शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

वामन भगवान्‌ का प्रकट होकर
राजा बलि की यज्ञशाला में पधारना

श्रीशुक उवाच
इत्थं विरिञ्चस्तुतकर्मवीर्यः
प्रादुर्बभूवामृतभूरदित्याम्
चतुर्भुजः शङ्खगदाब्जचक्रः
पिशङ्गवासा नलिनायतेक्षणः ॥ १ ॥
श्यामावदातो झषराजकुण्डल-
त्विषोल्लसच्छ्रीवदनाम्बुजः पुमान्
श्रीवत्सवक्षा बलयाङ्गदोल्लस-
त्किरीटकाञ्चीगुणचारुनूपुरः ॥ २ ॥
मधुव्रातव्रतविघुष्टया स्वया
विराजितः श्रीवनमालया हरिः
प्रजापतेर्वेश्मतमः स्वरोचिषा
विनाशयन्कण्ठनिविष्टकौस्तुभः ॥ ३ ॥
दिशः प्रसेदुः सलिलाशयास्तदा
प्रजाः प्रहृष्टा ऋतवो गुणान्विताः
द्यौरन्तरीक्षं क्षितिरग्निजिह्वा
गावो द्विजाः सञ्जहृषुर्नगाश्च ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार जब ब्रह्माजीने भगवान्‌ की शक्ति और लीलाकी स्तुति की, तब जन्म-मृत्युरहित भगवान्‌ अदिति के सामने प्रकट हुए। भगवान्‌ के चार भुजाएँ थीं; उनमें वे शङ्ख, गदा, कमल और चक्र धारण किये हुए थे। कमलके समान कोमल और बड़े-बड़े नेत्र थे। पीताम्बर शोभायमान हो रहा था ॥ १ ॥ विशुद्ध श्यामवर्णका शरीर था। मकराकृति कुण्डलोंकी कान्तिसे मुख-कमलकी शोभा और भी उल्लसित हो रही थी। वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, हाथोंमें कंगन और भुजाओंमें बाजूबंद, सिरपर किरीट, कमरमें करधनीकी लडिय़ाँ और चरणोंमें सुन्दर नूपुर जगमगा रहे थे ॥ २ ॥ भगवान्‌ गलेमें अपनी स्वरूपभूत वनमाला धारण किये हुए थे, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड भौंरे गुंजार कर रहे थे। उनके कण्ठमें कौस्तुभमणि सुशोभित थी। भगवान्‌की अङ्गकान्तिसे प्रजापति कश्यपजीके घरका अन्धकार नष्ट हो गया ॥ ३ ॥ उस समय दिशाएँ निर्मल हो गयीं। नदी और सरोवरोंका जल स्वच्छ हो गया। प्रजाके हृदयमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी। सब ऋतुएँ एक साथ अपना-अपना गुण प्रकट करने लगीं। स्वर्गलोक, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, देवता, गौ, द्विज और पर्वतइन सबके हृदयमें हर्षका सञ्चार हो गया ॥ ४ ॥

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शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ का प्रकट होकर अदिति को वर देना

श्रीशुक उवाच -
एतावदुक्त्वा भगवान् तत्रैवान्तरधीयत ।
अदितिर्दुर्लभं लब्ध्वा हरेर्जन्मात्मनि प्रभोः ॥ २१ ॥
उपाधावत् पतिं भक्त्या परया कृतकृत्यवत् ।
स वै समाधियोगेन कश्यपस्तदबुध्यत ॥ २२ ॥
प्रविष्टं आत्मनि हरेः अंशं हि अवितथेक्षणः ।
सोऽदित्यां वीर्यमाधत्त तपसा चिरसम्भृतम् ।
समाहितमना राजन् दारुण्यग्निं यथानिलः ॥ २३ ॥
अदितेर्धिष्ठितं गर्भं भगवन्तं सनातनम् ।
हिरण्यगर्भो विज्ञाय समीडे गुह्यनामभिः ॥ २४ ॥

