथी गङ्गाजल में डुबकी लगाकर सुख और शान्ति का अनुभव करने लगता है, वैसे ही आपके आविर्भावसे हमलोग परम सुखी और शान्त हो गये हैं। स्वामी ! हमलोग बहुत दिनोंसे आपके दर्शनोंके लिये अत्यन्त लालायित हो रहे थे ॥ १३ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

त्वय्यग्र आसीत् त्वयि मध्य आसीत्
     त्वय्यन्त आसीत् इदमात्मतंत्रे ।
त्वं आदिरन्तो जगतोऽस्य मध्यं
     घटस्य मृत्स्नेव परः परस्मात् ॥ १० ॥
त्वं माययात्माश्रयया स्वयेदं
     निर्माय विश्वं तदनुप्रविष्टः ।
पश्यन्ति युक्ता मनसा मनीषिणो
     गुणव्यवायेऽप्यगुणं विपश्चितः ॥ ११ ॥

आपमें ही पहले यह जगत् लीन था, मध्यमें भी यह आपमें ही स्थित है और अन्तमें भी यह पुन: आपमें ही लीन हो जायगा। आप स्वयं कार्य-कारणसे परे परम स्वतन्त्र हैं। आप ही इस जगत्के आदि, अन्त और मध्य हैंवैसे ही जैसे घड़ेका आदि, मध्य और अन्त मिट्टी है ॥ १० ॥ आप अपने ही आश्रय रहनेवाली अपनी मायासे इस संसारकी रचना करते हैं और इसमें फिरसे प्रवेश करके अन्तर्यामीके रूपमें विराजमान होते हैं। इसीलिये विवेकी और शास्त्रज्ञ पुरुष बड़ी सावधानीसे अपने मनको एकाग्र करके इन गुणोंकी, विषयोंकी भीड़में भी आपके निर्गुण स्वरूपका ही साक्षात्कार करते हैं ॥ ११ ॥

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बुधवार, 11 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

श्रीब्रह्मोवाच -

अजातजन्मस्थितिसंयमाया
     गुणाय निर्वाणसुखार्णवाय ।
अणोरणिम्नेऽपरिगण्यधाम्ने
     महानुभावाय नमो नमस्ते ॥ ८ ॥
रूपं तवैतत् पुरुषर्षभेज्यं
     श्रेयोऽर्थिभिर्वैदिकतांत्रिकेण ।
योगेन धातः सह नस्त्रिलोकान्
     पश्याम्यमुष्मिन् नु ह विश्वमूर्तौ ॥ ९ ॥

ब्रह्माजीने कहाजो जन्म, स्थिति और प्रलयसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, जो प्राकृत गुणोंसे रहित एवं मोक्षस्वरूप परमानन्दके महान् समुद्र हैं, जो सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म हैं और जिनका स्वरूप अनन्त हैउन परम ऐश्वर्यशाली प्रभुको हमलोग बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ८ ॥ पुरुषोत्तम ! अपना कल्याण चाहनेवाले साधक वेदोक्त एवं पाञ्चरात्रोक्त विधिसे आपके इसी स्वरूपकी उपासना करते हैं। मुझे भी रचनेवाले प्रभो ! आपके इस विश्वमय स्वरूपमें मुझे समस्त देवगणोंके सहित तीनों लोक दिखायी दे रहे हैं ॥ ९ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

श्रीशुक उवाच
एवं स्तुतः सुरगणैः भवान् हरिरीश्वरः ।
तेषां आविरभूद् राजन् सहस्रार्कोदयद्युतिः ॥ १ ॥
तेनैव सहसा सर्वे देवाः प्रतिहतेक्षणाः ।
नापश्यन् खं दिशः क्षौणीं आत्मानं च कुतो विभुम् ॥ २ ॥
विरिञ्चो भगवान् दृष्ट्वा सह शर्वेण तां तनुम् ।
स्वच्छां मरकतश्यामां कञ्जगर्भारुणेक्षणाम् ॥ ३ ॥
तप्तहेमावदातेन लसत्कौशेयवाससा ।
प्रसन्नचारुसर्वांगीं सुमुखीं सुन्दरभ्रुवम् ॥ ४ ॥
महामणिकिरीटेन केयूराभ्यां च भूषिताम् ।
कर्णाभरणनिर्भात कपोलश्रीमुखाम्बुजाम् ॥ ५ ॥
काञ्चीकलापवलय हारनूपुरशोभिताम् ।
कौस्तुभाभरणां लक्ष्मीं बिभ्रतीं वनमालिनीम् ॥ ६ ॥
सुदर्शनादिभिः स्वास्त्रैः मूर्तिमद् भिरुपासिताम् ।
तुष्टाव देवप्रवरः सशर्वः पुरुषं परम्   
सर्वामरगणैः साकं सर्वांगैरवनिं गतैः ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब देवताओंने सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरिकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनके बीचमें ही प्रकट हो गये। उनके शरीरकी प्रभा ऐसी थी, मानो हजारों सूर्य एक साथ ही उग गये हों ॥ १ ॥ भगवान्‌की उस प्रभासे सभी देवताओंकी आँखें चौंधिया गयीं। वे भगवान्‌को तो क्याआकाश, दिशाएँ, पृथ्वी और अपने शरीरको भी न देख सके ॥ २ ॥ केवल भगवान्‌ शङ्कर और ब्रह्माजीने उस छबिका दर्शन किया। बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी। मरकतमणि (पन्ने)के समान स्वच्छ श्यामल शरीर, कमलके भीतरी भागके समान सुकुमार नेत्रोंमें लाल-लाल डोरियाँ और चमकते हुए सुनहले रंगका रेशमी पीताम्बर ! सर्वाङ्गसुन्दर शरीरके रोम- रोमसे प्रसन्नता फूटी पड़ती थी। धनुषके समान टेढ़ी भौंहें और बड़ा ही सुन्दर मुख। सिरपर महा- मणिमय किरीट और भुजाओंमें बाजूबंद। कानोंके झलकते हुए कुण्डलोंकी चमक पडऩेसे कपोल और भी सुन्दर हो उठते थे, जिससे मुखकमल खिल उठता था। कमरमें करधनीकी लडिय़ाँ, हाथोंमें कंगन, गलेमें हार और चरणोंमें नूपुर शोभायमान थे। वक्ष:स्थलपर लक्ष्मी और गलेमें कौस्तुभमणि तथा वनमाला सुशोभित थीं ॥ ३६ ॥ भगवान्‌ के निज अस्त्र सुदर्शन चक्र आदि मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रहे थे। सभी देवताओंने पृथ्वीपर गिरकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया फिर सारे देवताओंको साथ ले शङ्करजी तथा ब्रह्माजी परम पुरुष भगवान्‌की स्तुति करने लगे ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



मंगलवार, 10 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

नावमः कर्मकल्पोऽपि विफलायेश्वरार्पितः ।
कल्पते पुरुषस्यैव स ह्यात्मा दयितो हितः ॥ ४८ ॥
यथा हि स्कन्धशाखानां तरोर्मूलावसेचनम् ।
एवं आराधनं विष्णोः सर्वेषां आत्मनश्च हि ॥ ४९ ॥
नमस्तुभ्यं अनन्ताय दुर्वितर्क्यात्मकर्मणे ।
निर्गुणाय गुणेशाय सत्त्वस्थाय च साम्प्रतम् ॥ ५० ॥

भगवान्‌ को समर्पित किया हुआ छोटे-से-छोटा कर्माभास भी कभी विफल नहीं होता। क्योंकि भगवान्‌ जीव के परम हितैषी, परम प्रियतम और आत्मा ही हैं ॥ ४८ ॥ जैसे वृक्षकी जडक़ो पानीसे सींचना उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं और छोटी-छोटी डालियों को भी सींचना है, वैसे ही सर्वात्मा भगवान्‌ की आराधना सम्पूर्ण प्राणियों की और अपनी भी आराधना है ॥ ४९ ॥ जो तीनों काल और उससे परे भी एकरस स्थित हैं, जिनकी लीलाओंका रहस्य तर्क-वितर्कके परे है, जो स्वयं गुणोंसे परे रहकर भी सब गुणोंके स्वामी हैं तथा इस समय सत्त्वगुणमें स्थित हैंऐसे आपको हम बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे अमृतमथने पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

स त्वं नो दर्शयात्मानं अस्मत् करणगोचरम् ।
प्रपन्नानां दिदृक्षूणां सस्मितं ते मुखाम्बुजम् ॥ ४५ ॥
तैस्तैः स्वेच्छाधृतै रूपैः काले काले स्वयं विभो ।
कर्म दुर्विषहं यन्नो भगवान् तत्करोति हि ॥ ४६ ॥
क्लेशभूर्यल्पसाराणि कर्माणि विफलानि वा ।
देहिनां विषयार्तानां न तथैवार्पितं त्वयि ॥ ४७ ॥


प्रभो ! हम आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त आपका मुखकमल अपने इन्हीं नेत्रोंसे देखें। आप कृपा करके हमें उसका दर्शन कराइये ॥ ४५ ॥
प्रभो ! आप समय-समयपर स्वयं ही अपनी इच्छासे अनेकों रूप धारण करते हैं और जो काम हमारे लिये अत्यन्त कठिन होता है, उसे आप सहजमें ही कर देते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं, आपके लिये इसमें कौन-सी कठिनाई है ॥ ४६ ॥ विषयोंके लोभमें पडक़र जो देहाभिमानी दु:ख भोग रहे हैं, उन्हें कर्म करनेमें परिश्रम और क्लेश तो बहुत अधिक होता है; परंतु फल बहुत कम निकलता है। अधिकांशमें तो उनके विफलता ही हाथ लगती है। परंतु जो कर्म आपको समर्पित किये जाते हैं, उनके करनेके समय ही परम सुख मिलता है। वे स्वयं फलरूप ही हैं ॥ ४७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति स त्...