श्रीब्रह्मोवाच -
जयोरुगाय भगवन् उरुक्रम नमोऽस्तु ते ।
नमो ब्रह्मण्यदेवाय त्रिगुणाय नमो नमः ॥ २५ ॥
नमस्ते पृश्निगर्भाय वेदगर्भाय वेधसे ।
त्रिनाभाय त्रिपृष्ठाय शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ २६ ॥
त्वमादिरन्तो भुवनस्य मध्यं
     अनन्तशक्तिं पुरुषं यमाहुः ।
कालो भवानाक्षिपतीश विश्वं
     स्रोतो यथान्तः पतितं गभीरम् ॥ २७ ॥
त्वं वै प्रजानां स्थिरजंगमानां
     प्रजापतीनामसि सम्भविष्णुः ।
दिवौकसां देव दिवश्च्युतानां
     परायणं नौरिव मज्जतोऽप्सु ॥ २८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंइतना कहकर भगवान्‌ वहीं अन्तर्धान हो गये। उस समय अदिति यह जानकर कि स्वयं भगवान्‌ मेरे गर्भसे जन्म लेंगे, अपनी कृतकृत्यताका अनुभव करने लगी। भला, यह कितनी दुर्लभ बात है ! वह बड़े प्रेमसे अपने पतिदेव कश्यपकी सेवा करने लगी। कश्यपजी सत्यदर्शी थे, उनके नेत्रोंसे कोई बात छिपी नहीं रहती थी। अपने समाधि-योगसे उन्होंने जान लिया कि भगवान्‌का अंश मेरे अंदर प्रविष्ट हो गया है। जैसे वायु काठमें अग्रिका आधान करती है, वैसे ही कश्यपजीने समाहित चित्तसे अपनी तपस्याके द्वारा चिर-सञ्चित वीर्यका अदितिमें आधान किया ॥ २१२३ ॥ जब ब्रह्माजीको यह बात मालूम हुई कि अदितिके गर्भमें तो स्वयं अविनाशी भगवान्‌ आये हैं, तब वे भगवान्‌के रहस्यमय नामोंसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ २४ ॥
ब्रह्माजीने कहासमग्र कीर्ति के आश्रय भगवन् ! आपकी जय हो। अनन्त शक्तियोंके अधिष्ठान ! आपके चरणोंमें नमस्कार है। ब्रह्मण्यदेव ! त्रिगुणोंके नियामक ! आपके चरणोंमें मेरे बार-बार प्रणाम हैं ॥ २५ ॥ पृश्नि  के पुत्ररूप में उत्पन्न होनेवाले ! वेदोंके समस्त ज्ञानको अपने अंदर रखनेवाले प्रभो ! वास्तवमें आप ही सबके विधाता हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। ये तीनों लोक आपकी नाभिमें स्थित हैं। तीनों लोकोंसे परे वैकुण्ठमें आप निवास करते हैं। जीवोंके अन्त:करणमें आप सर्वदा विराजमान रहते हैं। ऐसे सर्वव्यापक विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २६ ॥ प्रभो ! आप ही संसारके आदि, अन्त और इसलिये मध्य भी हैं। यही कारण है कि वेद अनन्तशक्ति पुरुषके रूपमें आपका वर्णन करते हैं। जैसे गहरा स्रोत अपने भीतर पड़े हुए तिनकेको बहा ले जाता है, वैसे ही आप कालरूपसे संसारका धाराप्रवाह सञ्चालन करते रहते हैं ॥ २७ ॥ आप चराचर प्रजा और प्रजापतियोंको भी उत्पन्न करनेवाले मूल कारण हैं। देवाधिदेव! जैसे जलमें डूबते हुएके लिये नौका ही सहारा है, वैसे ही स्वर्गसे भगाये हुए देवताओंके लिये एकमात्र आप ही आश्रय हैं ॥ २८ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ का प्रकट होकर अदिति को वर देना

श्रीभगवानुवाच -
देवमातर्भवत्या मे विज्ञातं चिरकांक्षितम् ।
यत् सपत्‍नैः हृतश्रीणां च्यावितानां स्वधामतः ॥ १२ ॥
तान्विनिर्जित्य समरे दुर्मदान् असुरर्षभान् ।
प्रतिलब्धजयश्रीभिः पुत्रैः इच्छसि उपासितुम् ॥ १३ ॥
इन्द्रज्येष्ठैः स्वतनयैः हतानां युधि विद्विषाम् ।
स्त्रियो रुदन्तीरासाद्य द्रष्टुमिच्छसि दुःखिताः ॥ १४ ॥
आत्मजान् सुसमृद्धान् त्व प्रत्याहृतयशःश्रियः ।
नाकपृष्ठं अधिष्ठाय क्रीडतो द्रष्टुमिच्छसि ॥ १५ ॥
प्रायोऽधुना तेऽसुरयूथनाथा
     अपारणीया इति देवि मे मतिः ।
यत्तेऽनुकूलेश्वरविप्रगुप्ता
     न विक्रमस्तत्र सुखं ददाति ॥ १६ ॥
अथाप्युपायो मम देवि चिन्त्यः
     सन्तोषितस्य व्रतचर्यया ते ।
ममार्चनं नार्हति गन्तुमन्यथा
     श्रद्धानुरूपं फलहेतुकत्वात् ॥ १७ ॥
त्वयार्चितश्चाहमपत्यगुप्तये
     पयोव्रतेनानुगुणं समीडितः ।
स्वांशेन पुत्रत्वमुपेत्य ते सुतान्
     गोप्तास्मि मारीचतपस्यधिष्ठितः ॥ १८ ॥
उपधाव पतिं भद्रे प्रजापतिं अकल्मषम् ।
मां च भावयती पत्यौ एवं रूपमवस्थितम् ॥ १९ ॥
नैतत् परस्मा आख्येयं पृष्टयापि कथञ्चन ।
सर्वं संपद्यते देवि देवगुह्यं सुसंवृतम् ॥ २० ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहादेवताओं की जननी अदिति ! तुम्हारी चिरकालीन अभिलाषा को मैं जानता हूँ। शत्रुओंने तुम्हारे पुत्रों की सम्पत्ति छीन ली है, उन्हें उनके लोक (स्वर्ग) से खदेड़ दिया है ॥ १२ ॥ तुम चाहती हो कि युद्धमें तुम्हारे पुत्र उन मतवाले और बली असुरोंको जीतकर विजयलक्ष्मी प्राप्त करें, तब तुम उनके साथ भगवान्‌ की उपासना करो ॥ १३ ॥ तुम्हारी इच्छा यह भी है कि तुम्हारे इन्द्रादि पुत्र जब शत्रुओंको मार डालें, तब तुम उनकी रोती हुई दुखी स्त्रियोंको अपनी आँखों देख सको ॥ १४ ॥ अदिति ! तुम चाहती हो कि तुम्हारे पुत्र धन और शक्तिसे समृद्ध हो जायँ, उनकी कीर्ति और ऐश्वर्य उन्हें फिरसे प्राप्त हो जायँ तथा वे स्वर्गपर अधिकार जमाकर पूर्ववत् विहार करें ॥ १५ ॥ परंतु देवि ! वे असुर-सेनापति इस समय जीते नहीं जा सकते, ऐसा मेरा निश्चय है। क्योंकि ईश्वर और ब्राह्मण इस समय उनके अनुकूल हैं। इस समय उनके साथ यदि लड़ाई छेड़ी जायगी, तो उससे सुख मिलनेकी आशा नहीं है ॥ १६ ॥ फिर भी देवि ! तुम्हारे इस व्रतके अनुष्ठानसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिये मुझे इस सम्बन्धमें कोई-न-कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा। क्योंकि मेरी आराधना व्यर्थ तो होनी नहीं चाहिये। उससे श्रद्धाके अनुसार फल अवश्य मिलता है ॥ १७ ॥ तुमने अपने पुत्रोंकी रक्षाके लिये ही विधिपूर्वक पयोव्रतसे मेरी पूजा एवं स्तुति की है। अत: मैं अंशरूपसे कश्यपके वीर्यमें प्रवेश करूँगा और तुम्हारा पुत्र बनकर तुम्हारी सन्तानकी रक्षा करूँगा ॥ १८ ॥ कल्याणी ! तुम अपने पति कश्यपमें मुझे इसी रूपमें स्थित देखो और उन निष्पाप प्रजापतिकी सेवा करो ॥ १९ ॥ देवि ! देखो, किसीके पूछनेपर भी यह बात दूसरेको मत बतलाना। देवताओंका रहस्य जितना गुप्त रहता है, उतना ही सफल होता है ॥ २० ॥

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गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

हनुमान जी में दास्य भक्ति

जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम

हनुमान जी में दास्य भक्ति

“ सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत |
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त ||”

भगवान् के गुण,तत्व, रहस्य और प्रभाव को जानकर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करना और उनकी आज्ञा का पालन करना दास्य भक्ति है |

मंदिरों में भगवान् के विग्रहों की सेवा करना, मंदिर-मार्जनादी करना, मन से प्रभु के स्वरुप का ध्यान करके उनकी सेवा करना सम्पूर्ण चराचर को प्रभु का स्वरुप समझकर,सब की यथाशक्ति, यथायोग्य सेवा करना, गीता आदि शास्त्रों को भगवान् की आज्ञा मानकर उसके अनुसार आचरण करना और जो कर्म भगवान् की रूचि, प्रसन्नता और इच्छा के अनुकूल हों उन्हीं कर्मों को करना, ये सभी दास्य भक्ति के प्रकार हैं |

भगवान् के रहस्य जानने वाले प्रेमी भक्तों के संग और सेवन से दास्य भक्ति की प्राप्ति होती है |
भगवान् में अनन्य प्रेम की प्राप्ति और नित्य-निरंतर सेवा के लिए भगवान् के समीप रहने के उद्देश्य से दास्य भक्ति की जाती है |
केवल इस दास्य भक्ति से भी मनुष्य को सहज ही भगवान् की प्राप्ति हो जाती है |

गोस्वामी जी तो कहते हैं कि दास्य-भक्ति के बिना भाव-सागर से उद्धार ही नहीं हो सकता ---

“सेवक सेब्य भाव बिनु भाव न तरिअ उरगारि |
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत विचारि ||”

श्री लक्ष्मण, हनुमान, अंगद आदि इस दास्य-भक्ति के आदर्श उदाहरण हैं |

हनुमान जी का तो सारा जीवन ही दास्य-भक्ति से ओत-प्रोत है | प्रथम ही ऋष्यमूक पर्वत पर भगवान् श्रीराम चन्द्र जी को पहचानकर हनुमान जी कहते हैं ------

“एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अज्ञान |
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान् ||”
जदपि नाथ बहु अवगुण मोरे | सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ||
नाथ जीव तव मायाँ मोहा | सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा ||
सेवक सुत पति मातु भरोंसे | रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ||”

भगवान् भी अपनी सेवक वत्सलता का परिचय देते हुए हनुमान जी को उठाकर हृदय से लगा लेते हैं और प्रेमाश्रुओं से उनके अंगों का सिंचन करते हुए कहते हैं ---

“सुनु कपि जियँ मानसी जी ऊना | तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ||
समदरसी मोहि कह सब कोऊ | सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ ||”

दास्य-भक्ति का भक्त अपने स्वामी की कृपा का कितना विश्वासी होता है, इसके सम्बन्ध में हनुमान जी ने विभीषण से जो कुछ कहा वह स्मरण रखने योग्य है –

“सुनहु विभीषण प्रभु कै रीती | करहीं सदा सेवक पर प्रीती ||
कहहु कवन मैं परम कुलीना | कपि चंचल सब विधि हीना ||”
“अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर |
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे विलोचन नीर ||”
मंगल भवन अमंगल हारी | द्रवहुं सो दशरथ अजिर बिहारि ||
जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम !!

(नवधा भक्ति-पुस्तक कोड २९२,गीताप्रेस,गोरखपुर)


श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ का प्रकट होकर अदिति को वर देना

अदितिरुवाच -
यज्ञेश यज्ञपुरुषाच्युत तीर्थपाद
     तीर्थश्रवः श्रवणमंगलनामधेय ।
आपन्नलोकवृजिनोपशमोदयाद्य
     शं नः कृधीश भगवन् असि दीननाथः ॥ ८ ॥
विश्वाय विश्वभवनस्थितिसंयमाय
     स्वैरं गृहीतपुरुशक्तिगुणाय भूम्ने ।
स्वस्थाय शश्वदुपबृंहितपूर्णबोध
     व्यापादितात्मतमसे हरये नमस्ते ॥ ९ ॥
आयुः परं वपुरभीष्टमतुल्यलक्ष्मीः
     द्योभूरसाः सकलयोगगुणास्त्रिवर्गः ।
ज्ञानं च केवलमनन्त भवन्ति तुष्टात्
     त्वत्तो नृणां किमु सपत्‍नजयादिराशीः ॥ १० ॥

श्रीशुक उवाच -
अदित्यैवं स्तुतो राजन् भगवान् पुष्करेक्षणः ।
क्षेत्रज्ञः सर्वभूतानां इति होवाच भारत ॥ ११ ॥

अदितिने कहाआप यज्ञके स्वामी हैं और स्वयं यज्ञ भी आप ही हैं। अच्युत ! आपके चरणकमलोंका आश्रय लेकर लोग भवसागरसे तर जाते हैं। आपके यश-कीर्तनका श्रवण भी संसारसे तारनेवाला है। आपके नामोंके श्रवणमात्रसे ही कल्याण हो जाता है। आदि पुरुष ! जो आपकी शरणमें आ जाता है, उसकी सारी विपत्तियोंका आप नाश कर देते हैं। भगवन् ! आप दीनोंके स्वामी हैं। आप हमारा कल्याण कीजिये ॥ ८ ॥ आप विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके कारण हैं और विश्वरूप भी आप ही हैं। अनन्त होनेपर भी स्वच्छन्दतासे आप अनेक शक्ति और गुणोंको स्वीकार कर लेते हैं। आप सदा अपने स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। नित्य-निरन्तर बढ़ते हुए पूर्ण बोधके द्वारा आप हृदयके अन्धकारको नष्ट करते रहते हैं। भगवन्! मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ ९ ॥ प्रभो! अनन्त! जब आप प्रसन्न हो जाते हैं, तब मनुष्योंको ब्रह्माजीकी दीर्घ आयु, उनके ही समान दिव्य शरीर, प्रत्येक अभीष्ट वस्तु, अतुलित धन, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल, योगकी समस्त सिद्धियाँ, अर्थ-धर्म-कामरूप त्रिवर्ग और केवल ज्ञानतक प्राप्त हो जाता है। फिर शत्रुओंपर विजय प्राप्त करना आदि जो छोटी-छोटी कामनाएँ हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ १० ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब अदितिने इस प्रकार कमलनयन भगवान्‌की स्तुति की, तब समस्त प्राणियोंके हृदयमें रहकर उनकी गति-विधि जाननेवाले भगवान्‌ने यह बात कही ॥ ११ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ का प्रकट होकर अदिति को वर देना

श्रीशुक उवाच -
इत्युक्ता सादिती राजन् स्वभर्त्रा कश्यपेन वै ।
अन्वतिष्ठद् व्रतमिदं द्वादशाहं अतन्द्रिता ॥ १ ॥
चिन्तयन्ति एकया बुद्ध्या महापुरुषमीश्वरम् ।
प्रगृह्येन्द्रियदुष्टाश्वान् मनसा बुद्धिसारथिः ॥ २ ॥
मनश्चैकाग्रया बुद्ध्या भगवति अखिलात्मनि ।
वासुदेवे समाधाय चचार ह पयोव्रतम् ॥ ३ ॥
तस्याः प्रादुरभूत् तात भगवान् आदिपुरुषः ।
पीतवासाश्चतुर्बाहुः शंखचक्रगदाधरः ॥ ४ ॥
तं नेत्रगोचरं वीक्ष्य सहसोत्थाय सादरम् ।
ननाम भुवि कायेन दण्डवत् प्रीतिविह्वला ॥ ५ ॥
सोत्थाय बद्धाञ्जलिरीडितुं स्थिता
     नोत्सेह आनन्दजलाकुलेक्षणा ।
बभूव तूष्णीं पुलकाकुलाकृतिः
     तद् दर्शनात्युत्सवगात्रवेपथुः ॥ ६ ॥
प्रीत्या शनैर्गद्‍गदया गिरा हरिं
     तुष्टाव सा देव्यदितिः कुरूद्वह ।
उद्वीक्षती सा पिबतीव चक्षुषा
     रमापतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम् ॥ ७ ॥

श्रीशुकेदवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अपने पतिदेव महर्षि कश्यपजीका उपदेश प्राप्त करके अदितिने बड़ी सावधानीसे बारह दिनतक इस व्रतका अनुष्ठान किया ॥ १ ॥ बुद्धिको सारथि बनाकर मन की लगाम से उसने इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़ोंको अपने वशमें कर लिया और एकनिष्ठ बुद्धिसे वह पुरुषोत्तम भगवान्‌का चिन्तन करती रही ॥ २ ॥ उसने एकाग्र बुद्धिसे अपने मनको सर्वात्मा भगवान्‌ वासुदेवमें पूर्णरूपसे लगाकर पयोव्रतका अनुष्ठान किया ॥ ३ ॥ तब पुरुषोत्तम भगवान्‌ उसके सामने प्रकट हुए। परीक्षित्‌ ! वे पीताम्बर धारण किये हुए थे, चार भुजाएँ थीं और शङ्ख, चक्र, गदा लिये हुए थे ॥ ४ ॥ अपने नेत्रोंके सामने भगवान्‌को सहसा प्रकट हुए देख अदिति सादर उठ खड़ी हुई और फिर प्रेमसे विह्वल होकर उसने पृथ्वीपर लोटकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया ॥ ५ ॥ फिर उठकर, हाथ जोड़, भगवान्‌की स्तुति करनेकी चेष्टा की; परंतु नेत्रोंमें आनन्दके आँसू उमड़ आये, उससे बोला न गया। सारा शरीर पुलकित हो रहा था, दर्शनके आनन्दोल्लाससे उसके अङ्गोंमें कम्प होने लगा था, वह चुपचाप खड़ी रही ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! देवी अदिति अपने प्रेमपूर्ण नेत्रोंसे लक्ष्मीपति, विश्वपति, यज्ञेश्वर भगवान्‌को इस प्रकार देख रही थी, मानो वह उन्हें पी जायगी। फिर बड़े प्रेमसे, गद्गद वाणीसे, धीरे-धीरे उसने भगवान्‌ की स्तुति की ॥ ७ ॥

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बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश

एतत् पयोव्रतं नाम पुरुषाराधनं परम् ।
पितामहेनाभिहितं मया ते समुदाहृतम् ॥ ५८ ॥
त्वं चानेन महाभागे सम्यक् चीर्णेन केशवम् ।
आत्मना शुद्धभावेन नियतात्मा भजाव्ययम् ॥ ५९ ॥
अयं वै सर्वयज्ञाख्यः सर्वव्रतमिति स्मृतम् ।
तपःसारं इदं भद्रे दानं च ईश्वरतर्पणम् ॥ ६० ॥
ते एव नियमाः साक्षात् ते एव च यमोत्तमाः ।
तपो दानं व्रतं यज्ञो येन तुष्यति अधोक्षजः ॥ ६१ ॥
तस्मात् एतद्व्रतं भद्रे प्रयता श्रद्धयाचर ।
भगवान् परितुष्टस्ते वरानाशु विधास्यति ॥ ६२ ॥

(कश्यपजी अदिति से कहरहे हैं) प्रिये ! यह भगवान्‌ की श्रेष्ठ आराधना है। इसका नाम है पयोव्रत। ब्रह्माजीने मुझे जैसा बताया था, वैसा ही मैंने तुम्हें बता दिया ॥ ५८ ॥ देवि ! तुम भाग्यवती हो। अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके शुद्ध भाव एवं श्रद्धापूर्ण चित्तसे इस व्रतका भलीभाँति अनुष्ठान करो और इसके द्वारा अविनाशी भगवान्‌की आराधना करो ॥ ५९ ॥ कल्याणी ! यह व्रत भगवान्‌को सन्तुष्ट करनेवाला है, इसलिये इसका नाम है सर्वयज्ञऔर सर्वव्रत। यह समस्त तपस्याओंका सार और मुख्य दान है ॥ ६० ॥ जिनसे भगवान्‌ प्रसन्न होंवे ही सच्चे नियम हैं, वे ही उत्तम यम हैं, वे ही वास्तवमें तपस्या, दान, व्रत और यज्ञ हैं ॥ ६१ ॥ इसलिये देवि ! संयम और श्रद्धासे तुम इस व्रतका अनुष्ठान करो। भगवान्‌ शीघ्र ही तुमपर प्रसन्न होंगे और तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगे ॥ ६२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे अदिति पयोव्रतकथनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...